वापीत्युत्पलगुल्मा च नलिना चोत्पलेति च।
उत्पलोज्ज्वलसंज्ञा च मेरोस्ताःपूर्वदक्षिणे।।२७०।
मयूरहंसक्रौञ्चाञ्द्यैर्यन्त्रैर्नित्यमलंकृताः।
मणितोरणसंयुक्ता रत्नसोपानपङ्क्तयः।।२७१।।
तासां पञ्चाशदायामस्तदर्धमपि विस्तृतिः।
दशावगाढः प्रासादस्तासां मध्ये शचीपतेः।।२७२।।
एकिंत्रशत्सगव्यूर्तििद्वषष्टिःसार्धयोजना।
आयामविस्तृती तुङ्गस्तस्य गाधोऽर्धयोजनम्।।२७३।।
आ ३१ क्रो १। वि ३१ क्रो १। उ ६२ क्रो २। अ क्रो २। उक्तं च द्वयं त्रिलोकप्रज्ञप्तौ (४,१९४९-५०)-
पोक्खरणीणं मज्झे सक्कस्स हवे विहारपासादो।
पणघणश्कोसुत्तुंगो तद्दलरुंदो णिरुवमाणो।।५।।
१२५।६२। १/२।
एक्कं कोसं गाढो सो णिलवो विविहकेदुरमणिज्जो।
तस्सायामपमाणे उवएसो णत्थि अम्हाणं।।६।।
सिंहासनं तु तन्मध्ये शक्रस्यामिततेजसः।
चत्वारि लोकपालानामासनानि चर्तुिदशम्।।२७४।।
पूर्वोत्तरस्यां तस्यैव चापरोत्तरतस्तथा।
सामानिकानां देवानां रम्यभद्रासनानि च।।२७५।।
४२००० । ४२००० ।
अष्टानामग्रदेवीनां पुरो भद्रासनानि च।
आसन्नपरिषत्तस्य सासना पूर्वदक्षिणे।।२७६।।
८। १२०००।
मध्यमा दक्षिणस्यांं च बाह्या चापरदक्षिणे।
त्रयिंस्त्रशच्च तत्रैव पश्चात् सैन्यमहत्तराः।।२७७।।
१४०००। १६०००। ३३।
चतसृष्वात्मरक्षाणां दिक्षु भद्रासनानि च।
उपास्यमानस्तैरिन्द्र आस्ते पूर्वमुखः सुखम्।।२७८।।
८४०००। ८४०००। ८४०००। ८४०००। उक्तं व त्रिलोकप्रज्ञप्तौ (४,१९५१-६१)-
सीहासणमइरम्मं सोहिंम्मदस्स भवणमज्झम्मि।
तस्स य चउसु दिसासुं चउपीढा लोयवालाणं।।७।।
सोहिंम्मदासणदो दक्खिणभायम्मि कणयणिम्मिविदं।
सिंहासणं विराजदि मणिगणखचिदं पिंडदस्स।।८।।
सिंहासणस्स पुरदो अट्ठाणं होंति अग्गमहिसीणं।
बत्तीससहस्सािंण वियाण पवराइ पीढाइं।।९।।
८।३२०००।
पवणीसाण दिसासुं पासे सिंहासणस्स चुलसीदी।
लक्खाणिं वरपीढा हवंति सामाणियसुराणं।।१०।।
।८४०००००।
तस्सग्गिदिसाभागे बारसलक्खाणि पढमपरिसाए।
पीढाणि होंति कंचणरइदाणिं रयणखचिदाइं।।११।।
। १२०००००।
दक्खिणदिसाविभागे मज्झिमपरिसामराण पीढािंण।
रम्माइं रायंते चोद्दसलक्खप्पमाणाणि।।१२।।
। १४०००००।
णइरिदिदिसाविभाए बाहिरपरिसामराण पीढाणिं।
कंचणरयणमयाणिं सोलसलक्खाणि चिट्ठंति।।१३।।
।१६०००००।
तत्थ य दिसाविभाए तेत्तीससुराण होंति तेत्तीसा।
वरपीढाणि णिरंतरपुरंतमणि-किरणणियराणिं।।१४
सिंहाससणस्स पच्छिमभागे चिट्ठंति सत्तपीढाणिं।
छक्कं महत्तराणं महत्तरीए हवे एक्कं।।१५।।
। ६। १।
सिंहाससणस्स चउसु वि दिंसासु चिट्ठंति अंगरक्खाणं।
चउरासीदिसहस्सा पीढाणि विचित्तरूवाणि।।१६।।
सिंहाससणम्मि तिंस्स पुव्वमुहे पइसिदूण सोहम्मो।
विविहविणोदेण जुदो पेच्छइ सेवागदे देवे।।१७।।
भृङ्गा भृङ्गनिभा चान्या कज्जला कज्जलप्रभा।
दक्षिणापरतस्त्वेताः पुष्परिण्यस्तथाविधाः।।२७९।।
श्रीकान्ता श्रीयुता चन्द्रा ततःश्रीमहितेति च।
श्रीपूर्वनिलया चैव ईशानस्यापरोत्तरे।।२८०।।
नलिनोत्तरपूर्वस्यां तथा नलिनगुल्मिका।
कुमुदाथ कुमुदाभा चैवं सौमनसेऽपि च।।२८१।।
(लोकविभाग पृ. ३३ से ३६ तक)
वहाँ मेरु के पूर्व-दक्षिण (आग्नेय) भाग में उत्पलगुल्मा, नलिना, उत्पला और उत्पलोज्वला नाम की चार वापियां स्थित हैं ।।२७०।।
वे मयूर, हंस और क्रौंच आदि यंत्रों से सदा सुशोभित; मणिमय तोरणों से संयुक्त तथा रत्नमय सोपानों (सीढियों) की पंक्तियों से सहित हैं।।२७१।।
उनका आयाम पचास (५०) योजन, विस्तार इससे आधा (२५ यो.) और गहराई दस (१०) योजन प्रमाण है। उनके मध्य में इन्द्र का भवन अवस्थित है ।।२७२।।
इस प्रासाद का आयाम और विस्तार एक कोस सहित इकतीस (३१-१/४) योजन,ऊंचाई साढ़े बासठ (६२-१/२) योजन और गहराई आधा योजन (२ कोस) मात्र है ।।२७३।।
त्रिलोकप्रज्ञप्ति में कहा भी है– वापियों के मध्य में सोैधर्म इन्द्र का विहारप्रासाद स्थित है। उस अनुपम प्रासाद की ऊंचाई पांच के घन अर्थात् एक सौ पच्चीस (५²५²५·१२५) कोस और विस्तार इससे आधा (६२-१/२ कोस ) है।।५।।
अनेक प्रकार की ध्वजाओं से रमणीय वह प्रासाद एक कोस गहरा है। उसके आयाम के प्रमाण विषयक उपदेश हमें उपलब्ध नहीं है ।।६।।
उक्त प्रासाद के मध्य में अपरिमित तेज के धारक सोैधर्म इन्द्र का सिंहासनंहै। उसके चारों ओर लोकपाल देवों के चार आसन स्थित हैं ।।२७४।।
उसी की पूर्वोत्तर (ईशान) दिशा तथा पश्चिमोत्तर (वायव्य) दिशा में सामानिक देवों के रमणीय भद्रासन अवस्थित हैं-ईशान में ४२०००, वायव्यमें ४२०००।।२७५।।
आठ (८) अग्र देवियों के भद्रासन इन्द्र के आसन के समाने हैं। उसके पूर्व-दक्षिण (आग्नेय) भाग में आसनसहित अभ्यन्तर परिषद् के देव (१२०००) बैठते हैं ।।२७६।।
उसकी दक्षिणी दिशा में मध्यम परिषद् (१४०००) के तथा पश्चिम-दक्षिण (नैत्र्र+त्य) कोण में बाह्य परिषद् (१६०००) के देव बैठते हैं, उसी दिशा भाग में त्रायिंस्त्रश (३३) देव विराजते हैं। सेनामहत्तर देव इन्द्र के िंसिंहासनं के पीछे स्थित रहते हैं ।।२७७।।
आत्मरक्ष देवों के भद्रासन चारों दिशाओं में (पूर्व में ८४०००, दक्षिण में ८४०००, पश्चिम में ८४०००, उत्तर में ८४०००) स्थित होते हैं। उन सब देवों से सेवमान सौधर्म इन्द्र उपर्युक्तसिंहासनंसन के ऊपर पूर्वाभिमुख होकर सुखपूर्वक स्थित रहता है।।२७८।।
त्रिलोक-प्रज्ञप्ति में कहा भी है- उस भवन के मध्य में अतिशय रमणीय सौधर्म इन्द्र सिंहासनंसन स्थित है। उसकी चारों दिशाओं में चार आसन लोकपाल देवों के है ।।७।।
सौधर्म इन्द्र के आसन से दक्षिण भाग में सुवर्ण से र्नििमत और मणिसमूह से खचित प्रतीन्द्र कासिंहासनंसन विराजमान है ।।८।।
मध्यसिंहासनंसन के आगे आठ (८) अग्र महिषियों के बत्तीस हजार (३२०००) उत्तम आसन जानना चाहिए।।९।।
मसिंहासनंहासन के पास में वायव्य और ईशान दिशाओं में सामानिक देवों के चौरासी लाख (८४०००००) उत्तम आसन होते हैं।।१०।।
उसके आग्नेय दिशा भाग में प्रथम परिषद् के सुवर्ण से रचित और रत्नों से खचित बारह लाख (१२०००००) आसन होते हैं।।११।।
उसके दक्षिण दिशा विभाग में मध्यम पारिषद देवों के रमणीय चौदह लाख (१४०००००) प्रमाण आसन विराजमान हैं।।१२।।
नैऋत्य दिशा विभाग में बाह्य पारिषद देवों के सुवर्ण एवं रत्नमय सोलह लाख (१६०००००) आसन स्थित हैं।।१३।।
उसी दिशा विभाग में त्रायिंस्त्रश देवों के निरंतर प्रकाशमान मणियों के किरणसमूह से व्याप्त तेतीस (३३) उत्तम आसन स्थित हैं।।१४।।
मसिंहासनंहासन के पश्चिम दिशा भाग में सात(७) आसन अवस्थित हैं। इनमें छह (६) आसन तो छह सेना महत्तरों के और एक (१) महत्तरी का है।।१५।।
मसिंहासनंहासन की चारों ही दिशाओं में अंगरक्षक देवों के विचित्र रूपवाले चौरासी हजार (८४०००) आसन स्थित हैं।।१६।।
उस पूर्वाभिसिंहासनंहासन पर बैठकर सौधर्म इन्द्र अनेक प्रकार के विनोद के साथ सेवा में आये हुए देवों को देखता है।।१७।।
भृंगा, भृंगनिभा, कज्जला और कज्जलप्रभा ये उसी प्रकार की चार वापिकायें दक्षिण—पश्चिम (नैत्र्र+त्य) कोण में अवस्थित हैं।।२७९।।
श्रीकान्ता, श्रीचन्द्रा, श्रीमहिता और श्रीनिलया ये ईशान इन्द्र की चार वापिकायें पश्चिम-उत्तर (वायव्य)दिशाभाग में स्थित हैं।।२८०।।
नलिना, नलिनगुल्मिका, कुमुदा और कुमुदाभा ये चार वापिकायें उत्तर-पूर्व (ईशान) कोण में स्थित हैं। इसी प्रकार से ये वापिकायें सोैमनस वन में भी अवस्थित हैं।।२८१।।