थोस्सामि हं जिणवरे, तित्थयरे केवली अणंतजिणे। णरपवरलोयमहिए, विहुयरयमले महप्पण्णे१ ।।१।।
अमृतर्विषणी टीका— आत्मा के स्वरूप को ढकने वाले ज्ञानावरण तथा दर्शनावरणरूप मल को धोने वाले, धोकर नष्ट करने वाले, चक्रवत्र्यादि श्रेष्ठ पुरुषों से पूज्य देशजिन गणधरादिकों से श्रेष्ठ, अनन्त संसार को जिन्होंने जीत लिया है अथवा अनादिकाल से अनन्तकाल पर्यंत जो सतत उत्पन्न होते रहते हैं। अत: वे अरिहन्त अनन्त हैं, केवलज्ञान संपन्न, पूज्य तथा महाबुद्धिमान तीर्थंकरों की मैं भक्ति से स्तुति करता हूँ। निज केवलज्ञान से जगत् स्थित सर्व वस्तुओं को जानने वाले अर्थात् सर्वेश चारित्रधर्म किंवा रत्नत्रय धर्म या क्षमादि दशलक्षणरूप धर्म तथा द्वादशांगों की रचना करने वाले इस अवर्सिपणी काल के चतुर्थकाल में उत्पन्न हुए चौबीस तीर्थंकरों की मैं भक्ति से स्तुति करता हूँ। केवलज्ञान सम्पन्न गणधरादिकों को, सामान्य केवलियों को और मूक केवलियों की भी मैं वन्दना करता हूँ। ऋषभ, अजित, संभव, अभिनन्दन, सुमति, पद्मप्रभ, सुपाश्र्व, चन्द्रप्रभ, पुष्पदन्त, टीका—थोस्सामीत्यादि गाहाबंध:। थोस्सामि—स्तोष्ये अहं। कान्? तित्थयरे—तीर्थकरान्। कथंभूतान् ? जिणवरे—देशजिनेभ्यो गणधरादिभ्यो वरान् श्रेष्ठान्। केवलीअणंतजिणे—न विद्यतेऽन्तो यस्येत्यनन्त: संसारस्तं जितवंत:, यदि वा न विद्यते अंतो येषां ते अनंतास्ते च ते जिनाश्च, केवलिनश्च ते अनंतजिनाश्च। णरपवरलोयमहिए-नरप्रवराश्च ते लोकाश्च चक्रवत्र्यादय: तै: महिता: पूजिता:। यदि वा नरप्रवराश्च ते लोकमहिताश्चेति ग्राह्यम्। विहुयरयमले—रजसी, ज्ञानदृगावरणे आत्मस्वरूपप्रच्छादकत्वात् त एव मला विधूता रजोमला यैस्ते। महप्पण्णे—मह: पूजा आपन्ना यै: अथवा महाप्रज्ञा:। ननु केवलज्ञानोपेतत्वात्तेषां कथं मतिज्ञानविशेषा प्रज्ञा स्यादित्ययुत्तंâ यतस्तदुपेतत्वेपि तेषां भूतपूर्वगत्या महाप्रज्ञत्वं दृष्टव्यम्। लोयस्सुज्जोययरे—केवलज्ञानेन लोकप्रकाशकान्। धम्मं तित्थंकरे-धर्मश्चारित्रं उत्तमक्षमादिश्च, तीर्थमागमस्तत्कृतवन्त:। तीर्थकरानेव स्तोतुमुद्यतो भवान् तदा मुण्डकेवलिनो भवतोऽवंद्या: २. क्रियाकलाप, पृ. १४७ से १४९। कृतिकर्म विधि २२२ / अमृतर्विषणी टीका वीर ज्ञानोदय ग्रंथमाला श्री गौतम गणधर वाणी
लोयस्सुज्जोययरे, धम्मं तित्थंकरे जिणे वंदे। अरहंते कित्तिस्से, चउवीसं चेव केवलिणो।।२।।
उसहमजियं च वंदे, संभवमभिणंदणं च सुमइं च। पउमप्पहं सुपासं, जिणं च चंदप्पहं वंदे।।३।।
सुविहिं च पुप्फयंतं, सीयल सेयं च वासुपुज्जं च। विमलमणंतं भयवं, धम्मं संतिं च वंदामि।।४।।
शीतल, श्रेयान् , वासुपूज्य, विमल, अनन्त, धर्म, शान्ति, कुंथु, अर, मल्लि, मुनिसुव्रत, नमि, नेमि, पाश्र्व व महावीर अर्थात् वर्धमान ये चौबीस तीर्थंकर इस अवसर्पिणी काल के चतुर्थ विभाग में हुए हैं, मैं उनका वन्दन करता हूँ। निरावरण ज्ञान और दर्शन गुणों को धारण करने वाले, जन्म, जरा—वृद्धावस्था, मृत्यु आदि अट्ठारह दोषों का नाश करने वाले तीर्थंकरों की मैंने स्तुति की है। वे मेरे ऊपर प्रसन्न होवें। जगत् श्रेष्ठ, कर्मविनाशक, कृतकृत्य तीर्थंकरों की मैंने वचनों से स्तुति की हैं, मन से मैंने उन्हें नमस्कार किया है और शरीर से उनकी पूजा की है। ये तीर्थंकर मुझे आरोग्य—ज्ञान का लाभ, धर्मध्यान और शुक्लध्यान तथा सम्यग्दर्शन की प्राप्ति कराने वाले हों। आरोग्य ज्ञान शब्द का अर्थ केवलज्ञान है। ज्ञानावरण, दर्शनावरण ये दो कर्म रोग के समान हैं। रोग से आरोग्य नष्ट होता है, उसी तरह ये दो कर्म आत्मा का आरोग्य नष्ट करते हैं। अत: इन दो कर्मों को रोग कहते हैं। इनका नाश होने से प्राप्त ज्ञान को आरोग्यज्ञान कहते हैं। वह केवलज्ञानरूप है अथवा मिथ्यात्वरूपी रोग से ज्ञान में विपरीतता आती है। प्राप्नुवंतीत्याशंकापनोदार्थमाह जिणे इत्यादि—जिनान् मुण्डकेवलिनो वन्दे, विहुयरयमले इत्यादि विशेषणचतुष्टयं अत्रापि संबंधनीयम्। इदानीं तीर्थकरान् स्तोष्ये इति संग्रहवाक्येन यत्प्रतिज्ञातं तत् अरहंते इत्यादिना विवृणोति। अरहंते-घातिकर्मक्षये अनंतज्ञानसंपन्नान् तीर्थकृत:, कित्तिस्से—निजनिजनामोपेतान्प्रणामपूर्ववंâ व्यावर्णशिष्ये। केवलिणो—केवलज्ञानोपेतान्, चउवीसं चेव-इदानींतनावर्सिपणीचतुर्थकाल—संबंधिनश्चतुर्विंशतिसंख्योपेतानेव उसहमित्यादि नामोपलक्षितानर्हत: कीर्तयिष्यामि। स्वशक्त्या भक्त्या च स्तुतेभ्य: स्तावक: स्वात्मन: फलमभिलषन्नेवमित्यादिना आह— एवमुक्तप्रकारेण अशेषपापहारिभि: परस्परविलक्षणनामविशेषैरनुपमाचिन्त्यानंतगुणोपेता: मए—मया अभित्थुया—अभिष्टुता भगवंत:, विहुयरयमला—निरावरण इत्यर्थ:। पहीणजरमरणाप्रक्षीणजरमरणा मुक्ता इत्यर्थ:। चउवीसं पि चतुर्विंशतिरपि। तित्थयरा—तीर्थकरा:, जिणवरा—देशजिनेभ्य उत्कृष्टा मे स्तावकस्य पसीयंतु—प्रसन्ना भवंतु। श्री गौतम गणधर वाणी अमृतर्विषणी टीका / २२३
कुंथुं च जिणविंरदं, अरं च मल्लिं च सुव्वयं च णमिं। वंदामि रिट्ठणेमिं, तह पासं वड्ढमाणं च।।५।।
एवं मए अभित्थुया, विहुयरयमला पहीणजरमरणा। चउवीसं पि जिणवरा, तित्थयरा मे पसीयंतु।।६।।
कित्तिय वंदिय महिया, एदे लोगोत्तमा जिणा सिद्धा। आरोग्गणाणलाहं, दिंतु समाहिं च मे बोहिं।।७।।
चंदेहिं णिम्मलयरा, आइच्चेहिं अहिय पहासत्ता। सायरमिव गंभीरा, सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु।।८।।
कित्तिय वंदिय महिया—र्कीितता वाचा, वंदिता मनसा, महिता: पूजिता: कायेन एदे—एते चतुा\वशतितीर्थकरा: लोगुत्तमा—सकलजनेभ्य उत्कृष्टा: सिद्धा—कृतकृत्या:। इत्थंभूता भगवंतो दिंतु— प्रयच्छन्तु। किं तदित्याह आरोग्गेत्यादि। आरोग्गणाणलाहं—परिपूर्णज्ञानलाभं केवलज्ञानप्राप्तिमित्यर्थ:। कथं आरोग्यं ज्ञानं उच्यते इति चेत् व्युत्पत्तित:। तथाहि—रोग इव रोगो ज्ञानावरणं ज्ञानस्वरूपोपघातकत्वात्। न विद्यते रोगोऽस्येत्यरोगं तस्य भाव आरोग्यं तेन युत्तंकं ज्ञानं आरोग्यज्ञानं निखिलज्ञानावरणप्रक्षयप्रभवं ज्ञानमित्यथ:। अथवा रोगो मिथ्यात्वं ज्ञानस्य विपर्ययहेतुतयोपपीडकत्वात्, तेन रहितं यद्विज्ञानपंचवंâ तदारोग्यज्ञानमिति ग्राह्यम्। समाहिं च—धम्र्यं शुक्लध्यानं च समाधि: चारित्रमित्यर्थ:। बोिंह—बुध्यते यथावत्पदार्थस्वरूपं येन स तावद्बोधि: सम्यग्दर्शनमित्यर्थ:। रत्नत्रयलाभं मे प्रयच्छन्त्वित्यर्थ:। चंदेहिं णिम्मलयरा—चंद्रेभ्यो निर्मलतरा: प्रक्षीणाशेषावरणत्वात्। आइचेिंह अहियपहा— आदित्येभ्योऽधिकप्रभा: अन्त: सकललोकोद्योतकेवलज्ञानप्रभासमन्वितत्वात्, बहिश्चासाधारणदेहदीप्तियुक्तत्वात्। सत्ता-प्रशस्ता: परमोपशमप्राप्ता वा। अहियं पयासंता इति च क्वचित्पाठ:। आदित्येभ्योऽधिकं यथा भवत्येवं पदार्थान्प्रकाशयन्त:। सायर इव गंभीरा—अलक्ष्यमाणगुणरत्न-परिमाणत्वात्, सिद्धा—परीतसंसारत्वात्। मम-मे स्तुतिकर्तु: सिद्धिं—सकलकर्मविप्रमोक्षं दिशंतु—प्रयच्छन्त्विति। मिथ्यात्व का नाश होने से ज्ञान में सत्यपना आता है। इसलिये पाँच ज्ञानों को आरोग्यज्ञान कहते हैं। ऐसे आरोग्यज्ञान की प्राप्ति चौबीस तीर्थंकर मुझे करावे, ऐसी मेरी उनसे प्रार्थना है। ये चौबीस तीर्थंकर आवरणों के नाश से चन्द्र से भी अधिक निर्मल है। इनकी आत्मा सर्व विश्व को प्रकाशित करने वाले केवलज्ञान से युक्त है। ये तीर्थंकर वैराग्य की चरम सीमा को प्राप्त हुए हैं। समुद्र गंभीर होने से उसके अंदर के रत्न दिखते नहीं है, वैसे अनन्त दर्शन, ज्ञान, चारित्रादि अनन्तगुण अवर्णनीय है। अतएव ये जिनेश्वर समुद्रसम गंभीर हैं। संसार का अन्त करने से उन्हें सिद्ध कहते हैं। वे मेरे समस्त कर्मों का हरण करें।१ १. सामायिक भाष्य पृ. १०० से १०३ तक। कृतिकर्म विधि २२४ / अमृतर्विषणी टीका वीर ज्ञानोदय ग्रंथमाला श्री गौतम गणधर वाणी ‘‘अड्ढाइज्जदीव दोसमुद्देसु पण्णारसकम्मभूमिसु।’’ अमृतर्विषणी टीका— मध्यलोक का वर्णन मध्यलोक—यह मध्यलोक १ राजू चौड़ा है। इस तीन लोक के बीच में १४ राजू ऊँची, एक राजू चौड़ी और एक राजू मोटी एक त्रसनाली है। त्रस जीव इसी में रहते हैं मध्यलोक में असंख्यात द्वीप— समुद्र हैं। इसमें सर्वप्रथम द्वीप का प्रथम जंबूद्वीप है। यह थाली के समान गोल है, एक लाख योजन अर्थात् (४०,०००००००) मील व्यास वाला है। इसको घेरकर २ लाख योजन व्यास वाला लवणसमुद्र है। इसको घेरकर कालोदधि समुद्र है। इसे घेरकर पुष्करद्वीप है। इसी के ठीक बीच में मानुषोत्तर पर्वत है जो कि चूड़ी के समान आकार वाला है। यहीं तक जंबूद्वीप, धातकीद्वीप और आधा पुष्कर ये ढाईद्वीप माने जाते हैं। ऐसे ही एक—एक द्वीप को घेरकर एक—एक समुद्र होने से जितने द्वीप हैं उतने ही समुद्र हैं, जो कि पूर्व—पूर्व के द्वीप—समुद्र से दूने—दूने विस्तार वाले हैं। जम्बूद्वीप—जम्बूद्वीप के ठीक बीच में सुमेरु पर्वत है यह एक लाख योजन ऊँचा है। इसकी नींव चित्रा पृथ्वी के नीचे एक हजार योजन है और भूमि से ऊपर ९९ हजार योजन है इसकी चूलिका ४० योजन ऊँची है। इस गोलाकार द्वीप में दक्षिण से लेकर उत्तर तक पूर्व—पश्चिम लंबे ऐसे छह कुलपर्वत हैं, जिनके नाम हिमवान, महाहिमवान, निषध, नील, रुक्मी और शिखरी हैं। इन पर्वतों से विभाजित सात क्षेत्र है—भरत, हैमवत, हरि, विदेह, रम्यक, हैरण्यवत और ऐरावत। एक—एक क्षेत्र में २—२ नदियां ऐसे गंगा—सिन्धु, रोहित्—रोहितास्या आदि १४ महानदियाँ हैं। विदेहक्षेत्र—विदेह के बीच में सुमेरु पर्वत होने से उसके दक्षिण और उत्तर में देवकुरु और उत्तरकुरु भोगभूमि हैं तथा पूर्व और पश्चिम में पूर्व विदेह और पश्चिम विदेह है पूर्व विदेह के मध्य में सीता नदी से दक्षिण और उत्तर में ऐसे दो भाग हो गये पुन: दक्षिण में चार वक्षार और तीन विभंगा नदी से आठ देश हो गये, ऐसे ही उत्तर में आठ क्षेत्र हुए एवं पश्चिम विदेह में भी चार—चार वक्षार तथा तीन— तीन विभंगा नदियों से ८—८ क्षेत्र होने से कुल ३२ विदेह क्षेत्र हो जाते हैं। ‘‘एक—एक विदेह दश में ९६ करोड़ ग्राम, २६ हजार नगर, १६ हजार खेट, २४ हजार खर्वट, ४ हजार मंडब, ४८ हजार पत्तन, ९९ हजार द्रोण, १४ हजार संवाह और २८ हजार दुर्गावटी है। एक—एक श्री गौतम गणधर वाणी अमृतर्विषणी टीका / २२५ विदेह में एक—एक उपसमुद्र हैं, उन पर एक—एक टापू हैं। वहाँ ५६ अन्तरद्वीप, २६ हजार रत्नाकर और ७०० कुक्षिवास हैं ये रत्नों के क्रय—विक्रय के स्थान हैं।’’१ १७० कर्मभूमियाँ—जंबूद्वीप में एक भरत, एक ऐरावत एवं बत्तीस विदेह क्षेत्र हैं तथा धातकी— खंडद्वीप में पूर्वधातकीखण्ड और पश्चिमधातकीखंड एवं पुष्कराद्वीप में पूर्व—पुष्करार्धद्वीप और पश्चिमपुष्करार्धद्वीप ऐसे दो–दो भाग हो गये हैं। इसमें विजय, अचल, मंदर और विद्युन्माली ऐसे चार मेरु हैं तथा एक—एक भरत, एक—एक ऐरावत और ३२—३२ विदेह होने से ५ भरत, ५ ऐरावत और ३२ ² ५ · १६० विदेह हो जाते हैं। प्रत्येक में छह—छह खण्ड होने से मध्य के आर्यखंड में कर्मभूमि व्यवस्था है। इस प्रकार ये १७० कर्मभूमियां मानी है। अधिकतम तीर्थंकर १७० एवं कम से कम २० होते हैं—इन्हीं १७० कर्मभूमियों के आर्यखंडों में यदि एक साथ अधिकतम तीर्थंकर या चक्रवर्ती या नारायण, प्रतिनारायण और बलभद्र होवें तो अधिकतम १७० हो सकते हैं और कम से कम एक—एक मेरु संबंधि विदेहों में ४—४ ऐसे ४ ² ५ ·२० तीर्थंकर तो रहते ही हैं। कहा भी है— तित्थद्धसयलचक्की सट्ठिसयं पुह वरेण अवरेण। वीसं वीसं सयले खेत्ते सत्तरिसयं वरदो।।६८१।।२ तीर्थंकर, अर्धचक्री और सकलचक्री ये विदेहक्षेत्र की अपेक्षा अधिकतम १६० एवं कम से कम बीस होते हैं। इन्हीं में भरत—ऐरावत के भी मिला देने से अधिकतम १७० हो जाते हैं। इस गाथा से स्पष्ट है कि श्रीऋषभदेव और श्री महावीरस्वामी जैसे तीर्थंकर महापुरुष इन कर्मभूमियों में अनन्तों हो चुके हैं और आगे भी होते रहेंगे।’’ चतुर्थकालो विदेहे चावस्थित एव।३ ’’ इस नियम के अनुसार विदेह—क्षेत्रों में हमेशा चतुर्थकाल ही रहता है, षट्काल परिवर्तन नहीं होता है। भरत और ऐरावत क्षेत्रों की अपेक्षा यह चतुा\वशति स्तव कहा गया है। किन्तु पूर्व—विदेह और अपरविदेह की अपेक्षा से सामान्य तीर्थंकर स्तव समझना चाहिए। इस प्रकार से इसमें कोई दोष नहीं है अर्थात् पाँच भरत और पाँच ऐरावत क्षेत्रों में ही चतुर्थ काल में चौबीस—चौबीस तीर्थंकर होते हैं किन्तु एक सौ साठ विदेह क्षेत्रों में हमेशा ही तीर्थंकर होते रहते हैं अत: उनकी संख्या का कोई नियम नहीं है। उनकी अपेक्षा से इस आवश्यक को सामान्यतया तीर्थंकर स्तव ही कहना चाहिए इसमें कोई दोष नहीं है। ढाईद्वीप—जंबूद्वीप, धातकीखंड और आधा पुष्करद्वीप—इसे पुष्करार्धद्वीप कहते हैं, इसीलिये ये दो पूरे द्वीप और मानुषोत्तर से पहले का आधा पुष्करार्ध द्वीप ये ढाईद्वीप कहलाते हैं। जंबूद्वीप में एक १. त्रिलोकसार गाथा ६७४ से ६७७ तक। २. त्रिलोकसार गाथा ६८१। ३. त्रिलोकसार गाथा ८८२ की टीका का अंश। कृतिकर्म विधि २२६ / अमृतर्विषणी टीका वीर ज्ञानोदय ग्रंथमाला श्री गौतम गणधर वाणी भरत, एक ऐरावत व एक महाविदेह ऐसे तीन तथा धातकीखंड में दो भरत, दो ऐरावत व दो महाविदेह तथा पुष्करार्ध में भी दो भरत, दो ऐरावत व दो महाविदेह ऐसे ५ भरत, ५ ऐरावत व ५ विदेह मिलकर पंद्रह कर्मभूमियाँ मुख्यरूप से हैं। विदेहों में ३२ ² ५ · १६० भेद भी ऊपर आपको दिखाये हैं ये विशेष व्यवस्था है। सभी विदेह क्षेत्रों में मनुष्यों की ऊँचाई पाँच सौ धनुष प्रमाण होती है और आयु एक करोड़ वर्ष पूर्व प्रमाण रहती है। वहाँ तीर्थंकर, चक्रवर्ती, बलभद्र और नारायण अधिक से अधिक हों तो प्रत्येक एक सौ साठ, एक सौ साठ होते हैं और कम से कम हों तो प्रत्येक बीस—बीस होते हैं।
भावार्थ—अढ़ाई द्वीप में पाँच विदेह क्षेत्र हैं और एक—एक विदेह क्षेत्र के बत्तीस—बत्तीस भेद हैं इसलिए सबके मिलाकर एक सौ साठ भेद हो जाते हैं, यदि तीर्थंकर आदि शलाकापुरुष प्रत्येक विदेह क्षेत्र में एक—एक होवें तो एक सौ साठ हो जाते हैं और कम से कम हों तो एक—एक महाविदेह सम्बन्धी चार—चार नगरियों में अवश्यमेव होने के कारण बीस ही होते हैं। इस प्रकार ५ भरत ५ ऐरावत व १६० विदेह इन सब कर्मभूमियों में उत्पन्न हुए तीर्थंकर आदि महापुरुष अधिक से अधिक हों तो एक सौ सत्तर हो सकते हैं।१ दो समुद्र—इसी प्रकार लवण समुद्र व कोलोदधि समुद्र इन दो तक ही मनुष्यों का आवागमन संभव है। लवण समुद्र में लंका द्वीप आदि अनेक द्वीप—टापू जैसे माने गये हैं। वहां भी विद्याधर मनुष्य आदि रहते हैं मुनियों का होना, ऋद्धिधारी मुनियों का आना—जाना संभव है जैसे कि रावण की मृत्यु के दिन ही वहां ५६ हजार मुनियों का संघ पहुँच गया था।२ ये सभी मुनि आकाशगामी ऋद्धिधारी थे। लिखा है— ‘‘रावणे जीवति प्राप्तो, यदि स्यात् स महामुनि:। लक्ष्मणेन समं प्रीति—र्जाता स्यात्तस्य पुष्कला।।५४।। जहाँ ऋद्धिधारी मुनि रहते हैं वहां दो सौ योजन तक पृथ्वी उपद्रव रहित हो जाती है और वहाँ पर रहने वाले सभी जीव परस्पर में निर्वैर हो जाते हैं। आचार्य कहते हैं कि—यदि यह संघ प्रात:काल में आ जाता तो रावण और लक्ष्मण की परस्पर में परम प्रीति हो जाती। रात्रि में अनंतवीर्य सूरि को केवलज्ञान प्रगट हो जाता है और देवों के आगमन का दुंदभि वाद्य आदि का मधुर शब्द होने लगता है। इन्द्रजीत, कुम्भकर्ण और मेघवाहन आदि विद्याधर वहाँ पहुँचकर जैनेश्वरी दीक्षा लेकर महामुनि बन जाते हैं। शशिकान्ता र्आियका से संबोधन को प्राप्त हुई मंदोदरी आदि ४८ हजार स्त्रियाँ संयम धारण कर र्आियका हो जाती है। १. उत्तर पुराण पृ २६२। २. पद्मपुराण भाग—३ पर्व ७८, पृ. ८०। श्री गौतम गणधर वाणी अमृतर्विषणी टीका / २२७ इस प्रकार इन ढाईद्वीप और दो समुद्रों तक ही अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधुओं का इन पांचों परमेष्ठी का अस्तित्व है। खास करके दोनों समुद्रों में तीर्थंकर भगवंतों के समवसरण संभव नहीं है। कदाचित् उपसर्ग आदि के निमित्त से मुनियों को वहां कोई देव या विद्याधर ले जाकर डाल देते हैं और वहाँ समुद्रों में उन्हें यदि केवलज्ञान होकर निर्वाण हो जाता है तो इस अपेक्षा से अरिहंत और सिद्धों का अस्तित्व होता है। उपसर्ग आदि की अपेक्षा से ही संपूर्ण ढाईद्वीप से व दोनों समुद्रों से अनंतानंत सिद्ध हो चुके हैं क्योंकि ढाईद्वीप के मानुषोत्तर पर्वत की सीमा तक ही ४५ लाख योजन की सिद्धशिला है जो कि सिद्धों के समूह से पूर्णतया भरी हुई है अर्थात् वहां ४५ लाख योजन तक सिद्धशिला से ऊपर अनंतानंत सिद्ध विराजमान हैं। कृतिकर्म विधि गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी के अनमोल वचन गुरुपने की इच्छा कभी मत करो क्योंकि गुरुभार रहित हल्के बनने से परमात्म पद की प्राप्ति होती है। दीक्षा धारण करने के लिए शारीरिक शक्ति की अपेक्षा मानसिक शक्ति की प्रबलता आवश्यक है।