आंतरिक व बाह्य बारह प्रकार के तपों में स्वाध्याय के समान तप न तो है, न हुआ है और न होगा।
स्वाध्याय से लाभ—स्वाध्याय से आत्म—हित का ज्ञान, बुरे विचारों का निवारण, नित्य नया वैराग्य, चारित्र में मजबूती, तप, उत्तम विचार व परोपकार की भावना जाग्रत होती है।
धर्म का आधार—विनय जिन—शासन का आधार है। संयम तथा तप से विनीत बनना चाहिए। जो विनय से रहित है, उसका कैसा धर्म और कैसा तप ?
आज्ञाकारी—जो शिष्य आज्ञाकारी हैं, शास्त्रों के ज्ञाता हैं और विनयशील हैं, वे इस दुस्तर संसार—सागर को तैरकर कर्मों का क्षय करते हैं और उत्तम गति को प्राप्त करते हैं।
विनय— विनय स्वयं तप है और वह आभ्यंतर तप होने से श्रेष्ठ धर्म है।
सुविनीत— अविनीत को विपत्ति प्राप्त होती है और सुविनीत को सम्पत्ति—ये दो बातें जिसने जान ली हैं, वहीं शिक्षा प्राप्त कर सकता है।
विद्या एवं विनय— विनयपूर्वक पढ़ी हुई विद्या, लोक—परलोक में सर्वत्र फलवती होती है। विनयहीन विद्या उसी प्रकार निष्फल होती है, जिस प्रकार जल बिना धान्य की खेती।
चंचल चित्त— जो बाँधने पर भी एक स्थान पर स्थिर नहीं रहता, रोकने पर भी चारोें ओर धूमता ही रहता है, वह चंचल चित्त ध्यान के द्वारा ही शान्त होता है।
श्रुत—ज्ञान— शास्त्रों के अध्ययन के द्वारा ज्ञान और चित्त की एकाग्रता मिलती है। व्यक्ति स्वयं धर्म में स्थिर होता है और दूसरों को भी स्थिर करता है तथा श्रुतसमाधि प्राप्त करता है।
पाँच बाधाएँ— अभिमान, क्रोध, प्रमाद,रोग और आलस्य—इन पाँच बाधाओं के कारण शिक्षा प्राप्त नहीं होता।
विषैले काँटोवाली लता—— जिस प्रकार विषैले काँटोवाली लता से वेष्टित होने पर अमृत वृक्ष का भी कोई आश्रय नहीं लेता, उसी प्रकार दूसरों का तिरस्कार करने वाले विद्वान् को भी कोई नहीं पूछता।
अध्ययन के योग्य नहीं——चार प्रकार के पुरुष पुरुष शास्त्राध्ययन के योग्य नहीं होते—अविनीत, चटोरा, झगड़ालू और धूर्त।
आचार्य—जैसे एक दीप से सैकड़ों दीप जल उठते हैं और वह स्वयं भी जलता रहता है, वैसे ही आचार्य दीपक के समान होते है, वे स्वयं प्रकाशमान रहते हैं और दूसरों को भी प्रकाशित करते हैं।
विवेक—विवेकपूर्वक चलनेवाला, विवेकपूर्वक खड़ा होनेवाला, विवेकपूर्वक बैठनेवाला, विवेकपूर्वक सोने वाला, विवेकपूर्वक भोजन व बातचीत करने वाला व्यत्ति पाप—कर्म का बंधन नहीं करता।
निर्लेप— यदि साधक प्रत्येक कार्य विवेकापूर्वक करता है, तो वह जल में कमल की भाँति जगत् में निर्लेप रहता है।
वक्ता के गुण— आत्मार्थी पुरुष यथार्थ, परिमित, संदेहरहित व परिपूर्ण वचन बोले वाचालरहित व किसी को भी उद्विग्न करने वाले न हों।
वाणी—विवेक— साधक बिना पूछे, गुरुजन वार्तालाप कर रहे हों तब बीच में न बोेले, दूसरों की चुगली न खाए और कपटयुक्त असत्य का त्याग करे।
बुद्धि से परखना— पहले बुद्धि से परखकर फिर बोलना चाहिए। अन्धा व्यक्ति जिस प्रकार पथ पथ—दर्शक की अपेक्षा रखता है उसी प्रकार वाणी बुद्धि की अपेक्षा रखती है।
वचन का उद्देश्य— वचन की फलश्रुति है—अर्थज्ञान। जिस वचन के बोलने से अर्थ का ज्ञान नहीं हो उस वचन से क्या लाभ ?
वाणी का विनय— हितकारी मधुर, संक्षिप्त और विचारपूर्वक बोलना वाणी का विनय है।
सीख—आलसी सुखी नहीं हो सकता, निद्रालु विद्याध्यायी नहीं हो सकता, ममत्व रखने वाला वैराग्यवान् नही हो सकता है और हिंसक दयालु नहीं हो सकता।
अवसर बार—बार नहीं— सद्बोध प्राप्त करने का अवसर बार—बार मिलना सुलभ नहीं।
जाग्रत— मनुष्यों! सतत जाग्रत रहो। जो जागता है, उसकी बुद्धि बढ़ती है। जो सोता है, वह धन्य नहीं है। धन्य वह है जो सदा जागरूक रहता है।
अविलम्ब— विलम्ब मत करो! जो कार्य कल करोगे, वह आज ही कर लो। क्योंकि निर्दयी मृत्यु किसी भी क्षण आकर दबोच लेगी।
निर्भय— जिसके हृदय में संसार के प्रति वैराग्य उत्पन् न करने वाली, शल्य—रहित, दंभ—शून्य, मेरू पर्वत के समान निष्कंप और दृढ़ जिनभक्ति है, उसे संसार में किसी का भय नहीं है।
आहार— साधक स्वाद या आंनद के लिए आहार नहीं करते; वे स्वाघ्याय में प्रवृत्ति के लिए आवश्यक हो, उतना मात्र ही आहार करते है।
सरस भोजन— अधिक रसयुक्त भोजन आत्मार्थी पुरुष के लिए तालपुट (तत्काल प्राणधातक विष) की तरह होता है।
स्वयं अपने वैद्य—जो व्यक्ति हिताहारी, मिताहारी और अल्पाहारी हैं, उन्हें किसी वैद्य से चिकित्सा कराने की आवश्यकता नहीं पड़ती। वे स्वयं ही अपने वैद्य हैं, चिकित्सक हैं।
रात्रि भोजन वर्जनीय— रात्रि को भोजन करना वर्जनीय है।
संगति — संगति से ही बोधि वृद्धि होती है और संगति से ही वह नष्ट हो जाती है। जैसे कमल के संसर्ग से जल सुंगधित हो जाता है और अग्नि आदि के सम्बन्ध से उष्ण और विरस।
कल्याणकारी मित्र— जितेन्द्रय व ज्ञानवान् साधक अहिंसा एवं सम्यक्त्व को ठीक प्रकार से जानकर सदैव कल्याणकारी मित्र का ही साथ करें।
दुर्जन— दुर्जन की संगति करने से सज्जन का भी महत्त्व गिर जाता है, जैसे कि मूल्यवान् माला मुर्दें पर डालने से निक्कमी हो जाती है।
दुर्विनीत— जो व्यक्ति दुर्विनीत है, उसे सदाचार की शिक्षा नहीं देनी चाहिये। भला जिसके हाथ—पैर कटे हुए है, उसे अलंकार क्यो दिये जायें?
ध्यान— जैसे मनुष्य के शरीर में सिर और वृक्ष में उसकी जड़ मुख्य है, वैसे ही साधु के समस्त धर्मों का मूल ध्यान है।
सामायिक— जीवन और मरण, लाभ और हानि, संयोग और वियोग, मित्र और शत्रु तथा सुख और दु:ख में राग—द्धेष रहित भाव ही सामायिक है।
ध्यान—रूपी अग्नि— जैसे चिरसंचित र्इंधन को वायु से उद्दीप्त अग्नि तत्काल जला डालती है, वैसे ही घ्यान—रूपी अग्नि अपरिमित कर्म—र्इंधन को क्षणभर में भस्म कर डालती है।
ध्यान का फल— जिसका मन ध्यान मेें लीन है, वह पुरुष कषाय से उत्पन्न ईष्या, विषाद, शोक आदि मानसिक दु:खों से पीड़ित नहीं होता।
पुत्र— चार प्रकार के पुत्र होते हैं— कुछ पुत्र गुणों की दृष्टि से अपने पिता से बढ़कर होते हैं, कुछ पिता के समान होते हैं, कुछ पिता से हीन होते हैं और कुछ पुत्र वंश का सर्वनाश करनेवाले—कुलांगार होते हैं।
भेंट— चार प्रकार की संगति— कुछ मनुष्यों की भेंट अच्छी होती है, किन्तु सहवास अच्छा नहीं होता। कुछ का सहवास अच्छा रहता हैं, भेंट नहीं। कुछ की भेंट भी अच्छी होती है और सहवास भी अच्छा होता है। कुछ का न सहवास अच्छा होता है और न भेंट ही अच्छी होती है।
चार प्रकार के दानी—मेघ के समान दानी भी चार प्रकार के होते हैं—कुछ बोलते हैं देते नहीं हैं कुछ देते हैं किन्तु कभी बोलते नहीं। कुछ बोलते भी हैं और देते भी हैं। कुछ न बोलते हैं और न देते हैं।
मानवीय गुण—सरलता, विनम्रता, दयालुता, अमत्सरता—ये चार तरह के व्यवहार मानवीय गुण हैं, जिनसे मनुष्य—भव प्राप्त—भव प्राप्त होता है।
अभव्य— अभव्य जीव कितने ही शास्त्रों का अध्ययन कर ले, किन्तु फिर भी वह अपना स्वभाव नहीं छोड़ता। साँप चाहे कितना ही दूध पी ले, किन्तु अपना विषैला स्वभाव नहीं छोड़ता।
गुप्त पाप— जिस प्रकार कोई छिपकर विष पी लेता है, तो क्या वह उस विष से नहीं मरेगा? अवश्य मरेगा। उसी प्रकार जो छिपकर पाप करता है, तो क्या वह उससे दूषित नहीं होगा? अवश्य होगा।
उच्च और नीच कुल— यह पुरुष अनेक बार उच्च और नीच गोत्रों को भुगत चुका है। अत: न यहाँ कोई उच्च है न नीच। इसलिए वह उच्च गोत्र की स्पृहा न करे। इस सच्चाई को जान लेने पर कौन गोत्रवादी होगा? कौन मानवादी होगा? और कौन किसी गोत्र में आसक्ति दिखायेगा?
वर्तमान क्षण— जो क्षण वर्तमान में उपस्थित है, वही महत्त्वपूर्ण है, यह जानकर उसे सफल बनाना चाहिए।
दु:शील— जैसे सड़े हुए कानों वाली कुत्तिया सभी स्थानों से निकाली जातही है, उसी तरह दु:शील एवं गुरुजनोंं के प्रतिकूल आचरण करनेवाला और वाचाल व्यक्ति सभी स्थानों से अपमानपूर्वक निकाल दिया जाता है।
तिरस्कार—जो दूसरों का तिरस्कार करता है, वह दीर्घकाल तक जन्म व मरण के चक्र में भटकता रहता है।
गोपनीय—भिक्षु कानों से बहुत—सी बातें सुनता है और आँखों से बहुत बहुत कुछ देखता है। किन्तु ये सारी बाते लोगों को कहना उचित नहीं मानते।
व्यर्थ प्रलाप— ‘‘यह मेरा है और यह मेरा नहीं है, यह मैंने किया है और यह मैंने नहीं किया’’—इस प्रकार वृथा प्रलाप करते हुए ही कालरूपी चोर प्राणों को हर लेता है। फिर धर्म में यह प्रमाद क्यो?
परदोष दर्शन— दुर्जन अपने बड़े दोषों को जानते हुए भी अनदेखा कर देता है किन्तु दुसरों के राई जैसे छोटे दोषों को भी पर्वत जैसा बड़ा बना देता है।
पछतावा— जो समय पर अपना कार्य कर लेते हैं, वे बाद में नहीं पछताते।
सेवा—सेवा (वैयावृत्त्य) से आत्मा तीर्थंकर होने जैसे उत्कृष्ट पुण्य कर्म व गोत्र का उपार्जन करती है।
अप्रमाद—जैसे कुश की नोंक पर ओस—बिन्दु कुछ ही समय के लिए टिकता है,मानव जीवन भी वैसा ही अस्थिर है। हे जीव! तू क्षणभर के लिए भी प्रमाद मत कर।
निर्लिप्त—जल कमल शरद ऋतु के निर्मल जल से भी निर्लिप्त रहता है, वैसे ही तू अपनी सारी आसक्तियों को छोड़। हे जीव! क्षणभर के लिए भी प्रमाद मत कर।
अस्थिर जीवन— जैसे समय आने पर वृक्ष के पत्ते पीले पड़ते हुए पृथ्वी पर झड़ जाते हैं, उसी तरह मनुष्य जीवन भी आयु शेष होने पर समाप्त हो जाता है। हे गौतम! (जीव!) क्षणभर के लिए भी प्रमाद मत कर।
दुर्लभ मनुष्य—भव—निश्चय ही मनुष्य—योनि में जन्म पाना बहुत दुर्लभ है। सभी प्राणियों को वह बड़े दीर्घकाल के बाद प्राप्त होता है। कर्मों के फल बड़े गाढ़ होते हैं। हे जीव! क्षणभर के लिए भी प्रमाद मत कर।
किनारे पर क्यों खड़े?—जब तू विशाल सागर को तैर चुका है, तब तट पर आकर क्यों खड़ा है? पार पहुँचने के लिए शीघ्रता कर।हे जीव ! क्षणभर के लिए भी प्रमाद भी मत कर।
जिनवाणी का सार— जो तुम अपने लिए चाहते हो, वही दूसरों के लिए भी चाहो तथा जो तुम अपने लिए नहीं चाहते, वह दूसरों के लिए भी मत चाहो। यही जिनशासन का सार है।
शास्त्रों का सार— प्ररूपणा का सार—आचरण! आचरण का सार (अंतिम फल) है—निर्वाण।