तीर्थंकरों की अपेक्षा मुनियों के भेद तीर्थंकर प्रकृति का जिनके बंध हो चुका है, उनके गर्भ मे आने के छह महीने पहले से ही रत्नों की वर्षा आदि होकर गर्भागम के समय इन्द्रादि आकर गर्भ महोत्सव मनाते हैं। जन्म लेते ही इन्द्रादि देव आकर भगवान शिशु को सुमेरु पर्वत पर ले जाकर जन्माभिषेक महोत्सव करते हैं। जब उन्हें वैराग्य होता है उसी समय लौकांतिक देव आकर भगवान के वैराग्य की प्रशंसा व अनुमोदना करके भगवान की स्तुति करके चले जाते हैं। ये देव अन्य कल्याणकों में नहीं आते हैं। चूँकि ये पूर्णतया वैराग्यप्रिय होते हैं, ब्रह्मचारी हैं और एक भवावतारी हैं। ये देवर्षि कहलाते हैं। पुन: इन्द्रादि देव आकर पालकी में विराजमान करके वन में ले जाकर रत्नों से पूरित चौक पर प्रभु को विराजमान करते हैं। भगवान उस समय किसी गुरु से दीक्षा न लेकर स्वयं ‘ॐ नम: सिद्धं’ पद के उच्चारणपूर्वक सिद्धों को नमस्कार करके केशलोंच करके दीक्षा ले लेते हैं। तीर्र्थंकर के सिवाय अन्य किसी को स्वयं दीक्षा लेने का विधान नहीं है।
जैसे तीर्थंकर स्वयं दीक्षा लेते हैं, वैसे ही अन्य कोई स्वयं दीक्षा लेकर मुनि बन जाये, तो क्या बाधा है ? भगवान की आज्ञा का लोप होता है, देखिए तीर्थंकरों ने तीर्थंकर प्रकृति बंध के पहले के मनुष्य भव में गुरुओं से ही दीक्षा ली थी।
# वङ्कानाभि # विमल # विपुलवाहन # महाबल # अतिबल # अपराजित # नंदिषेण # पद्म # महापद्म # पद्मगुल्म # नलिनगुल्म # पद्मोत्तर # पद्मासन # पद्म # दशरथ # मेघरथ # सिंहरथ # धनपति # वैश्रवण # श्रीधर्म # सिद्धार्थ # सुप्रतिष्ठ # आनन्द # नंदन । इनमें से भगवान वृषभदेव पूर्वभव में वङ्कानाभि की पर्याय में चक्रवर्ती थे तथा दीक्षित होकर चौदह पूर्वों के ज्ञाता हुए थे और शेष तीर्थंकर पूर्व में महामंडलेश्वर थे और दीक्षित होने पर ग्यारह अंग के वेत्ता हुए थे। सभी तीर्थंकरों ने पूर्वभव में मुनि अवस्था में सिंहनिष्क्रीडित व्रत तपकर अन्त में एक उपवास के साथ प्रायोपगमन संन्यास धारण किया था और सभी यथायोग्य स्वर्गों में गये थे।’’
# वङ्कासेन # अरिंदम # स्वयंप्रभ # विमलवाहन # सीमंधर # पिहितास्रव # अरिन्दम # युगंधर # सर्वजनानन्दि # उभयानंद # वङ्कादन्त # वङ्कानाभि # सर्वगुप्त # त्रिगुप्त # चित्तरक्ष # विमलवाहन # घनरथ # संवर # वरधर्म # सुनंद # नंद # व्यतीतशोक # दामर # प्रोष्ठिल थे ।
पूर्वोक्त वङ्कानाभि आदि महापुरुषों ने केवली अथवा श्रुतकेवली के पादमूल में सोलहकारण भावनाएं भाकर तीर्थंकर प्रकृति का बंध किया था। सो ही कहा है- ‘‘प्रथमोपशम सम्यक्त्व में अथवा शेष तीन सम्यक्त्व में से किसी में स्थित हुए जीव चौथे, पाँचवें, छठे या सातवें गुणस्थान में किसी भी गुणस्थान में रहते हुए केवली अथवा श्रुतकेवली के पादमूल में तीर्थंकर प्रकृति का बंध करते हैं।’’ एक और बात विशेष है कि तीर्थंकर प्रकृति का बंध करने वाला कर्मभूमिज मनुष्य ही होना चाहिए। मिथ्यादृष्टि के अनन्तानुबंधी चतुष्क और एक मिथ्यात्व ये पाँच अथवा सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व सहित सात प्रकृतियों के उपशम से उपशम सम्यक्त्व होता है। सम्यक्त्व प्रकृति के उदय से जो तत्त्वश्रद्धान चल, मलिन और अगाढ़ दोष सहित होता है, उसे वेदक या क्षायोपशमिक सम्यक्त्व कहते हैं। उपर्युक्त सातों प्रकृतियों के क्षय से होने वाले सम्यक्त्व क्षायिक है। इस सम्यक्त्व को कर्मभूमियाँ मनुष्यकेवली या श्रुतकेवली के पादमूल में ही प्राप्त करता है।’’
१. दर्शनविशुद्धि-जिनेन्द्र भगवान अरिहंतदेव द्वारा उपदिष्ट निग्र्रंथस्वरूप मोक्षमार्ग में रुचि-श्रद्धा का होना दर्शनविशुद्धि है। इसके नि:शंकित आदि आठ अंग हैं।
२. विनयसम्पन्नता-सम्यग्ज्ञानादि मोक्षमार्ग और उनके साधन गुरु आदि के प्रति अपने योग्य आचरण द्वारा आदर सत्कार करना विनय है। इससे सहित होना विनयसम्पन्नता है।
३. शीलव्रतानतिचार-अहिंसा आदि व्रतों में और इनके पालन हेतु क्रोध आदि के त्यागरूप शील में निर्दोष प्रवृत्ति करना।
४. अभीक्ष्णज्ञानोपयोग-जीवादि पदार्थरूप स्वतत्त्व विषयक सम्यग्ज्ञान में निरंतर लगे रहना।
५. संवेग-संसार के दु:खों से निरंतर डरते रहना। ६. शक्तितस्त्याग-आहार, अभय और ज्ञान इन तीनों का शक्ति के अनुसार विधिवत् देना। धवला में कहा है कि-‘‘साधुओं के द्वारा विहित प्रासुक अर्थात् निरवद्य ज्ञान, दर्शन आदि के त्याग से तीर्थंकर नामकर्म बँधता है। अर्थातृ दयाबुद्धि से साधुओं द्वारा किये जाने वाले ज्ञान, दर्शन व चारित्र के परित्याग या दान का नाम प्रासुकपरित्यागता है। यह कारण गृहस्थों में संभव नहीं है। क्योंकि, उनमें चारित्र का अभाव है। रत्नत्रय का उपदेश भी गृहस्थों में संभव नहीं है, क्योंकि दृष्टिवाद आदि उपरिम श्रुत के उपदेश देने में उनका अधिकार नहीं है। अतएव यह कारण महर्षियों के ही होता है।’’
७. शक्तितस्तप-शक्ति को न छिपाकर मोक्षमार्ग के अनुकूल शरीर को क्लेश देना।
८. साधुसमाधि-जैसे भांडार में अग्नि लग जाने पर बहुत उपकारी होने से अग्नि को बुझाया जाता है उसी प्रकार अनेक प्रकार के व्रतों और शीलों से समृद्ध मुनि के तप करते हुए किसी कारण से विघ्न उत्पन्न होने पर उसका संधारण करना-विघ्नों को शांत करना।
९. वैयावृत्य-गुणी पुरुष के दु:ख में आ पड़ने पर निर्दोष विधि से उसका दु:ख दूर करना।
१०. अरिहंत भक्ति-अरिहंत देव में भावों की विशुद्धि के साथ अनुराग रखना।
११. आचार्य भक्ति-आचार्यों में भक्ति, पूजा आदि करना।
१२. बहुश्रुतभक्ति-उपाध्यायों की भक्ति करना।
१३. प्रवचन भक्ति-प्रवचन-जिनागम में अनुराग रखना।
१४. आवश्यक अपरिहाणि-छह आवश्यक क्रियाओं को यथासमय करना।
१५. मार्ग प्रभावना-ज्ञान, तप, दान और जिनपूजा के द्वारा धर्म का प्रकाश करना।
१६. प्रवचनवत्सलत्व-जैसे गाय अपने बछड़े पर स्नेह करती है वैसे ही साधर्मियों पर स्नेह रखना।
‘ये सब सोलहकारण भावनाएँ हैं। इनमें से दर्शनविशुद्धि सहित किन्हीं-किन्हीं भावनाओं के चिन्तवन से अथवा समस्त भावनाओं के चिंतवन से तीर्थंकर प्रकृति का बंध हो जाता है।१’’ विशेष-भरत और ऐरावत क्षेत्र के सभी तीर्थंकर पाँच कल्याणक वाले ही होते हैं। किन्तु विदेह क्षेत्र की १६० कर्मभूमियों में अधिक से अधिक १६० तीर्थंकर भी एक साथ हो सकते हैं। इनमें सभी पाँच कल्याणक वाले ही हों, ऐसा नियम नहीं है। यदि ये गृहस्थावस्था में तीर्थंकर प्रकृति का बंध कर लेते हैं, तो इनके तीन कल्याणक अथवा मुनि होने के बाद तीर्थंकर प्रकृति बांधने पर दो कल्याणक होते हैं। तीर्थंकर प्रकृति वाले महापुरुष दीक्षा लेकर केवलज्ञान होने तक मौन ही रहते हैं तथा सामान्य दिगम्बर साधुओं के लिए कोई नियम नहीं है। इस अपेक्षा तीर्थंकर मुनि और सामान्य मुनि में महान् अंतर होता है। समवसरण के अन्तर्गत सात संघों की अपेक्षा मुनियों में भेद चौबीस तीर्थंकरों का चतुर्विध संघ-भगवान ऋषभदेव के समय ऋषियों का प्रमाण चौरासी हजार है। अजितनाथ के समवसरण में एक लाख मुनि हैं। चतुर्विध संघ में इनकी संख्या कही गई है। प्रत्येक तीर्थंकरों के समवसरण में ऋषियों के सात संघ होते हैं। पूर्वधर, शिक्षक, अवधिज्ञानी, केवली, विक्रियाऋद्धि के धारक, विपुलमति और वादी ये सात प्रकार हैं। ऋषभदेव के सात गणों में से पूर्वधर ४७५०, शिक्षक ४१५०, अवधिज्ञानी ९०००, केवली २०००, विक्रिया ऋद्धिधारी २०६००, विपुलमति १२७५० और वादी १२७५० हैं। इन सबका जोड़ ४७५०±४१५०±९०००±२०००±२०६००± १२७५०·८४००० होता है। ऐसे सभी तीर्थंकरों के सात संघ होते हैं। भगवान महावीर स्वामी के समवसरण में १४००० मुनि हैं। उनमें सात प्रकार के संघ का विभाजन-पूर्वधर ३००±शिक्षक ९९००±अवधिज्ञानी १३००±केवली ७००±विक्रियाधारी ९००±विपुलमति ५००±वादी ४००±१४००० मुनि हैं।
मुनि आर्यिका श्रावक श्राविका १. ८४००० ३५०००० ३००००० ५००००० २. १००००० ३२०००० ३००००० ५००००० ३. २००००० ३३०००० ३००००० ५००००० ४. ३००००० ३३०६०० ३००००० ५००००० ५. ३२०००० ३३०००० ३००००० ५००००० ६. ३३०००० ४२०००० ३००००० ५००००० ७. ३००००० ३३०००० ३००००० ५००००० ८. २५०००० ३८०००० ३००००० ५००००० ९. २००००० ३८०००० २००००० ४००००० १०. १००००० ३८०००० २००००० ४००००० ११. ८४००० १३०००० २००००० ४००००० १२. ७२००० १०६००० २००००० ४००००० १३. ६८००० १०३००० २००००० ४००००० १४. ६६००० १०८००० २००००० ४००००० १५. ६४००० ६२४०० २००००० ४००००० १६. ६२००० ६०३०० २००००० ४००००० १७. ६०००० ६०३५० १०००० ३००००० १८. ५०००० ६०००० १००००० ३००००० १९. ४०००० ५५००० १००००० ३००००० २०. ३०००० ५०००० १००००० ३००००० २१. २०००० ४५००० १००००० ३००००० २२. १८००० ४०००० १००००० ३००००० २३. १६००० ३८००० १००००० ३००००० २४. १४००० ३६००० १००००० ३०००००
चौबीसों तीर्थंकरों के समस्त मुनियों का जोड़ १५८०००० है और आर्यिकाओं का ३६००५६५० है। २४ तीर्थंकरों के गणधर देवों की संख्या प्रथम तीर्थंकर वृषभदेव से लेकर अंतिम तीर्थंकर महावीर पर्यन्त प्रत्येक के गणधर क्रमश: ८४±९०±१०५±१०३±११६±१११±९५±९३±८८±८७±६६±५५± ५०±४३±३६±३५±३०±२८±१८±१७±११±१०±११· सभी तीर्थंकरों के प्रथम गणधरों के नाम-ऋषभदेव, सिंहसेन, चारुदत्त, वङ्काचमर, वङ्का, चमर, बलदत्त, वैदर्भ, नाग, वुंâथु, धर्म, मंदिर, जय, अरिष्ट, सेन, चक्रायुध, स्वयंभू, कुंभ, विशाख, मल्लि, सुप्रभ, वरदत्त, स्वयंभू और इन्द्रभूति। ये सभी गणधर देव आठ ऋद्धियों से सहित होते हैं। यहाँ उन ऋद्धियों का लवमात्र वर्णन देखिए। ऋद्धि के आठ भेद-बुद्धि, विक्रिया, क्रिया, तप, बल, औषधि, रस और क्षेत्र। इनमें से भी बुद्धिऋद्धि के १८, विक्रिया के ११, क्रिया के २, तप के ७, बल के ३, औषधि के ८, रस के ६ और क्षेत्रऋद्धि के २, ऐसे अवांतर भेद होते हैं।
अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान, केवलज्ञान, बीजबुद्धि, कोष्ठबुद्धि, पदानुसारि बुद्धि, संभिन्नश्रोतृत्व, दूरास्वादनत्व, दूरस्पर्श, दूरघ्राण, दूरश्रवण, दूरदर्शन, दशपूर्वित्व, चौदश पूर्वित्व, निमित्त, प्रज्ञाश्रवण, प्रत्येकबुद्धित्व और वादित्व।
१. अवधिज्ञान-यह परमाणु आदि से लेकर अंतिम स्कंध पर्यन्त मूर्तिद्रव्यों का जानने वाला ज्ञान है।
२. मन:पर्ययज्ञान-यह ज्ञान चिंतित, अचिंतित या अर्धचिंतित के विषयभूत पदार्थों को नरलोक के भीतर जानना है।
३. केवलज्ञान-यह इन्द्रियादि की सहायता रहित सम्पूर्ण लोकालोक को विषय करता है।
४. बीजबुद्धि-जो बुद्धि संख्यात शब्दों के बीच में बीजभूत पद को परके उपदेश से प्राप्त करके उसके आश्रय सम्पूर्णश्रुत को जान लेती है।
५. कोष्ठबुद्धि-यह ऋषि अनेक ग्रंथों के शब्दरूप बीजों को ग्रहण करके मिश्रण रहित बुद्धिरूपी कोठे में धारण करती है।
६. पदानुसारी-गुरु के उपदेश से आदि, मध्य अथवा अन्त के एक पद को ग्रहण करके यह ऋद्धि सारे ग्रंथ को ग्रहण कर लेती है।
७. संभिन्नश्रोतृत्व-इस ऋद्धि से मुनि श्रीत्रेन्द्रिय के उत्कृष्ट क्षेत्र से बाहर संख्यात योजन प्रमाण में स्थित मनुष्य-तिर्यंचों के अक्षर-अनक्षर शब्दों को सुनकर प्रत्युत्तर दे सकता है।
८. दूरास्वादित्व-इसके बल से जिह्वाइन्द्रिय के उत्कृष्ट विषय से बाहर संख्यातों योजन के विविध रसों को जान लिया जाता है।
९. दूरस्पर्शत्व-इससे स्पर्शनेन्द्रिय के उत्कृष्ट विषय क्षेत्र के बाहर संख्यातों योजनों तक आठ प्रकार के स्पर्शों को जान लिया जाता है।
१०. दूरघ्राणत्व-घ्राणेन्द्रिय के उत्कृष्ट विषय क्षेत्र के बाहर संख्यातों योजनों तक बहुत प्रकार के गंधों को ग्रहण कर लेना।
११. दूरश्रवणत्व-श्रीत्रेन्द्रिय के उत्कृष्ट विषय क्षेत्र के बाहर संख्यात योजनों पर्यन्त में स्थित मनुष्य-तिर्यंचों के अक्षर-अनक्षररूप शब्दों को श्रवण कर लेना।
१२. दूरदर्शित्व-चक्षुइन्द्रिय के उत्कृष्ट विषय क्षेत्र के बाहर संख्यात योजनों में स्थित द्रव्यों को देखना यह दूरदर्शित्व है।
१३. दशपूर्वित्व-मुनियों के दशपूर्व के पढ़ने में पाँच सौ महाविद्या और सात सौ लघु विद्याओं की देवताएं आकर आज्ञा मांगती हैं। उस समय जो मुनि जितेन्द्रिय बने रहते हैं और उनकी इच्छा नहीं करके वापस कर देते हैं, वे दशपूर्वी हैं।
१४. चौदहपूर्वित्व-जो चौदह पूर्वों के पारंगत श्रुतकेवली हैं वे चौदह पूर्वित्व ऋद्धि के स्वामी हैं।
१५. अष्टांगमहानिमित्त-यह ऋद्धि नभ, भौम, अंग, स्वर-व्यंजन, लक्षण, चिन्ह और स्वप्न इन आठ भेदों सहित निमित्तज्ञान में कुशल हैं। १६. प्रज्ञाश्रमणत्व-इस ऋद्धि से युक्त महामुनि अध्ययन के बिना ही चौदह पूर्वों में से अतिसूक्ष्म विषय को निरूपण करने में कुशल होते हैं।
१७. प्रत्येक बुद्धित्व-इससे गुरु के उपदेश बिना ही कर्मों के उपशम में सम्यग्ज्ञान और तप में प्रगति होती है।
१८. वादित्व-इस ऋद्धि से मुनि शक्र के पक्ष को भी बहुुत वाद से कर सकते हैं।
अणिमा, महिमा, लघिमा, गरिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशत्व, वशित्व, अप्रतिघात, अन्तर्धान और कामरूप।
१. अणिमा-अणु प्रमाण शरीर को करना, इसके द्वारा महर्षि अणु प्रमाण छिद्र में प्रविष्ट होकर चक्रवर्ती के कटक और निवेश की रचना कर सकते हैं।
२. महिमा-इससे मेरु के प्रमाण शरीर बनाया जा सकता है।
३. लघिमा-इसके द्वारा वायु से भी लघु शरीर बन सकता है।
४. गरिमा-इसके द्वारा वङ्का से भी अधिक गुरुतायुक्त शरीर बनाया जा सकता है।
५. प्राप्ति-भूमि पर खड़े रहकर अंगुली से मेरु-सूर्य-चन्द्रादि को छू लेना।
६. प्राकाम्य-इसके बल से जी के समान पृथ्वी पर निमज्जनादि और जल में पृथ्वी के समान गमन आदि किया जा सकता है।
७. ईशित्व-इसके बल से सब जगत् पर प्रभुता होती है।
८. वशिष्ठ-इससे सभी जीव समूह वश में हो जाते हैं।
९. अप्रतिघात-इस ऋद्धि के बल से शैल, शिला या वृक्षादि के मध्य में होकर आकाश के समान गमन करना।
१०. अंतर्धान-इसके बल से अदृश्यता प्राप्त होती है।
११. कामरूपित्व-इसके द्वारा युगपत् अनेक रूप बना सकते हैं।
१. आकाशगामित्व-इस ऋद्धि से कायोत्सर्ग आसन या अन्य प्रकार से ऊध्र्व स्थित होकर या बैठकर आकााश् में गमन किया जाता है।
२. चारणत्व-इस ऋद्धि के जलचारण, जंघाचारण, फलचारण, पुष्पचारण, पत्रचारण, अग्निशिखाचारण, धूम्रचारण, मेघचारण, धाराचारण, मर्वटतंतुचारण, ज्योतिश्चारण और मरुच्चारण आदि अनेकों भेद होते हैं। चार अंगुल प्रमाण पृथ्वी को छोड़कर घुटने को मोड़े बिना जो बहुत योजनों तक आकाश में गमन करता है, वह जंघाचरण ऋद्धि है। ऐसे ही सभी के लक्षण समझ लेना।
उग्रतप, दीप्ततप, तप्ततप, महातप, घोरतप, घोरपराक्रम और अघोर ब्रह्मचारित्व।
१. उग्रतप-इसके भी दो भेद हैं-उग्रोग्र और अवस्थित। दीक्षोपवास को आदि करके आमरणांत एक-एक अधिक उपवास को बढ़ाकर निर्वाह करना उग्रोग्रतप है। दीक्षा लेकर एक उपवास करके पारणा करे, पुन: उपवास-पारणा ऐसे एकान्तर से करते-करते कदाचित् वेला हो जाये, तो पुन: बेला पारणा ही करते-करते आगे कदाचित् तेला आदि से आगे ही आगे बढ़ता जाये, नीचे न गिरे वह अवस्थित उग्रतप है। उग्रोग्रतप में छह मास से ऊपर भी उपवास हो सकते हैं। सो ऋद्धि के बल से छह मास से ऊपर उपवास का विरोध नहीं है।
यथा- ‘घातायुष्क मुनियों के छह मास उपवास का नियम है किन्तु अघातायुष्क के नहीं-चूँकि उनका अकाल में मरण नहीं होता। अत: छह मासों के ऊपर उपवास का अभाव मान लेने पर उग्रोग्र बन नहीं सकता।’’
२. दीप्ततप-जिसके प्रभाव से मन, वचन, काय से बलिष्ठ ऋषि की बहुत उपवासों द्वारा शरीर कांति सूर्यवत् दैदीप्यमान होती जाये। धवला ग्रंथ में इस ऋद्धि वाले मनि को आहार नहीं माना है।
यथा-‘‘उनके केवल दीप्ति ही नहीं, किन्तु बल भी बढ़ता है इसलिए उनके आहार भी नहीं होता, क्योंकि उसके कारणों का अभाव है। यदि कहो कि भूख के दु:ख को शांत करने के लिए भोजन करते हैं, सो भी ठीक नहीं, क्योंकि उनके भूख के दु:ख का अभाव है।१’’ यही कारण है कि गणधर देव के आहार का अभाव कहा है- ‘‘बारह अंगों के कर्ता गणधर भट्टारक ग्रंथकर्ता है। व पाँच महाव्रतोें के धारक, तीन गुप्तियों से रक्षित, पाँच समितियों से युक्त हैं। दीप्ततप लब्धि के प्रभाव से सर्वकाल उपवास युक्त होकर भी शरीर के तेज से दशों दिशाओं को प्रकाािश्त करने वाले होते हैं।’’
३. तप्ततप-तप्त कढ़ाई में गिरे हुए जलकण के समान खाया हुआ अन्न धातुओं सहित क्षीण हो जाये-मल-मूत्र रूप परिणमन नहीं करे, वह तप्ततप ऋद्धि है।
४. महातप-जिसके प्रभाव से मुनि चार प्रकार के सम्यग्ज्ञान के बल से मंदरपंक्ति प्रमुख सब ही महान् उपवासों को कर लेवें।
५. घोरतप-जिसके बल से ज्वर, शूल आदि रोगों से शरीर के अत्यन्त पीड़ित होने पर भी दुद्र्धर तपश्चरण कर सके।
६. घोरपराक्रम-जिसके प्रभाव से तीनों लोकों में संहार करने की शक्ति से युक्त और अनेकों अद्भुत कार्यों को करने की शक्ति से युक्त हो जाते हैं।
७. अघोर ब्रह्मचारित्व-जिस ऋद्धि से मुनि के क्षेत्र में भी चोर आदि की बाधाएँ, काल-महामारी और महायुद्ध आदि नहीं होते हैं।
मनोबल, वचनबल और कायबल ऋद्धि।
१. मनोबल-इस ऋद्धि के बल से मुनि अन्तर्मुहूर्त मात्र में सम्पूर्ण श्रुत का चिंतवन कर लेते हैं।
२. वचनबल-इस ऋद्धि के प्रभाव से साधु श्रमरहित और अहीनकष्ठ होते हुए अन्तर्मुहूर्त के भीतर सम्पूर्ण द्वादशांग रूप श्रुत का उच्चारण कर लेते हैं।
३. कायबल-इस ऋद्धि से ऋषि मास, चारमास आदि रूप कायोत्सर्ग करते हुए भी श्रम रहित रहते हैं तथा तीनों लोकों को कनिष्ठा अंगुली पर उठाकर अन्यत्र स्थापित करने के लिए समर्थ होते हैं।
आमर्शौषधि, क्ष्वेलौषधि, जल्लौषधि, मलौषधि, विप्रौषधि, सर्वौषधि, मुखनिर्विष और दृष्टिनिर्विष।
१. आमर्शौषधि-इस ऋद्धि वाले मुनि के हाथपैरादि के स्पर्शमात्र से प्राणी नीरोग हो जाते हैं।
२. क्ष्वेलौषधि-इस ऋद्धिधारी मुनि का लार, कफ, अक्षिमल और नासिकामल जीवों के रोगों को नष्ट कर देता है।
३. जल्लौषधि–इस ऋद्धि वाले मुनि का स्वेद-पसीना जीवों के रोगों का नाश कर देता है।
४. मलौषधि-इस ऋद्धि से मुनियों का जिह्वा, ओठ, दाँत, श्रोत्रादि का मल भी जीवों के समस्त रोगों को नष्ट कर देता है।
५. विप्रौषधि-इस ऋद्धि वाले मुनियों के मूत्र, विष्ठा भी जीवों के भयानक रोगों का नाश कर देते हैं।
६. सर्वौषधि-इस ऋद्धि वाले मुनियों का स्पर्श किया हुआ जल व वायु तथा रोम और नख आदि भी व्याधि के हरने वाले हो जाते हैं।
७. मुखनिर्विष-जिसके प्रभाव से मुनियों के वचन मात्र से तिक्तरस से व विष से युक्त विविध प्रकार का अन्न निर्विषता को प्राप्त हो जाता है। वह वचननिर्विष ऋद्धि है। अथवा ऐसे मुनि के वचनमात्र सुनते ही व्याधियुक्त मनुष्य स्वस्थ हो जाते हैं।
८. दृष्टिनिर्विष-रोग और विष से युक्त जीव जिस ऋद्धि वाले मुनि के द्वारा देखने मात्र से ही नीरोग हो जाते हैं, वह दृष्टिनिर्विष ऋद्धि है।
आशीर्विष, दृष्टिविष, क्षीरस्रवी, मधुस्रवी, अमृतस्रवी और सर्पिस्रवी।
१. आशीविष-जिस शक्ति से दुद्र्धरतप से युक्त मुनि द्वारा ‘मर जावो’ इस प्रकार कहने पर जीव सहसा मर जाता है। वह आशीविष ऋद्धि है। ‘‘अथवा विष से पूर्ण जीवों के प्रति ‘‘निर्विष हो’’ इस प्रकार निकला हुआ जिनका वचन जीवों को जिलाता है, व्याधिवेदना और दारिद्र्य आदि विनाश होतु निकला हुआ वचन उस-उस कार्य को करता है, वे भी आशीर्विष हैं। तप के प्रभाव से इस प्रकार की शक्ति युक्त होते हुए भी वे साधु जीवों का निग्रह व अनुग्रह नहीं करते हैं।’’
२. दृष्टिविष-इस ऋद्धि से रोषयुक्त मुनि के द्वारा सहसा देखने मात्र से जीव मर जाता है। ‘‘अथवा इससे भी पूर्वोक्त शुभ अर्थ करना कि जिससे मनि के प्रेम या करुणापूर्वक देखने मात्र से जीव जीवित हो जाता है।’’
३. क्षीरस्रवी-मुनि के हस्तल पर आये हुए रूक्ष आहार आदि तत्काल ही दुग्धरूप हो जावें, अथव जिनके वचन सुनने से मनुष्य तिर्यंचादि के दु:ख शांत हो जावें।
४. मधुस्रवी-जिनके बल से मुनि के हाथ में रखते ही रूक्ष आहारादि मधुर रस युक्त हो जावें। अथवा जिनके वचन से मनुष्यादिकों के दु:ख नष्ट हो जावें।
५. अमृतस्रवी-जिस ऋद्धि से मुनि के हाथ में आये हुए रूक्षाहारादि अमृतमय हो जावें, अथवा जिनके वचन श्रवण से तत्काल ही दु:खादि नष्ट हो जावें।
६. सर्पि:स्रवी-जिसके प्रभाव से हस्ततल में निक्षिप्त आहार घृतरूप हो जावें, अथवा जिनके वचन सुनने से जीवों के दु:खादि शांत हो जावें।
अक्षीणमहानसिक और अक्षीणमहालय।
१. अक्षीणमहानसिक-जिसके प्रभाव से मुनि के आहार से शेष भोजनशाला में रखे हुए अन्न में से जिस किसी भी प्रिय वस्तु को यदि उस दिन चक्रवर्ती का सम्पूर्ण कटक भी जीम जावे, तो भी वह लेशमात्र क्षीण कम नहीं होती है।
२. अक्षीणमहालय-जिस ऋद्धि के प्रभाव से समचतुष्कोण चार धनुषप्रमाण क्षेत्र में असंख्यात मनुष्य-तिर्यंच समा जाते हैं, वह अक्षीणमहालय है।
विशेष-‘‘गणधर देवों के ये सम्पूर्ण ऋद्धियाँ रहती हैं जैसा कि पहले कहा है।१’’ किन्तु घोराघोर तपश्चरण और ध्यान विशेष करने वाले मुनियों के भी इनमें से कोई-कोई ऋद्धियाँ प्रगट होती रहती हैं। जिनके कि उदाहरण प्रथमानुयोग में बहुत पाये जाते हैं। ये सभी ऋद्धियाँ भावलिंगी मुनियों के ही हो सकती हैं द्रव्यलिंगी के नहीं। इन ऋद्धियों की अपेक्षा भी मुनियों में भेद हो जाता है।
आहारकऋद्धि के धारक, छठे गुणस्थानवर्ती मुनि के आहारक शरीर नामकर्म के उदय से आहारक शरीर (पुतला) निकलता है। ‘‘यह असंयम का परिहार करने के लिए तथा संदेह को दूर करने के लिए निकलता हैै। अपने क्षेत्र में केवली या श्रुतकेवली के नहीं होने पर किन्तु दूसरे क्षेत्र में जहाँ औदारिक शरीर से पहुँचा नहीं जा सकता, वहाँ पर केवली या श्रुतकेवली विद्यमान रहने पर अथवा तीर्थंकरों के दीक्षाकल्याणक आदि तीन कल्याणकों में से किसी के होेने पर तथा जिन, जिनगृह-चैत्य, चैत्यालयों की वंदना के लिए भी आहारक शरीर प्रगट होता है।१’’ अर्थात् इस ऋद्धि वाले मुनि के यदि किसी सूक्ष्म पदार्थ में संदेह हो गया है अथवा दीक्षाकल्याणक आदि के प्रसंग में या चैत्यालयों की वंदना करने हेतु भावना विशेष के होने पर मुनि के मस्तक से एक हाथ प्रमाण शुभ अवयववाला श्वेत शरीर निकलता है। यह न किसी से बाधित होता है न किसी को बाधा देता है। यह इतना सूक्ष्म है कि वङ्कापटल को भेद कर भी जा सकता है। इसकी स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्तमात्र है। मुनि के संदेह में, यह पुतला केवली भगवान के पास जाकर सूक्ष्म पदार्थों का ग्रहण करता है। पुन: आकर मुनि के शरीर में वापस प्रविष्ट हो जाता है और मुनि का संदेह दूर हो जाता है। अथवा वंदना आदि से निकलने में उन्हें वंदना आदि का आनंद प्राप्त हो जाता है।
तैजस ऋद्धि-‘‘तपोविशेष से तैजस शरीर भी प्रगट होता है। अर्थात् तपो विशेष से ऋद्धि की प्राप्ति लब्धि है। इस लब्धि के निमित्त से तैजस शरीर भी होता है। इसके दो भेद हैं-नि:सरणात्मक और अनि:सरणात्मक।’’ औदारिक, वैक्रियिक और आहारक शरीर में दीप्ति करने वाला नि:सरणात्मक है। नि:सरणात्मक तैजस उग्रचारित्रवाले, अतिक्रोधी यति के शरीर से निकलकर जिस पर क्रोध है, उसे घेरकर शाक की तरह पका देता है, फिर वापस यति के शरीर में समा जाता है। यदि अधिक देर ठहर जाये, तो उसे भस्मसात् कर देता है। अन्यत्र इस तैजस के शुभ और अशुभ ऐसे दो भेद किये हैं। अशुभ तैजस-किसी कारण क्रोध उत्पन्न हो जाने पर संयम के निधान महामुनि के बाएँ वंâधे से सिंदूर के ढेर जैसी कांतिवाला बारह योजन लम्बा (९६ मील) सूच्यंगुल के संख्यातवें भागमात्र मूलविस्तार और नौ योजन (७२ मील) अग्र विस्तार वाला काहल (विलाव) के आकार का धारक पुरुष निकल करके बायीं प्रदक्षिणा देकर मुनि को जिस पर क्रोध है उस विरुद्ध पदार्थ को भस्म करे और उसी मुनि के साथ आप भी भस्म हो जावे। जैसे द्वीपायन मुनि के शरीर से पुतला निकलकर द्वारिका नगरी को भस्म करके द्वीपायन मुनि को भी भस्म करके आप भी भस्म हो गया। यह अशुभतैजस समुद्घात है। शुभ तैजस-जगत् को रोग, दुर्भिक्ष आदि से दु:खी देखकर दया उत्पन्न होने से परम संयत निधान महाऋद्धि के मूल शरीर को छोड़कर पूर्वोक्त देह प्रमाण, सौम्य आकृति का धारक, पुरुष दायें कंध से निकलकर दक्षिण प्रदक्षिणा करके रोग, दुर्भिक्ष आदि को दूर कर फिर अपने स्थान में आकर प्रवेश कर जावे, वह ‘शुभतैजस समुद्घात’ है।’’ विशेष-इन आहारक ऋद्धि और तैजसऋद्धि की अपेक्षा भी दिगम्बर मुनियों में भेद हो जाता है।