संपहि गंथकत्तारपरूवणं कस्सामो। वयणेण विणा अत्थपदुप्पायणं ण संभवइ,सुहुमत्थाणं सण्णाए परूवणाणुववत्तीदो। ण चाणक्खराए झुणीए अत्थपदुप्पायणं जुज्जदे, अणक्खरभासतिरिक्खे मोत्तूणण्णेसिं तत्तो अत्थावगमाभावादो। ण च दिव्वज्झुणी अणक्खरप्पिया चेव, अट्ठारस-सत्तसयभास-कुभासप्पियत्तादो।
अब ग्रन्थकर्ता की प्ररूपणा करते हैं।
शंका—वचन के बिना अर्थ का व्याख्यान सम्भव नहीं है, क्योंकि सूक्ष्म पदार्थों की संज्ञा अर्थात् संकेत द्वारा प्ररूपणा नहीं बन सकती। यदि कहा जाय कि अनक्षरात्मक ध्वनि द्वारा अर्थ की प्ररूपणा हो सकती है, सो यह भी योग्य नहीं; क्योंकि अनक्षर भाषा युक्त तिर्यंचों को छोड़कर अन्य जीवों को उससे अर्थ ज्ञान नहीं हो सकता और दिव्यध्वनि अनक्षरात्मक ही हो, सो भी नहीं है; क्योंकि वह अठारह महाभाषा एवं सात सौ लघु भाषा स्वरूप है। (धवला पुस्तक ९ पृ. १२६)