साधु परमेष्ठी के २८ गुण-दस सम्यक्त्चगुण, मत्यादि पाँच ज्ञानगुण अौर तेरह प्रकार का चारित्र, ये साधु के २८ गुण माने गये हैं। इनमें से सम्यक्त्च के दस गुण इस प्रकार हैं :-
१. आज्ञासम्यक्त्व, २. मार्गसम्यक्त्व, ३. उपदेशसम्यक्त्व, ४. सूत्रसम्यक्त्व, ५. बीजसम्यक्त्व, ६. संक्षेपसम्यक्त्व, ७. विस्तारसम्यक्त्व, ८. अर्थसम्यक्त्व, ९. अव—गाढ़सम्यक्त्व, और १०. परमावगाढ़सम्यक्त्व ।
इनका संक्षेप में अर्थ इस प्रकार है— १ आज्ञासम्यक्त्व–वीतराग भगवान् की आज्ञा का ही दृढ़ श्रद्धान करना।
२ मार्गसम्यक्त्च–तिरेसठ श्लाका पुरुषों का चरित सुनकर सम्यक्त्व उत्पन्न होना।
३ उपदेशसम्यक्त्च-धर्मका उपदेश सुनकर सम्यक्त्व की प्राप्ति होना।
४ सूत्रसम्यक्त्व--आचार-सूत्र को सुनकर सम्यक्त्व की प्राप्ति होना।
५ बीजसम्यक्त्व–द्वादशांग के बीज पदों को सुनकर सम्यक्त्व उत्पन्न होना।
६ संक्षेपसम्यक्त्व–तत्त्वों को संक्षेप से ही जानकर सम्यक्त्च उत्पन्न होना।
७ विस्तारसम्यक्त्व–विस्तार से द्वादशांग को सुनकर सम्यक्त्व उत्पन्न होना।
८ अर्थसम्यक्त्व–परमागम के किसी प्रवचन के अर्थ को सुनकर सम्यक्त्व उत्पन्न होना।
९ अवगाढ़सम्यक्त्व–अंगबाह्य प्रवचन का अवगाहन कर सम्यक्त्व उत्पन्न होना।
१० परमावगाढ़सम्यक्त्व—केवलज्ञान के साथ अत्यन्त अवगाढ़ सम्यक्त्व उत्पन्न होना। मतिज्ञानादि पाँच ज्ञानगुण और पाँच महाव्रत, पाँच समिति और तीन गुप्तिरूप तेरह प्रकार का चारित्र सर्वविदित ही हैं।
(जिनसहस्रनाम संस्कृत टीका, ज्ञानपीठ से प्रकाशित प्रस्तावना में पृ. ३९)