अहमिंदा जह देवा, अविसेसं अहमहंति मण्णंता।
ईसंति एक्कमेक्कं, इंदा इव इन्दिये जाण।।५३।।
अहमिन्द्रा यथा देवा अविशेषमहमहमिति मन्यमाना:।
ईशते एवैकमिन्द्रा इव इन्द्रियाणि जानीहि।।५३।।
अर्थ—जिस प्रकार अहमिन्द्र देवों में दूसरे की अपेक्षा न रखकर प्रत्येक अपने-अपने को स्वामी मानते हैं, उसी प्रकार इंद्रियाँ भी हैं।
भावार्थ —इंद्र के समान जो हो उसको इंद्रिय कहते हैंं। इसलिए जिस प्रकार नव ग्रैवेयकादिवासी अपने-अपने विषयों में दूसरों की अपेक्षा न रखने से अर्थात् इंद्र, सामानिक आदि भेदों तथा स्वामी, भृत्य आदि विशेष भेदों से रहित होने के कारण किसी की आज्ञा के वशवर्ती नहीं हैं अतएव स्वतंत्र होने से वे सब ही अपने-अपने को इंद्र मानते हैं। उसी प्रकार स्पर्शन आदि इंद्रियाँ भी अपने-अपने स्पर्शादिक विषयों में दूसरी रसना आदि की अपेक्षा न रखकर स्वतंत्र हैं। यही कारण है कि इनको इंद्रों-अहमिन्द्रों के समान होने से इंद्रिय कहते हैं, क्योंकि निरुक्ति के अनुसार यह अर्थ सिद्ध है।
इन्द्रिय की अपेक्षा से जीवों के भेद कहते हैं-
फासरसगंधरूवे, सद्दे णाणं च चिण्हयं जेसिं।
इगिबितिचदुपंचिंदिय, जीवा णियभेयभिण्णाओ।।५४।।
स्पर्शरसगंधरूपे शब्दे ज्ञानं च चिन्हकं येषाम्।
एकद्वित्रिचतु:पंचेन्द्रियजीवा निजभेदभिन्ना ओ।।५४।।
अर्थ—जिन जीवों के बाह्य चिन्ह (द्रव्येन्द्रिय) और उसके द्वारा होने वाला स्पर्श, रस, गंध, रूप, शब्द इन विषयों का ज्ञान हो उनको क्रम से एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय जीव कहते हैं और इनके भी अनेक अवान्तर भेद हैं।
भावार्थ -जिन जीवों के स्पर्शविषयक ज्ञान और उसका अवलम्बनरूप द्रव्येन्द्रिय मौजूद हो, उनको एकेन्द्रिय जीव कहते हैं। इसी प्रकार अपने-अपने अवलम्बनरूप द्रव्येन्द्रिय के साथ-साथ जिन जीवों के रसविषयक ज्ञान हो उनको द्वीन्द्रिय और गंधविषयक ज्ञान वालों को त्रीन्द्रिय तथा रूपविषयक ज्ञान वालों को चतुरिन्द्रिय और शब्दविषयक ज्ञान वालों को पंचेन्द्रिय जीव कहते हैं। इन एकेन्द्रियादि जीवों के भी अनेक अवान्तर भेद हैं तथा आगे-आगे की इन्द्रिय वालों के पूर्व-पूर्व की इन्द्रिय अवश्य होती है। जैसे रसनेन्द्रिय वालों के स्पर्शनेन्द्रिय अवश्य होगी और घ्राणेन्द्रिय वालों के स्पर्शन और रसना अवश्य होगी। इत्यादि पंचेन्द्रिय पर्यन्त ऐसा ही समझना।
इस प्रकार एकेन्द्रियादि जीवों के इन्द्रियों के विषय की वृद्धि का क्रम बताकर अब इन्द्रिय वृद्धि का क्रम बताते हैं-
एइंदियस्स फुसणं, एक्कं वि य होदि सेसजीवाणं।
होंति कमउड्ढियाइं, जिब्भाघाणच्छिसोत्ताइं।।५५।।
एकेन्द्रियस्य स्पर्शनमेकमपि च भवति शेषजीवानाम्।
भवन्ति क्रमवर्द्धितानि जिह्वाघ्राणाक्षिश्रोत्राणि।।५५।।
अर्थ—एकेन्द्रिय जीव के एक स्पर्शनेन्द्रिय ही होती है। शेष जीवों के क्रम से जिह्वा, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र बढ़ जाते हैं।
भावार्थ -एकेन्द्रिय जीव के केवल स्पर्शनेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय के स्पर्शन, रसना (जिह्वा), त्रीन्द्रिय के स्पर्शन, रसना, घ्राण (नासिका), चतुरिन्द्रिय के स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और पंचेन्द्रिय के स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु, श्रोत्र होते हैं।
चक्खूसोदं घाणं, जिब्भायारं मसूरजवणाली।
अतिमुत्तखुरप्पसमं, फासं तु अणेयसंठाणं।।५६।।
चक्षु: श्रोत्रघ्राणजिह्वाकारं मसूरयवनाल्य:।
अतिमुक्तक्षुरप्रसमं स्पर्शनं तु अनेक संस्थानम्।।५६।।
अर्थ—मसूर के समान चक्षु का, जव की नली के समान श्रोत्र का, तिल के फूल के समान घ्राण का तथा खुरपा के समान जिह्वा का आकार है और स्पर्शनेन्द्रिय के अनेक आकार हैं।
भावार्थ —पूर्व में भावनेन्द्रियों के स्वरूप विषय क्रम वृद्धि विषय क्षेत्र का वर्णन हो चुका है किन्तु द्रव्येन्द्रियों का वर्णन बाकी है अतएव अब उसी का स्वरूप बताने की दृष्टि से इस गाथा में इंद्रियों की बाह्य निर्वृत्ति का स्वरूप बताया है। अपने-अपने स्थान पर नोकर्म रूप पुद्गल वर्गणाओं का जो आकार बनता है उसी को बाह्य निर्वृत्ति कहते हैं। चक्षु, श्रोत्र, घ्राण और जिह्वा इन चार इंद्रियों का आकार नियत है, जैसा कि इस गाथा में बताया गया है। परन्तु स्पर्शन इंद्रिय का आकार नियत नहीं है क्योंकि वह सम्पूर्ण शरीर के साथ व्याप्त है और शरीरों के आकार विभिन्न प्रकार के हुआ करते हैं।
तत्तत् इंद्रिय के स्थान पर अपने-अपने आवरण कर्म के क्षयोपशमरूप कार्मण पुद्गल स्कन्ध से युक्त आत्मा के प्रदेशों का जो आकार बनता है उसको आभ्यंतर निर्वृत्ति कहते हैं। स्पर्शनेन्द्रिय की यह आभ्यंतर निर्वृत्ति भी भिन्न-भिन्न प्रकार की हुआ करती है।
गाथा में जो तु शब्द है वह उपलक्षण होेने से सूचित करता है कि आभ्यंतर निर्वृत्ति तथा बाह्याभ्यंतर उपकरणों का भी स्वरूप यहाँ आगमानुसार समझ लेना चाहिए।
इस प्रकार इन्द्रियज्ञान वाले संसारी जीवों का वर्णन करके अतीन्द्रिय ज्ञान वाले जीवों का निरूपण करते हैं-
ण वि इंदियकरणजुदा, अवग्गहादीहि गाहया अत्थे।
णेव य इंदियसोक्खा, अणिंदियाणंतणाणसुहा।।५७।।
नापि इन्द्रियकरणयुता अवग्रहादिभिग्र्राहका अर्थे।
नैव च इन्द्रियसौख्या अनिन्द्रियानन्तज्ञानसुखा:।।५७।।
अर्थ—जीवन्मुक्त तथा परम मुक्त जीव इन्द्रियों की क्रिया से युक्त नहीं हैं तथा वे अवग्रहादिक क्षायोपशमिक ज्ञान के द्वारा पदार्थ का ग्रहण नहीं करते। इसी तरह वे इन्द्रियजन्य सुख से भी युक्त नहीं हैं, क्योंकि उन दोनों ही प्रकार के जीवों का अनन्त ज्ञान और अनन्त सुख अनिन्द्रिय है।
भावार्थ -उन जीवों का अनन्त ज्ञान और अनन्त सुख अपनी प्रवृत्ति में इन्द्रिय व्यापार की अपेक्षा नहीं रखता, क्योंकि वह निरावरण है। जो सावरण हुआ करता है उसको अपनी प्रवृत्ति में दूसरे की सहायता की अपेक्षा हुआ करती है। जो अपना कार्य करने में स्वयं ही समर्थ है उसको दूसरे की अपेक्षा नहीं हुआ करती और न आवश्यकता ही है। इसीलिए ये दोनों ही प्रकार के जीव-जीवन्मुक्त-सयोगकेवली और अयोगकेवली अर्थात् सिद्ध परमात्मा इन्द्रिय व्यापार से रहित हैं। वे त्रिकालवर्ती तीन लोक के समस्त पदार्थों को अनन्त ज्ञान के द्वारा युगपत् प्रत्यक्ष ग्रहण करते हैं।
अवग्रह, ईहा, अवाय, धारणा, स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान आदि क्षायोपशमिक ज्ञानों के द्वारा वे क्रम से योग्य विषयों का ही ग्रहण नहीं किया करते। इसी प्रकार उनका सुख भी इन्द्रियजन्य नहीं है क्योंकि उसके कारणभूत सभी प्रतिपक्षी कर्मों का सर्वथा अभाव हो चुका है।
जीवप्रबोधिनी तथा मंदप्रबोधिनी दोनों ही टीकाओं में इस गाथा का अर्थ सिद्ध पर्याय में घटित किया है और वह नि:संदेह ठीक है क्योंकि सिद्धों में किसी भी अपेक्षा से इन्द्रियवत्ता नहीं पाई जाती, जबकि जीवन्मुक्त सकल परमात्माओं में द्रव्य की अपेक्षा से इन्द्रियों का अस्तित्व पाया जाता है। फिर भी यहाँ तथा अन्यत्र भी परमागम में जो भावरूप अर्थ को मुख्य मानकर इन्द्रियों का वर्णन किया गया है उसको दृष्टि में रखकर इस गाथा के चारों ही वाक्यों का अर्थ तेरहवें और चौदहवें गुणस्थानवर्ती सयोगकेवली तथा अयोगकेवली में भी घटित होता है क्योंकि द्रव्येन्द्रियों के रहते हुए भी वे उनके करण रूप नहीं हैं क्योंकि उनका ज्ञान और सुख क्षायिक होने से अतीन्द्रिय है। क्षायोपशमिक ज्ञान एवं सुख को ही करण-अवलम्बनरूप सहकारी कारण इन्द्रियों आदि की अपेक्षा हुआ करती है। अतएव इस गाथा का अर्थ जीवन्मुक्त अरिहन्तों में भी घटित नहीं होता है, क्योंकि उनका ज्ञान क्षायिक है अतएव उनके ज्ञान में इन्द्रियाँ करणरूप नहीं हुआ करतीं। जिस प्रकार अवग्रहादि के द्वारा पदार्थों का ज्ञान क्रम से हुआ करता है उस प्रकार उनका ज्ञान क्रमवर्ती नहीं है।
इसी प्रकार यद्यपि पुण्योदय से उनको सर्वोत्कृष्ट भोगोपभोग की सामग्री प्राप्त है फिर भी वे उनका भोगोपभोग नहीं करते। उनका अनन्त ज्ञान और अनंत सुख सब अनिन्द्रिय ही है। इस प्रकार प्रकरणगत भावरूप इन्द्रियों की अपेक्षा से सभी प्रत्यक्ष केवली अनिन्द्रिय ही हैं फिर भी द्रव्येन्द्रियों के अस्तित्व की अपेक्षा से अरिहंतों को पंचेन्द्रियों में परिगणित किया है। जैसा कि सत्प्ररूपणा के सूत्र नं. ३७ से विदित होता है परन्तु उस सूत्र का आशय क्या है यह बात आगम के निम्नलिखित वाक्यों से भले प्रकार जानी जा सकती है-
‘‘इन्द्रियत्वादिति चेन्नार्षार्थानवबोधात्’’, स्यादेतत्, एवमागम: प्रवृत्त:
‘‘पंचेन्द्रिया असंज्ञिपंचेन्द्रियादारभ्य या अयोगकेवलिन:’’ इति।
अत इन्द्रियत्वा-त्तत्कार्येणापि ज्ञानेन भवितव्यम् इति। तन्न, किं कारणम् ? आर्षार्थानवबोधात्।
आर्षे हि सयोग्ययोगिकेवलिनो: पंचेन्द्रियत्वं द्रव्येन्द्रियं प्रत्युक्तम् न भावेन्द्रियं प्रति।
यदि हि भावेन्द्रियं प्रत्यभविष्यत् अपि तु तर्हि असंक्षीणसकलावरणत्वात् सर्वज्ञतैवास्य न्यवर्तिष्यत्। राजवार्तिक १-३०-९।
पक्खीणजादिकम्मो, अणंतरववीरिओ अधिकतेजो।
जादो अणिंदिओ सो, णाणं सोक्खं च परिणमदि।।१९।।
सीक्खं वा पुण दुक्खं केवलणाणिस्स णत्थि देहगदं।
जम्हा अणिंदियत्तं जादं तम्हा दु तं णेयं।।२१।। (प्रवचनसार)
एकेन्द्रिय आदि जीवों की संख्या
थावरसंखपिपीलिय, भमरमणुस्सादिगा सभेदा जे।
जुगवारमसंखेज्जा, णंताणंता णिगोदभवा।।५८।।
स्थावरशंखपिपीलिका भ्रमरमनुष्यादिका: सभेदा ये।
युगवारमसंख्येया अनंतानंता निगोदभवा:।।५८।।
अर्थ—स्थावर एकेन्द्रिय जीव, शंख आदिक द्वीन्द्रिय, चींटी आदि त्रीन्द्रिय, भ्रमर आदि चतुरिन्द्रिय, मनुष्यादिक पंचेन्द्रिय जीव अपने-अपने अंतर्भेदों से युक्त असंख्यातासंख्यात हैं और निगोदिया जीव अनंतानंत हैं।
भावार्थ —त्रस, प्रत्येक वनस्पति, पृथिवी, जल, अग्नि, वायु इनको छोड़कर बाकी संसारी जीवों का (साधारण जीवों का) प्रमाण अनंतानंत है और साधारण को छोड़कर बाकी एकेन्द्रिय स्थावर तथा द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय इनमें प्रत्येक का प्रमाण असंख्यात लोकमात्र असंख्यातासंख्यात है।
जो इंद्र के समान हों उसे इंद्रिय कहते हैं। जिस प्रकार नव ग्रैवेयक आदि में रहने वाले इंद्र, सामानिक, त्रायिंस्त्रश आदि भेदों तथा स्वामी, भृत्य आदि विशेष भेदों से रहित होने के कारण किसी के वशवर्ती नहीं हैं, स्वतंत्र हैं उसी प्रकार स्पर्शन आदि इंद्रियाँ भी अपने-अपने स्पर्श आदि विषयों में दूसरी रसना आदि की अपेक्षा रखकर स्वतंत्र हैं। यही कारण है कि इनको इंद्रों-अहिमन्द्रों के समान होने से इंद्रिय कहते हैं।
इंद्रियों के दो भेद—भावेन्द्रिय और द्रव्येन्द्रिय।
भावेन्द्रियों के दो भेद—लब्धि और उपयोग। मतिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से प्रकट हुई अर्थ ग्रहण की शक्ति रूप विशुद्धि को ‘लब्धि’ कहते हैं और उसके होने पर अर्थ—विषय के ग्रहण करने रूप जो व्यापार होता है। उसे ‘उपयोग’ कहते हैं।
द्रव्येन्द्रिय के दो भेद—निर्वृत्ति और उपकरण। आत्म प्रदेशों तथा आत्म सम्बद्ध शरीर प्रदेशों की रचना को निर्वृत्ति कहते हैं। निर्वृत्ति आदि की रक्षा में सहायकों को उपकरण कहते हैं।
जिन जीवों के बाह्य चिन्ह और उनके द्वारा होने वाला स्पर्श, रस, गंध, रूप और शब्द इन पाँच विषयों का ज्ञान हो उनको क्रम से एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय जीव कहते हैं। इनके भी अवान्तर भेद अनेक हैं।
एकेन्द्रिय जीव के केवल एक स्पर्शनेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय के स्पर्शन, रसना, त्रीन्द्रिय के स्पर्शन, रसना, घ्राण, चतुरिन्द्रिय के स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और पंचेन्द्रिय के स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र।
एकेन्द्रिय के स्पर्शनेन्द्रिय का उत्कृष्ट विषय क्षेत्र चार सौ धनुष है और द्वीन्द्रिय आदि के वह दूना-दूना है। सभी इंद्रियों का उत्कृष्ट विषय क्षेत्र आगे चार्ट में दिखलाया गया है।
चक्षु इंद्रिय के उत्कृष्ट विषय में विशेषता—सूर्य का भ्रमण क्षेत्र योजन चौड़ा है। यह पृथ्वी तल से ८०० योजन ऊपर जाकर है। वह इस जम्बूद्वीप के भीतर १८० योजन एवं लवण समुद्र में ३३०-४८/६१ योजन है अर्थात् समस्त गमन क्षेत्र ५१०-४८/६१ योजन या २०, ४३, १४७-१३/६१ मील है। इतने प्रमाण गमन क्षेत्र में सूर्य की १८४ गलियाँ हैं। इन गलियों में सूर्य क्रमश: एक-एक गली में संचार करते हैं। इस प्रकार जम्बूद्वीप में दो सूर्य तथा दो चंद्रमा हैं।
जब सूर्य पहली गली में आता है तब अयोध्या नगरी के भीतर अपने भवन के ऊपर स्थित चक्रवर्ती सूर्य विमान में स्थित जिनबिम्ब का दर्शन करते हैं। इस समय सूर्य अभ्यंतर गली की ३,१५,०८९ योजन परिधि को ६० मुहूर्त में पूरा करता है। इस गली में सूर्य निषध पर्वत पर उदित होता है, वहाँ से उसे अयोध्या नगरी के ऊपर आने में ९ मुहूर्त लगते हैं। जब जब वह ३,१५,०८९ योजन प्रमाण उस वीथी को ६० मुहूर्त में पूर्ण करता है तब वह ९ मुहूर्त में कितने क्षेत्र को पूरा करेगा इस प्रकार त्रैराशिक करने पर योजन अर्थात् १,८९,०५,३४,००० मील होता है।
तात्पर्य यह हुआ कि चक्रवर्ती की दृष्टि का विषय ४७,२६३-७/२० योजन प्रमाण है यह चक्षुरिन्द्रिय का उत्कृष्ट विषय क्षेत्र है।
इंद्रियों का आकार—मसूर के समान चक्षु का, जव की नली के समान श्रोत्र का, तिल के फूल के समान घ्राण का तथा खुरपा के समान जिह्वा का आकार है। स्पर्शनेन्द्रिय के अनेक आकार हैं।
एकेन्द्रियादि जीवों का प्रमाण—स्थावर एकेन्द्रिय जीव असंख्यातासंख्यात हैं, शंख आदि द्वीन्द्रिय जीव असंख्यातासंख्यात हैं, चिंउटी आदि त्रींद्रिय जीव असंख्यातासंख्यात हैं, भ्रमर आदि चतुिंरद्रिय जीव असंख्यातासंख्यात हैं, मनुष्य आदि पंचेन्द्रिय जीव असंख्यातासंख्यात हैं और निगोदिया जीव अनंतानंत हैं अर्थात् पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, प्रत्येक वनस्पति ये पाँच स्थावर और त्रस जीव असंख्यातासंख्यात हैं और जो वनस्पति के भेदों का दूसरा भेद साधारण है, वे साधारण वनस्पति जीव अनंतानंत प्रमाण हैं।
इंद्रियातीत—अर्हंत और सिद्ध जीव इंद्रियों के व्यापार से युक्त नहीं हैं, अवग्रह, ईहा आदि क्षयोपशम ज्ञान से रहित, इंद्रिय सुखों से रहित अतीन्द्रिय ज्ञान और अनंत सुख से युक्त हैं। इंद्रियों के बिना भी आत्मोत्थ निराकुल सुख का अनुभव करने से वे पूर्णतया सुखी हैं।