अश्वपुर नगर के राजा वङ्कावीर्य की पट्टरानी विजया देवी अपने राजमहल में सुखपूर्वक निद्रा में मग्न हैं, उषाकाल की लालिमा पूर्व दिशा में खिलने वाली है। सखियाँ प्रभाती गा रही हैं और वीणा की मधुर ध्वनि के साथ प्रभु का मधुर गुणस्तवन करते हुए रानी विजयादेवी को निद्रा से जगाने का प्रयास कर रही हैं-
सखियाँ-उठो मात! खिल रही है उषा, तीर्थ वन्दना स्तवन करो।
श्री जिनगुण स्तवन उचारो, श्री जिनवर को नमन करो।।
(विजया देवी स्वच्छ चादर को अपने ऊपर से हटाती हैं और महामंत्र का स्मरण करते हुए उठकर पूर्व दिशा की ओर मुख करके कुछ क्षण ध्यान मुद्रा में बैठ जाती हैं)
(दोनों हाथों को जोड़कर जिनेन्द्र भगवान को नमन करते हुए स्तुति पढ़ती हैं)
(स्तुति)
जिनने तीन लोक त्रैकालिक, सकल वस्तु को देख लिया। लोकालोक प्रकाशी ज्ञानी, युगपत् सबको जान लिया।। राग द्वेष, जर, मरण, भयावह, नहिं जिनका संस्पर्श करें। अक्षय सुखपद के वे नेता, जग में मंगल सदा करें।।
पुन: प्रसन्न मुद्रा में अपनी सखियों की ओर देखती हैं, तब सखियाँ पूछती हैं-
एक सखी – महारानी जी! आज आप बहुत प्रसन्न दिखाई दे रही हैं, क्या कोई विशेष कारण है?
दूसरी सखी – हाँ माते! आप तो नित्य की भाँति ही आज निद्रा का त्याग कर रही हैं फिर आज इतनी प्रसन्न! हमें भी बताइये उसका कारण।
तीसरी सखी – लगता है रानी माँ ने कोई सुन्दर सा सपना देखा है। चौथी सखी – हाँ! मुझे भी ऐसा ही लगता है कि आप हमें कोई अच्छी सी खुशखबरी सुनाने वाली हैं।
महारानी जी – हाँ, हाँ सखियों! आज मैं बहुत ही अधिक प्रसन्न हूँ और इसका कारण है कि मैंने आज बहुत सुन्दर-सुन्दर सपने देखे हैं।
पाँचवी सखी – माता! हमें भी बताइये ना कि वे स्वप्न क्या हैं? महारानी – सखियों! इतना अधीर मत होवो। स्नान आदि से निवृत्त होकर अभी राजसभा में चलूँगी, वहीं महाराज से उन स्वप्नों का फल पूछूँगी तभी तुम सब भी सुन लेना।(महारानी प्रभातकालीन क्रियाओं से निवृत्त होकर राजसभा में जाती हैं)
-दूसरा दृश्य-
(महारानी अपनी सखियों के साथ राजदरबार में प्रवेश करने को उद्यत हैं) (राजदरबार का दृश्य) (महाराज दरबार में अपने सभासदों के साथ आसीन हैं)-राजनर्तकी द्वारा नृत्य-द्वारपाल – महाराज की जय हो। महारानी विजया की जय हो। सावधान! महारानी विजया अपनी सखियों सहित राजदरबार में पधार रही हैं। (महारानी राजदरबार में प्रवेश करके महाराज वङ्कावीर्य नरेन्द्र का यथायोग्य अभिवादन करती हैं)
महारानी – प्रणाम महाराज! सखियाँ – हम सबका प्रणाम स्वीकार करें प्रजापालक।
महाराज –आइए महारानी आइए, आसन ग्रहण करिये। देवियों, आप लोग भी अपना आसन ग्रहण करें। कहिए महारानी, आज दरबार में किस कारण से आना हुआ? (यथायोग्य आसन पर बैठ जाती हैं, सखियाँ भी वहीं पास में बैठ जाती हैं तब महारानी कहती हैं)
महारानी – देव! आज रात्रि के पिछले प्रहर में मैंने कुछ सुन्दर स्वप्न देखे हैं, मेरी आन्तरिक प्रसन्नता का यही कारण है। मुझे कौतुक हो रहा है कि इन उत्तम स्वप्नों का क्या फल है? हे आर्य! कृपा कर अपने मुखचन्द्र की वचन किरणों से उनका फल स्पष्ट बताकर मेरे हर्ष समुद्र को वृद्धिंगत कीजिए।’’
महाराज –कहिए देवी! उन स्वप्नों को कहिए?
महारानी – स्वामी! पहले स्वप्न में मैंने सुदर्शन मेरु को देखा, पुन: सूर्य देखा है, पुन: चन्द्रमा देखा है, अनन्तर देवविमान देखा है और बाद में बहुत ही विशाल सुंदर जल से परिपूर्ण भरित सरोवर देखा है, ऐसे ये पाँच स्वप्न देखे हैं।
महाराज – (कुछ क्षण मन में सोचकर) पुन: मुस्कुराते हुए- प्रिये! तुम अतिशय पुण्यशालिनी हो। ये स्वप्न यह बात स्पष्ट कह रहे हैं कि तुम चक्रवर्ती पुत्ररत्न को जन्म दोगी।
महारानी –(प्रसन्न होकर) महाराज! इतना सुनने मात्र से ही मेरा सारा शरीर रोमांच से पुलकित हो उठा है, ऐसा लगता है कि मैंने साक्षात् चक्रवर्ती पुत्र को प्राप्त कर लिया है। (अपने प्रश्नों का उत्तर प्राप्त कर महारानी अपनी सखियों सहित वहाँ से प्रस्थान कर देती हैं और धीरे-धीरे करके नव माह व्यतीत हो जाते हैं) (नव महीने व्यतीत होने के बाद एक दिन सभा में एक दासी पहुँचकर पुत्र के जन्मोत्सव का उत्तम समाचार सुनाती है)
-तृतीय दृश्य-
(राजदरबार का दृश्य, महाराज अपने सभासदों के साथ दरबार में उपस्थित हैं, राजनर्तकी द्वारा नृत्य चल रहा है।
तभी एक दासी वहाँ पहुॅँचकर पुत्र के जन्मोत्सव का उत्तम समाचार सुनाती हैं)
दासी –(दरबार में पहुँचकर महाराज को प्रणाम करते हुए) महाराज की जय हो-२। दासी का प्रणाम स्वीकार करें महाराज! बधाई हो-बधाई हो, महारानी विजया ने पुत्ररत्न को जन्म दिया है प्रभो!
महाराज –(प्रसन्न मुद्रा में) ओह! इस समाचार को सुनकर मुझे हार्दिक प्रसन्नता है। दासी, तुमने यह सूचना देकर मेरी प्रसन्नता को अत्यधिक वृद्धिंगत कर दिया है, (महामंत्री से) महामंत्री जी! दासी को नाना वस्त्र, आभूषण और धनादि देकर सदा के लिए सुखी बना दीजिए। आज हम बहुत प्रसन्न हैं। सुनिये! पूरे राज्य में खुशियाँ मनाई जाएं, याचकों को मुँहमाँगा धन बांटा जाए, कोई भी याचक खाली हाथ न जाने पाए।
महामंत्री –जो आज्ञा महाराज! हम सबकी भी बधाई स्वीकार करें प्रजापालक। (पुन: दासी को बहुत धन, वस्त्रादिक दान दिलवाते हैं, दासी महाराज की जयजयकार करती हुई वापस चली जाती है) (सारे राज्य में खुशियाँ मनाई जा रही हैं, सर्वत्र बाजे बज रहे हैं। राजा ने प्रजा को इतना धन बांटा कि सभी जन तृप्त हो गये, भण्डार खुला है, दातार खड़े हैं किन्तु अब कोई याचक आ ही नहीं रहा है। मालूम होता है कि चक्रवर्ती वङ्कानाभि ने आते ही शहर की दरिद्रता को दूर भगा दिया है। जिनमंदिरों में जिनेन्द्रदेव का पूजा महोत्सव मनाया जा रहा है।)
-चतुर्थ दृश्य-
निर्देशक-(शिशु वङ्कानाभि धीरे-धीरे युवावस्था में प्रवेश कर जाते हैं और महाराज वङ्कावीर्य उन्हें सब प्रकार से योग्य जान उनका राजतिलक कर देते हैं। वे कुशलतापूर्वक राज्य संचालन कर रहे थे तभी उन्हें सूचना मिलती है कि आयुधशाला में चक्ररत्न पैदा हुआ है।) महाराजा वङ्कानाभि राजसिंहासन पर आरूढ़ हैं तभी सेनापति प्रवेश करते हैं।
सेनापति – प्रणाम महाराज! महाराज! एक शुभ सूचना है, अपनी आयुधशाला में चक्ररत्न उत्पन्न हुआ है।
महाराज – (प्रसन्न होकर) यह तो बड़ी प्रसन्नता की बात है सेनापति, चलिए, चलकर चक्ररत्न की पूजा करते हैं।
सेनापति – जैसी आपकी आज्ञा प्रभो! (महाराज वङ्कानाभि ने विधिवत् जिनेन्द्रदेव की पूजा करके चक्ररत्न की पूजा की, पुन: सेनापति को आदेश दिया)
महाराज –(सेनापति से) सेनापति! सेनाओं को सुसज्जित करें, हम दिग्विजय के लिए प्रस्थान करना चाहते हैं।
सेनापति – अच्छी बात है स्वामी।
निर्देशक –(महाराजा वङ्कानाभि दिग्विजय के लिए प्रस्थान करते हैं और कुछ काल में छहों खण्ड पृथ्वी को जीतकर पूर्ण विजयश्री का वरण करके वापस नगरी में आ गए। चक्रवर्ती वङ्कानाभि के चक्ररत्न के प्रभाव से छह खण्ड के सभी राजा उनकी आज्ञा को सिर से धारण करते हैं, छ्यानवे हजार रानियाँ, नौ निधियाँ, चौदह रत्न आदि दस प्रकार के उनके भोगोपभोग के साधन हैं। विपुल वैभव के धनी चक्रवर्ती महाराज वङ्कानाभि इतने वैभव को प्राप्त करके भी धर्म को नहीं भूले हैं प्रत्युत् अधिक-अधिक रूप से प्रतिदिन जिनेन्द्रदेव की पूजन करते हैं। निर्ग्रन्थ गुरुओं को, अन्य-अन्य त्यागियों को आहार आदि दान देते हैं। निरन्तर शील का पालन करते हुए समय-समय पर उपवास भी करते हैं।) (यहाँ पर महाराज को पूजन आदि करते हुए का दृश्य दिखावें)
-पंचम दृश्य-
निर्देशक –(शहर के बाहर का बगीचा है, जहाँ आज षट्ऋतु के फल-फूल एक साथ उग रहे हैं, सारा उद्यान सुरभित हो रहा है। सर्प, नेवला, हरिण-व्याघ्र आदि वन्य जन्तुगण बड़े प्रेम से एक साथ ही विचरण कर रहे हैं। गाय का बछड़ा शेरनी का दूध पी रहा है। इधर से शिकारी निकले, किन्तु उनके बाण विफल जा रहे हैं और अन्य प्राणी बड़े विश्वास के साथ शिकारियों के सामने ही निर्भीक होकर खड़े हैं। हो भी क्यों नहीं, यह जिनधर्म की महिमा है। आज इस बगीचे में एक महामुनि पधारे हैं जिनके दर्शन के लिए स्वयं चक्रवर्ती महाराज अपने पुरजन-परिजन सहित पधार रहे हैं।) (चक्रवर्ती महाराज अपने परिवारजनों और पुरजनों से घिरे हुए उद्यान की तरफ बढ़ते ही आ रहे हैं, कुछ दूर एक पवित्र स्फटिक पाषाण की शिला पर एक महामुनि तिष्ठे हैंं, चक्रवर्ती महाराज मुनिराज की तीन प्रदक्षिणा देकर उन्हें बार-बार नमस्कार करते हैं)
चक्रवर्ती महाराज –(मुनिराज को नमस्कार कर तीन प्रदक्षिणा लगाते हुए)
स्तुति पढ़ते हैं-सप्तभंगयुत स्याद्वादमय गंगाजगत पवित्र करें। सबकी पापधूलि को धोकर जग में मंगल नित्य करें।। विषय वासनारहित निरम्बर सकल परिग्रह त्याग दिया। सब जीवों को मोक्षमार्ग का निस्पृह हो उपदेश दिया।। भवसमुद्र में पतितजनों को सच्चे अवलम्बन दाता। वे गुरुवर मम हृदय विराजो सब जन को मंगलदाता।।
पुन: उन्हें बार-बार नमस्कार कर उनकी पूजन करते हैं और चरणों में नत होकर निकट बैठ जाते हैं और प्रार्थना करते हैं।
सम्राट चक्रवर्ती – प्रभो! हम जैसे संसारी प्राणियों के उद्धार के लिए धर्मोपदेशरूपी अमृत की वर्षा कीजिए।
मुनिराज –हे राजन्! यह चैतन्य आत्मा अनन्त शक्तिमान होते हुए भी अचेतन पुद्गल के वश में हो रहा है।
निर्देशक – (इस प्रकार से गुरु के उपदेश को सुनकर राजा वङ्कानाभि पंचेन्द्रियों के विषयों से विरक्त हो गए। उस समय यह साम्राज्य लक्ष्मी और स्त्री पुत्र, मित्रादि सरस पदार्थ नीरस भासने लगे। देखिये वे क्या सोच रहे हैं।)
सम्राट – ओह! मैंने चक्रीपद को प्राप्त करके इतने काल तक इन्द्रिय भोगों का अनुभव किया है किन्तु आज तक तृप्ति नहीं हुई है। इन भोगों से तृष्णा वृद्धिंगत ही होती है न कि शान्त। अत: इन क्षणिक सुखों का त्यागकर शाश्वत सुख को प्राप्त करने का उद्यम करना चाहिए। (राजाधिराज सम्राट को तत्क्षण वैराग्य हो जाता है और वे अपने सुयोग्य पुत्र को राज्यभार सौंपकर आप स्वयं दीक्षा लक्ष्मी को स्वीकार कर लेते हैं) (महाराज अपने पुत्र का राजतिलक कर पुन: मुनिराज के पास आते हैं)
सम्राट – प्रभो! मुझे जैनेश्वरी दीक्षा प्रदान कर इस संसार समुद्र से पार करने में मेरा अवलम्बन करें।
निर्देशक –(मुनिराज उन्हें दीक्षा प्रदान करते हैं। अब सम्राट ने अतुल छह खंड की विभूति को पुराने तिनके के सदृश छोड़ दिया और निर्ग्रन्थ दिगम्बर महामुनि बन गए) (शत्रु-मित्र, जीवन-मरण, लाभ-अलाभ, सुख-दुख, स्तुति-निन्दा, कनक-कांच और महल-मशान में परम समभाव को धारण करने वाले वे वङ्कानाभि मुनिराज दुद्र्धर तपश्चरण करते हुए पृथ्वी तल पर विहार कर रहे थे। किसी समय वे एक वन में आतापन योग से विराजमान थे। उन्हें देखते ही क्रूरकर्मा भिल्लराज अत्यन्त कुपित होकर अपने तीक्ष्ण बाणों से उनके शरीर का भेदन करने लगा)
मुनिराज –(ध्यानावस्था में) ॐ नम: सिद्धेभ्य:-३।
णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं,
णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं।।
शिवं शुद्ध बुद्धं परम विश्वनाथं, न देवो न बन्धुर्न कर्ता न कर्म। न अंगं न संगं न स्वेच्छा न कायं, चिदानन्दरूपं नमो वीतरागम्।।
(तभी एक भील उधर से प्रवेश करता है।)
भिल्लराज –अरे! यहाँ कौन बैठा है, जरा देखूँ तो कोई पशु तो नहीं है, आज शिकार के लिए इधर-उधर नहीं जाना पड़ेगा। (पास जाकर देखता है) अरे! यह तो कोई साधु है (तभी उसे जातिस्मरण होते ही पूर्वजन्म की सारी बातें याद आ जाती हैं) ओह! यह तो मेरा पूर्व जन्म का वैरी है, यह तो मेरे भाई मरुभूति का जीव है, इसने मुझे भव-भव में दुख प्रदान किया है। आज तो इससे बदला लेने का अच्छा अवसर है, यह तो ध्यान में लीन है और मेरे पास बाणों की कमी नहीं है, अभी बाणों से इसे भेदता हूँ। (इतना कहकर उन शांत, गंभीर, ध्यानारूढ़ मुनिराज के ऊपर अत्यन्त कुपित होकर अपने तीक्ष्ण बाणों से उनके शरीर का भेदन करने लगा और जब मुनिराज अविचल रहे तो कहने लगा।)
भिल्लराज –अरे मूढ़! आँखे तो खोल। कैसा है ये, मैंने इसे बाणों से वेध दिया है और यह बिल्कुल शांत बैठा है। देखता हूँ अब क्या करेगा?
निर्देशक –(वह भिल्ल पुन: कायरजनों से असहनीय ऐसा भयंकर उपसर्ग करने लगा किन्तु वे मुनिराज शरीर से पूर्णतया निस्पृह होकर ज्ञानदर्शन स्वरूप अपनी आत्मा का ध्यान कर रहे हैं और उन्हें उपसर्ग के दु:खों का किंचित् भी अनुभव नहीं आ रहा है।)
मुनिराज –मैं आत्म स्वरूपी हूँ, मैं ज्ञानानंद स्वभावी हूँ, चिच्चैतन्य स्वरूपी हूँ, पुद्गल से निर्मित इस देह से वैâसा मोह। यह तो फूस की तरह पल भर मेें जल जाने वाला है, लेकिन आत्मा तो अजर-अमर है और इसी आत्मा को सिद्धात्मा बनाना है। सोऽहं, सोऽहं, सोऽहं।
निर्देशक –(इस प्रकार चतुर्विध आराधना के स्मरण में अपने उपयोग को स्थिर करते हुए वे धर्मध्यान में लीन हो जाते हैं और यह आत्मा इस नश्वर शरीर से निकल जाती है और वे मध्यम ग्रैवेयक के मध्यम विमान में श्रेष्ठ अहमिन्द्र हो जाते हैं।)