(अहमिन्द्रों की सभा लगी हुई है, सभी अहमिन्द्र आज बहुत प्रसन्न हैं और आपस में चर्चा कर रहे हैं क्योंकि आज उनके यहाँ एक नये इन्द्र का जन्म होने वाला है।)
अहमिन्द्र (१) – मध्यम ग्रैवेयक में जन्म लेने वाले मेरे प्रिय मित्रों! आज का दिवस हमारे लिए बहुत ही शुभ है। आज एक अत्यन्त पुण्यशाली आत्मा हमारे मध्य एक नये मित्र के रूप में आने वाली है।
अहमिन्द्र (२) –देवर्षि! आप किस पुण्यशाली आत्मा की बात बता रहे हैं?
अहमिन्द्र (३)-इन्द्रराज! यहाँ तो वही जन्म लेता है जो महान पुण्यशाली होता है और संसार समुद्र से पार होने वाला होता है।
अहमिन्द्र (१)- हाँ, हाँ मित्रगणों! तुम्हारी जिज्ञासा की पुष्टि मैं अभी किए देता हूँ। अभी-अभी कुछ देर पहले ही मध्यलोक में चहुँओर अपनी कीर्तिपताका को फहराने वाले चक्रवर्ती वङ्कानाभि मुनिराज एक भील द्वारा किए गए घोर उपसर्ग को सहनकर समाधिपूर्वक शरीर का त्यागकर इस मध्यम ग्रैवेयक में अहमिन्द्र के रूप में जन्म लेने वाले हैं।
अहमिन्द्र (४) – देवराज! पर यह तो बताइये उनकी विशेषता क्या है?
अहमिन्द्र (१)- उनकी विशेषता यह है कि वह आज से चौथे भव में तीर्थंकर भगवान बनने वाले हैं।
अहमिन्द्र (५)-अच्छा! यह तो बताइए कि वे अहमिन्द्र किस क्षेत्र के तीर्थंकर बनने वाले हैं?
अहमिन्द्र (१)-सुनो देवगणों! वे अहमिन्द्र जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड की वाराणसी नगरी में महाराज अश्वसेन की महारानी वामादेवी की कुक्षि से तेईसवें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ के रूप में अवतरित होंगे।
सभी अहमिन्द्र –(अपने अवधिज्ञान से जानकर) जय हो, जय हो, तीर्थंकर पाश्र्वनाथ की जय हो। देवर्षि! चलिए ना, हम भी चलकर उन अहमिन्द्र का अपने इस ग्रैवेयक विमान में स्वागत करें।
अहमिन्द्र –चलो मित्र! मैं भी चलता हूँ। (इतना कहकर सभी निकल जाते हैं)
-द्वितीय दृश्य-
मध्यम ग्रैवेयक में सुन्दर एवं सुसज्जित शैय्या पर एक सोलह वर्षीय तरुण सो रहे हैं। अचानक जोर-जोर से बाजे-नगाड़े एवं तुरही आदि बजने लगते हैं, पुष्पों की वर्षा एवं मंद-मंद हवा चल रही है कि तभी अनेक अहमिन्द्र वहाँ पर आ जाते हैं।
अहमिन्द्र –(शैय्या पर उठकर बैठ जाते हैं और पंचपरमेष्ठी का स्मरण करते हैं) ॐ नम:। णमो अरिहंताणं, णमो……...(पुन: आश्चर्यपूर्वक) ओह! यह कौन सा स्थान है? मैं कहाँ आ गया? मैं कौन हूँ? इतनी भव्यता? यह सामने खड़े दिव्य पुरुष कौन हैं? इन्हीं से पूछना पड़ेगा।
एक अहमिन्द्र – प्रणाम अहमिन्द्र देव! ग्रैवेयक विमान में आपका शुभागमन मंगलमय हो। इस विमान में आप अहमिन्द्र के रूप में जन्में हैं।
नये अहमिन्द्र – (कुछ विचारमग्न हो जाते हैं) अच्छा, अच्छा, मैं सब जान गया। अवधिज्ञान के द्वारा मैं अपने पूर्वभव की सारी बातें जान गया हूँ। ओह! सम्यक्त्व के प्रभाव से और जिनमुद्रा को धारण करने के फलस्वरूप ही मैं इस सर्वोत्तम विमान में आया हूँ। जिनधर्म का प्रभाव ही ऐसा है कि तिर्यंच प्राणी भी सम्यग्दर्शन एवं अणुव्रत के प्रभाव से देव बन जाते हैं फिर मैं तो महाव्रती था।
सभी अहमिन्द्र – आइए मित्रवर! जिस धर्म की शरण प्राप्त कर आप महाव्रती से देव बने उसी की शरण में पुन: चलें। उठिये! सर्वप्रथम जिनेन्द्रदेव की पूजन करिए।
नये अहमिन्द्र –चलिए मित्रों! मैं तैयार हूँ। (अहमिन्द्र देव पूजन के वस्त्र पहनकर तैयार हो जाते हैं और देवों के साथ अकृत्रिम जिनमंदिर में पहुँचकर भगवान का अभिषेक पूजन करते हैं।)-
मंदिर का दृश्य-अहमिन्द्र मंदिर में प्रवेश करते हैं और-
अहमिन्द्र –ॐ जय, जय, जय, नि:सही, नि:सही, नि:सही, नमोस्तु-नमोस्तु-नमोस्तु। णमो अरिहंताणं…….। पुन: अभिषेक पूजन करते हैं-ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं……….(पुन: सभी अहमिन्द्रों के साथ पूजन का दृश्य दिखावें) (पूजन के पश्चात् पुन: अपने ग्रैवेयक विमान में आकर तत्त्वचर्चा आदि करते हुए दिव्य सुखों का उपभोग करने लगते हैं)
-तृतीय दृश्य-
निर्देशक –(महान पुण्यात्मा वह अहमिन्द्र वहाँ सत्ताईस सागर की आयु तक दिव्य सुखों का अनुभव करते हैं। दिव्य वस्त्राभूषणों से सुसज्जित, अतिशय देदीप्यमान शरीर के धारी वह अहमिन्द्र सत्ताईस हजार वर्ष व्यतीत होने पर दिव्य मानसिक आहार ग्रहण करते थे। चूँकि वे अहमिन्द्र परक्षेत्र में विहार नहीं करते इसलिए कभी-कभी अपने साथी मित्रों के साथ अपने निवास स्थान के समीपवर्ती उपवन के सरोवर के किनारे की भूमि में क्रीड़ा हेतु जाते थे)
अहमिन्द्र –(अपने साथी मित्रों से) प्रिय मित्रों! आज हमारी इच्छा है कि हम सब क्रीड़ा के लिए चलें।
एक देव – देवर्षि! चलिये ना! हम सब क्रीड़ा के लिए तैयार हैं।
अहमिन्द्र –मगर यह तो बताइए कि स्थान कौन सा चुना जाए?
दूसरा देव –मित्र! अपने निवास के पास जो उपवन में सरोवर है ना, उससे सुन्दर स्थान और कौन सा हो सकता है, वहीं चलते हैं।
अहमिन्द्र – हाँ, हाँ! यह स्थान ठीक रहेगा। हम वहाँ जलक्रीड़ा करेंगे।
सभी देवगण – चलिए मित्रराज! चलते हैं। (सभी क्रीड़ा हेतु जाते हैं। आमोद-प्रमोद करते हुए जलक्रीड़ा करते हैं और हँसते-बोलते हुए वापस आ जाते हैं। सभी आकर सभा में अपने-अपने स्थान पर बैठकर उन अहमिन्द्र के साथ संभाषण करने में तत्पर हो जाते हैं)
एक इन्द्र – हे अहमिन्द्र! कृपया हमें अहमिन्द्र शब्द का मतलब समझाएं।
अहमिन्द्र – अहमिन्द्र अर्थात् मैं इन्द्र हूँ-मैं इन्द्र हूँ’’ इसके अतिरिक्त जहाँ और कोई चिन्तवन, कोई भेद नहीं है वह अहमिन्द्र कहलाते हैं।
दूसरा इन्द्र –हे महाभाग! तत्त्व कितने होते हैं?
नये अहमिन्द्र –सुनो! तत्त्व सात होते हैं-जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष।
तीसरा इन्द्र – कर्मबंध का क्या कारण है देवर्षि?
अहमिन्द्र –कर्मबंध के ५ कारण हैं-मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग।
चौथा इन्द्र –इसमें प्रधान कारण क्या है?
अहमिन्द्र – मिथ्यात्व और कषाय इसमें प्रधान कारण है।
पाँचवां इन्द्र –ऐसा क्यों मित्रवर?
अहमिन्द्र –ऐसा इसलिए, क्योंकि मोहनीय कर्म के दो भेद हैं और वह सब कर्मों में प्रधान है। मोहनीय कर्म के अभाव में संसार परिभ्रमण का चक्र ही रुक जाता है। इन मिथ्यात्व और कषाय के आधीन हुआ संसारी जीव ज्ञानावरणादि सात कर्मों के योग्य पुद्गल स्वंâधों को प्रतिसमय ग्रहण करता है।
पहला इन्द्र – प्रभो! पुण्य का उत्कृष्ट फल क्या है?
छठा इन्द्र –और पाप का उत्कृष्ट फल क्या है?
अहमिन्द्र – पाप का उत्कृष्ट फल परिणामों को शान्त नहीं रखने, इन्द्रियों का दमन नहीं करने, निर्दोष चारित्र पालन नहीं करने से तथा हिंसादि पापों के करने से पापी जीवों को प्राप्त होता है। पाप का दुष्फल नरक-निगोद आदि है।
सातवाँ इन्द्र – हे महापुरुष! सिद्ध भगवान का स्वरूप क्या है?
अहमिन्द्र –सिद्ध परमेष्ठी अष्ट कर्मों से रहित और आठ गुणों से सहित होते हैं।
आठवाँ इन्द्र –वे रहते कहाँ हैं?
अहमिन्द्र – वे सिद्धशिला पर विराजमान रहते हैं।
दूसरा इन्द्र – अच्छा! और उनका सुख कैसा है?
अहमिन्द्र – सिद्धों का सुख केवल आत्मा से ही उत्पन्न होता है, बाधारहित है, कर्मों के क्षय से उत्पन्न होता है, परम आल्हाद स्वरूप है, अनुपम और सर्वश्रेष्ठ है। (इस प्रकार वह अहमिन्द्र सदैव तत्त्वचर्चा में तल्लीन रहते हुए सम्यग्दर्शन की प्रशंसा करते थे और इस प्रकार वे अपनी सत्ताईस सागर की आयु पूरी कर लेते हैं और आयु के अंत में बारह भावनाओं का चिन्तवन करते हुए अपना समय धर्मध्यान में लगाते हैं। और-
अहमिन्द्र –ॐ सिद्धाय नम:…...(इस प्रकार अपने दिव्य वैक्रियिक शरीर का त्यागकर अयोध्यापति राजा वङ्काबाहु की रानी प्रभाकरी से आनन्द कुमार के रूप में जन्म लेते हैं)