पांच स्थावर के चार-चार भेदों में दो-दो निर्जीव हैं।
पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतयः स्थावराः।।१३।। पृथिवी च आपश्च तेजश्च वायुश्च वनस्पतिश्च पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतयः। तिष्ठन्ति इत्येवंशीलाः स्थावराः। एते पृथिव्यादय एकेन्द्रियजीवविशेषाःस्थावरनामकर्मो-दयात् स्थावराःकथ्यन्ते। ते तु प्रत्येक चतुर्विधाः-पृथिवी,पृथिवीकायः, पृथिवीकायिकः पृथिवीजीवः।आपः,अप्कायः,अप्कायिकः, अप्जीवः। तेजः, तेज:कायः, तेजकायिकाः तेजोजीवः। वायुः, वायुकायः, वायुकायिकाः, वायुजीवः। वनस्पतिः, वनस्पतिकायः, वनस्पतिकायिकः,वनस्पतिजीव इति। तत्र अध्वादिस्थिता धूलिः पृथिवी। इष्टकादिः पृथ्विीकायः। पृथ्वीकायिक-जीवपरिहृतत्वात् इष्टकादिः पृथ्वीकायःकथ्यते मृतमनुष्यादिकायवत् । तत्र स्थावर-कायनामकर्मोदयो नास्ति,तेन तद्विराधनायामपि दोषो न भवति। पृथिवीकायो विद्यते यस्य स पृथ्वीकायिकः। इन् विषये इको वाच्यः। तद्विराधनायां दोष उत्पद्यते। विग्रहगतौ प्रवृत्तो यो जीवोऽद्यापि पृथिवीमध्ये नोत्पन्न: समयेन समयद्वयेन समयत्रयेण वा यावदनाहारक: पृथिवीं कायत्वेन यो गृहीष्यति प्राप्तपृथ्वीनामकर्मोदयः कार्मण-काययोगस्थः स पृथिवीजीवः कथ्यते। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति ये पाँच स्थावरकाय हैं।।१३।।
सूत्र में पृथिवीकाय आदि के साथ द्वन्द्व समास है। शब्दार्थ की अपेक्षा स्थानशील को स्थावर कहते हैं। परन्तु आगमानुसार स्थावर नाम कर्म का उदय होने से ये पृथ्वीकाय आदि पाँचों एकेन्द्रिय जीव विशेष स्थावर नाम कर्म का उदय होने से ये पृथ्वीकाय आदि पाँचों एकेन्द्रिय जीव विशेष स्थावर कहलाते हैं। इनमें प्रत्येक के चार—चार भेद हैं। पृथिवी, पृथ्वीकाय, पृथ्वीकायिक और पृथ्वीजीव। जल, जलकाय, जलकायिक और जलजीव। अग्नि, अग्निकाय, अग्निकायिक और अग्निजीव। वायु, वायुकाय, वायुकायिक और वायुजीव। वनस्पति, वनस्पतिकाय, वनस्पतिकायिक और वनस्पतिजीव। मार्ग में पड़ी हुई धूलि आदि पृथ्वी है। पृथ्वीकायिक जीव के द्वारा परित्यक्त र्इंट आदि पृथ्वीकाय है। जैसे मृतक मनुष्य आदि का शरीर। पृथिवी और पृथिवीकाय के स्थावर नामकर्म का उदय न होने से वे निर्जीव हैं अत: इनकी विराधना में दोष (िंहसा) नहीं है। जिस जीव के पृथ्वीरूपकाय विद्यमान है, उसे पृथिवीकायिक कहते हैं। अर्थात् यह जीव पृथिवीरूप शरीर के सम्बन्ध से युक्त है। इन विषय में ‘इक््â’ प्रत्यय वाच्य है अत: जीव सहित होने से इनकी विराधना में दोष (िंहसा) उत्पन्न होते हैं। विग्रहगति में स्थित जीव जब तक पृथिवी के मध्य में उत्पन्न नहीं हुआ है (अर्थात् जब तक इस जीव ने पृथ्वी को कायरूप से ग्रहण नहीं किया है) तब तक एक, दो, तीन समय तक अनाहारक है, दो, तीन समय के बाद जो पृथिवी को कायरूप से ग्रहण करेगा जिसके पृथिवी नामकर्म का उदय है और जो कार्मण काययोग में स्थित है—वह जीव पृथ्वीजीव कहलाता है।