गाँव के बाहर उद्यान में ठहरे हुए रामचन्द्र देख रहे हैं कि शहर के लोग जल्दी-जल्दी बाहर भागे जा रहे हैं। तब एक मनुष्य से रामचन्द्र पूछते हैं – ‘‘हे भद्र! आप सभी लोग किस कारण यहाँ से भागे जा रहे हो?’’ उसने कहा – ‘‘देव! इस पर्वत के शिखर पर रात्रि में बहुत हीभयंकर शब्द होता है कि जिसे सभी लोग श्रवण कर सहन करने में समर्थ नहीं हैं। आज तीसरा दिन है उस भयंकर शब्द से ऐसा लगता है कि मानों पृथ्वी हिल रही है। लोगों के कान बहरे हो जाते हैं। अतः सभी लोग शाम को यहाँ से भागकर पास के एक गाँव में ठहर जाते हैंऔर प्रातः होते ही वापस आ जाते हैं।’’ यह सुनकर सीता ने कहा – ‘‘स्वामिन्! जहाँ सब लोग जा रहे हैं अपन भी वहीं चलें। पुनः प्रातः वापस यहाँ आ जायेंगे।’’ तब रामचन्द्र ने हंसकर कहा – ‘‘देवि! यदि तुम्हें भय लगता है तो तुम इन लोगों के साथ ही वहाँ चली जाओ और सुबह यहाँ आकर हम दोनों को ढूँढ लेना। इस पर्वत पर यह भयंकर शब्द किसका है? सो हम लोग तो अवश्य ही देखेंगे। ये दीन लोग बेचारे बाल-बच्चे सहित हैं। इनकी आखिर इस भय से रक्षा कौन करेगा?’’ सीता यह सुनकर काँपती हुई आवाज में बोलती है – ‘‘हमेशा आप लोगों की हठ केकड़े की पकड़ के समान विलक्षण ही है उसे दूर करने के लिए भला कौन समर्थ है?’’ वह पुनः श्रीराम के पीछे-पीछे चलने लगती है।अतीव थकान के बाद ऊपर चढ़कर ये लोग चारों तरफ दृष्टिपात करते हैं तो वहाँ क्या देखते हैं कि दो मुनिराज उत्तम ध्यान में आरूढ़ हैं। उनको देखते ही इन लोगों की थकान समाप्त हो जाती है और हर्ष से विभोर हो निकट पहुँचते हैं। उस समय मुनियों के शरीर में अनेक सर्प और बिच्छू लिपटे हुए थे जो अति भयंकर दिख रहे थे। उन्हें देखकर रामचन्द्र और लक्ष्मण जैसे-तैसे उन जन्तुओं को अपने धनुष के अग्रभाग से दूर करते हैं किन्तु पुनः पुनः वे जन्तु वहाँ आ जाते हैं। अनन्तर भक्ति से भरी सीता निर्झर के जल से उन मुनियों के चरणों का प्रक्षालन करती है, गन्ध का लेपन करती है। पुनः लक्ष्मण के द्वारा लाकर दिये गये सुगंधित पुष्पों से उनके चरणों की पूजा करती है। पश्चात् अंजलि जोड़कर तीनों जन खूब स्तुति करते हैं। रामचन्द्र वीणा बजाते हैं और सीता भक्ति में विभोर हो सुन्दर नृत्य करती है। धीरे-धीरे सूर्य अस्त हो जाता है और चारों तरफ अंधकार अपना साम्राज्य फैला लेता है। उसी समय ऐसा विचित्र शब्द सुनाई देता है कि मानों यह आकाश ही भेदन कर डालेगा। रुण्ड-मुण्ड विकराल रूप दिखाने लगते हैं। डाकिनी नाचने लगती हैं। राक्षस, भूत, पिशाचों का अट्टहास होने लगता है। सीता घबड़ाकर रामचन्द्र से चिपट जाती है तब रामचन्द्र बोलते हैं – ‘‘हे देवि! हे शुभमानसे! डरो मत, सर्व प्रकार के भय को दूर करने वाले इन मुनियों के चरणों का आश्रय लेकर बैठ जाओ।’’
आसन्नानां च वल्लीनां कुसुमैर्वन सौरभैः। लक्ष्मीधरापितैः शुक्लैः पूरितांतरमर्चितौ।।४५।।
(पद्मपुराण, पर्व ३९ पृ. ११)
इतना कहकर रामचन्द्र सीता को मुनि के चरणों के समीप बिठाकर स्वयं लक्ष्मण के साथ धनुष को तान कर खड़े हो जाते हैं। इन दोनों के धनुष की टंकार से ऐसा प्रतीत होता है कि मानों आकाश से वङ्का ही गिर रहे हों। तदनन्तर ‘ये बलभद्र और नारायण हैं’ ऐसा जानकर वह अग्निप्रभ नाम का देव घबड़ा कर भाग जाता है। उन ज्योतिषी देव के जाते ही सब चेष्टाएं तत्क्षण ही विलीन हो जाती हैं। उसी क्षण मुनिराज क्षपक श्रेणी पर आरोहण कर घातिया कर्मों का नाश कर देते हैं और दोनों को एक साथ ही केवलज्ञान प्रगट हो जाता है। समय मात्र में ही चतुर्निकाय देव अपने वाहनों पर सवार हो वहाँ एकत्रित हो जाते हैंं। दोनों मुनि गंधकुटी में विराजमान हो जाते हैं। उस समय वहाँ पर रात दिन का भेद समाप्त हो जाता है। बारह सभा में सब यथास्थान बैठ जाते हैं। इन्द्रादि लोग केवलज्ञान महोत्सव मनाकर भगवान् की दिव्यध्वनि को श्रवण करते हुए अपने-अपने कोठे में बैठ जाते हैं। राम-लक्ष्मण भी सीता के साथ केवली भगवान् की पूजा करके मनुष्य के कोठे में जा बैठते हैंं। श्री रामचन्द्र प्रश्न करते हैं-‘‘प्रभो! इस देव ने आप पर अथवा अपने पर ही यह उपसर्ग क्यों किया है?’’ केवली भगवान् की दिव्यध्वनि खिरती है – ‘‘पद्मिनी नगर के राजा विजयपर्वत का एक अमृतस्वर नाम का दूत था उसकी उपयोगा नाम की भार्या थी और उदित और मुदित नाम के दो पुत्र थे। अमृतस्वर का एक वसुभूति नाम का मित्र था, जो उपयोगा के साथ गुप्त रूप से व्यभिचार कर्म करता था। एक दिन उपयोगा की प्रेरणा से उसने अमृतस्वर को मार डाला। पुत्रों को विदित होने से पितृघाती वसुभूति को इन दोनों ने भी जान से मार दिया। कुछ दिन बाद उदित और मुदित दोनों भाई दीक्षा लेकर मुनि हो गये और कई भवों के बाद ये सिद्धार्थ नगर के राजा क्षेमंकर की विमला देवी रानी के पुत्र हो गये। इनका देशभूषण और कुलभूषण ये नाम रखा गया। सागरसेन नामक महाविद्वान के पास ये दोनों विद्याध्ययन करने लगे और उस विद्याध्ययन में ये इतने तन्मय हुए कि इन्हें अपने घर का ही कुछ पता नहीं रहा। विद्याध्ययन के अनन्तर विवाह योग्य देखकर पिता ने राजकन्यायें बुलाई हैं ऐसा इन्हें विदित हुआ। दोनों भाई उस समय नगर की शोभा देखते हुए बाहर जा रहेथे कि अकस्मात् उनकी दृष्टि ऊँचे महल के झरोखे में बैठी हुई एक कन्या पर पड़ी। दोनों ही भाइयों ने उस कन्या के लिए अपने-अपने मन में एक-दूसरे भाई के वध करने का विचार बना लिया। उसी समय बंदी के मुख से यह शब्द निकला कि-‘‘राजा क्षेमंकर और महारानी विमला सदा जयवन्त रहें कि जिनके ये देवों के समान दोनों पुत्र हैं तथा झरोखे में बैठी हुई यह कमलोत्सवा कन्या भी धन्य है कि जिसके ये दोनों भाई हैं।’’ बंदी के मुख से ऐसा सुनकर ‘अरे! यह हमारी बहन है’ ऐसा सोचकर उसी क्षण दोनों भाई परम वैराग्य को प्राप्त हो गये। ‘‘अहो! हम लोगों के द्वारा इस भारी पाप को धिक्कार हो, धिक्कार हो, धिक्कार हो। अहो! मोह की दारुणता तो देखो कि जिससे हमने बहन की ही इच्छा की। हम लोग तो प्रमाद से ऐसा विचार मन में आ जाने से ही दुःखी हो रहे हैं। पुनः जो जानबूझ कर ऐसा पाप करते होंगे उन्हें क्या कहना चाहिए?’’ इत्यादि रूप से सोचते हुए दोनों भाई एक-दूसरे सेअपने मन की बात कहकर दीक्षा के लिए तैयार हो गये। माता-पिता आदि के अनेक प्रयत्नों के बावजूद भी ये दीक्षित हो नाना देशों में विहार कर यहाँ आये और प्रतिमायोग में स्थित हो गये। जो वह हमारे पिता को मारने वाला वसुभूति था वह अनेक पर्यायों में भ्रमण कर एक बार अनुंधर नाम का तापसी हो गया और मिथ्या तप के प्रभाव से ज्योतिषी देवों में अग्निप्रभ देव हो गया। एक समय इसने अनन्तवीर्य केवली के मुख से यह सुना कि मुनिसुव्रत भगवान के तीर्थ में देशभूषण कुलभुषण केवली होंगे। सो यहाँ हम दोनों को देखकर इसने सोचा कि मैं ‘अनन्तवीर्य केवली’ के वचनों को मिथ्या कर दूूँ।’ इस भाव से तथा पूर्व के वैर के निमित्त से इसने हम दोनों पर उपसर्ग करना प्रारंभ कर दिया। पुनः तुम्हें ‘बलभद्र’ समझ भयभीत हो तिरोहित हो गया है।अनन्तर दिव्यध्वनि से तमाम लोग धर्मामृत पीकर तृप्त हुए। राम ने यह सुना कि मैं इसी भव से मोक्ष प्राप्त करूँगा। रामचन्द्र को चरम शरीरी जान समस्त राजागण जयध्वनि के साथ उनकी स्तुति कर उन्हें नमस्कार करते हैं। वंशस्थल नगर के राजा सुरप्रभ राम से अपने नगर में चलने के लिए बहुत कुछ आग्रह करते हैं किन्तु वे स्वीकार न कर उसी पर्वत पर निवास करते हैं। तब राजा सुरप्रभ वहीं पर तमाम ध्वजा, तोरण आदि लगाकर भूमि कोअतिशय रम्य कर देते हैं और तो क्या उस समय श्रीराम जहाँ-जहाँ चरण रखते हैं, वहाँ-वहाँ पृथ्वी तल पर बड़े- बड़े कमल रख दिये जाते हैं। जहाँ-तहाँ मणियों और सुवर्ण से चित्रित अतिशय सुखद स्पर्श वाले आसन और स्थान बनाये गये हैं। भोजनशाला आदि की उत्तम व्यवस्था की गयी है। गौतम स्वामी कहते हैं कि – ‘‘हे राजन् ! जगत के चन्द्र स्वरूप रामचन्द्र ने उस पर्वत पर भगवान् जिनेन्द्र देव की हजारों प्रतिमाएं बनवाई थीं । जिनमें सदा महामहोत्सव होते रहते थे। ऐसे राम के बनवाये हुए जिन-मंदिरों की पंक्तियाँ उस पर्वत पर जहाँ -तहाँ सुशोभित हो रही थीं। उन मंदिरों में सर्व लोगों द्वारा नमस्कृत पंचवर्ण की जिनप्रतिमाएं अतिशय शोभायमान हो रही थीं ।’’अनन्तर एक दिन रामचन्द्र लक्ष्मण से कहते हैं – ‘‘अब आगे क्या करना है? इस उत्तम पर्वत पर सुख से बहुत समय व्यतीत किया है, जिनमंदिरों के निर्माण से उज्ज्वल कीर्ति प्राप्त की है। हे भाई! देखो, ये राजा उत्तम- उत्तम सेवा के वशीभूत होकर यदि यहीं रहते हैं तो अपना संकल्पित कार्य नष्ट होता है। यद्यपि इन भोगों से हमें कोई प्रयोजन नहीं है तो भी, ये भोग हमें क्षण भर के लिए नहीं छोड़ते हैं। यहाँ रहते हुए हमारे जो भी दिन व्यतीत हो गये उनका फिर से आगमन नहीं होगा। हे लक्ष्मण! सुनते हैं कर्णरवा नदी के उस पार दण्डक वन है जहाँ भूमिगोचरियों का पहुँचना प्रायः कठिन है। अपन वहीं चलें, देशों से रहित उस वन में भरत की आज्ञा का प्रवेश नहीं है इसलिए वहाँ अपना घर बनायेंगें और शोक से व्याकुल हुई अपनी माताओं को वहीं ले आयेंगे।’’ ऐसा सुनकर लक्ष्मण ने कहा – ‘‘जो आज्ञा!’’ उस समय वंशस्थल का राजा बहुत दूर तक उन दोनों को छोड़ने आता है पुनः शोकाकुल हो वापस चला जाता है। ये लोग निर्मोह भाव से आगे बढ़ते जा रहे हैं।