गाथार्थ—स्वेच्छाचार की प्रवृत्ति में गुरु की निन्दा,श्रुत का विनाश, तीर्थ की मलिनता, मूढ़ता, आकुलता, कुशीलता और पाश्र्वस्थता ये दोष आते हेैं।।१५१।।
आचारवृत्ति—उत्सार कल्प में गण को छोड़कर एकाकी विहार करने पर उस मुनि के गुरु का तिरस्कार होता है अर्थात् इस शीलशून्य मुनि को किसने मूंड दिया है ऐसा लोग कहने लगते हैं। श्रुत की परम्परा का विच्छेद हो जाता है अर्थात् ऐसे एकाकी अनर्गल साधु को देखकर अन्य मुनि भी ऐसे हो जाते हैं। पुनः कुछ अन्य भी मुनि देखा—देखीr अपने गुरुगृह अर्थात् गुरु के संघ में नहीं रहते है तब श्रुत-शास्त्रों के अर्थ को ग्रहण न करने से श्रुत का नाश हो जाता है, तीर्थ का अर्थ शासन है। जिनेन्द्रदेव के शासन को ‘नमोस्तु शासन’ कहते हैं अर्थात् इसी दिगम्बर जैन सम्प्रदाय में मुनियों को ‘नमोस्तु’ शब्द से नमस्कार किया जाता है। इस नमोस्तु शासन मेेंं सभी मुनि ऐसे ही (स्वच्छन्द ) होते हैं ऐसा मिथ्यादृष्टि लोग कहने लगते हैं। तथा उस मुनि में स्वयं मूर्खता, विह्वलता, कुशीलता और पाश्र्वस्थरूप दुर्गुण प्रवेश कर जाते हैं।
(मूलाचार पृ. १२८)
भावार्थ—यहाँ ‘‘जैनं जयतु शासनं’’ जैन शासन जयवन्त हो, जैन शासन की जय हो, इन शब्दों को हटाकर ‘नमोऽस्तु शासन’ की जय बोलना या बुलवाना उचित नहीं है, क्योंकि जैनशासन महत्त्वपूर्ण है, मुख्य है, जैनधर्म का पर्यायवाची होने से जैनधर्म की पहचान है, इसके अन्तर्गत नमोऽस्तु शासन है। आज—कल वर्तमान में अन्य सम्प्रदाय में भी देवी—देवताओं के लिए नमोऽस्तु शब्द का प्रयोग देखा जा रहा है। इसलिए जैनशासन की जगह नमोऽस्तु शासन का प्रयोग करना सर्वथा अनुचित है।