अन्त्य: केवलिनामस्मिन्भरते स प्ररूप्यते। नन्दी मुनिस्तत: श्रेष्ठो नन्दिमित्रोऽपराजित:।।५१९।।
अन्त में वे पावापुर नगर में पहुंँचेंगे, वहाँ के मनोहर नाम के वन के भीतर अनेक सरोवरों के बीच में मणिमयी शिला पर विराजमान होंगे। विहार छोड़कर निर्जरा को बढ़ाते हुए वे दो दिन तक वहाँ विराजमान रहेंगे और फिर र्काितककृष्ण चतुर्दशी के दिन रात्रि में अन्तिम समय स्वातिनक्षत्र में अतिशय देदीप्यमान तीसरे शुक्लध्यान में तत्पर होंगे। तदनन्तर तीनों योगों का निरोधकर समुच्छिन्नक्रियाप्रतिपाति नामक चतुर्थ शुक्लध्यान को धारण कर चारों अघातिया कर्मों का क्षय कर देंगे ओैर शरीररहित केवलगुणरूप होकर एक हजार मुनियों के साथ सबके द्वारा वाञ्छनीय मोक्षपद प्राप्त करेंगे ।।५०९-५१२।। वही उनका, अनन्त सुख को करने वाला सबसे बड़ा पुरुषार्थ होगा-उनके पुरुषार्थ की वही अन्तिम सीमा होगी। तदनन्तर इन्द्रादि सब देव आवेंगे और अग्नीन्द्र कुमार के मुकुट से प्रज्वलित होने वाली अग्नि की शिखा पर भगवान् महावीर स्वामी का शरीर रखेंगे। स्वर्ग से लाये हुए गन्ध, माला आदि उत्तमोत्तम पदार्थों के द्वारा मोह के शत्रुभूत उन तीर्थंकर भगवान् की विधिपूर्वक पूजा करेंगे और फिर अनेक अर्थों से भरी हुई स्तुतियों के द्वारा संसार-भ्रमण से पार होने वाले उन भगवान् की स्तुति करेंगे। जिस दिन भगवान् महावीर स्वामी को निर्वाण प्राप्त होगा उसी दिन मैं भी घातिया कर्मों को नष्टकर केवलज्ञानरूपी नेत्र को प्रकट करने वाला होउँगा और भव्य जीवों को धर्मोपदेश देता हुआ अनेक देशों में विहार करूँगा। तदनन्तर विपुलाचल पर्वत पर जाकर निर्वाण प्राप्त करूँगा। मेरे निर्वाण जाने के दिन ही समस्त श्रुतज्ञान के पारगामी सुधर्म गणधर भी लोक ओर अलोक को प्रकाशित करने वाले केवलज्ञानरूपी अन्तिम लोचन को प्राप्त करेंगे और उनके मोक्ष जाने के समय ही जम्बूस्वामी केवलज्ञान प्राप्त करेंगे। वह जम्बूस्वामी भरतक्षेत्र में अन्तिम केवली कहलावेंगे।।५१३से ५१९।।