रज्जुकदी गुणिदव्वा णयणउदिसहरसअधियल्खेणं।
तम्मज्झे तिवियप्पा वेेंतरदेवाण होंति पुरा।।५।।
४९।१९९०००।
भवणं भवणपुराणिं आवासा इय भवंति तिवियप्पा।
जिणमुहकमलविण्ग्गिदवेंतरपण्णत्तिणामाए।।६।।
रयणप्पहपुढवीए भयणाणिं दीवउवहिउवरिम्मि।
भवणपुराणिं दहगिरिपहुदीणं उवरि आवासा।।७।।
बारससहस्सजोयणपरिमाणं होदि जेट्ठभवणाणं।
पत्तेक्वं विक्खंभा तिण्णि संयाणं च बहलत्तं।।८।।
१२००० ।३००” राजु के वर्ग को एक लाख निन्यानवै हजार से गुणा करने पर जो प्राप्त हो उसके मध्य में व्यन्तर देवों के तीन प्रकार के पुर होते हैं।। ५।।
जिन भगवान् के मुखरूप कमल से निकले हुए व्यन्तर प्रज्ञप्ति नामक अधिकार में भवन, भवनपुर और आवास इस प्रकार तीन प्रकार के भवन कहे गये हैं ।। ६।।
इनमें से रत्नप्रभा पृथ्वी में भवन, द्वीप-समुद्रों के ऊपर भवनपुर और द्रह एवं पर्वतादिकों के ऊपर आवास होते हैं।।७।।
उत्कृष्ट भवनों में से प्रत्येक का विस्तार बारह हजार योजन और बाहल्य तीन सौ योजनप्रमाण है ।।८।। १२०००। ३००। (तिलोयपण्णत्ति भाग-२ पृ. ६४१)