नाम के अनुरूप अपने कर्तव्य का पालन करने वाले रवीन्द्रकीर्ति स्वामी जी की कीर्ति वास्तव में सूर्य की रश्मियों के समान पृथ्वीतल को आलोकित करने वाली है।
हम एक हजार वर्ष पूर्व के मातृभक्त चामुण्डराय महामात्य का नाम सुनते हैं, जिन्होंने भगवान बाहुबली की ५७ फुट उत्तुंग प्रतिमा का निर्माण करवाकर माता के संकल्प को पूर्णता प्रदान की थी।
हम चन्द्रगुप्त महामुनिराज का कथानक पढ़ते हैं जिन्होंने अपने गुरुदेव श्री भद्रबाहु श्रुतकेवली आचार्य महामुनि के चरणों की ऐसी नि:स्वार्थ सेवा की थी, जिसके फलस्वरूप देवताओं ने भी परोक्षरूप में उनकी सहायता करते हुए निर्जन जंगल में नगरी बसाकर १२ वर्षों तक उन्हें मनुष्यरूप में नवधाभक्ति करके आहार प्रदान किया था।
यद्यपि यह बात ज्ञात हो जाने के बाद चन्द्रगुप्त मुनिराज ने प्रायश्चित्त ग्रहण किया था, क्योंकि दिगम्बर जैन साधु-साध्वी देवों के हाथ से भोजन नहीं ग्रहण करते हैं।
फिर भी गुरुभक्ति में चन्द्रगुप्त का नाम सर्वोपर सुना जाता है। मेरा अभिप्राय यहाँ यह है कि संसार में माता, पिता एवं गुरु के प्रति सच्ची निष्ठापूर्वक कर्तव्य निभाने वाला व्यक्ति वास्तव में सर्वाधिक महान होता है।
पुनश्च जो मोक्षमार्ग के प्रति रुचि उत्पन्न करने वाले सच्चे गुरु होते हैं, उनमें माता-पिता एवं गुरु तीनों का रूप सहज में देखा जाता है, उनके प्रति किया गया समर्पण शिष्य के लिए तीनों की आराधना का फल प्रदान करने वाला हो जाता है।
जम्बूद्वीप धर्मपीठ के नूतन पीठाधीश स्वस्तिश्री रवीन्द्रकीर्ति स्वामी जी की जीवनशैली पूर्णरूपेण गुरुभक्ति का उदाहरण प्रस्तुत करके उपर्युक्त महानुभावों के आदर्शों को उपस्थित कर रही है, यही उनके व्यक्तित्व के निखार का सबसे बड़ा चमत्कार है। घर में माता-पिता के ४ पुत्रों में सबसे छोटे पुत्र के रूप में जन्में रवीन्द्र कुमार के प्रति पिता का अतीव स्नेह था।
वे इन्हें अपने से दूर १ दिन भी नहीं रखना चाहते थे किन्तु गाँव में उच्च शिक्षा के साधनों का अभाव होने के कारण ये लखनऊ विश्वविद्यालय में स्नातक की पढ़ाई करने हेतु दो वर्ष लखनऊ में रहे।
इनकी सरलता, सहजता, मितव्ययिता, व्यसन मुक्त जीवन जीने की शैली, कर्तव्य परायणता एवं समयसूचकता, शांत प्रवृत्ति आदि नैसर्गिक क्षमताओं ने इन्हें सबका प्रिय बनाने में सर्वथा साथ दिया, यही कारण रहा कि विश्वविद्यालय की एक दिन की भी छुट्टी होने पर रवीन्द्र जी सीधे घर आते और पिताजी को अपने मधुर व्यवहार, क्रियाकलाप एवं सेवाओं से संतुष्ट कर देते थे।
अपनी सेवा भावना तथा पिताजी के पुत्रवात्सल्य का ही प्रभाव रहा कि पिता के स्वर्गवास से २-४ दिन पूर्व ही रवीन्द्रकुमार बड़े दिन की सरकारी छुट्टी में घर आ गये थे, इन्होंने पिता की खूब सेवा करके उन्हें पूर्ण सन्तुष्ट किया तथा २५ दिसम्बर १९६९ को उनके समाधिमरण के समय णमोकार महामंत्र सुनाकर अपने पुत्रकर्तव्य को पूर्ण किया।
इसी प्रकार माता के प्रति भी इनकी पूर्ण निष्ठा रही। माता मोहिनी चूँकि सन् १९७१ में आर्यिका दीक्षा लेकर रत्नमती माताजी बन गई थीं और रवीन्द्र जी भी आजन्म ब्रह्मचर्य व्रत लेकर संघ में ही रहते थे अत: हमेशा उनकी अनुकूल वैय्यावृत्ति-आहार, औषधि आदि के द्वारा करते हुए अंतिम समाधिमरण तक पूरी तत्परता के साथ समाधिमरण आदि पाठ सुनाकर अपने कर्तव्य का निर्वाह किया।
इन सबके साथ-साथ पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी के प्रति माता-पिता एवं गुरु तीनों का भाव इनके लिए सदैव वरदानरूप में सिद्ध हुआ। जैसा कि आचार्य श्री कुन्दकुन्ददेव ने कहा है-‘‘आइरिय पसाएण य, विज्जा मंता य सिज्झंति।’’ अर्थात् आचार्य भगवन्त की कृपा प्रसाद से अनेक विद्या और मंत्र सिद्ध हो जाते हैं।
इसका तात्पर्य यह है कि गुरुओं की वैयावृत्ति, उनकी अनुवूâलता व उनके प्रति कर्तव्य का पालन करने वाले शिष्य भौतिक विद्या, शास्त्रज्ञान और आध्यात्मिक उन्नति करके मोक्षपद तक को प्राप्त कर लेते हैं। यहाँ सर्वांगीण योग्यता के धनी, रवीन्द्रकुमार से रवीन्द्रकीर्ति पद तक पहुँचने वाले व्यक्ति का जीवन गुरुछाया में दीर्घकाल तक व्यतीत होने का एक ही राज है-समर्पण। जिनके मन में अपना अलग अस्तित्व बनाने का कभी भाव भी नहीं आया।
ऐसे अलौकिक व्यक्तित्व के धनी श्री रवीन्द्रकीर्ति पीठाधीश स्वामी जी के लिए मेरी अनन्तश: शुभकामनाएँ हैं और भगवान जिनेन्द्र से यही प्रार्थना है कि जिस तरह से आपने पूज्य गणिनी माताजी की प्रेरणा को अपना संबल बनाकर अनेक तीर्थों को विकसित/निर्मित किया है, उसी प्रकार संसार का सर्वोच्च १०८ फुट उत्तुंग भगवान् ऋषभदेव की प्रतिमा का निर्माण कार्य आपके अध्यक्षीय कर्मठ निर्देशन में शीघ्र सम्पन्न हो और हम सभी लोग उस अप्रतिम प्रतिमा का दर्शन कर अपने जन्म को सफल करें।
सम्यग्ज्ञान मासिक पत्रिका का यह विशेषांक उन रवीन्द्रकीर्ति स्वामी जी के पीठाधीश पदारोहण की झलकियाँ लेकर प्रस्तुत है इसमें प्रबंध सम्पादक जीवन प्रकाश जी ने अथक परिश्रमपूर्वक जो सामग्री तैयार की है, वह नि:संदेह सुन्दर और पठनीय है।
एक नवोदित युवक ने स्वामी जी को अपना आदर्श बनाकर जो भावाभिव्यक्ति प्रस्तुत की है, वह उसके उज्जवल भविष्य के लिए आदर्श बने, यही मंगल आशीर्वाद है।