परप्रीतिकरणातिसर्जनं त्याग:।।६।।
पर की प्रीति के लिये अपनी वस्तु को देना त्याग है। भक्ति से दिया गया आहारदान उस दिन पात्र की प्रीति के लिये होता है। दिया गया अभयदान एक भव में दु:खों को दूर करता है किन्तु सम्यग्ज्ञान का दान देने से अनेक भवों के लाखों दु:खों से यह जीव पार हो जाता है। विधिवत् दिये गये ये तीन प्रकार के दान त्याग इस नाम को प्राप्त होते हैं। अन्यत्र ग्रंथों में आहार, औषधि, अभय और ज्ञान ऐसे चार भेद दान के माने हैं। यथा-
‘‘आहारो सहसत्था भयभेओ जं चउव्विहं दाणं।’’
आहार, औषधि, शास्त्र और अभय इस तरह दान चार प्रकार का है।
धवला में कहा है कि
‘दया बुद्धीए साहूणं णाणदंसण चरित्त परिच्चागो दाणं पासुअ परिचागताणाम।
ण चेदं कारणं घरत्थेसु संभवदि, तत्थ चरित्ता भावादो। तिरयणोवदेसो वि ण घरत्थेसु अत्थि,
तेसिं दिद्विवादादि उवरिम सुत्तोवदेसणे अहियारा भावादा। तदो एदं कारण महेसिणं चेव होदि।
दया बुद्धि से साधुओं द्वारा किये जाने वाले ज्ञान, दर्शन व चारित्र के दान का नाम प्रासुक परित्यागता है। यह कारण गृहस्थों में संभव नहीं है क्योंकि उनमें चारित्र का अभाव है। रत्नत्रय का उपदेश भी गृहस्थों में संभव नहीं है क्योंकि दृष्टिवाद आदि उपरिम श्रुत के उपदेश देने में उनका अधिकार नहीं है अतएव यह कारण महर्षियों के ही होता है।’ इस परमागम के कथन से यह स्पष्ट हो जाता है कि रत्नत्रय के दान से बढ़कर और कोई दान नहीं है तथा इसको देने का व आगम के उपदेश का अधिकार भी मुनियों को ही है, साधारण लोगों को नहीं है।
श्रावकों के आहारदान, औषधिदान आदि का महत्त्व भी अचिन्त्य है। एक समय राजा वज्रजंघ रानी श्रीमती के साथ वन में चारण युगल मुनि को आहार दे रहे थे। उस समय उनके मंत्री, पुरोहित, सेनापति और सेठ ये चारों लोग बड़ी भक्ति से आहारदान देखकर उसकी अनुमोदना कर रहे थे एवं पास में ही शार्दूल, नकुल, वानर तथा सूकर ये चार प्राणी भी आहार देखते हुये हर्षित होकर अनुमोदना कर रहे थे। कुछ दिन बाद राजा वज्रजंघ व रानी श्रीमती अगुरु के धुएँ की गैस से अकस्मात् मृत्यु को प्राप्त हो गये। उस आहारदान के प्रभाव से मरकर युगल दंपती उत्तम भोगभूमि में युगलिया हो गये। उपर्युक्त चारों तिर्यंच भी आहारदान की अनुमोदना मात्र से आयु पूरी कर मरके उसी उत्तम भोगभूमि में आर्य हो गये। इस आहारदान से आठवें भव में राजा वज्रजंघ भगवान् वृषभदेव हुये, रानी श्रीमती का जीव राजा श्रेयांस हुआ। वे मंत्री आदि चारों जन तथा व्याघ्र आदि चारों पशु के जीव क्रम से भगवान् वृषभदेव के पुत्र भरत, बाहुबलि, वृषभसेन, अनंतविजय, अनंतवीर्य, अच्युत, वीर और वरवीर नाम के धारक हुये हैं। यह है आहारदान का फल, ऐसे ही वृषभसेना ने औषधिदान के फल को प्राप्त किया है। सूकर ने अभयदान देकर स्वर्ग पाया है तथा कौंडेश ने ज्ञानदान का फल प्राप्त किया है।
इन चार दानों के सिवाय यहाँ और कोई दान का वर्णन नहीं है ।
जैसा कि एक उदाहरण प्रसिद्ध है
पूर्व विदेह के पुष्कलावती देश में पुंडरीकिणी नाम की नगरी है। किसी समय वहाँ राजा मेघरथ राज्य करते थे। एक दिन वे आष्टान्हिक पर्व में उपवास करते हुये महापूजा करके जैनधर्म का उपदेश दे रहे थे कि इतने में काँपता हुआ एक कबूतर आया और उसके पीछे बड़े ही वेग से एक गिद्ध आया। कबूतर राजा के पास बैठ गया तब गिद्ध ने कहा राजन्! मैं अत्यधिक भूख की वेदना से आकुल हो रहा हूँ अत: आप यह कबूतर मुझे दे दीजिये। हे दानवीर! यदि आप यह कबूतर मुझे नहीं देंगे तो मेरे प्राण अभी आपके सामने ही निकल जायेंगे। मनुष्य की वाणी में गिद्ध को बोलता देखकर युवराज दृढ़रथ ने पूछा-हे देव! कहिये, इस गिद्ध पक्षी के बोलने में क्या रहस्य है? राजा मेघरथ ने कहा, सुनो-
इस जम्बूद्वीप के ऐरावत क्षेत्र में पद्मिनीखेट नाम का एक नगर है। वहाँ के धनमित्र और नंदिषेण नाम के दो भाई धन के निमित्त से आपस में लड़ कर मर गये सो ये कबूतर और गिद्ध पक्षी हो गये हैं और गिद्ध के शरीर में एक देव आ गया है सो यह बोल रहा है। वह कौन है? सो भी सुनो! ईशानेन्द्र ने अपनी सभा में मेरी स्तुति करते हुय यह कहा कि पृथ्वी पर मेघरथ से बढ़कर दूसरा कोई दाता नहीं है। मेरी ऐसी स्तुति सुनकर परीक्षा करने के लिये एक देव वहाँ से आकर इसके शरीर में प्रविष्ट होकर बोल रहा है किन्तु हे भाई! दान का लक्षण आप सभी को मैं समझाता हूँ सो चित्त स्थिर करके उसे सुनो!
स्व और पर के अनुग्रह के लिये जो वस्तु दी जाती है वह दान कहलाता है।
जो शक्ति, विज्ञान, श्रद्धा आदि गुणों से युक्त होता है वह दाता कहलाता है और जो वस्तु देने वाले तथा लेने वाले, दोनों के गुणों को बढ़ाती है उसे देय कहते हैं। ये देय आहार, औषधि, शास्त्र तथा समस्त प्राणियों पर दया करना इस तरह से चार प्रकार का है ऐसा श्री सर्वज्ञदेव ने कहा है। चारों ही शुद्ध देय हैं तथा क्रम से मोक्ष के साधन हैं। जो मोक्षमार्ग में स्थित हैं, अपने आपकी तथा दूसरों की संसार भ्रमण से रक्षा करते हैं वे पात्र कहलाते हैं। इससे अतिरिक्त माँस आदि पदार्थ देय नहीं हैं, इनकी इच्छा करने वाला पात्र नहीं है और इनका देने वाला दाता नहीं है, माँसादि वस्तु के पात्र और दाता ये दोनों तो नरक के अधिकारी हैं। कहने का सारांश यह है कि यह गिद्ध तो दान का पात्र नहीं है और कबूतर देने योग्य नहीं है।
इस प्रकार से मेघरथ की वाणी सुनकर वह देव असली रूप में प्रकट कर राजा की स्तुति करने लगा और कहने लगा कि हे राजन्! तुम अवश्य ही दान के विभाग को जानने वाले दानशूर हो, ऐसी स्तुति करके वह चला गया। उन गिद्ध और कबूतर दोनों पक्षियों ने भी मेघरथ की वही सब बातें समझीं और आयु के अंत में शरीर छोड़कर सुरूप तथा अतिरूप नाम के व्यंतरदेव हो गये। तत्क्षण ही वे दोनों देव राजा मेघरथ के पास आकर स्तुति, वंदना आदि करके कहने लगे हे पूज्य! आपके प्रसाद से ही हम दोनों कुयोनि से निकल सके हैं अत: आपका उपकार हमें सदा ही स्मरण करने योग्य है।
इन चार दानों में भी आहारदान का फल महान है। इसी में देवों द्वारा पंचाश्चर्य वृष्टि होती है ऐसा आगम में कथन है-
मर्यादा पुरुषोत्तम श्री रामचंद्र ने महामुनि सुव्रत आचार्य के पास में जैनेश्वरी दीक्षा धारण कर ली। उस सम शत्रुघ्न, विभीषण, सुग्रीव, नील आदि अनेक राजाओं ने अर्थात् कुछ अधिक सोलह हजार साधु हुये और सत्ताईस हजार प्रमुख स्त्रियाँ श्रीमती नामक साध्वी के पास आर्यिकायें हो गर्इं।
गुरु की आज्ञा पाकर निर्ग्रन्थ मुनि श्री रामचंद्र एकाकी विहार को प्राप्त हुये। उत्तम योग के धारक एवं योग्य विधि का पालन करने वाले उन महामुनि को उसी रात्रि में [[अवधिज्ञान]] उत्पन्न हो गया।
तदनंतर पाँच दिन का उपवास कर धीरे-धीरे महातपस्वी योगी श्री रामचंद्र पारणा के लिए विधिपूर्वक नंदस्थली नगरी में आये। वे राम अपनी दीप्ति से तरुण सूर्य के समान सुशोभित हो रहे थे। महाकांति के प्रवाह से पृथ्वी को तर कर रहे थे। ऐसे श्रीराम को देख नगरी के समस्त लोग क्षोभ को प्राप्त हो गए। लोग परस्पर कहने लगे अहो! आश्चर्य देखो, अहो! आश्चर्य देखो, जो पहले कभी देखने में नहीं आया ऐसा यह लोकोत्तर आकार देखो! अहो! इनका धैर्य धन्य है, सत्व पराक्रम धन्य है, रूप धन्य है, कांति धन्य है, शांति धन्य है, मुक्ति धन्य है और गति धन्य है। अहो! चार हाथ आगे जमीन देखकर चलने वाले ये महापुरुष कौन हैं? किस कुल के अलंकार हैं? और आहार ग्रहण कर किस पर अनुग्रह करेंगे। अहो! जिनका पराक्रम रूप पर्वत क्षोभरहित है ऐसे ये पुरुषोत्तम राम हैं। आओ, आओ, इन्हें देखकर अपने मन, दृष्टि, जन्म, कर्म, बुद्धि, शरीर और चरित्र को सार्थक करो। इस प्रकार नगरवासी लोगों का आश्चर्य से भरा हुआ कोलाहलपूर्ण शब्द उठ खड़ा हुआ।
समयानुकूल चेष्टा करने वाले नर-नारियों के समूह से नगर के लम्बे-चौड़े मार्ग भर गये। कोई उत्तम पदार्थों से परिपूर्ण पात्र हाथ में लिए एवं कोई जल की झारी हाथ में लिए उत्सुकता से भरी अनेकों स्त्रियाँ खड़ी हो गर्इं। अनेक मनुष्य पूर्ण तैयारी के साथ मनोज्ञ जल से भरे हुए कलश ले-लेकर आ पहुँचे। हे स्वामिन्! यहाँ आइये, हे स्वामिन्! यहाँ ठहरिए, हे मुनिराज! प्रसन्नतापूर्वक यहाँ विराजिये। ऐसे पड़गाहन के उत्तमोत्तम शब्द चारों तरफ फैल गये। हर्ष से रोमांचित हुए जन गद्गद होकर जोर-जोर से अस्पष्ट सिंहनाद कर रहे थे। हे मुनीन्द्र! जय हो, हे पुण्य के पर्वत! वृद्धिंगत होवो तथा समृद्धिमान् होवो, इत्यादि वचनों से आकाश व्याप्त हो रहा था।
‘‘शीघ्र ही बर्तन लाओ, थाली को जल्दी देखो, सुवर्ण की थाली जल्दी लाओ, दूध लाओ, गन्ना लाओ, दही पास में रखो, चाँदी के उत्तम बर्तन में शीघ्र ही खीर रखो, शीघ्र ही रबड़ी, शक्कर, मिश्री लाओ, इस बर्तन में कपूर से मिश्रित शीतल जल भरो, शीघ्र ही पूड़ियाँ लाओ, कलश में शीघ्र ही उत्तम शिखरिणी भरो, अरी चतुरे? हर्षपूर्वक उत्तम बड़े-बड़े लड्डू दें।’’ इत्यादि रूप से कुल स्त्रियों और पुरुषों के शब्दों से वह नगर तन्मय (शब्दमय) हो गया है।
उस समय उस नगर के लोग इतने संभ्रम में पड़े हुए थे कि भारी जरूरत के कार्य को भी कुछ नहीं गिन रहे थे, न ही कोई अपने बच्चों को ही देख रहे थे। संकरी गलियों में वेग से दौड़ने वाले कितने ही लोगों ने पड़गाहन करने वाले लोगों के हाथों से बर्तन गिरा दिये और कितनों ने उन पड़गाहन विधि करने वाले मनुष्यों को ही गिरा दिया। बहुत से लोग हड़बड़ाहट के कारण विरुद्ध चेष्टाएँ करने लगे। लोगों के उस भारी कोलाहल से और तेज के कारण हाथियों ने भी अपने बाँधने के खम्भे तोड़ दिये। वे हाथी गंडस्थल के मदजल से पृथ्वीतल को भिगोते हुए दौड़ने लगे। गंभीर घोड़े भी कान खड़े करके और आँखों की पुतलियों को स्थित करके घास खाना भूल गये और भयभीत होकर जोरों से हिनहिनाने लगे। बंधन तोड़कर भागते हुए घोड़ों के पीछे घबराये हुये सईस दौड़ रहे थे ऐसे कितने ही घोड़ों ने मनुष्यों को धक्का दे-देकर व्याकुल कर दिया था।
इस प्रकार जब तक दान के इच्छुक मनुष्य पड़गाहन में पारस्परिक महाक्षोभ कर रहे थे, तब तक क्षुभित सागर के समान उनका घोर शब्द सुनकर राजमहल में स्थित राजा प्रतिनंदी सहसा क्षोभ को प्राप्त होकर ‘यह क्या है?’ ऐसा शब्द करता हुआ अपने परिकर के साथ शीघ्र ही महल की छत पर चढ़ गया। वहाँ से उसने देखा कि पृथ्वी के तिलक ऐसे प्रधान साधु विचर रहे हैं और उन्हीं के निमित्त से यह सारा पृथ्वी को कम्पायमान करने वाला कोलाहल हो रहा है। उसी समय राजा ने बहुत से वीरों को आज्ञा दी कि शीघ्र ही जाकर और प्रीतिपूर्वक नमस्कार कर इन उत्तम योगिराज को हमारे यहाँ ले आवो। वे भट योद्धा क्षण भर में भीड़ को चीरते हुए उन मुनि के पास पहुँच गये और हाथ जोड़ मस्तक से लगाकर विनयपूर्वक कहा-हे भगवन्! ‘इच्छित वस्तु ग्रहण कीजिये’ इस प्रकार हमारे राजा भक्तिपूर्वक प्रार्थना करते हैं सो आप उनके घर पधारिये। अन्य जनों द्वारा निर्मित अपथ्य, विवर्ण एवं नीरज भोजन से आपको क्या लाभ? हे महासाधो! आओ, प्रसन्नता करो और इच्छापूर्वक अभिलषित उत्तम आहार ग्रहण करो, ऐसे कहने वाले सिपाहियों ने पड़गाहन विधि में तत्पर हुई उत्तम स्त्रियों को दूर हटा दिया जिससे उनके चित्त विषाद को प्राप्त हो गये।
इस तरह सिपाहियों द्वारा निवेदन किये जाने पर मर्यादा पुरुषोत्तम श्री रामचंद्र ने आगम विधि से उसे अंतराय समझ लिया और वे राजा तथा नगरवासी दोनों के यहाँ आहार ग्रहण से विमुख होकर वापिस वन की ओर चले गये। तब लोगों में पहले की अपेक्षा और अधिक क्षोभ हो गया। मुनिराज सघन वन में जाकर प्रतिमायोग धारण कर ध्यान में लीन हो गए और पुन: पाँच दिन का उपवास ग्रहण कर लिया।
प्रश्न – कुछ लोग तो ऐसा कहते हैं कि ऐसे पड़गाहन विधि से जब ग्राम, शहर में कोलाहल हो जाता है सो यह नाटकीय दृश्य साधुओं को नहीं उपस्थित करना चाहिये। एक या दो जन पड़गाहन को खड़े हों, शांति से जाकर आहार करके आना चाहिए?
उत्तर – इस पड़गाहन विधि के दृश्य को नाटकीय दृश्य कहने वाले सचमुच में आगम के विरुद्ध वचन बोलते हैं। देखो! जब रामचंद्र जैसे महायोगी की चर्या भी ऐसी कोलाहलपूर्ण हो गई थी तब यदि आज के युग में कदाचित् क्वचित् मुनियों को देखकर उनकी नवधाभक्ति करने वाले श्रावक भक्ति से विभोर होकर घर-घर के दरवाजे पर खड़े होकर पड़गाहन करते हैं तो कोई बड़ी बात नहीं है, बल्कि आगमोक्त विधि यही है।
प्रश्न – पुन: श्री रामचंद्र जी का आहार कब और कैसे हुआ ?
उत्तर – पुन: योगिराज श्रीराम ने यह नियम कर लिया कि ‘‘यदि इस निर्जन वन में ही मुझे आहार मिलेगा तो ग्रहण करूँगा अन्यथा नहीं’’।
इस प्रकार कठिन व्रतपरिसंख्यान लेकर जब वे मुनि पाँच दिन बाद आहार के लिये निकले तब वहीं नंदस्थली नगरी के राजा ने अपनी रानी सहित उसी वन में पड़गाहन कर आहारदान दिया। दैववश वह राजा उस दुष्ट घोड़े के द्वारा हरा जाकर उस वन में लाया गया था और रानी भी खोजते हुये वहीं आ पहुँची थीं। उन्होंने वहीं पर भोजन बनाया था। सो अकस्मात् मुनिराज को देखकर नवधाभक्ति से पड़गाहन करके विधिवत् खीर आदि का आहार दिया। उसी समय आकाश से देवों ने रत्नों की वृष्टि आदि पंचाश्चर्य वृष्टि की और जय-जयकार से आकाश को गुँजा दिया। मुनिराज के आहार के बाद रानी के पात्र में खीर आदि अन्न अक्षीण हो गया अर्थात् वृद्धि को प्राप्त हो गया और उस दिन क्षीण ही नहीं हुआ क्योंकि ये महामुनि महान् अक्षीण आदि ऋद्धि के धारक थे। प्रतिनंदी राजा ने देवों के द्वारा रत्नवर्षा आदि पूजा को प्राप्त किया और मुनिराज से देशव्रत को प्राप्त किया जिससे उस विशुद्ध सम्यक्त्वी राजा ने उस दिन अपने जीवन को सफल माना।
इस प्रकार से यह छठी शक्तितस्त्याग भावना है।