स्नुषाबुद्धिरभूत्तस्यां ज्येष्ठयोरर्जुनस्त्रियाम्। द्रौपद्यां यमलस्यापि मातरीवानुवर्तनम्।।१५०।।
तस्याः श्वसुरबुद्धिस्तु पाण्डाविव तयोरभूत। अर्जुनप्रेमसंरुद्धमौचित्यं देवरद्वये।।१५१।।
अत्यन्तशुद्धवृत्तेषु येऽभ्याख्यानपरायणाः। तेषां तत्प्रभवं पापं को निवारयितुं क्षमः।।१५२।।
सद्भूतस्यापि दोषस्य परकीयस्य भाषणम्। पापहेतुरमोघः स्यादसद्भूतस्य किं पुनः।।१५३।।
प्राकृतानामपि प्रीत्या समानधनता धने। न स्त्रीषु त्रिषु लोकेषु प्रसिद्धनां किमुच्यते ।।१५४।।
महापुरुषकोटीस्थकूटदोषविभाषिणाम्। असतां कथमायाति न जिह्वा शतखण्डताम।।१५५।।
वक्ता श्रोता च पापस्य यन्नात्र फलमश्नुते। तदमोघममुत्रास्य वृद्ध्यर्थमिति बुद्ध्यताम्।।१५६।।
वक्तः श्रोतुश्च सद्बुद्ध्य यथा पुण्यमयी श्रुतिः। श्रेयसे विपरीताय तथ पापमयी श्रुतिः।।१५७।।
द्रौपदी की भी पाण्डु के समान युधिष्ठिर और भीम में श्वसुर बुद्धि थी और सहदेव तथा नकुल इन दोनों देवरों में अर्जुन के प्रेम के अनुरूप उचित बुद्धि थी।।१५१।। गौतमस्वामी कहते हैं कि जो अत्यन्त शुद्ध आचार के धारक मनुष्यों की निन्दा करने में तत्पर रहते हैं उनके उस निन्दा से उत्पन्न हुए पाप का निवारण करने के लिए कौन समर्थ है ?।।१५२।। दूसरे के विद्यमान दोष का कथन करना भी पाप का कारण है। फिर अविद्यमान दोष के कथन करने की तो बात ही क्या है ? वह तो ऐसे पाप का कारण होता है जिसका फल कभी व्यर्थ नहीं जाता-अवश्य ही भोगना पड़ता है।।१५३।। साधारण से साधारण मनुष्यों में प्रीति के कारण यदि समानधनता होती है तो धन के विषय में ही होती है स्त्रियों में नहीं होती। फिर जो तीनों लोकों में प्रसिद्ध हैं उनकी तो बात ही क्या है ?।।१५४।। महापुरुषों की कोटि में स्थित पाण्डवों के मिथ्या दोष कथन करने वाले दुष्टों की जिह्वा के सौ खण्ड क्यों नहीं हो जाते ?।।१५५।। पाप का फल वक्ता औ श्रोता जो इस लोक में उसका फल नहीं प्राप्त कर पाता है वह मानो परलोक में वृद्धि के लिए ही सुरक्षित रहता है एसा समझना चाहिए। भावार्थ-जिस पाप का फल वक्ता और श्रोता को इस जन्म में नहीं मिल पाता है उसका फल परभव में अवश्य मिलता हे और ब्याज के साथ मिलता है।।१५६।। सद्बुद्धि से पुण्यरूप कथाओं का सुनना वक्ता और श्रोता के लिए जिस प्रकार कल्याण का कारण माना गया है उसी प्रकार पापरूप कथाओं का सुनना उनके लिए अकल्याण का कारण माना गया है।।१५७।।
(हरिवंशपुराण, सर्ग—४५ पृ. ५४९)