यहां से आगे प्रकृतकी प्ररूपणा करते हैं- लोहाचार्य के स्वर्गलोक को प्राप्त होने पर आचारांगरूपी सूर्य अस्त हो गया। इस प्रकार भरतक्षेत्र में बारह सूर्यों के अस्तमित हो जाने पर शेष आचार्य सब अंग-पूर्वों के एकदेशभूत ‘पेज्जदरोस ’और ‘महाकम्मपयडिपाहुड’ आदिकों के धारक हुए। इस प्रकार प्रमाणीभूत मर्हिषरूप प्रणाली से आकर महाकम्मपयडिपाहुडरूप अमृत-जलप्रवाह धरसेन भट्टारक को प्राप्त हुआ। उन्होंने भी गिरिनगर की चन्द्र गुफा में सम्पूर्ण महाकम्मपयडिपाहुड भूतबलि और पुष्पदन्त को अर्पित किया। पश्चात् श्रुतरूपी नदी प्रवाह के व्युच्छेद से भयभीत हुए भूतबलि भट्टारक ने भव्यजनों के अनुग्रहार्थ महाकम्मपयडिपाहुड का उपसंहार कर छह खण्ड (षट्खंडागम)किये। अतएव त्रिकालविषयक समस्त पदार्थों को विषय करने वाले प्रत्यक्ष अनन्त केवलज्ञान के प्रभाव से प्रमाणीभूत आचार्यरूप प्रणाली से आने के कारण प्रत्यक्ष व अनुमान से चूंकि विरोध से रहित है अतः यह ग्रन्थ प्रमाण है। इस कारण मोक्षाभिलाषी भव्य जीवों को इसका अभ्यास करना चाहिये। चूंकि यह ग्रन्थ स्तोक है अतः वह मोक्षरूप कार्य को उत्पन्न करने के लए असमर्थ है, ऐसा विचार नहीं करना करना चाहिये; क्योंकि अमृत के सौ घड़ों के पीने का फल चुल्लू प्रमाण अमृत के पीने में भी पाया जाता है।