मुनियों के पाँच भेद-पुलाक, वकुश, कुशील, निर्ग्रन्थ और स्नातक।
पुलाक
जिनका चित्त उत्तरगुणों की भावना से रहित है और व्रतों में भी क्वचित् कदाचित् परिपूर्णता को प्राप्त नहीं कर पाते हैं अर्थात् पाँच महाव्रतों में भी दोष लग जाते हैं। बिना शुद्ध हुए (किंचित् लालिमा सहित) धान्य सदृश होने से वे पुलाक कहलाते हैं।’’ इनके सामायिक और छेदोपस्थापना ये दो संयम पाये जाते हैं। श्रुतज्ञान की अपेक्षा उत्कृष्ट रूप से ये अभिन्नदशपूर्वी हो सकते हैं और जघन्य से आचार वस्तु मात्र है। ‘‘ये दूसरों की जबरदस्ती से पाँच महाव्रत और रात्रिभोजनत्याग ऐसे छठे अणुव्रत इनमें से किसी एक की विराधना कर लेते हैं, इसीलिए पुलाक कहलाते हैं।’’ इस प्रसंग में तत्त्वार्थवृत्ति में प्रश्न किया है कि-
‘‘प्रश्न-रात्रिभोजनत्याग का विराधक कैसे हो जाता है ?
उत्तर -‘श्रावक आदिकों का इससे उपकार होगा’ ऐसा सोचकर अपने छात्र आदि को रात्रि में भोजन करा देते हैं, इसलिए विराधक हो जाते हैं।३’’
वकुश-‘जो निग्र्रन्थ अवस्था को प्राप्त हैं, मूलगुणों को अखंडित-निरतिचार पालते हैं, शरीर और उपकरण की शोभा के अनुवर्ती हैं, ऋद्धि और यश की कामना रखते हैं सात और गौरव के आश्रित हैं, ४परिवार-शिष्यों से घिरे हुए हैं और छेद से जिनका चित्त शबल-चित्रित है, वे मुनि वकुश कहलाते हैं। श्री पूज्यपाद स्वामी ने ‘‘इन्हें विविध प्रकार के मोह से युक्त कहा है।’’५ तत्त्वार्थवृत्ति में-‘अविविक्तपरिवारा:’ पद का अर्थ असंयत शिष्यादि किया है। अर्थात् ‘‘जो निर्र्ग्रन्थ पद में स्थित हैं, व्रतों में दोष नहीं लगते हैं, किन्तु शरीर, उपकरण-पिच्छी, कमण्डलु, पुस्तक आदि की शोभा चाहते हैं, ऋद्धि, यश, सुख और वैभव की आकांक्षा रखते हैं, असंयत परिवार-शिष्यों से सहित हैं, अनुमोदना आदि विविध भावों से शबलचित्त हैं वे वकुश कहलाते हैं।’’ इनके सामायिक और छेदोपस्थापना ये दो संयम होते हैं। उत्कृष्ट से इनका ज्ञान अभिन्नदश पूर्व तक हो सकता है और जघन्य से अष्टप्रवचनमातृका (पाँच समिति, तीन गुप्ति) मात्र का ज्ञान रह सकता है। ‘‘वकुश मुनि के दो भेद हैं-उपकरण वकुश और शरीर वकुश। उपकरणों में जिनका चित्त आसक्त हैं जो नाना प्रकार के विचित्र परिग्रहों से युक्त हैं, बहुत विशेषता से युक्त उपकरणों के आकांक्षी हैं, उनके संस्कार और प्रतीकार को करने वाल हैं ऐसे साधु उपकरण वकुश कहलाते हैं तथा शरीर के संस्कार को करने वाले शरीर वकुश हैं।’’ कुशील-कुशील मुनि के दो भेद हैं। कैसे ? प्रतिसेवना आर कषाय के उदय के भेद से। अर्थात् प्रतिसेवना कुशील और कषाय कुशील ये दो भेद हैं। जो परिग्रह से अविविक्त-मुक्त नहीं हुए हैं, मूलगुण और उत्तरगुणो में परिपूर्ण हैं किन्तु जिनके कथंचित्-किसी अपेक्षा से उत्तरगुणों की विराधना भी हो जाती है वे प्रतिसेवना कुशील हैं। जो ग्रीष्मऋतु में जंघाप्रक्षालन आदि कर लेने से अन्य कषायोदय के वशीभूत हैं संज्वलनमात्र कषाय के आधीन हैं वे कषाय कुशील मुनि हैं।’’ प्रतिसेवना कुशील के सामायिक और छेदोपस्थापना ये दो ही संयम होते हैं। किन्तु कषाय कुशील के सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि और सूक्ष्मसाम्पराय ये चार संयम होते हैं। प्रतिसेवना कुशील मुनियों का भी उत्कृष्ट ज्ञान अभिन्नदशपूर्व तक है और जघन्य ज्ञान आठ प्रवचनमाता का ही है। ये मूलगुणों में विराधना न करते हुए उत्तरगुणों में किंचित् विराधना कर सकते हैं। कषाय कुशील मुनियों का उत्कृष्ट ज्ञान चौदहपूर्व है और जघन्य आठ प्रवचनमातृका ही है। इनके द्वारा मूलोत्तर गुणों में विराधना संभव नहीं है। निर्ग्रन्थ ‘‘जैसे जल में डंडे की लकीर तत्क्षण मिट जाती है वैसे ही जिनके कर्मों का उदय व्यक्त नहीं है, मुहूर्त के अनन्तर ही जिनको केवलज्ञान और केवलदर्शन प्रगट होने वाले हैं वे निग्र्रन्थ साधु हैं।’’ इनके यथाख्यात संयम ही होता है। उत्कृष्ट से इनका श्रुतज्ञान चौदहपूर्व है और जघन्य से वही अष्ट प्रवचनमातृका पर्यन्त है। इनके मूलोत्तर गुणों में विराधना असंभव हैं, चूँकि शुक्ल ध्यान में स्थित हैं।
स्नातक
ज्ञानावरण, आदि घातिकर्मों के क्षय से जिनके केवलज्ञानादि अतिशय विभूतियाँ प्रगट हो चुकी हैं, जो सयोगी सम्पूर्ण-अठारह हजार शीलों के स्वामी हैं, कृतकृत्य हो चुके हैं ऐसे केवली भगवान स्नातक कहलाते हैं। इनके भी एक यथाख्यात संयम ही है। इनके श्रुतज्ञान का सवाल ही नहीं है। क्योंकि पूर्ण-केवलज्ञान प्रगट हो चुका है। ये पाँचों प्रकार के मुनि प्रत्येक तीर्थंकरों के समय होते हैं। ‘‘ये पाँचों प्रकार के भी भावलिंगी हैं।’’ इसमें से पुलाक मुनियों के तीन शुभलेश्याएँ ही होती हैं। किन्तु ‘‘वकुश और प्रतिसेवना कुशील मुनियों के छहों लेश्याएँ भी हो सकती हैं।’’ सर्वार्थसिद्धि की टिप्पणी में इस बात को स्पष्ट किया है कि-‘‘कृष्ण आदि तीन अशुभ लेश्याएँ भी इन दोनों मुनियों के कैसे संभव हैं ? ऐसा प्रश्न होने पर कहते हैं-इन दोनों प्रकार के मुनियों में उपकरण की आसक्ति संभव होने से कदाचित् आर्तध्यान संभव है और आर्तध्यान से ये अशुभलेश्याएँ संभव हैं।’’ तत्त्वार्थवृत्ति में भी इसी बात को स्पष्ट किया है-
‘‘शंका – ’कृष्ण, नील और कापोत ये तीन लेश्याएँ वकुश और प्रतिसेवना कुशील में कैसे संभव हैं ?
समाधान – आपका कहना सत्य है, किन्तु इन दोनों प्रकार के मुनियों के उपकरणों में आसक्ति से उत्पन्न होने वाला आर्तध्यान कदाचित्-किसी काल में संभव है और आर्तध्यान संभव होने से कृष्ण आदि तीनों लेश्याएँ संभव ही हैं। दूसरे मत की अपेक्षा परिग्रह के संस्कार की आकांक्षा होने से और स्वयं ही उत्तरगुणों की विराधना हो जाने से आर्त-परिणामों में पीड़ा-क्लेश संभव है और उस आर्त से अविनाभावी छहों लेश्याएँ भी संभव हैं। पुलाक मुनियों के आर्त के कारणों का अभाव होने से छह लेश्याएँ नहीं है। किन्तु तीन शुभ ही हैं, अर्थात् अशुभ लेश्याएँ नहीं हैं।’’ ‘‘कषाय कुशील मुनियों मे और परिहार विशुद्धि संयमी के कापोत, पीत, पद्म और शुक्ल ये चार लेश्याएँ हैं।’’ ‘‘इनमें भी कापोत इस अशुभ लेश्या के होने का मतलब पूर्वोकत ही है, क्योंकि इनमें संज्वलन मात्र अन्तरंग कषाय का सद्भाव होने से और परिग्रह की आसक्ति मात्र का सद्भाव होने से यह लेश्या मानी है।’’ सूक्ष्मसांपराय, निर्ग्रन्थ और स्नातक के केवल एक शुक्ल लेश्या ही है। पुलाक मुनि उत्कृष्टरूप से यदि स्वर्ग में जाते हैं तो बारहवें में उत्कृष्ट स्थिति वाले देवों में जन्म ले सकते हैं। वकुश और प्रतिसेवनाकुशील वावीसागर की उत्कृष्ट स्थिति लेकर आरण और अच्युतकल्प जा सकते हैं। कषाय कुशील और निग्र्रन्थ (ग्यारहवें गुणस्थानवर्ती) तेतीससागर की आयु लेकर सर्वार्थसिद्धि में जन्म ले सकते हैं। स्नातक केवली तो मोक्ष ही जाते हैं। स्नातक से अतिरिक्त सभी प्रकार के मुनि जघन्य-कम से कम सौधर्म स्वर्ग में दो सागर की आयु वाले ऐसे देव अवश्य होते हैं। इन पाँच प्रकार के मुनियों के स्वरूप को अच्छी तरह से समझकर यह निर्णय करना चाहिए कि चतुर्थकाल में भी मूलगुणों में दोष लगाने वाले सााधु हो सकते थे और आज भी पुलाक आदि मुनि विद्यमान हैं। जंघा प्रक्षालन या उपकरण की सुंदरता से आसक्त हुए साधु को चारित्रहीन द्रव्यलिंगी कह देना उचित नहीं है। श्री अकलंकदेव इसी बात को और भी स्पष्ट कहते हैं- ‘‘सम्यग्दर्शन और भूषा, वेश तथा आयुध से विरहित निर्ग्रन्थरूप, यह सामान्यतया पुलाक आदि सभी में पाया जाता है, यही कारण है कि सभी को निर्ग्रन्थ शब्द से कहना युक्त है। अर्थात् ये पाँचों ही निग्र्रन्थ कहे जाते हैं चूँकि इनमें सम्यक्त्व और वस्त्राडंबर रहित निर्र्ग्रन्थ रूप विद्यमान है।
प्रश्न-यदि भग्नव्रत-खंडितव्रत में भी निर्ग्र्रन्थ शब्द का प्रयोग होता है, तो श्रावक में भी करना चाहिए ?
उत्तर – नहीं, ऐसा दोष नहीं आ सकता है।
प्रश्न-क्यों ?
उत्तर – क्योंकि उनमें श्रावकों में निग्र्रन्थ रूप का अभाव है। हम लोगों को यहाँ पर निर्र्ग्रन्थरूप प्रमाण है और वह श्रावक में है नहीं, इसलिए अतिप्रसंग नहीं आ सकता है। प्रश्न-यदि निर्ग्रन्थरूप ही आपको प्रमाण है तो अन्य भी किसी सरूप-सदृश अर्थात् नंगे में निर्र्ग्रन्थ संज्ञा हो जावेगी ? उत्तर – ऐसा नहीं है।
प्रश्न-क्या कारण है ?
उत्तर –क्योंकि हर किसी नंगे में सम्यक्त्व का अभाव है। सम्यग्दर्शन के साथ जहाँ पर रूप है वहीं पर निर्र्ग्रन्थ यह नाम आता है किन्तु रूपमात्र-नंगे मात्र में नहीं। प्रश्न-तो फिर यह पुलाक आदि नाम क्यों रखे हैं ? उत्तर – चारित्रगुण की उत्तरोत्तर प्रकर्र्ष में वृत्ति-रहना विशेष बतलाने के लिए ही ये पुलाक आदि भेदों का उपदेश किया गया है।’’ इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि ये पुलाक आदि मुनि सदोषी शिथिलाचारी नहीं है किन्तु भावलिंगी होने से पूज्य ही हैं। चूँकि ये यत्नाचारपूर्वक प्रवृत्ति करने वाले हैं।
प्रश्न होता है कि-साधु को किस प्रकार ये प्रवृत्ति करना चाहिए ? कैसे खड़े होना चाहिए? कैसे बैठना चाहिए ? कैसे सोना चाहिए ? कैसे भोजन करना चाहिए और कैसे बोलना चाहिए ? कि जिससे पाप का बंध नहीं होवे।’’’
उत्तर में -‘‘यत्न से-ईर्यापथ शुद्धिपूर्वक गमन करना चाहिए। यत्न से खड़े होना चाहिए। यत्न से-सावधानीपूर्वक-जीवों को बाधा न देते हुए उन्हें पिच्छिका से हटाकर पद्मासन आदि से बैठाना चाहिए। यत्न से सोते समय भी संस्तर का संशोधन करके अर्थात् चटाई फलक आदि को उलट-पुलट कर देखकर रात्रि में गात्र संकुचित करके सोना चाहिए। यत्न से-छयालीस दोष वर्जित आहार ग्रहण करना चाहिए। यत्न से-भाषा समिति से बोलना चाहिए। इस प्रकार की प्रवृत्ति से पापबंध नहीं होता है।’’ क्योंकि जो साधु यत्नाचार से प्रवृत्ति करता है, दयाभाव से सतत प्राणियों का अवलोकन करता है। उसके नवीन कर्मों का बंध नहीं होता है और पुराना कर्म भी नष्ट हो जाता है। ‘‘जो मुनि द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और संहनन की अपेक्षा करके चारित्र में प्रवृत्त होता है वह क्रम से बध-हिंसा से रहित हो जाता है।’’ विशेष-ये पुलाक आदि मुनि सभी दिगम्बर हैं। इनकी अपेक्षा भी मुनियों में भेद होता है।