(प्रवचनसार चारित्र अधिकार—तृतीय अ., पृ. ५०४ से ५०६ तक)
अविच्छिन्न सामायिक में आरूढ़ होने पर भी श्रमण कदाचित् छेदोपस्थापना के योग्य है, सो कहते हैं :— अन्वयार्थ-(व्रतसमितिन्द्रियरोधः) व्रत, समिति, इन्द्रियरोध,(लोचावश्यकम्) लोच , आवश्यक,(अचेलम् ) अचेलत्व, (अस्नानं) अस्नान,(क्षितिशयनम् ) भूमिशयन, (अदंतधावनं) अदंतधावन, (स्थितिभोजनम् ) खड़े खड़े भोजन, (च) और (एकभक्तं)एक बार आहार (एते) यह (खलु) वास्तव में (श्रमणानां मूलगुणाः) श्रमणों के मूलगुण (जिनवरैः प्रज्ञप्ताः) जिनवरों ने कहे हैं, (तेषु) उनमें (प्रमत्तः) प्रमत्त होता हुआ (श्रमणः) श्रमण (छेदोपस्थापकःभवति)छेदोपस्थापक होता हेै। टीका—सब सावद्ययोग के प्रत्याख्यानस्वरूप एक महाव्रत है उसके विशेष अथवा भेद—हिंसा, असत्य, चोरी, अब्रह्म और परिग्रह की विरतिस्वरूप पांच महाव्रत तथा उसी का परिकरभूत पांच प्रकार की समिति, पाँच प्रकार का इन्द्रियरोध, लोच, छह प्रकार के आवश्यक, अचेलकत्व (नग्नता) अस्नान, भूमिशयन, अदंतधावन (दांतुन न करना),खड़े खड़े भोजन, और एक बार आहार लेना, इस प्रकार यह (अट्ठाईस) एक अभेद सामायिक संयम के १ विकल्प (भेद) होने से श्रमणों के मूलगुण ही हैंं। जब श्रमण एक सामायिक संयम में आरूढ़ता के कारण जिसमें भेदरूप आचरण सेवन नहीं है, ऐसी दशा से च्युत होता है, तब ‘ केवल सुवर्ण मात्र के अर्थी को कुण्डल, वंâकण, अंगूठी आदि का ग्रहण करना (भी) श्रेय है, किन्तु ऐसा नहीं है कि (कुण्डल इत्यादि ग्रहण कभी न करके) सर्वथा स्वर्ण की ही प्राप्ति करना ही श्रेय है ’ ऐसा विचार करके वह मूलगुणों में भेदरूप से अपने को स्थापित करता हुआ अर्थात् मूलगुणों में भेदरूप से आचरण करता हुआ छेदोपस्थापक होता है।।२०८ । २०९ ।।
‘उत्थानिका-आगे कहते हैं कि जब अभेदरूप सामायिक संयम में ठहरने को असमर्थ होकर साधु उससे गिरता हेै तब भेदरूप छेदोपस्थापन चारित्र में जाता है-
गाथार्थः-(वदसिमिंददियरोधो) पांच महाव्रत,पांच इन्द्रियों का निरोध (लोचावस्सं) केशलोंच,छः आवश्यक कर्म (अचेलमण्हाणं) नग्नपना,स्नान न करना, (खिदिसयणमदंतयणं) पृथ्वी पर सोना, दन्तवन न करना (ठिदिभोयणमेयभत्तं च) खड़े होकर भोजन करना और एक बार भोजन करना (एदे) ये (समणाणं मूलगुणा) साधुओं के अट्ठाईस मूलगुण (खलु) वास्तव में (जिणवरेिंह पण्णत्ता) जिनेन्द्रों ने कहे हैं। (तेसु पमत्तो ) इन मूलगुणों में प्रमाद करने वाला (समणा) साधु (छेदोवट्ठावगो) छेदोपस्थापक (होदि) होता है।
टीकार्थ—निश्चयनय से मूल नाम आत्मा का है उस आत्मा के केवलज्ञानादि अनंतगुण मूलगुण हैं। ये सब मूलगुण उस समय प्रगट होते हैं जब भेद-रहित समाधिरूप परम सामायिक निश्चय एक व्रत के द्वारा (जो मोक्ष का बीज है) मोक्ष प्राप्त हो जाता है। इस कारण से वही सामायिक आत्मा के केवलज्ञानादि मूलगुणों को प्रगट करने के कारण होने से निश्चय मूलगुण है। जब यह जीव अभेदरूप समाधि मेें (सामायिक चारित्र में ) ठहरने को समर्थ नहीं होता है तब भेदरूप चारित्र को ग्रहण करता है चारित्र का सर्वथा त्याग नहीं करना,जैसे कोई भी सुवर्ण का चाहने वाला पुरुष सुवर्ण को न पाता हुआ उसकी कुण्डल आदि अवस्था विशेषों को ही ग्रहण कर लेता है, सर्वथा सुवर्ण का त्याग नहीं करता है। तैसे यह जीव भी निश्चय मूलगुण नाम की परम समाधि-अर्थात् अभेद सामायिक चारित्र का लाभ न होने पर छेदोपस्थापना नाम अर्थात् भेदरूप चारित्र को ग्रहण करता है। छेद होने पर फिर स्थापन करना छेदोपस्थापना है। अथवा छेद से अर्थात् व्रतों के भेद से चारित्र को स्थापन करना सो छेदोपस्थापना है। वह छेदोपस्थापना संक्षेप से पांच महाव्रतरूप है। उन्हीं व्रतों की रक्षा के लिए पांच समिति आदि के भेद से उसके अट्ठाईस मूलगुण भेद होते है। उन ही मूलगुणों की रक्षा के लिए २२ परीषहों का जीतना व १२ प्रकार तपश्चरण करना ऐसे चौंतीस उत्तरगुण होते हैं। इन उत्तर गुणों की रक्षा के लिये देव,मनुष्य, तिर्यंच व अचेतन कृत चार प्रकार उपसर्ग का जीतना व बारह भावनाओं का भावना आदि कार्य किये जाते है ।।२०८-२०९।।
(प्रवचनसार चारित्र अधिकार—तृतीय अ., पृ. ५०४ से ५०६ तक) २८ मूलगुण धारण करना छेदोपस्थापना चारित्र (षट्खण्डागम (धवला टीका) पुस्तक-१)
अब संयममार्गणा के प्रतिपादन करने के लिये सूत्र कहते हैं– संयममार्गणा के अनुवाद से सामायिकशुद्धिसंयत, छेदोपस्थापनाशुद्धिसंयत, परिहार-शुद्धिसंयत, सूक्ष्मसांपराय—शुद्धि—संयत, यथाख्यात—विहार—शुद्धि—संयत ये पांच प्रकार के संयत तथा संयतासंयत और असंयत जीव होते हैं।।१२३।। यहाँ पर भी अभेद की अपेक्षा से पर्याय का पर्यायीरूप से कथन किया है। ‘सम्’ उपसर्ग सम्यक् अर्थ का वाची है, इसलिये सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानपूर्वक ‘यता:’ अर्थात् जो बहिरंग और अन्तरंग आश्रवों से विरत हैं उन्हें संयत कहते हैं। ‘मैं सभी प्रकार के सावद्ययोग से विरत हूँ ’ इस प्रकार द्रव्र्यािथक नय की अपेक्षा सकल सावद्ययोग के त्याग को सामायिक—शुद्धि संयम कहते हैं। शंका—इस प्रकार एक व्रत का नियम वाला जीव मिथ्यादृष्टि क्यों नहीं हो जायेगा ? समाधान—नहीं, क्योंकि जिसमें संपूर्ण चारित्र के भेदों का संग्रह होता है, ऐसे सामान्यग्राही द्रव्र्यािथक नय को समीचीन दृष्टि मानने से कोई विरोध नहीं आता है। शंका—यह सामान्य संयम अपने संपूर्ण भेदों का संग्रह करने वाला है, यह वैâसे जाना जाता है ? समाधान—‘सर्वसावद्ययोग’ पद के ग्रहण करने से ही, यहां पर अपने संपूर्ण भेदों का संग्रह कर लिया गया है, यह बात जानी जाती है। यदि यहां पर संयम के किसी एक भेद की ही मुख्यता होती तो ‘सर्व’ शब्द का प्रयोग नहीं किया जा सकता था, क्योंकि ऐसे स्थल पर ‘सर्व’ शब्द के प्रयोग करने में विरोध आता है। इस कथन से यह सिद्ध हुआ कि जिसने संपूर्ण संयम के भेदों को अपने अन्तर्गत कर लिया है ऐसे अभेदरूप से एक यम को धारण करने वाला जीव सामायिक-शुद्धि-संयत कहलाता है। उस एक व्रत का छेद अर्थात् दो, तीन आदि के भेद से उपस्थापन करने को अर्थात् व्रतों के आरोपण करने को छेदोपस्थापना-शुद्धि-संयम कहते हैं। संपूर्ण व्रतों को सामान्य की अपेक्षा एक मानकर एक यम को ग्रहण करने वाला होने से सामायिक-शुद्धि-संयम द्रव्र्यािथकनयरूप है और उसी एक व्रत को पांच अथवा अनेक प्रकार के भेद करके धारण करनेवाला होने से छेदोपस्थापनाशुद्धि-संयम पर्यार्यािथकनयरूप है। यहाँ पर तीक्ष्णबुद्धि मनुष्यों के अनुग्रह के लिये पर्यार्यािथकनय का उपदेश दिया गया है और मन्दबुद्धि प्राणियों का अनुग्रह करने के लिये द्रव्र्यािथकनय का उपदेश दिया गया है इसलिये इन दोनों संयमों में अनुष्ठानकृत कोई विशेषता नहीं है। शंका—तब तो उपदेश की अपेक्षा संयम को भले ही दो प्रकार का कह लिया जावे,पर वास्तव में तो वह एक ही है ? समाधान—यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि यह कथन हमें इष्ट ही है और इसी अभिप्राय से सूत्र में स्वतन्त्ररूप से (सामायिक पद के साथ)‘शुद्धिसंयत’ पद का ग्रहण नहीं किया है।