भगवान महावीर स्वामी का जीवन परिचय
सिद्धार्थ—राजकुल—मंडन—वीरनाथ:,
जात: सुकुण्डलपुरे त्रिशलाजनन्यां।
सिद्धिप्रिय: सकल—भव्यहितंकरो य:,
श्री सन्मर्तििवतनुतात् किल सन्मिंत मे।।१।।
पुरुरवा भील इस जम्बूद्वीप के पूर्व विदेह क्षेत्र में सीता नदी के उत्तर किनारे पर ‘पुष्कलावती’ नाम का देश है उसकी ‘पुण्डरीकिणी’ नगरी में एक ‘मधु’ नाम का वन है। उसमें ‘पुरुरवा’ नाम का एक भीलों का राजा अपनी ‘कालिका’ नाम की स्त्री के साथ रहता था।भगवान ऋषभदेव के जन्म के पूर्व इसी आर्यखंड में भोगभूमि की व्यवस्था थी। उस समय विदेह क्षेत्र की यह घटना है। किसी दिन दिग्भ्रम के कारण ‘श्री सागरसेन’ नाम मुनिराज को इघर उधर भ्रमण करते हुए देखकर यह भील उन्हें मारने को उद्यत हुआ उसकी स्त्री ने यह कहकर मनाकर दिया कि ‘ये वन के देवता घूम रहे हैं इन्हें मत मारो।’ वह पुरुरवा उसी समय मुनि को नमस्कार कर तथा उनके वचन सुनकर शांत हो गया। मुनिराज ने उससे मद्य, मांस और मधु इन तीन मकारों का त्यााग करा दिया। मांसाहारी भील भी इन तीनों के त्यागरूप व्रत को जीवनपर्यन्त पालन कर आयु के अन्त में मरकर सौधर्म स्वर्ग में एक सागर की आयु को धारण करने वाला देव हो गया। कहाँ तो वह हिंसक क्रूर भील पाप करके नरक चला जाता और कहाँ उसे गुरु का समागम मिला कि जिनसे हिंसा का त्याग करके स्वर्ग चला गया। मरीचि कुमार जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र सम्बन्धी आर्यखण्ड के मध्य भाग में कौशल नाम का देश है। इस देश के मध्य भाग में अयोध्या नगरी हैं। वहाँ आदिनाथ भगवान् के ज्येष्ठ पुत्र भरत चक्रवर्ती की अंनतमती रानी से ‘यह पुरुरवा भील का जीव देव’ मरीचि कुमार नाम का पुत्र हुआ। अपने बाबा भगवान् वृषभदेव की दीक्षा के समय स्वयं ही गुरु भक्ति से प्रेरित होकर मरीचि ने कच्छ आदि चार हजार राजाओं के साथ दिगम्बर दीक्षा धारण कर ली। भगवान् तो छह महिने का उपवास लेकर ध्यान में लीन हो गये। मरीचि आदि चार हजार राजाओं ने क्षुधा,तृषा आदि वेदनाओं से घबड़ाकर वन के फल आदि को स्वयं ही भक्षण करना शुरू कर दिया। उस समय उस दिगम्बर वेष में वैसा स्वच्छंद आचरण करते देख वनदेवता ने उन्हें भ्रष्ट आचरण करने से रोका। तब उन साधुओं ने अनेक वेष बना लिये। मरीचि ने सबसे प्रथम पारिव्राजक दीक्षा धारण कर ली। किसी ने वल्कल पहने, किसी ने जटायें बढ़ाई, किसी ने लंगोटी लगाई, इत्यादि अनेक वेषधारी बन गये। लगभग एक वर्ष के उपवास के बाद भगवान् ऋषभदेव को आहार मिला पुन: एक हजार वर्ष तपश्चरण के बाद केवलज्ञान हो गया। उस समय समवसरण में सभी भ्रष्ट राजाओं ने पुन: जैनेश्वरी दीक्षा ले ली और स्वर्ग, मोक्ष प्राप्त किया, किन्तु मारीचि कुमार ने मान कषाय के आवेश में आकर पुन: दिगम्बर दीक्षा नहीं ली, उसी मिथ्यामत का प्रचार करता रहा। उसी समय से ‘तीन सौ त्रेसठ’ पाखण्ड मत चले हैं। मरीचि का भवभ्रमण मरीचिकुमार आयु के अन्त में मरकर ब्रह्मस्वर्ग में दस सागर आयु वाला देव हो गया। वहाँ से आकर जटिल ब्राह्मण हुआ, पुन: पारिव्राजक बना। पुन: मरकर सौधर्म स्वर्ग में देव हुआ, पुन: वहां से पुष्यमित्र ब्राह्मण होकर पारिव्राजक बना। पुन: सौधर्म स्वर्ग में देव हुआ।
पुन: वहां से आकर अग्निसह ब्राह्मण होकर पारिव्राजक दीक्षा ले ली। पुन: मरकर देव हुआ, वहां से च्युत होकर अग्निमित्र ब्राह्मण होकर पारिव्राजक तापसी हुआ। पुनरपि माहेन्द्र स्वर्ग में देव हुआ, वहाँ से आकर भारद्वाज ब्राह्मण होकर त्रिदण्डी साधु बन गया और पुनरपि स्वर्ग में गया। वहां से च्युत होकर मिथ्यात्व के निमित्त से यह मरीचि कुमार त्रस—स्थावर योनियों में असंख्यात वर्ष तक परिभ्रमण करता रहा। कुछ पुण्य से राजगृह नगर के शांडिल्य ब्राह्मण की पारशरी पत्नी से ‘स्थावर’ नाम का पुत्र हुआ। वहाँ भी सम्यग्दर्शन से शून्य पारिव्राजक की दीक्षा लेकर अन्त में मरकर माहेन्द्र स्वर्ग में सात सागर की आयु वाला देव हो गया। विश्वनंदी इसी मगधदेश के राजगृह नगर में ‘विश्वभूति’ राजा की ‘जैनी’ नामकी रानी से यह मरीचि कुमार का जीव स्वर्ग से आकर ‘विश्वनंदी’ नाम का राजपुत्र हो गया। विश्वभूति राजा का एक विशाखभूति नाम का छोटा भाई था, उसकी लक्ष्मणा पत्नी से ‘विशाखनन्दि’ नाम का मूर्ख पुत्र हो गया। किसी दिन विश्वभूति राजा ने विरक्त होकर छोटे भाई विशाखभूति को राज्य देकर अपने पुत्र ‘विश्वनन्दि’ को युवराज बना दिया और स्वयं तीन सौ राजाओं के साथ श्रीधर मुनि के पास दीक्षित हो गये। किसी दिन विश्वनन्दी युवराज अपने ‘मनोहर’ नामक उद्यान में अपनी स्त्रियों के साथ क्रीड़ा कर रहे थे। उसे देख, चाचा के पुत्र विशाखनंद ने अपने पिता के पास जाकर उस उद्यान की याचना की। विशाखभूति ने भी युवराज विश्वनन्दी को ‘विरुद्ध राजाओं को जीतने के बहाने’ बाहर भेजकर पुत्र को बगीचा दे दिया। विश्वनन्दी को इस घटना का तत्काल पता लग जाने से वह क्रुद्ध होकर वापस विशाखनंद को मारने को उद्यत हुआ। तब विशाखनंदी कैथे के वृक्ष पर चढ़ गया, इसने कैथे के वृक्ष को उखाड़ दिया। तब वह भागा और पत्थर के खम्भे के पीछे हो गया, यह विश्वनंदी पत्थर के खम्भे को उखाड़कर उससे उसे मारने को दौड़ा। विशाखनंदी वहां से डर कर भागा तब युवराज के हृदय में सौहार्द और करुणा जाग्रत हो गई। उसने उसी समय उसे अभयदान देकर बगीचा भी दे दिया और स्वयं ‘संभूत’ नामक मुनि के पास दीक्षा धारण कर ली, तब विशाखभूति ने भी पापों का पश्चात्ताप कर दीक्षा ले ली। किसी दिन मुनि विश्वनंदी कृश अत्यन्त शरीरी मथुरा में आहार के लिये आये, उस समय यह विशाखनंदि वेश्या के महल की छत से मुनि को देख रहा था। मुनि को गाय ने धक्के से गिरा दिया यह देख विशाखनन्दि बोला ‘तुम्हारा पत्थर का खम्भा तोड़ने वाला पराक्रम कहाँ गया ? मुनि ने यह दुर्वचन सुने उन्हें क्रोध आ गया, अन्त में निदान सहित संन्यास से मरकर महाशुक्र स्वर्ग में देव हो गये, वहीं पर चाचा विशाखभूति भी देव हो गये, दोनों की आयु सोलह सागर प्रमाण थी। अर्धचक्री त्रिपृष्ठकुमार सुरम्य देश के पोदनपुर नगर में प्रजापति महाराज की जयावती रानी से ‘विशाखभूति का जीव’ विजय नाम का पुत्र हुआ और महाराज की दूसरी रानी मृगावती से ‘विश्वनंदी का जीव’ त्रिपृष्ठ नाम का पुत्र हुआ।
विजय बलभद्रपद के धारक हुए और ये त्रिपृष्ठ अर्धचक्री पद के धारक हुए। उधर विशाखनंदि का जीव चिरकाल तक संसार में भ्रमण करता हुआ कुछ पुण्य से विजयार्ध पर्वत की उत्तर श्रेणी के अलकापुर नगर में मयूरग्रीव विद्याधर की नीलांजना रानी से ‘अश्वग्रीव’ पुत्र हुआ। यह प्रतिनारायण हुआ था। कालांतर में युद्ध में अश्वग्रीव के चक्ररत्न से ही अश्वग्रीव को मारकर त्रिखण्डाधिपति राजा त्रिपृष्ठ ने अपने भाई विजय के साथ बहुत काल तक राज्यलक्ष्मी का उपभोग किया, अन्त में भोगलिप्सा में मरकर सप्तम नरक में चला गया क्योंकि सम्यग्दर्शन और पांच अणुव्रतों से रहित राज्य वैभव नरक का ही कारण है। नरक में तेंतीस सागरों की आयु भोगकर सिंह हुआ और गर्मी—सर्दी, भूख—प्यास आदि बाधाओं से दु:खी हुआ, वहाँ पर प्राणी हिंसा से मांसाहार करते हुए पुन: मरकर पहले नरक चला गया। वहाँ के दु:खों को भोगकर वहाँ से निकल कर पुनरपि इसी जम्बूद्वीप में सिंधुकूट की पूर्व दिशा में हिमवान् पर्वत के शिखर पर सुन्दर बालों से युक्त सिंह हुआ। पुण्यशाली मृगेन्द्र वह सिंह किसी समय एक हिरण को पकड़कर खा रहा था। उसी समय अतिशय दयालु ‘अजितञ्जय’ और ‘अमितगुण’ नामक दो चारण ऋद्धिधारी मुनि आकाश मार्ग से उतर कर उस सिंह के पास पहुँचे और शिलातल पर बैठकर जोर—जोर से उपदेश देने लगे। उन्होंने कहा कि ‘‘हे भव्य मृगराज! तू अर्धचक्री त्रिपृष्ठ के भव में पांचों इन्द्रियों के विषयों का सेवन कर तृप्त नहीं हुआ तथा सम्यग्दर्शन से रहित होने के कारण तू नरक में चला गया, वहाँ अत्यन्त प्रचंड और लोहे के घनों की चोट से तेरा चूर्ण किया जाता था, इत्यादि दु:खों को भोगकर तू वहाँ से निकलकर सिंह हुआ पुन: हिंसा के पाप से मरकर नरक गया। वहाँ से निकलकर पुन: सिंह होकर हिंसा में रत हैं। तू वृषभदेव के समय मरीचि के भव में तीर्थंकर वृषभदेव के वचनों का अनादर कर त्रस—स्थावर योनियों में असंख्यात वर्ष तक भ्रमण करता रहा। अब इस भव से दशवें भव में तू अन्तिम तीर्थंकर होगा। यह बस मैंने श्रीधर तीर्थंकर से सुना है। इन सब बातों को सुनते ही सिंह को जातिस्मरण हो गया। संसार के भयंकर दु:खों की स्मृति से उसका शरीर कांपने लगा तथा आंखों से अश्रु गिरने लगे। बहुत देर तक अश्रु गिरते रहने से ऐसा मालूम होता था कि मानों हृदय में सम्यक्त्व को स्थान देने की इच्छा से मिथ्यात्व ही बाहर निकल रहा है। उसकी शांत भावना को देखकर मुनि ने उसे सम्यक्त्व और अणुव्रत ग्रहण कराये। सिंह ने मुनिराज की भक्ति से बार—बार प्रदक्षिणायें दीं, बार—बार प्रणाम किया और तत्काल ही काललब्धि के आ जाने से तत्त्वश्रद्धानपूर्वक श्रावक के व्रत ग्रहण किये। सिंह का मांसाहार के सिवाय और कोई आहार नहीं, अत: मांस का त्याग करने से उसने ‘‘निराहार व्रत’’ ग्रहण किया था।
सम्यग्दर्शन का लक्षण— सच्चे देव, शास्त्र, गुरु और तत्त्वों का श्रद्धान करना।
पंचाणुव्रत का लक्षण— अहिंसाणुव्रत— मन—वचन—काय से किसी भी जीव को नहीं मारना।
सत्याणुव्रत— स्थूल झूठ नहीं बोलना।
अचौर्याणुव्रत— बिना दी हुई पर की वस्तु नहीं लेना।
ब्रह्मचर्याणुव्रत— अपनी स्त्री के सिवाय सबको माता, बहन समझना।
परिग्रह परिमाणाणुव्रत— धन—धान्य आदि परिग्रह का जीवन भर के लिए प्रमाण कर लेना।
तिर्यंचों के संयमासंयम के आगे व्रत नहीं हो सकते। इसीलिए वह देशव्रती कहलाया। वह सिंह सब कुछ त्याग कर शिलातल पर बैठकर चित्रलिखित (पत्थर की मूर्ति) के समान हो गया था। चारण मुनि उसे शिक्षा देकर बार—बार उसका स्पर्श करते हुए चले गये— महावीर चरितअशगकविकृत में लिखा है कि— ‘यह मरा हुआ है ऐसा समझ मदोन्मत्त हाथियों ने उसकी जटाओं को नष्ट कर दिया, डांस, मक्खी और मच्छरों ने मर्म स्थानों को काट डाला, लोमड़ी और श्रगाल मृतक समझकर उस सिंह को तीक्ष्ण नखों के द्वारा नोंच—नोंच कर खाने लगे तो भी उस िंसह ने अपनी परम समाधि नहीं छोड़ी, क्षमा भाव से सब सहन करता रहा। पूर्वोक्त प्रकार से एक महीने तक निश्चल रहकर अनशन धारण कर पाप रहित हुआ प्राणों से शरीर को छोड़ा।’ इस प्रकार संन्यास विधि से मरा और शीघ्र ही सौधर्म स्वर्ग में सिंहकेतु नाम का देव हो गया, वहां दो सागर तक उत्तम सुख भोगे। पुन: मरीचि कुमार के जीव की जैनेश्वरी दीक्षा स्वर्ग से आकर, धातकीखंड द्वीप के पूर्व मेरु सम्बन्धी पूर्व विदेह के मंगलावती देश के विजयार्ध पर्वत की उत्तर श्रेणी मेें कनकप्रभ नगर के राजा कनकपुंख विद्याधर और कनकमाला रानी के ‘कनकोज्ज्वल’ नाम का पुत्र हुआ। किसी दिन प्रियमित्र नाम के अवधिज्ञानी मुनि से दयामय जैनधर्म का उपदेश सुनकर दीक्षा ले ली। बहुत काल तक तपश्चरण करते हुए ‘कनकोज्ज्वल’ मुनिराज संन्यास विधि से मरकर सातवें स्वर्ग में देव हो गये वहां के भोगों को भोगकर समाधिपूर्वक प्राण छोड़े और इसी अयोध्या के राजा वज्रसेन की रानी शीलवती से ‘हरिषेण’ पुत्र हो गया। राज्य वैभव का अनुभव करके हरिषेण ने श्रुतसागर मुनि से दीक्षा ले ली। तपश्चरण के प्रभाव से महाशुक्र स्वर्ग में देव हो गये। वहां से चयकर धातकीखंड की पुंडरीकिणी नगरी के राजा सुमित्र की रानी मनोरमा से ‘प्रियमित्र’ नाम का पुत्र हो गया। यह प्रियमित्र चक्रवर्ती पद को प्राप्त हुआ, चक्ररत्न से छहखंड को जीतकर बत्तीस हजार मुकुटबद्ध राजाओं से सेवित अठारह करोड़ घोड़े, चौरासी लाख हाथी, छ्यानवें हजार रानियों के वैभव का अनुभव करते हुए क्षेमंकर जिनेन्द्र धर्मोपदेश सुनकर दीक्षित हो गया। यह प्रियमित्र मुनि आयु के अन्त में समाधिपूर्वक मरण करके सहस्रार स्वर्ग में ‘सूर्यप्रभ’ नाम के देव हुए। वहां पर अठारह सागर तक दिव्य सुखों का अनुभव कर जम्बूद्वीप के छत्रपुर नगर के राजा नंदिवर्धन की वीरवती रानी से ‘नंद’ नाम का एक सज्जन पुत्र हुआ। यहां भी अभिलषित राज्य का उपभोग कर ‘प्रोष्ठिल’ नाम के श्रेष्ठ गुरु के पास दीक्षा ले ली और ग्यारह अंगों का ज्ञान प्राप्त कर लिया। तीर्थंकर प्रकृति का बंध दिगम्बर मुनि पंचमहाव्रत, पंचसमिति, पंचेंद्रिय निरोध, षट् आवश्यक क्रिया, केशलोंच, वस्त्रों का पूर्ण त्याग, स्नान का त्याग, पृथ्वी पर शयन, दंतधावन का त्याग, खड़े होकर भोजन और एक बार भोजन इस प्रकार अट्ठाईस मूलगुणों का पालन करते हैं। सम्पूर्ण आरम्भ और परिग्रह से रहित ज्ञान—ध्यान मेें रत रहते हैं। परीषह और उपसर्गों को शांति और क्षमाभाव से सहन करते हैं।उत्तम क्षमादि इस धर्मों का पालन करते हैं। नंद मुनिराज ने घोर तपश्चरण से अपनी आत्मा को निर्मल बना लिया एवं दर्शनविशुद्धि आदि सोलहकारण भावनाओं का चिंतवन करने लगे। सातिशय तीर्थंकर प्रकृति का बंध कराने मेें समर्थ उन भावनाओं का संक्षिप्त लक्षण इस प्रकार है—
१. दर्शनविशुद्धि— पच्चीस मल दोषरहित विशुद्ध सम्यग्दर्शन को धारण करना।
२. विनयसम्पन्नता— देव, शास्त्र, गुरु तथा रत्नत्रय की विनय करना।
३. शीलव्रतों में अनतिचार— व्रतों और शीलों में अतिचार नहीं लगाना।
४. अभीक्ष्णज्ञानोपयोग— सदा ज्ञान के अभ्यास मेें लगे रहना।
५. संवेग— धर्म और धर्म के फल में अनुराग होना।
६. शक्तितस्त्याग— अपनी शक्ति के अनुसार आहार, औषधि,अभय और शास्त्र दान देना।
७. शक्तितस्तप—अपनी शक्ति को न छिपा कर अन्तरंग, बहिरंग तप करना।
८. साधुसमाधि— साधुओं का उपसर्ग आदि दूर करना या समाधि सहित वीर मरण करना।
९. वैयावृत्यकरण— व्रती, त्यागी साधर्मी की सेवा करना, वैयावृत्ति करना।
१०. अर्हंतभक्ति— अरहंत भगवान् की भक्ति करना।
११. आचार्यभक्ति — आचार्य की भक्ति करना।
१२. बहुश्रुतभक्ति— उपाध्याय परमेष्ठी की भक्ति करना।
१३. प्रवचनभक्ति— जिनवाणी की भक्ति करना।
१४. आवश्यक अपरिहाणि— छह आवश्यक क्रियाओं का सावधानी से पालन करना।
१५. मार्गप्रभावना— जैनधर्म का प्रभाव फैलाना।
१६. प्रवचनवत्सलत्व— साधर्मीजनों में अगाध प्रेम करना।
इन सोलहकारण भावनाओं में दर्शनविशुद्धि भावना का होना बहुत जरूरी है फिर उसके साथ दो, तीन आदि कितनी भी भावनायें हों या सभी हों तो तीर्थंकर प्रकृति का बंध हो सकता है। नन्द मुनिराज ने इन भावनाओं से तीनलोक में आश्चर्य को उत्पन्न कराने वाली ‘तीर्थंकर’ प्रकृति का बंध कर लिया। आयु के अंत में आराधना से मरकर अच्युत स्वर्ग के पुष्पोत्तर विमान में श्रेष्ठ इंद्र हो गये। पाठक वृंद! देखिए! पुरुरवा भील मद्य—मांस—मधु के त्याग से सौधर्म स्वर्ग के सुख का अनुभव कर चक्रवर्ती का पुत्र हुआ। पुन: मिथ्यात्व और मानकषाय से सहित था फिर भी अल्प आरम्भ परिग्रह रखने से और मंद कषायों के होने से तथा कुतपश्चरण के प्रभाव से देव हो गया। पांच बार पारिव्राजक बना व छह बार देवपद पाया। किन्तु आगे मिथ्यात्व के निमित्त से त्रस—स्थावर और निगोदरूप घोर कुयोनियों में असंख्यात वर्ष पर्यंत घूमता रहा। कदाचित् विश्वनंदी मुनि भी हुआ तो निदान से दूषित होकर अर्धचक्री पद का अनुभव करके भी नरकों के महान् दु:ख भोगे। जब सिंह की पर्याय में सम्यक्त्वरत्न को प्राप्त कर लिया तब अणुव्रत के प्रभाव से और सल्लेखना के माहात्म्य से उत्तम देव हुआ। अब यह सम्यक्त्व के निमित्त से उत्तम—उत्तम देवसुख और राज्यसुखों का अनुभव करता रहा। देखिये! सिंह के जीव ने आगे चलकर चार बार सम्यक्त्व सहित मुनिव्रत धारण किया तथा ‘संसारी जीवों को दु:ख से निकालकर मैं उत्तम सुख में पहुँचा दूँ, इस प्रकार उत्कृष्ट भावनारूप अपायविचय से ‘नंदमुनिराज’ ने असंख्य प्राणियों पर अनुग्रह करने में समर्थ ऐसी तीर्थंकर प्रकृति बांध ली। वीरप्रभु का गर्भ महोत्सव पुष्पोत्तर विमान के इन्द्र की आयु जब छह मास शेष रही तब इसी भरतक्षेत्र के ‘विदेह’ नामक देश सम्बन्धी कुण्डलपुरतिलोयपण्णत्ति अधिकार ४, षट्खंडागम पु. ९। नगर के राजा सिद्धार्थ के आंगन में प्रतिदिन साढ़े सात करोड़ रत्नों की धारा बरसने लगी जब पंचमकाल प्रारम्भ होने के पचहत्तर वर्ष साढ़े आठ माह शेष रहे थे तब आषाढ़ शुक्ल षष्ठी के दिन, उत्तराषाढ़ नक्षत्र में राजा सिद्धार्थ की प्रसन्नवदना रानी प्रियकारिणी (त्रिशला) सात खंड वाले राजमहल के भीतर रत्नमय दीपकों से प्रकाशित ‘नंद्यावर्त’ नामक राजभवन में हंस, तूलिका आदि से सुशोभित रत्नों के पलंग पर सो रही थीं, रात्रि के पिछले प्रहर में कुछ खुली सी नींद में उन्होंने उत्तम—उत्तम सोलह स्वप्न देखे। ऐरावत हाथी, सुन्दर बैल, सिंह, हाथियों द्वारा स्वर्णकलश से अभिषिक्त होती हुई लक्ष्मी, दो पुष्प माला, पूर्णचन्द, उदित होता हुआ सूर्य, दो स्वर्ण कलश, क्रीड़ासक्त दो मछलियाँ, सुन्दर सरोवर, समुद्र, सिंहासन, स्वर्ग विमान, नागेन्द्र भवन, रत्नराशि और धूम रहित अग्नि ये सोलह स्वप्न हैं। बाद में मुख में प्रवेश करता हुआ एक हाथी देखा।
अनन्तर प्रात:मंगलवाद्य महोत्सवों से उठकर आवश्यक क्रियाओं से निवृत्त हो महाराज सिद्धार्थ के समीप गईं, वहाँ नमस्कार कर अर्धासन पर बैठकर क्रम से स्वप्नों को सुनाया। राजा सिद्धार्थ ने स्वप्नों का फल पृथक्—पृथक् स्पष्ट करते हुए बतलाया कि तीनलोक के नाथ तुम्हारे गर्भ में आ गये हैं। अनन्तर सौधर्म इंद्र सहित सब देवों ने आकर बड़े वैभव के साथ राजा सिद्धार्थ और रानी त्रिशला का गर्भकल्याणक सम्बन्धी अभिषेक किया तथा देव और देवियों को यथायोग्य कार्यों में नियुक्त कर दिया और स्वस्थान को चले गये। श्री, ह्नी आदि देवियां माता की विशेष भक्ति सेवा करने में तत्पर थीं और अनेकों तत्त्वचर्चाओं से, गूढ़ प्रश्नों से मनोरंजन किया करती थीं। वीरप्रभु का जन्माभिषेक महोत्सव— नव माह पूर्ण हो जाने पर चैत्र शुक्ला त्रयोदशी के दिन, अर्यमा नाम के शुभ योग में माता त्रिशला ने पूर्व दिशा के सदृश अच्युतेन्द्र जीव को बालसूर्यरूप में जन्म दिया। उस समय देवों के यहां बिना बजाये बाजे बजने लगे, आसन वंâपित हो गये और कल्पवृक्षों से पुष्प बरसने लगे, सर्वत्र विश्व में आनन्द की एक लहर दौड़ गई। सौधर्म इन्द्र एक लाख योजन विस्तृत ऐरावत हाथी को सजाकर उसके दाँतों के सरोवरों के कमल पत्रों पर अप्सराओं को नृत्य कराते हुए असंख्य देवों के साथ आये और नगरी की तीन प्रदक्षिणायें दीं। ‘इन्द्राणी ने तत्काल प्रसूतिगृह में जाकर जिनबालक का दर्शन किया, बार—बार प्रभु को प्रणाम कर तीनलोक के नाथ की जननी (माता) की स्तुति करती हुई, माता को निद्रित कर उसके पास मायामयी बालक को सुलाकर जिनबालक सूर्य को स्वयं गोद में लेकर चल पड़ी और बाहर आकर बड़ी प्रसन्नता से इन्द्र को सौंप दिया।श्री सकलकीर्तिकृत महावीरचरित। इन्द्र ने जिनबालक को ऐरावत हाथी पर विराजमान किया और देवों से घिरा हुआ क्षणमात्र में सुमेरु पर्वत पर जा पहुंचा। वहाँ जाकर जिनबालक को पांडुक शिला पर स्थित सिंहासन पर विराजमान किया और क्षीरसागर के जल से भरे हुए १००८ कलशों से अभिषेक किया, अनेकों स्तोत्रों से भगवान् की स्तुति की। अधिक कहने से क्या ? इन्द्र ने उन्हें उत्तमोत्तम आभूषणों से विभूषित कर उनके ‘वीर’ और ‘वर्धमान’ ऐसे दो नाम रखे। अनन्तर वापस लाकर माता की गोद में विराजमान किया तथा बड़े उत्सव से आनन्द नामक नाटक करके प्रभु को नमस्कार कर स्वस्थान को चले गये। श्री पार्श्वनाथ तीर्थंकर के बाद दो सौ पचास वर्ष बीत जाने पर वीरप्रभु उत्पन्न हुए थे, उनकी आयु भी इसी में शामिल हैं, कुछ कम बहत्तर वर्ष की प्रभु की आयु थी, वे सात हाथ ऊंचे थे। श्रीवत्स आदि एक हजार आठ उत्तम लक्षणों से विभूषित थे, इनके शरीर में पसीना, मलमूत्र आदि नहीं था। जन्म से ही दश अतिशय भगवान् के प्रकट हुए थे। बाल्यकाल की विशेषतायें एक बार ‘संजय’ और ‘विजय’ नामक दो चारण मुनियों को किसी पदार्थ में संदेह हुआ, भगवान् के जन्म के बाद ही वे उनके समीप आये और प्रभु के दर्शन मात्र से ही उनका संदेह दूर हो गया। इसलिए उन्होंने बड़ी भक्ति से बालक का ‘सन्मति’ यह नाम रखा। इन्द्र की आज्ञा से कुबेर प्रतिदिन भगवान् के समय, आयु और इच्छा के अनुसार स्वर्ग से भोगोपभोग वस्तुओं को लाया करता था अर्थात् भगवान के भोजन, आभूषण आदि स्वर्ग से ही आते थे। किसी समय स्वर्ग में वर्धमान के गुणों की चर्चा इन्द्र की सभा में सुनकर एक ‘संगम’ नाम का देव परीक्षा के लिए आया। भगवान् अनेक राजकुमारों के साथ एक वृक्ष पर चढ़े हुए क्रीड़ा में तत्पर थे। वह देव बड़े विकराल सर्प का रूप लेकर वृक्ष की जड़ से स्कंध तक लिपट गया। सब बालक भय से कंपित हो डालियों से कूदकर भागने लगे। कुमार महावीर ने निर्भय हो उस समय सर्प पर चढ़कर इस प्रकार क्रीड़ा की, जैसे माता के पलंग पर किया करते थे। कुमार की क्रीड़ा से हर्षित हो देव ने भगवान की स्तुति कर ‘महावीर’ यह सार्थक नाम रक्खा।
यौवन अवस्था में प्रवेश करने पर माता-पिता ने भगवान् महावीर के सामने विवाह का प्रस्ताव रखा किन्तु भगवान् ने उसे अस्वीकार कर दिया और बाल ब्रह्मचारी रहे। इस प्रकार तीन वर्षों का भगवान का कुमारकाल व्यतीत हो गया। वीरप्रभु का दीक्षा महोत्सव किसी दिन भगवान् को स्वयं ही आत्मज्ञान हो गया और पूर्वभव का स्मरण हो गया। उसी समय लौकांतिक देवों ने आकर भगवान् की स्तुति की। समस्त देवों ने आकर दीक्षा कल्याणक महोत्सव मनाया। भगवान् बंधुजनों से विदा लेकर ‘चन्द्रप्रभा’ नाम की पालकी पर सवार हुए। उस समय पालकी को सर्वप्रथम भूमिगोचरी राजाओं ने, फिर विद्याधर राजाओं ने, फिर इन्द्रों ने उठाया। ‘षण्ड’ नाम के वन में—ज्ञातृवनहरिवंशपुराण, पृ. ७२२। मेें ले गये। वहाँ भगवान् रत्नमयी शिला पर उत्तर की ओर मुँह कर बेला का नियम (दो दिन का उपवास) लेकर विराजमान हो गये। मगसिर वदी दशमी के दिन भगवान् ने वस्त्र, आभरण, माला आदि उतार कर फेंक दिये और शरीर से निर्मम होकर अपने केशों को उखाड़ फेंक दिये। इन्द्र ने सब केश हाथ में लेकर मणिमयी पिटारे में रखकर उनकी पूजा की एवं उन्हें उत्सवपूर्वक क्षीरसागर में विसर्जित किया। भगवान् निर्ग्रन्थ दिगम्बर मुनि हो गये, तत्काल ही उन्हें मन:पर्यय ज्ञान प्रगट हो गया। मति, श्रुत, अवधि ये तीन ज्ञान तो तीर्थंकरों को जन्म से ही रहते हैं और दीक्षा लेते ही मन:पर्यय ज्ञान प्रगट हो जाता है। पारणा के दिन भगवान् कूल ग्राम में आये वहाँ के राजा ‘कूल’ ने भक्ति से पड़गाहन कर नवधा भक्ति से भगवान् को खीर का आहार दिया, फलस्वरूप उनके घर पर पंचाश्चर्यों की वर्षा हुई। भगवान् मौन अवस्था में एकांत स्थानों, निर्जन वनों में तपश्चरण करने लगे। भगवान द्वारा उपसर्गविजय किसी दिन धीर—वीर भगवान् उज्जयिनी के अतिमुक्तक नामक श्मशान में प्रतिमायोग से विराजमान थे। उन्हें देखकर कापालिक ने अपनी दुष्टता से उनके धैर्य की परीक्षा के लिए रात्रि में बड़े—बड़े बेतालों का रूप बनाकर उपसर्ग किया, अट्टहास करते हुए, विकराल मुँह फाड़े हुए वे वेताल डरा रहे थे। इसके सिवाय सर्प, हाथी, सिंह, अग्नि और वायु के साथ भीलों की सेना बनाकर उपसर्ग किया। पाप का ही अर्जन करने में निपुण वह रुद्र अपनी विद्या के प्रभाव से भयंकर उपसर्गों को करते हुए भी प्रभु को ध्यान से चलायमान नहीं कर सका। अन्त में उसने ‘महति’ और ‘महावीर’ नाम रख कर अनेकों प्रकार से स्तुति की, अपनी भार्या के साथ नृत्य किया और सब मत्सर भाव छोड़कर वहाँ से चला गया। चन्दना के बन्धन टूट गये राजा चेटक की चन्दना पुत्री (भगवान की छोटी मौसी) को वन क्रीड़ा में आसक्त देख, किसी विद्याधर ने उसे हरण कर लिया और पत्नी के डर से महाटवी में छोड़ दिया। वहाँ के भील ने उसे ले जाकर वृषभदत्त सेठ को दे दी, सेठ की पत्नी—सुभद्रा, सेठ के प्रति संदिग्ध दृष्टि होने से चन्दना को खाने के लिए मिट्टी के सकोरे में कांजी से मिश्रित कोदों का भात दिया करती थी और क्रोधवश उसे सांकल से बांधे रखती थी।d
किसी दिन उस कौशाम्बी नगरी में आहार के लिए भगवान् महावीर स्वामी आ गये। उन्हें देखकर चन्दना उनके सामने जाने लगी। उसी समय उसके सांकल के सब बन्धन टूट गयें, उसके शिर पर केश आ गये, वस्त्र आभूषण सुन्दर हो गये। शील के माहात्म्य से मिट्टी का सकोरा स्वर्ण पात्र और कोदों का भात चावल बन गया। उस चन्दना ने भगवान् को पड़गाह कर नवधाभक्ति से आहारदान दिया। उसके यहाँ पंचाश्चर्यों की वर्षा हुई और बंधुओं के साथ उसका समागम हो गया। भगवान का केवलज्ञान महोत्सव जगद्बंधु भगवान् के छद्मस्थ अवस्था के बारह वर्ष व्यतीत हो गये। किसी दिन भगवान जृंभिक ग्राम के समीप ऋजुकूला नदी के किनारे ‘मनोहर’ नाम के वन में रत्नमयी एक बड़ी शिला पर शाल वृक्ष के नीचे बेला का नियम लेकर प्रतिमायोग से विराजमान हुए। वैशाख शुक्ला दशमी के दिन अपराह्नकाल में परिणामों की विशुद्धि से वे क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ हुए। उसी समय घातिया कर्मों का नाश कर अनंत चतुष्टय से सहित, चौंतीस अतिशयों से सुशोभित केवली ‘परमात्मा’ हो गये। पृथ्वी से पाँच हजार धनुष (बीस हजार हाथ) ऊपर आकाश में सुशोभित होने लगे। सौधर्म इन्द्र ने आकर देवों के साथ समवसरण की रचना की और केवलज्ञान महोत्सव मनाया। समवसरण में बारह सभा में बैठे हुए असंख्य भव्यजीव भगवान् की दिव्यध्वनिरूपी धर्मामृत का पान करने के लिए उत्सुक थे। फिर भी भगवान् की दिव्यध्वनि नहीं खिरी। इसका कारण ‘गणधर का न होना’ समझकर इन्द्र ने अवधिज्ञान से विचार किया एवं वेदवेदांग पारंगत पाँच सौ शिष्यों के गुरु गौतम गोत्रीय इन्द्रभूति नाम के ब्राह्मण के पास इन्द्र वृद्ध ब्राह्मण का रूप लेकर लाठी टेकते हुए पहुँचा, अनेकों वार्तालाप के बाद इन्द्र ने एक श्लोक का अर्थ पूछा तब ब्राह्मण ने सोचा इसके गुरु के पास ही चलकर वाद—विवाद करना चाहिये। वहां समवसरण में पहुँचकर मानस्तंभ देखते ही गौतम का मान गलित हो गया। श्री गौतम चरित में कहा है कि ‘वह मन में विचारने लगा कि जिस गुरु की पृथ्वीभर में आश्चर्य उत्पन्न करने वाली इतनी विभूति है वह क्या किसी से जीता जा सकता ? कभी नहीं, तदनन्तर भगवान् वीरनाथ के दर्शन कर वह गौतम अनेकों स्तोत्रों से भगवान् की स्तुति करने लगा। इसके बाद ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुए ये इन्द्रभूति गौतम अपने पाँच सौ शिष्यों और भाईयों के साथ श्री वर्धमान स्वामी को नमस्कार कर मुनि बन गये।गौतमस्वामी चरित्र पृ. ११८। परिणामों की विशेष विशुद्धि से तत्काल ही इन्द्रभूति को मन:पर्ययज्ञान और सात ऋद्धियाँ प्रगट हो गईं। श्रावण कृष्णा प्रतिपदा के दिन पूर्वान्ह में भगवान् की दिव्यध्वनि खिरी, उसी दिन अपराण्ह काल में ग्यारह अंगों और चौदह पूर्वों का स्पष्ट बोध प्राप्त करके इन्द्रभूति गौतम ने अन्तर्मुहूर्त में द्वादशांग की रचना की।
उसी समय गौतम ग्रन्थकर्ता कहलाये तथा ये महावीर स्वामी के प्रथम गणधर हुए हैं। इनके बाद वायुभूति, अग्निभूति, आदि दश गणधर और हुए। भगवान के समवसरण में ग्यारह गणधर, चौदह हजार मुनि, चंदना को प्रमुख कर छत्तीस हजार आर्यिकायें, एक लाख श्रावक, तीन लाख श्राविकायें, असंख्यात देव, देवियाँ और संख्यात तिर्यंच थे। इन बारह गणों से वेष्टित भगवान् ने सिंहासन के मध्यभाग में स्थित हो अर्धमागधी भाषा के द्वारा छह द्रव्य, सात तत्त्व, संसार और मोक्ष के कारण आदि का दिव्य उपदेश दिया। भगवान का उपेदश सात सौ अठारह भाषााओं में परिणत हो जाता था। इनके अतिरिक्त भी सभी भव्य अपनी—अपनी भाषा में समझ लेते थे। इसलिए संख्यात भाषारूप भी था। भगवान् की प्रथम धर्मदेशना राजगृह नगर के विपुलाचल पर्वत पर हुई है। महाराज श्रेणिक भगवान् के समवसरण के मुख्य श्रोता थे। भगवान महावीर ने भी वृषभदेव के समान वैभव के साथ विहार कर मध्य के काशी, कौशल, त्रिगर्त, पांचाल, समुद्र तट के कलिंग, कुरुजांगल, कैकेय, आत्रेय, कम्बोज, बाल्हीक, यवन, सिंध, गांधार तथा उत्तर दिशा के तार्ण, कार्ण आदि देशों को धर्म से युक्त किया था अर्थात् भगवान का समवसरण आर्य खंड में बहुत जगह घूमा था।हरिवंश पु. पृ. २४ भगवान का मोक्ष गमन अन्त में भगवान् पावापुर नगर में पहुँचे। वहाँ के ‘मनोहर’ नाम के वन के भीतर अनेक सरोवरों के बीच में मणिमयी शिला पर विराजमान हो गये। वे दो दिन तक वहां विराजमान रहे और कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी के दिन रात्रि के अन्तिम समय स्वाति नक्षत्र में तीनों योगों का निरोध कर अघातिया कर्मों का नाश करके शरीर रहित केवलगुणरूप होकर मोक्ष पद प्राप्त कर लिया, उसी समय भगवान् लोक के अग्रभाग पर जाकर विराजमान कृतकृत्य, सिद्ध, नित्य, निरंजन, भगवान् बन गये। अब वे वापस कभी भी अनन्त काल तक संसार में नहीं आयेंगे। उनके पुरुषार्थ की अन्तिम (चरम) सीमा हो चुकी है। अनंतर इंद्रादि सब देव आये और अग्निकुमार के मुकुट से प्रज्ज्वलित होने वाली अग्नि की शिखा पर भगवान् का शरीर रखकर संस्कार किया। स्वर्ग से लाये गए गंध, माला आदि उत्त्तमोत्तम पदार्थों से विधिवत् भगवान की पूजा की, अनेक स्तुतियां कीं और मोक्षकल्याणक उत्सव मनाया। जिस दिन भगवान् मोक्ष गये उसी दिन गौतमस्वामी को केवलज्ञान प्रकट हो गया।हरिवंशपुराण, पृ. ८०६। उस समय सुर—असुरों द्वारा जलाई हुई बहुत भारी देदीप्यमान दीपकों की पंक्ति से पावानगरी का आकाश सब ओर से जगमगा उठा। उस समय से लेकर भगवान् के निर्वाण कल्याणक को भक्ति से युक्त संसार के प्राणी इस भरत क्षेत्र में प्रतिवर्ष आदरपूर्वक प्रसिद्ध ‘दीपमालिका’ के द्वारा भगवान् महावीर की पूजा करने के लिए उद्यत रहने लगे अर्थात् दीपावली का उत्सव मनाने लगे।।
पुरुरवा से लेकर भगवान महावीर के ३४ भव -१. पुरुरवा भील २. प्रथम स्वर्ग में देव ३. भरत पुत्र—मरीचि ४. ब्रह्म स्वर्ग में देव ५. जटिल ब्राह्मण ६ .सौधर्म स्वर्ग में देव ७. पुष्यमित्र—ब्राह्मण ८. सौधर्म स्वर्ग में देव ९. अग्निसह—ब्राह्मण १०. सनत्कुमार स्वर्ग में देव ११. अग्निमित्र ब्राह्मण १२. माहेन्द्र स्वर्ग में देव १३. भारद्वाज ब्राह्मण १४. माहेन्द्र स्वर्ग में देव १५. मनुष्य (इसके बाद एकेंद्रिय आदि असंख्यात भव) १६. स्थावर—ब्राह्मण १७. चतुर्थ स्वर्ग में देव १८. विश्वनंदि १९. महाशुक्र नामक दशवें स्वर्ग में देव २०. त्रिपृष्ठ अर्धचक्री २१. सप्तम नरक में २२. सिंह २३. प्रथम नरक में २४. सिंह (यहाँ से उत्थान प्रारम्भ) २५. सौधर्मस्वर्ग में सिहकेतु नामक देव २६. कनकोज्ज्वल विद्याधर २७. सातवें स्वर्ग में देव २८. हरिषेण राजा २९. महाशुक्र स्वर्ग में देव ३०. प्रियमित्र नामक चक्रवर्ती ३१. सहास्रार स्वर्ग में सूर्यप्रभदेव ३२. नंदन नामक राजा ३३. अच्युत स्वर्ग के पुष्पोत्तर विमान में इन्द्र ३४. तीर्थंकर—वर्धमान—महावीर