प्रथम दृश्य-राजदरबार का दृश्य-राजनर्तकी द्वारा नृत्य
निर्देशक –(अयोध्या नगरी के राजा वङ्काबाहु अपने राजदरबार में बैठे हैं। ऐसा लगता है मानों वे आज किसी शुभ सूचना का इंतजार कर रहे हैं। जी हाँ! आज उनकी प्रिय रानी प्रभाकरी प्रसूतिगृह में हैं और भावी पुत्र के शुभागमन की प्रतीक्षा में महाराज अति व्याकुल हैं। अचानक महाराज उठकर टहलते हुए मंत्री से वार्तालाप करने लगते हैं)
राजा वङ्काबाहु – मंत्री महोदय! अभी तक कोई समाचार नहीं आया, हम अपने पुत्र का मुख देखने को अति व्याकुल हैं।
मंत्री – महाराज, धीरज रखिये। आपके साथ-साथ हम और सारी प्रजा भी अपने भावी राजा की प्रतीक्षा में आकुलित है। आइए, अन्त:पुर की ओर चलें।तभी अचानक एक दासी का प्रवेश-
दासी –(प्रसन्न मुद्रा में) बधाई हो प्रजापति! बधाई हो। रानी प्रभाकरी ने पुत्ररत्न को जन्म दिया है। पुत्र का मुखमण्डल ऐसा चमक रहा है मानो कोई दिव्यात्मा हो।
राजा –(इनाम स्वरूप अपने गले का हार देते हुए) लो दासी। इस शुभ सूचना को सुनाकर तुमने मुझे ही नहीं समस्त प्रजा को भी हर्षित किया है। यह लो अपना पुरस्कार।
दासी –महाराज की जय हो, महाराज सदा जयशील रहें, आपकी कीर्तिपताका सदैव फहराती रहे। (प्रणाम कर चली जाती है।)
मंत्री –स्वामिन्! अब मुझे भी प्रस्थान की आज्ञा दीजिए ताकि मैं भी सारी प्रजा को यह शुभ समाचार सुनाकर खुशियाँ मना सवूँ।
राजा – आज्ञा है मंत्रिवर! मैं भी अपने पुत्र का मुखावलोकन करने हेतु अन्त:पुर की ओर प्रस्थान करता हूँ। (राजा एवं मंत्री दोनों अलग-अलग दिशाओं में चले जाते हैं)
निर्देशक –(राजा अन्त:पुर जाकर पुत्र का मुखावलोकन करते हैं और अपने आनन्द को वृद्धिंगत करने वाले पुत्र का ‘आनन्द कुमार’ नामकरण करते हैं। इधर राज्य में सर्वत्र खुशियाँ मनाई जा रही हैं, सब तरफ उल्लास का वातावरण है)
-द्वितीय दृश्य-
निर्देशक –(कुमार आनंद अपने माता-पिता एवं कुटुम्बीजनों के आनन्द को वृद्धिंगत करते हुए धीरे-धीरे कुमारावस्था को पारकर युवावस्था में प्रवेश कर जाते हैं और सभी विद्याओं और कलाओं में पूर्ण निष्णात हो जाते हैं। महाराज वङ्काबाहु उन्हें पूर्णरूपेण राज्यसंचालन में निपुण जानकर अपनी संपूर्ण राज्यलक्ष्मी को उन्हें सौंपने को उद्यत होते हैं और द्वारपाल से कहकर कुमार को बुलवाते हैं)
राजदरबार का दृश्य –मंत्रीगण राजा के साथ बैठे हैं।
युवराज आनन्द – (राजदरबार में प्रवेश कर) प्रणाम पिताश्री! आपने मुझे याद किया। कहिए, मेरे लिए क्या आज्ञा है?
राजा वङ्काबाहु – हाँ पुत्र! आज मैंने तुम्हें एक विशेष कार्य हेतु बुलवाया है।
युवराज –आज्ञा करें पिताश्री!
राजा –(सिंहासन से उठकर पुत्र के समीप जाकर स्नेह से मस्तक पर हाथ फेरते हुए) बेटा! अब तुम पूर्णरूपेण राज्य संचालन के योग्य हो चुके हो अत: मैं इस राज्यलक्ष्मी को तुम्हें सौंपकर अब निश्चिन्त होकर धर्मध्यान में अपना मन लगाना चाहता हूँ।
युवराज – परन्तु पिताश्री! मैं…………. राजा -(बीच में ही) नहीं पुत्र! यह हमारी कुलपरम्परा रही है कि पुत्र के राज्यसंचालन में योग्य होने पर राजगद्दी उसे सौंपकर पिता जिनेन्द्रभक्ति में तत्पर हो अपना जीवन सफल करते हैं।
मंत्रीगण – परन्तु हे महाराज! आपकी रिक्तता, आपका विछोह, हम कैसे सहन कर पाएंगे।
युवराज – हाँ पिताश्री! कैसे रहेंगे हम आपके बिना?
राजा –अरे पुत्र! इतने समझदार होकर यह कैसी बातें कर रहे हो। वत्स! इस संसार में प्राणी अकेला ही आता है और अकेला ही जाता है। देखो! मृत्यु का कोई भरोसा नहीं, मात्र अपने साथ एक जिनधर्म ही जाना है और आगे तुमको भी तो उसी परम्परा का निर्वाह करना है। (मंत्रियों से) मंत्रीगणों! शीघ्र ही युवराज के राज्याभिषेक की तैयारी करो।
मंत्रीगण – जो आज्ञा महाराज! (महाराज शीघ्र ही युवराज का राज्याभिषेक कर देते हैं और युवराज आनंद महाराज के रूप में कुशलतापूर्वक राज्य संचालन करने लगते हैं)
-तृतीय दृश्य-
(अयोध्यापति आनन्द कुमार महाराज की राज्यसभा। राज्यसभा में महामंडलीक पद को विभूषित करते हुए महाराज आनन्द कुमार रत्नखचित सिंहासन पर आरूढ़ हैं। वारांगनाएं चंवर ढोर रही हैं। आनन्द महाराज का विशाल वैभव है, आठ हजार मुकुटबद्ध राजा उनकी आज्ञा में हैं, चारों दिशाओं में महाराज के गुणों की उज्जवल कीर्ति व्याप्त हो रही है)-राजसभा में राजनर्तकी का नृत्य-पुन: समय पाकर स्वामिहित नामक विवेकशील मंत्री कहता है-
मंत्री – महाराज! इस समय ऋतुओं का राजा बसंत आ गया है। सर्वत्र सभी जन कुछ न कुछ महोत्सव कर रहे हैं।
महाराज – बताइए मंत्रिवर! हमें क्या करना चाहिए?
मंत्री –महाराज! अभी फाल्गुन सुदी अष्टमी से पूर्णिमा पर्यंत आष्टान्हिक महापर्व आ रहा है। इस अवसर में नंदीश्वर व्रत किया जाता है और महामहिम पूजा का अनुष्ठान भी होता है। हे प्रभो! जिनेन्द्र देव की पूजा सम्पूर्ण पापों का नाश करने वाली है पुन: पर्व के संयोग से वह पूजा अतिशय पुण्य को प्रदान करने वाली हो जाया करती है। जिनपूजा के समान इस जगत में और कोई उत्तम कार्य न हुआ है और न हो सकता है। जिनेन्द्रदेव की पूजा की भावना ही सभी दु:खों को दूर करने का एक अमोघ उपाय है।
महाराज – ठीक है मंत्रिवर! शीघ्र ही नंदीश्वर पूजा का भव्य आयोजन कीजिए और यह विशेष ध्यान रखिएगा कि इस विधान कार्य में जितने भी लोग बैठना चाहें उन सबकी उचित और अच्छी व्यवस्था हो। मंत्री – जैसी आज्ञा महाराज।
निर्देशक – (शीघ्र ही मंत्रीवर वहाँ से निकल जाते हैं और अतुल वैभव के साथ नंदीश्वर पूजन का आयोजन करते हैं। उस विधान कार्य में अगणित लोगों ने भाग लिया। उस पूजा को देखने के लिए वहाँ पर विपुलमति नाम के मुनिराज पधारे। तब महाराज आनन्द उनके दर्शनार्थ जाते हैं और दिव्य उपदेश के साथ-साथ अपनी शंका का समाधान भी करते हैं)
राजा – नमोस्तु मुनिवर!
मुनिराज – सद्धर्मवृद्धिरस्तु।
राजा –प्रभो! आपका रत्नत्रय कुशल तो है?
मुनिराज – हाँ राजन्! मेरे रत्नत्रय की कुशलता है।
राजा –स्वामिन्! कृपा कर अपने धर्मामृत वचनों से हमें अभिसिंचित कीजिए।
मुनिराज – आयुष्मन्! सुनो! इस संसार में जिनपूजा के समान और कोई उत्तम कार्य न हुआ है और न हो सकता है। जिनेन्द्र भगवान की पूजा सम्पूर्ण मनोरथों को सिद्ध करने वाली है और सर्वदा कल्याणकारी है।
राजा – भगवन्! मुझे कुछ संशय हो रहा है सो कृपया आप उसका निवारण कीजिए?
मुनिराज – अवश्य राजन्! कहिए, क्या शंका है?
राजा – गुरुदेव! ये जिनेन्द्रदेव की प्रतिमाएं तो धातु-पाषाण आदि से निर्मित हैं अत: अचेतन हैं पुन: पूजन करने वाले सचेतन को ये पुण्य फल कैसे प्रदान कर सकती हैं?
मुनिराज –राजन्! आपने समयोचित प्रश्न किया है। सुनिये! यद्यपि ये जिनप्रतिमाएं अचेतन हैं और जिनेन्द्र मंदिर भी अचेतन हैं तथापि वे भव्य जीवों के लिए पुण्य बंध के ही कारण हैं। यथार्थ में पुण्य बंध परिणामों से होता है। जिनेन्द्र भगवान रागादि दोषों से रहित शस्त्र, वस्त्र, स्त्री, पुत्रादि से रहित हैं। उनके मुख की वीतराग सौम्य छवि परिणामों की उज्जवलता में कारण है। जिनमंदिर और उनकी प्रतिमाओं के दर्शन करने वालों के परिणामों में जितनी निर्मलता और प्रकर्षता होती है वेैसी अन्य कारणों से नहीं हो सकती है।
राजा – परन्तु प्रभो! इनमें किसी का भला-बुरा करने की शक्ति कहाँ है?
मुनिराज – देखो! जैसे कल्पवृक्ष, चिंतामणि आदि अचेतन होते हुए भी मनवांछित और मन चिंतित फल देने में समर्थ हैं वैसे ही जिनप्रतिमाएं भी सम्पूर्ण मनोरथों को पूर्ण करने में समर्थ हैं। प्रतिमारूप में वीतराग मुद्रा को देखकर जिनेन्द्रदेव का स्मरण होता है जिससे अनन्तगुणा पुण्यबंध हो जाता है। जैसे मणि, मंत्र, औषधि आदि अचेतन पदार्थ भी विष अथवा रोगादि को नष्ट करते हुए देखे जाते हैं वैसे ही जिनबिंब का दर्शन और पूजन भी समस्त पाप को भस्मसात् करने वाला है।
राजा –फिर तो इनकी निंदा करने वाला महापाप का बंध करता होगा?
मुनिराज – जो मूढ़जन जिनप्रतिमाओं का दर्शन नहीं करते हैं या उनकी निंदा करते हैं वे स्वयमेव अनंत संसार सागर में डूब जाते हैं जैसे कि राजा की मुद्रा आदि का अपमान करने पर मनुष्य राजद्रोही माना जाता है और राजा द्वारा दण्ड को प्राप्त होता है वैसे ही जिनमुद्रा से अंकित मूर्तियाँ साक्षात् जिनेन्द्र भगवान के सदृश पूज्य मानी जाती हैं उनका अपमान करने वाला व्यक्ति धर्मद्रोही, आत्मद्रोही होता हुआ कर्म की मार से अनन्त दुखों को प्राप्त करता है।
निर्देशक – (इस प्रकार मुनिराज ने राजा को जिनप्रतिमाओं के दर्शन का फल बतलाते हुए उनके सामने तीन लोक के अकृत्रिम चैत्यालयों का वर्णन किया, जिसमें सर्वप्रथम वे सूर्य के विमान में स्थित जिनमंदिर का वर्णन करने लगे)
महामुनि – हे राजन्! सूर्य का विमान ४८/६१ योजन का है यह पृथ्वीतल से ३२ लाख मील ऊँचाई पर है। इसमें बारह हजार किरणे हैं जो कि अति उग्र और उष्ण हैं। यह विमान अर्धगोलक के सदृश है। ]
राजा –प्रभो! इनका स्वरूप कृपया विस्तार से बताइए?
मुनिराज –इस सूर्य के विमान को आभियोग्य जाति के सोलह हजार देव सतत खींचते रहते हैं। यह पृथ्वीकायिक चमकीली धातु से बना हुआ है जो कि अकृत्रिम है। इस सूर्य बिम्ब में स्थित पृथ्वीकायिक जीवों के आतप नामकर्म का उदय होने से उसकी किरणें चमकती हैं तथा उसके मूल मे उष्णता न होकर किरणों में ही उष्णता होती है। आकाश में सूर्य की १८४ गलियाँ हैं। इनमें से सूर्य क्रमश: एक-एक गली में संचार करते हैं चूँकि जम्बूद्वीप में २ सूर्य और २ चंद्रमा होते हैं।
राजा – महामुनिराज! सूर्य की गति क्या है?
मुनिराज –एक मिनट में सूर्य की गति लगभग चवालीस लाख छियत्तर हजार तेईस मील प्रमाण है।
राजा – प्रभो! यह सूर्य विमान हमें दिखाई तो देते नहीं हैं?
मुनिराज – राजन्! सूर्य विमान में नीचे का गोल भाग तो हम आपको दिख रहा है तथा ऊपर के समतल भाग में चारों तरफ गोल तटवेदी हैं जिसमें रत्नमय दिव्यकूट हैं उसमें अष्टमंगल द्रव्य, वंदनमाला, चंवर, घंटिका आदि से सहित जिनभवन हैं, जिनमें १०८-१०८ जिनप्रतिमाएं विराजमान हैं, ये हमें नहीं दिखाई देते हैं।
राजा –वहाँ इनकी पूजा कौन करता है?
मुनिराज – वहाँ सभी देवगण गाढ़ भक्ति से अष्टद्रव्य से नित्य ही उनकी पूजा करते रहते हैं।
राजा –प्रभो! इनकी पूजन का क्या फल है?
मुनिराज –जो भव्यजीव इन जिनप्रतिमाओं की भक्तिभाव से पूजा करते हैं, नमस्कार करते हैं वे संसार के समस्त अभ्युदयों को भोगकर परम्परा से निर्वाणसुख को अवश्य ही प्राप्त कर लेते हैं।
राजा – इनमें सूर्यभवन कहाँ बने हुए हैं?
मुनिराज –इन जिनभवन के चारों ओर समचतुष्कोण, लम्बे और नाना प्रकार के सुंदर-सुंदर सूर्य देव के भवन बने हुए हैं। कितने ही भवन मरकतवर्ण के, कितने ही कुंद पुष्प के और कितने ही सुवर्ण सदृश बने हुए हैं, जिनमें सिंहासन पर सूर्यदेव विराजमान होते हैं।
निर्देशक – (इसी प्रकार से मुनिराज ने बहुत ही विस्तृत उपदेश दिया। सूर्य विमान के जिनमंदिर की असाधारण विभूति को सुनकर आनंद महाराज को बहुत ही श्रद्धा हो गई। वह राजा उस समय प्रतिदिन दोनों समय हाथ जोड़कर, मुकुट झुकाकर जिनप्रतिमाओं की स्तुति करने लगा और उन्हें अघ्र्य चढ़ाने लगा। इतना ही नहीं, उसने कारीगरों के द्वारा मणि और सुवर्ण का एक सूर्य विमान भी बनवाया और उसमें कांति से चकाचौंधयुक्त सुन्दर जिनमंदिर बनवाया, उसमें रत्नों की जिनप्रतिमाएं विराजमान कराई पुन: उसने शास्त्रोक्त विधि से भक्तिपूर्वक आष्टान्हिक पूजा की और सर्वतोभद्र, कल्पद्रुम आदि महापूजाएं कीं)
-चतुर्थ दृश्य-
निर्देशक – (याचकों को मुंहमांगा दान बाँटा जा रहा है, सर्वत्र राजा आनन्द की जयजयकार हो रही है और नाना चर्चाएं चल रही हैं)
एक- अरे भईया! बड़ा सामान ले रखा है, सुन्दर कपड़े, गहने, भोजन आदि, क्या कोई खजाना हाथ लग गया?
दूसरा –भाई! खजाना ही समझ लो, अपने राजाधिराज आनन्द ने सर्वतोभद्र, कल्पद्रुम आदि महापूजाएँ की हैं और किमिच्छक दान बांटा है, जाओ भाई, तुमको भी जो इच्छा हो ले लो।
तीसरा –अच्छा भइया! फिर तो हम भी चलते हैं।
दूसरा-और सुनोगे, क्या किया है महाराज ने?
पहला – क्या किया है भईया, जल्दी बताओ।
दूसरा-महाराज ने जब नंदीश्वर पूजा का आयोजन किया, तब वहाँ विपुलमति नाम के मुनिराज पधारे और उन्होंने महाराज को सूर्यविमान के जिनमंदिरों की असाधारण विभूति के बारे में बताया, जिसे सुनकर महाराज ने सोने का सुन्दर सूर्यविमान बनवाकर उसमें जिनमंदिर बनवाया है और उसमें रत्नप्रतिमाएँ विराजमान की हैं।
तीसरा –चलो भाई, चलकर उनके दर्शन भी करें। (वहाँ के दर्शन करते हैं)
दूसरा – देखा भइया! क्या दिव्य प्रतिमाएँ हैं, मैं तो इनकी नित्यप्रति पूजा करूँगा।
पहला – हाँ, आज से मैं भी सूर्य पूजा करूँगा।
दूसरा – भइया! तुम ही क्या, हम सब सूर्य पूजा करेंगे, जब अपने महाराज ने इतना सुन्दर मंदिर बनवाया है, तो आज से प्रतिदिन हम सूर्य पूजा करेंगे। (इस प्रकार उन आनंद महाराज को सूर्य की पूजा करते देख उनकी प्रामाणिकता से देखा-देखी अन्य लोग भी स्वयं भक्तिपूर्वक सूर्यमण्डल की स्तुति करने लगे। आचार्य कहते हैं कि इस लोक में उसी समय से सूर्य की उपासना चल पड़ी है।)
-पंचम दृश्य-
(इस तरह आनंद नरेश बहुत काल तक धर्माराधन, जिनपूजन, दान आदि करते हुए सुख से प्रजा का पालन कर रहे हैं। आनंद नरेश देवेन्द्र के समान अपने महल में स्थित हैं। एक समय वह राज्यसभा में जाने के लिए तैयार हुए तभी दर्पण में मुख देखते ही उन्हें मस्तक पर एक धवल केश दिखाई दिया। राजा का मन कंपायमान हो उठा, तत्काल वे भोगों से और विशाल राज्यवैभव से उदास हो गए)
आनंद राजा – (सोच में) ओह! यह क्या! श्वेत केश! (एकदम कांप उठते हैं) बाल्य अवस्था व्यतीत हो गई, तरुणाई आ गई और अब वह भी विदा मांग रही है, जरा देवी ने अब मेरे इस शरीररूपी घर में प्रवेश कर लिया है। इस प्रकार से मरण समय नजदीक आ रहा है, वह देवी इस बात का सूचना पत्र लेकर ही आई है। बड़े दु:ख की बात है कि मैंने इतना अमूल्य जीवन घर में व्यतीत कर दिया। (उन्हें वैराग्य होते ही उनका मोहकर्म एकदम मंद हो गया और उन्होंने अपने मंत्रियों को शीघ्र ही बुला भेजा)
मंत्री – (अंदर आकर) प्रणाम महाराज! आपने मुझे याद किया?
राजा –हाँ मंत्रिवर! मैंने बहुत काल तक राज्यलक्ष्मी का उपभोग किया और अब मुझे उससे उदासीनता हो गई है अत: मैं इसका त्याग करना चाहता हूँ।
दूसरे मंत्री – किन्तु महाराज! आपके बिना यह राज्यवैभव सब सूना है। हम सब अनाथ हो जाएंगे प्रभो!
राजा – देखो! बालक देह कोंपल है, यौवन में वह पत्ते रूप हो जाता है, वृद्धावस्था पके हुए पीले पत्ते के सदृश है, जो कि कालरूपी हवा के झकोरे से गिर जाता है। कोई जीव गर्भ में ही मर जाते हैं, कोई बाल्यावस्था धारण कर चले जाते हैं, कोई यौवन में नरकाया से वंचित रह जाते हैं। इस प्रकार से मरण के समय का कुछ भी नियत काल नहीं है। परन्तु यह बात अवश्य ही निश्चित है कि जो जन्म लेता है वह मरता अवश्य है। भाई! पर्वत से पड़ती हुई नदी के समान क्षण-क्षण में आयु निकलती चली जा रही है। अत: हमें शीघ्र ही आत्महित के कार्य में लग जाना चाहिए।
तीसरे मंत्री – राजन्! किन्तु महाराज……..
महाराज –प्रिय मंत्रियों! मैं अपने बड़े और सुयोग्य पुत्र को राज्यभार सौंप रहा हूँ और फिर जहाँ इतने कुशल मंत्री हों, वहाँ क्या चिन्ता! आप शीघ्र ही राजतिलक की तैयारियाँ करवाइए। (मंत्रीगण उदास मन से राज्यतिलक की तैयारी करते हैं, हर्ष व विषाद मिश्रित सभा में राजा अपने बड़े पुत्र को राज्यभार सौंप देते हैं और आप स्वयं सागरदत्त मुनिराज के समीप पहुँचकर दीक्षा की याचना करते हैं)
-छठा दृश्य-
(राजा आनंद मुनिराज सागरदत्त के श्रीचरणों में बैठे हैं और प्रार्थना कर रहे हैं)
महाराज आनंद – हे गुरुदेव! मैं अब इस संसार समुद्र से पार होने के लिए चारित्ररूपी जहाज पर बैठना चाहता हूँ, सो आप मेरे कर्णधार होइए और मुझे इस अपार संसार से शीघ्र ही पार पहुँचाइए।
मुनिराज –आपने बड़ा ही उत्तम विचार किया अयोध्या नरेश। इस असार संसार को पार करने के लिए जिनमुद्रा को धारण करना सर्वोत्तम है।
निर्देशक- (तरणतारण महामुनि सागरदत्त ने अनेकों राजाओं के साथ उन महामंडलेश्वर आनन्द नरेश को दिगम्बरी दीक्षा दे दी। जिनमुद्रा को धारण कर आनंद मुनिराज महान आनंद और उत्साह के साथ इन मूलगुणों का पालन करने लगे। शुभ लेश्या के धारक उन मुनिराज ने चारों आराधनाओं की आराधना की थी। गुरु के पादमूल में बैठकर उन्होंने ग्यारह अंग तक श्रुत का अध्ययन किया। अनंतर तीर्थंकर नामकर्म के लिए कारणभूत ऐसी सोलहकारण भावनाओं का चिंतवन किया और सातिशय तीर्थंकर प्रकृति का बंध कर लिया। तपश्चरण के प्रभाव से उन्हें अनेकों प्रकार की ऋद्धियाँ उत्पन्न हो गईं। वे योगिराज जिस वन में ध्यान लगाते हैं सभी विपत्तियाँ दूर हो जाती हैं। षट्ऋतु के फल-फूल एक साथ आ जाते हैं, व्रूर पशु जो जात विरोधी हैं प्रेम से मिलकर विचरण करते हैं। महामुनि आनंद महाराज अपनी ही शुद्ध आत्मा के अनुभव से उत्पन्न हुए वीतराग सुखामृत का पान करके तृप्त हो रहे हैं।)
-सप्तम दृश्य-
(एक समय वे मुनिराज क्षीरवन में प्रायोपगमन सन्यास लेकर प्रतिमायोग से ध्यान में लीन हो गए। उसी समय भयंकर गर्जना करता हुआ एक सिंह वहाँ आता है जो कि कमठचर पापी भील का जीव नरकों के भयंकर दुखों को भोगकर आया है। मुनिराज को देखकर उसकी क्रोध कषाय भड़क उठती है और वह दहाड़ मारकर मुनिराज पर धावा बोल देता है।) (मुनिराज ध्यान में अविचल हैं तभी उधर से एक सिंह निकलता है)
सिंह-(मन में) अरे! मनुष्य, आज तो अच्छा शिकार हाथ लगा (थोड़ा सा आगे बढ़ता है) ओह! यह तो वही दुष्ट है, मेरा जन्म-जन्म का बैरी शत्रु, इसी के कारण मुझे बड़ी यातनाएं सहनी पड़ी हैं और देखो तो कैसा भोला बना बैठा है, अभी डराता हूँ। (जोर से गर्जना करता है किन्तु मुनिराज ध्यान में लीन हैं, उन पर उस गर्जना का कोई असर नहीं होता है),
सिंह पुन: सोचता है-अच्छा! मेरी भयंकर गर्जना को सुनकर अच्छे-अच्छे कांप जाते हैं, मगर यह तो शांतचित्त है (उसकी क्रोधाग्नि भड़क उठती है और वह दहाड़ मारकर मुनिराज पर धावा बोल देता है और उनके कंठ को पकड़ लेता है)।
मुनिराज –(धर्मध्यान में लीन हो जाते हैं) अरे! यह तो वही मेरा भाई कमठ का जीव है, इस क्रोध कषाय ने इसे कितने भवों तक कष्ट दिया मगर इतना क्रोध। खैर, कोई बात नहीं, मुझे समता भाव का आश्रय लेना है। मैं शुद्ध-बुद्ध-नित्य-निरंजन, परमात्मा हूँ, यह आत्मा शुद्ध स्फटिक सम है, सिद्धशिला पर गमन करने वाली है मुझे शुद्धात्म तत्त्व का चिंतवन करना है। (और वे आत्मचिंतवन में लीन हो जाते हैं।)
निर्देशक –(मुनिराज ध्यान में लीन हैं और वह क्रूर सिंह तीक्ष्ण नखों से मुनिराज के शरीर का विदारण करता है और सारे बदन को छिन्न-भिन्न कर देता है। इस पशुकृत उपसर्ग को वे साधुराज परम शांतभाव से सहन करते हैं। परम धीर-वीर तपोधन दु:सह वेदना को कुछ ना गिनते हुए अपने ज्ञानपुंज स्वरूप, अनंत गुणों के निधान आत्मा के चिंतन में अपना उपयोग लगा देते हैं और उसके प्रभाव से वे इस नश्वर भौतिक मल-मूत्र के पिंडस्वरूप देह को छोड़कर दिव्य वैक्रियक देह को धारण कर आनत स्वर्ग में आनतेन्द्र हो जाते हैं।)