आचार्य शांतिसागर महाराज इसी मूलसंघ के कुन्दकुन्दान्वय में नंदिसंघ है। उसका सरस्वतीगच्छ और बलात्कारगण सर्वत्र अपनी प्रसिद्धि से व्याप्त हो रहा है। इसी परम्परा में आचार्य शांतिसागर जी महाराज हुए हैं। दक्षिण भारत में बेलगांव जिले के अन्तर्गत भोजग्राम है। उसके समीप लगभग चार मील की दूरी पर येळगुळ ग्राम में आषाढ़ कृष्ण ६ विक्रम सं. १९२९, सन् १८७२ में बुधवार को इनका जन्म हुआ है। यह ग्राम भोजग्राम के अन्तर्गत होने से भोजग्राम ही इनकी जन्मभूमि नाम से प्रसिद्ध है। इनका जन्म मामा के घर में हुआ था।
क्षत्रियवंशी भीमगौंडा पाटील की धर्मपत्नी सत्यवती से इनका जन्म हुआ है। इनकी जाति चतुर्थ जैन थी। इनका नाम सातगौंडा था। लगभग ४१ वर्ष की अवस्था में आपने उत्तूर ग्राम में देवेन्द्रकीर्ति महाराज के पास ज्येष्ठ शुक्ला १३, विक्रम सं. १९७० में सन् १९१३ में क्षुल्लक दीक्षा ग्रहण की। गिरनार जी में वि.सं. १९७४ सन् १९१७ में ऐलक दीक्षा ले ली। अनन्तर यरनाल (महाराष्ट्र) में पंचकल्याणक प्रतिष्ठा के अवसर पर आपने वि. सं. १९७६ सन् १९२० फाल्गुन सुदी १३ को देवेन्द्रकीर्ति गुरु से मुनि दीक्षा ग्रहण की। समडोली में आपने श्रमण संघ्ज्ञ का निर्माण किया, उसके कारण चतु:संघ समुदाय ने आपको आचार्यपरमेष्ठी के रूप में पूजना शुरू किया।
आश्विन शुक्ला ११ वी. सं. १९८१ में आप आचार्य पट्ट पर विभूषित हुए हैं। मगसिर वदी १ वि. सं. १९८४ ईसवी सन् १९२७ को आपने सम्मेदशिखर की यात्रा के लिए चतुर्विध संघ सहित विहार किया। विक्रम सं. २०१२ सन् १९५३ भाद्रपद सुदी २ को कुंथलगिरि सिद्धक्षेत्र पर आपकी समाधि हुई है। इस वर्तमान समय में निर्दोष मुनिचर्या को पालन करते हुए ३५ वर्ष के मुनि जीवन में आपने जैन समाज पर कितना उपकार किया है सो कल्पना से परे है। वास्तव में आपने मुनिचर्या को तो पुनरुज्जीवित ही किया है।
यद्यपि दक्षिण में एक दो मुनि अवश्य थे लेकिन उनकी चर्या में कुछ शिथिलता आ गई थी। आपने मूलाचार आदि ग्रंथों के स्वाध्याय के बल पर सच्चे दिगम्बर मुनि के स्वरूप का सभी को भान करा दिया। दक्षिण में आपने जैनों से मिथ्यात्व का त्याग कराये, तब लोगों ने गाड़ी में कुदेवों को भर-भर नदी में विसर्जित किया है। आपकी प्रेरणा से कुंथलगिरि में देशभूषण कुलभूषण केवली भगवान के बिम्ब स्थापित हुए। कुंभोज में बाहुबलि भगवान की मूर्ति स्थापित हुई और भी अनेकों स्थल पर जिनप्रतिमाएँ स्थापित हुर्इं। आपने धवल, जयधवल और महाधवल ग्रंथों को ताम्रपत्र पर उत्कीर्ण करने की प्रेरणा दी, जो कि आज फलटन में सरस्वती भवन में विराजमान हैं।
आपकी प्रेरणा से ‘दि. जैन जिनवाणी जीर्णोद्धारक संस्था’ का उदय होकर धवला आदि ग्रंथ मुद्रित हुए। आपने अनेकों मुनियों को जन्म दिया, आर्यिकाएँ बनार्इं, क्षुल्लक और क्षुल्लिका दीक्षाएं दीं। तमाम ब्रह्मचारी, व्रतप्रतिमा आदि श्रावक बने। लाखों भव्यजीावें ने शुद्ध खान-पान का नियम लेकर श्रावकोचित मर्यादा का पालन किया है। ‘‘सम्मेदशिखर यात्रा के समय लगभग दो सौ नर-नारियों, साधु-साध्वियों से समलंकृत आपका संघ विशाल था। आपके संघ में मुनि वीरसागर, नेमिसागर और अनन्तकीर्ति जी थे। ऐलक, क्षुल्लक और क्षुल्लिकाएँ भी थीं। ब्रह्मचारी, ब्रह्मचारिणीगण भी थे।’’ इस यात्रा के निमित्त से उत्तर प्रान्त में भ्रमण करके आपने जैनधर्म की अपूर्व-प्रभावना की है।
इस युग में आप साधु मार्ग के धुरंधर हुए हैं। यही कारण है कि चतुर्विध संघ ने आपको ‘‘चारित्रचक्रवर्ती’ शब्द से सम्बोधित कर अपनी गुणज्ञता प्रगट की थी’’ ‘‘सन् १९४७ में बम्बई सरकार ने हरिजनों के उद्धार हेतु हरिजन मंदिर प्रवेश कानून बनाया। उस समय धर्म की रक्षा हेतु आपने प्रतिज्ञा कर ली कि ‘‘जब तक पूर्वोक्त बम्बई कानून से आई हुई विपत्ति जैनधर्म के आयतनों-जिनमंदिरों से दूर नहीं होती है, तब तक मैं अन्न ग्रहण नहीं करूँगा।’’ इस प्रसंग में तमाम जैनियों ने यथाशक्ति त्याग और पुरुषार्थ किया। अन्ततोगत्वा धर्म की विजय हुई।
आचार्य श्री ने बारामती के चातुर्मास में १६ अगस्त १९५१ के रक्षाबंधन के पावन दिवस अन्न का आहार ग्रहण किया। ११०५ दिनों के पश्चात् आचार्यश्री ने अन्न का आहार ग्रहण किया था। समाज में उस समय के हर्ष का वातावरण कोई एक विलक्षण ही था। आपने अपने साधु जीवन में ३५००० मील का पैदल विहार किया है। एक बार करपात्र में आहार लेते हुए भी इतना मनोबल और कायबल आश्चर्य को उत्पन्न कर देता है और क्या साधु जीवन में आपने कितने उपवास किये हैं और कितने आहार इसका विवरण तो सामान्य मानव को चकित कर देता है। आप स्पष्ट में ‘तपोधन’ ही थे।१’’ सन् १९२० में निर्र्ग्रन्थ दीक्षा लेकर १९५५ तक के वर्षों में आपने १९३८ उपवास किये हैं। अर्थात् आपके ३५ वर्ष के मुनि जीवन में २५ वर्ष ७ मास अनशन में बीते हैं और ९ वर्ष ५ माह आपने आहार लिया है।’’
उपवासों का विवरण
उपवास बार कुल दिन १. १६ दिन का ३ बार ४८ दिन २. १० दिन का १ बार १० दिन ३. ९ दिन का ६ बार ५४ दिन ४. ८ दिन का ७ बार ५६ दिन ५. ७ दिन का ६ बार ४२ दिन ६. ६ दिन का ६ बार ३६ दिन ७. ५ दिन का ६ बार ३० दिन ८. ४ दिन का ६ बार २४ दिन ९. अंतिम ३६ दिन १ बार ३६ दिन योग-३३६
नाम व्रत संख्या
१. चारित्रशुद्धि १२३४ २. तीस चौबीसी ७२० ३. कर्मदहन (३ बार) ४६८ ४. सिंहनिष्क्रीडित (३ बार) २७० ५. सोलहकारण (१६/१६) २५६ ६. श्रुतपंचमी ३६ ७. विहरमान बीस तीर्थंकर व्रत २० ८. दशलक्षण १० ९. सिद्धों के व्रत ८ १०. आष्टान्हिक व्रत ८ ११. गणधरों के व्रत २०० १२. अतिरिक्त व्रत ६३७२ कुल योग-९६०२ (३३६±९६०२·९९३८) गणधरों के १४५२ उपवास होते हैं। आचार्य महाराज १२०० ही कर पाये। आपको जिनेन्द्रदेव के पंचामृताभिषेक को देखने की बहुत ही रुचि थी। सल्लेखना के प्रसंग पर कुंथलगिरि में आप प्रात: ९ बजे के लगभग वेदी
में बैठकर बड़ी रुचि से अभिषेक देखते थे। उस समय मैंने स्वयं वहाँ रहकर आचार्यश्री की भक्ति का अवलोकन किया है। ‘‘आपके गुरु देवेन्द्रकीर्ति जो १०५ वर्ष तक जीवित रहे हैं और वे भी तपस्या की मूर्ति थे। वे हमेशा एक उपवास और एक पारणा से आहार करते थे। उन्होंने १६ वर्ष की अवस्था में मुनिपद धारण किया था, बालब्रह्मचारी थे।’’
आगम का ज्ञान अल्प होने से उनकी चर्या जो कुछ शिथिल थी, आचार्यश्री की दृढ़चर्या का अवलोकन कर उन्होंने उनके पास अपनी चर्या का संशोधन किया था। ५२ वर्ष की आयु में आचार्यश्री ने आचार्य पद को प्राप्त किया था और ३२ वर्ष तक कुशलतापूर्वक अपना उत्तरदायित्व निभाते हुए २४ अगस्त को अपने आचार्यपद का त्याग किया है और अपनी आज्ञा से अपने प्रथम दिगम्बर शिष्य वीरसागर को आचार्यपट्ट का समाचार भेजा, चूँकि उस समय श्री वीरसागर जी महाराज जयपुर (राजस्थान) में खानिया में ससंघ चातुर्मास कर रहे थे।
आचार्य वीरसागर महाराज
हैदराबाद राज्य के अन्तर्गत औरंगाबाद नाम का शहर है। उसी जिले में ‘ईर’ नाम का एक गाँव है। खंडेलवाल जातीय और गंगवाल गोत्रीय रामसुख सेठ की भार्या का नाम ‘भागूबाई’ था। इन दम्पत्ति के विक्रम सं. १९३३ सन् १८७६ में आषाढ़ सुदी पूर्णिमा को पुत्ररत्न का जन्म हुआ, जिसका नाम हीरालाल रखा गया था। हीरालाल ने वि.सं. १९७८ में ऐलक पन्नालाल से सप्तम प्रतिमा ली थी। वि.सं. १९७९ सन् १९२२ में कोन्नूर ग्राम में पहुँचकर ब्रह्मचारी खुशालचन्द्र के साथ आचार्यश्री शांतिसागर के दर्शन करके वि.सं. १९८० में उभय ब्रह्मचारी गुरुदेव से क्षुल्लक दीक्षा ग्रहण कर ली।
तब आपका नाम वीरसागर और ब्र. खुशालचन्द्र का नाम चन्द्रसागर रखा गया। वि. सं. १९८१, सन् १९२४ में समडोली नगर में आपने मुनि दीक्षा ले ली। आपने गुरु के साथ १२ चातुर्मास किये। अनन्तर गुरु की आज्ञा से मुनि आदिसागर को लेकर विहार करते हुए राजस्थान में आ गये। आपने अपना विशाल संघ बनाया। मुनि, आर्यिका, क्षुल्लक, क्षुल्लिका और ब्रह्मचारी, ब्रह्मचारिणीगणों से आपका चतुर्विध संघ इस युग में भारत में सबसे अधिक विशाल प्रसिद्ध हो गया। सन् १९५५ में आचार्यश्री शांतिसागर जी ने आपको अपना उत्तराधिकारी आचार्य घोषित किया।
आप इतने बड़े संघ के नायक होते हुए भी परमनि:स्पृह और लोवैषण से बहुत दूर थे। आर्यिकाओं के ऊपर अनुग्रह करने में आप मातृवत् परम करुणा की निधि थे। सम्पूर्ण संघ को अपने वात्सल्य से सिंचित् करके उन्हें सदैव यही शिक्षा दी थी कि ‘‘सुई का काम करो, केची का नहीं’’ यही कारण था कि आपके श्रीचरणों को छोड़कर कोई भी शिष्य कहीं जाना नहीं चाहता था। आचार्य श्री शांतिसागर की आज्ञा से ही मैंने भी आपके करकमलों से महाव्रत की आर्यिका दीक्षा प्राप्त कर अपना जन्म कृतार्थ किया है। वि.सं. २०१४ आश्विन कृष्णा अमावस्या के दिन आचार्यश्री महावीरकीर्ति महाराज और चतुर्विध संघ के समक्ष खानिया (जयपुर) में आपकी समाधि हुई है। आप इस युग में एक कुशल आचार्य हुए हैं।
आचार्य शिवसागर महाराज
हैदराबाद स्टेट के अन्तर्गत औरंगाबाद जिला में ‘अडगाँव’ नामक छोटा सा एक गाँव है। वहाँ के खण्डेलवालजातीय, रांवका गोत्रीय सेठ नेमिचन्द्र की पत्नी ‘दगड़ाबाई’ से आपका जन्म विक्रम सं. १९५८ में हुआ था। आपने फाल्गुन शुक्ला ५ वि.सं. २००० में सिद्धवरकूट सिद्धक्षेत्र में आचार्य वीरसागर जी से क्षुल्लिका दीक्षा ग्रहण की। पुन: आषाढ़ शु. ११, वि.सं. २००६ में नागौर (राज.) में मुनि दीक्षा ग्रहण की। आप मुनियों में वीरसागर जी के प्रथम शिष्य थे। आचार्य श्री वीरसागर जी के समाधि के अनन्तर कार्तिक शु. ११, वि.सं. २०१४ में आप आचार्य पट्ट पर आसीन हुए।
लगभग ११ वर्ष तक आपने वात्सल्य और अनुशासन के साथ अपने गुरु के संघ का परिपालन किया। अनेकों दीक्षाएँ देकर संघ में वृद्धि की और कुशलता से संघ पर अनुशासन किया। आपकी प्रेरणा से अतिशय क्षेत्र महावीर जी में शांतिवीरनगर के प्रांगण में ३१ फुट ऊँची शांतिनाथ भगवान की पंचकल्याणक प्रतिष्ठा होने का आयोजन चल रहा था। आप ससंघ वहाँ पधार चुके थे। किन्तु अकस्मात् प्रतिष्ठा के पूर्व ही आप समाधि को प्राप्त हो गये। वि.सं. २०२५ फाल्गुन कृष्णा के दिन आप स्वर्गस्थ हुए हैं। आपका अनुशासन और वात्सल्य आज भी साधुओं के हृदय में अंकित है जो कि भविष्य के लिए प्रेरणास्रोत है।
आचार्य धर्मसागर महाराज
आप आचार्य वीरसागर जी के शिष्यों में द्वितीय मुनि हैं। आप आचार्य वीरसागर जी की समाधि के कुछ दिन बाद पृथक् विहार कर गये थे। सो उस पंचकल्याणक महोत्सव पर अपने संघ सहित वहँ आये हुए थे। आचार्य शिवसागर जी के बाद चतुर्विध संघ ने आपको आचार्य पट्ट प्रदान किया। जयपुर राज्य के अन्तर्गत ‘‘घमेरा’’ नाम के ग्राम में खण्डेलवाल जातीय, छावड़ागोत्रीय सेठ बस्तावरमल की पत्नी उमराव बाई की कुक्षि से वि.सं. १९७० में आपने जन्म लिया था। आपका नाम चिरंजीलाल रखा गया। इंदौर में आपने आचार्य कल्प वीरसागर के दर्शन करके द्वितीय प्रतिमा के व्रत ले लिये। पुन: चन्द्रसागर मुनि के दर्शन करके उनसे सप्तम प्रतिमा के व्रत लेकर संघ में ही रहने लगे।
बालूज (महाराष्ट्र) में चैत्र शु. ७, वि.सं. २००० में क्षुल्लक दीक्षा ले ली। फाल्गुन शु. १५ वि.सं. २००१ में बड़वानी सिद्धक्षेत्र में चन्द्रसागर जी महाराज की असमय में समाधि हो गई। तब आप आचार्य कल्प वीरसागर जी के संघ में आ गये। वि.सं. २००८, वैशाख में पंचकल्याणक प्रतिष्ठा के अवसर पर आपने आचार्य वीरसागर जी से ऐलक दीक्षा ले ली और यहीं पर चातुर्मास के अन्त में कार्तिक शु. १४, वि.सं. २००८ में ही मुनि दीक्षा ले ली।
महावीर जी अतिशय क्षेत्र में फाल्गुन शु. ८, वि.सं. २०२५ में आपको आचार्य पट्ट प्राप्त हुआ है। वि.सं. २०३१ सन् १९७४ में भगवान महावीर स्वामी का २५००वाँ निर्वाण महोत्सव राष्ट्रीय स्तर पर मनाने के सुअवसर पर दि. जैन सम्प्रदाय के आचार्र्योें में आपको प्रमुख माना गया। हमारी भावना और पुरुषार्थ दोनों सफल हुए और आप ससंघ भारत की राजधानी दिल्ली में पधारें। आचार्यरत्न देशभूषण जी भी ससंघ दिल्ली में विराजमान थे और विद्यानंद मुनि भी विद्यमान थे। दो आचार्य, एक उपाध्याय, २२ मुनि ऐसे २५ दिगम्बर मुनि अनेक आर्यिकाओं, क्षुल्लक और क्षुल्लिकाओं के एक मंच पर दर्शन करके जैन जनता कृतार्थ हो गई थी और अजैन जनता ने भी आश्चर्य से देखा था।
भगवान महावीर स्वामी के दीक्षा दिवस मगसिर वदी १०, सन् १९४७ में यह कतिपय मुनि और आर्यिका दीक्षा का आयोजन दरियागंज, दिल्ली (महावीर वाटिका) के प्रांगण में हुआ था। उसी समय आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज ने अपने शिष्य विद्यानंद को उपाध्याय पद दिया था और अपनी शिष्या (क्षुल्लिका) के गुरु आपने उसी समय आर्यिका ज्ञानमती को न्याय प्रभाकर और आर्यिका रत्न पद से सम्बोधित करते हुए नवीन पिच्छिका और शास्त्र प्रदान किये थे। इस प्रकार आचार्य धर्मसागर जी अपने संघ का संचालन करते हुए अपनी नि:स्पृह दैगम्बरी चर्या से चतुर्थकाल के समान जनता को आल्हादित करते हुए और जैनधर्म की प्रभावना करते हुए विचरण कर रहे हैं।
इस प्रकार मूलसंघ के अन्तर्गत कुन्दकुन्दाम्नाय में नंदिसंघ, बलात्कारगण और सरस्वतीगच्छ की परम्परा में वि.सं. १९८१, आश्विन शु. ११ को श्री शांतिसागर जी आचार्य पट्ट पर आसीन हुए। वि.सं. २०१२, भाद्रपद में वीरसागर जी आचार्य पट्ट पर बैठे। वि.सं. २०१४ कार्तिक शु. ११ को शिवसागर को आचार्य पट्ट मिला और वि.सं. २०२५, फाल्गुन शु. ८ को धर्मसागर जी उस पट्ट पर आसीन हुए। इस तरह ३२ वर्ष तक शांतिसागर जी आचार्य रहे, २ वर्ष तक वीरसागर आचार्य रहे और ११ वर्ष तक शिवसागर आचार्य रहे हैं। अभी ९ वर्ष से धर्मसागर जी महाराज आचार्य पद का उत्तरदायित्व संभाल रहे हैं। आप चिरकाल तक धर्म की प्रभावना करते रहें, यही हमारी भावना है।
आचार्य देशभूषण महाराज
बेलगाँव (मैसूर राज्य) कर्नाटक जिले के अन्तर्गत कोथली ग्राम में आपका जन्म मगसिर सुदी २, वि.सं. १९६२ में हुआ था। पिता श्री सत्यगौंडा पाटिल और माता अक्कादेवी ने प्रिय पुत्र का नाम बालगोंडा रखा था। रामटेक में आचार्य श्री जयकीर्ति महाराज ने आपको क्षुल्लक दीक्षा दी। अनन्तर ऐलक दीक्षा हुई। कुंथलगिरि में आचार्य श्री जयकीर्ति के द्वारा ही आपकी मुनि दीक्षा हुई है। सूरत की समाज ने आचार्यश्री पायसागर से स्वीकृति प्राप्त कर आपको आचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया। दिल्ली की विशाल जैन जनता ने आपको आचार्यरत्न कहकर आदर भाव व्यक्त किया। आपने जयपुर खानिया में पर्वत के ऊपर चौबीस तीर्थंकरों की प्रतिमा और मध्य में पाश्र्वनाथ की प्रतिमा प्रतिष्ठित कराकर उस पर्वत को चूलगिरि नाम से पवित्र तीर्थ बना दिया है। अभी तक २१ फुट की विशाल प्रतिमा वहाँ खड़ी की जा चुकी है।
अयोध्या में आपने २१ फुट की विशालकाय प्रतिमा विराजमान कराके अयोध्या तीर्थ को पुनरुज्जीवन प्रदान किया है। निर्वाणोत्सव में अनेकों ग्रंथ लिखकर उन्हें मुद्रित कराकर समाज को एक अनुपम निधि दी है। आपके द्वारा ही क्षुल्लिका दीक्षा प्राप्त कर मैंने अपने जीवन में रत्नत्रय को विकसित किया है। आप इस पृथ्वीतल पर चिरकाल तक जयशील रहें। आचार्य शांतिसागर जी की परम्परा में उनके शिष्य नमिसागर, सुधर्मसागर और कुंथुसागर भी आचार्यपद से विभूषित होकर जनहित के लिए बहुत कुछ कार्य कर चुके हैं। आचार्यकल्प चन्द्रसागर ने भी सिंहवृत्ति से भारत में एक क्रांति उत्पन्न कर दी थी।