परिग्रहत्याग महाव्रत में पूर्णतया संपूर्ण परिग्रहों का त्याग हो जाता है तथा आचेलक्य नामा मूलगुण में वस्त्र का सर्वथा त्याग हो जाने से दिगम्बर मुनि ही अट्ठाईस मूलगुणों के धारक साधु होते हैं। ‘इसी से स्त्री मुक्ति का भी निषेध हो जाता है।’
आर्ष ग्रन्थ में
‘‘सम्मामिच्छाइट्ठिअसंजदसम्माइट्ठिसंजदासंजदसंजदट्ठाणे णियमा पज्जत्तियाओ।।९३।।’’
मनुष्यिनियां सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत और संयतगुणस्थानों में नियम से पर्याप्तक होती हैं। इसी सूत्र की टीका में प्रश्नोत्तर में अच्छा समाधान किया है।
यथा-
शंका – इसी आर्षवचन से द्रव्यस्त्रियों की मुक्ति सिद्ध हो जायेगी ?’
समाधान – नहीं, क्योंकि वस्त्रसहित होने से उनके संयतासंयत गुणस्थान होता है, अतएव उनके संयम की उत्पत्ति नहीं हो सकती है।
शंका – वस्त्र सहित में भी स्त्रियों के भावसंयम में कोई विरोध नहीं है?
समाधान – उनके भावसंयम नहीं है। अन्यथा-भावसंयम के मानने पर उनके भाव असंयम का अविनाभावी वस्त्रादि का ग्रहण नहीं बन सकता है। अर्थात् वस्त्रादि के रहते हुए भावसंसमय असंभव है, चूँकि असंयम के बिना वस्त्रादि का ग्रहण हो नहीं सकता है।’’ इस कथन से वस्त्र सहित पुरुष को भी भावसंयम असंभव होने से मुक्ति की बात ही बहुत दूर है।
शंका – पुन: स्त्रियों में चौदह गुणस्थान कैसे होते हैं।
समाधान – नहीं, क्योंकि भावस्त्री अर्थात् स्त्रीवेद युक्त मनुष्यगति में चौदह गुणस्थानों के सद्भाव का अविरोध है।’’
यही बात आगे सूत्र में कही है।-
‘‘इत्थिवेदा पुरिसवेदा असण्णि मिच्छाइट्ठिप्पहुडि जाव अणियट्ठि त्ति।।१०२।।
णवुंसयवेदा एइंदियप्पहुडि जाव अणियट्ठि त्ति१।।१०३।।
स्त्रीवेद और पुरुषवेद वाले जीव असंज्ञी मिथ्यादृष्टि से लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थान तक होते हैं। नपुंसकवेद वाले जीव एकेन्द्रिय से लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थान तक पाये जाते हैं। यहाँ पर जो नवमें गुणस्थान तक ही तीनों वेद कहे हैं, सो वेद के अस्तित्व की अपेक्षा से कहे हैं क्योंकि नवमें गुणस्थान में ही इन वेदों का क्षय हो जाता है। यहाँ भाववेदों की अपेक्षा ही कथन है। क्योंकि छठे गुणस्थान से लेकर आगे मनुष्य द्रव्य से पुरुष ही हैं। कारण, मनुष्यों में वेदों की विषमता पाई जाती है।
यथा– ‘‘पुरुष, स्त्री और नपुंसक वेदकर्म के उदय से भाव में पुरुष, स्त्री, नपुंसक वेद होते हैं और नामकर्म के उदय से द्रव्य पुरुष, द्रव्यस्त्री और द्रव्यनपुंसक होते हैं। सो ये द्रव्यवेद और भाववेद प्राय: करके समान होते हैं, परन्तु कहीं-कहीं विषम भी होते हैं।’’ अर्थात् नामकर्म के अन्तर्गत अंगोपांगनामक नामकर्म के उदय से शरीर में द्रव्यवेद की रचना होती है और मोहनीय कर्म के अन्तर्गत वेदकर्मों के उदय से भाव वेद होते हैं। ये वे देव और नारकी में समान होते हैं-जो द्रव्यवेद है, वही भाववेद रहता है किन्तु मनुष्य और तिर्यंचों में विषम भी होते हैं। अर्थात् किसी मनुष्य के द्रव्यवेद पुरुष है और भाववेद स्त्री या नपुंसक भी रह सकता है, ऐसे ही स्त्री या नपुंसक में भी कोई द्रव्य से स्त्री है किन्तु भाव से पुरुष या नपुंसक वेद भी रह सकता है। जो द्रव्य से पुरुष वेदी हैं और भाव से स्त्रीवेदी हैं उन्हीं के चौदह गुणस्थानों की बात है। वे ही मोक्ष जा सकते हैं क्योंकि क्षायिक सम्यक्त्व भी उन्हीं के ही होता है।
यथा-मनुष्यिनियों में तीनों ही सम्यग्दर्शन होते हैं परन्तु ये पर्याप्त मनुष्यनी के ही होते हैं। अपर्याप्तक मनुष्यिनी के नहीं। यहाँ क्षायिक सम्यक्त्व भाववेद की अपेक्षा से ही है।३’’ अर्थात् यदि तीनों में कोई भी सम्यग्दर्शन हो जाता है तो वह जीव मरकर भाव-स्त्रीवेद में भी नहीं जा सकता है द्रव्यस्त्रीवेद की तो बात बहुत दूर है। किन्तु कोई कर्मभूमिज मनुष्य द्रव्य से पुरुष होकर भी यदि भाव से स्त्रीवेदी है। तो क्षायिक सम्यक्त्व ग्रहण कर सकता है। द्रव्यस्त्रीवेदी नही। द्रव्य से पुरुषवेदी ऐसे मुनि यदि भाव से स्त्री और नपुंसकवेदी हैं, तो भी क्षपकश्रेणी चढ़कर मोक्ष चले जाते हैं।
यथा– ‘‘पुरुषवेद के उदय सहित जीव के श्रेणी चढ़ने पर पुरुषवेद की बंधव्युच्छित्ति और उदयव्युच्छित्ति एक काल में होती है। अथवा ‘च’ शब्द से बंध की व्युच्छित्ति उदय के द्विचरम समय में होती है और शेष-स्त्रीवेद तथा नपुंसक वेद के उदय सहित श्रेणी चढ़ने वाले जीव के पुरुष वेद की बंध व्युच्छित्ति उदय के द्विचरम समय में होती है।’’ द्रव्यस्त्रीवेदी में ‘‘उत्तमसंहनन का अभाव होने से भी मुक्ति संभव नहीं है। क्योंकि ‘‘उत्तम संहनन वाले पुरुष ही क्षपकश्रेणी पर चढ़कर शुक्ल ध्यान के द्वारा कर्मों का नाश कर सकते हैं।’’ अन्य नहीं है। और ‘‘कर्मभूमि की महिलाओं के तीन हीन संहनन ही होते हैं उत्तम संहनन नहीं होते हैं। ऐसा आगम वाक्य है।’’ भावस्त्रीवेदी या भाव नपुंसकवेदी मुनि के मन:पर्ययज्ञान, ५आहारक ऋद्धि और तीर्थंकर प्रकृति का उदय नहीं हो सकता है। यह विशेषता है।
यथा-स्त्रीवेद और नपुंसक वेद में केवलज्ञान, केवलदर्शन और मन:पर्यय इन तीन ज्ञान के बिना ९ उपयोग होते हैं। वेद तो नवमें गुणस्थान तक होता है और मन:पर्ययज्ञान छठे से हो जाता है अत: उसका निषेध ही हो गया तथा केवलज्ञान और केवलदर्शन तेरहवें, चौदहवें गुणस्थान में होने से वे अपगत वेदी को होते हैं इसलिए इनका भी निषेध किया गया है।
यथा-स्त्रीवेद और नपुंसकवेद में आहारकद्विक और अन्यतर दो वेद के बिना तिरेपन आस्रव होते हैं। ‘‘तथा भावस्त्रीवेद और भावनपुंसकवेद में भी तीर्थंकर प्रकृति और आहारकद्विक के बंध का विरोध नहीं है उदय का ही विरोध है, क्योंकि उदय पुरुषवेद में ही निश्चित्त है।’’ आर्षग्रन्थ में भी कहा है कि ‘‘स्त्रीवेदी प्रमत्तसंयत जीवों के आलाप कहने पर…..चार मनोयोग, चार वचनयोग और औदारिककाययोग ये नव योग होते हैं, किन्तु आहारक और आहारक मिश्र योग नहीं होते…। मन:पर्ययज्ञान के बिना आदि के तीन ज्ञान, परिहारविशुद्धि संयम के बिना आदि के दो संयम होते हैं। यहाँ पर आहारकद्विक, मन:पर्ययज्ञान और परिहारविशुद्धि संयम के नहीं होने का कारण यह है कि आहारकद्विक, मन:पर्ययज्ञान और परिहारविशुद्धिसंयम के साथ स्त्रीवेद और नपुंसकवेद के उदय होने का विरोध है।’’ अन्यत्र भी लिखा है कि-‘‘पुरुष वेद का अनुभव करते हुए जो पुरुष क्षपकश्रेणी पर आरूढ़ हुए हैं। उसी प्रकार से शेष-स्त्रीवेद और नपुंसकवेद के उदय से भी क्षपकश्रेणी पर आरूढ़ हुए ध्यान में उपयुक्त हैं वे सिद्ध हो जाते हैं। अर्थात् जो भावपुरुष्ज्ञवेद का अनुभव करते हुए क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ हुए हैं, केवल भावपुरुषवेद से नहीं अपितु भावस्त्रीवेद और भाव नपुंसकवेद से भी क्षपकश्रेणी पर चढ़कर शुक्लध्यान में उपर्युक्त हैं वे द्रव्यपुरुष वेद वाले मनुष्य सिद्ध हो जाते हैं।’’ निष्कर्ष यह निकलता है कि द्रव्य से पुरुषवेदी ही निर्र्ग्रंन्थ मुद्रा धारण करके छठे आदि गुणस्थानों को प्राप्त करते हैं। वे चाहे भाव से स्त्रीवेदी हों या नपुंसकवेदी। किन्तु द्रव्य से स्त्रीवेदी और नपुंसकवेदी जीव पंचम गुणस्थान से आगे नहीं जा सकते हैं और न वे दिगम्बर वेष ही धारण कर सकते हैं।
दिगम्बर भेष के बिना सोलह स्वर्ग के ऊपर गमन भी असंभव है- ‘‘असंयत सम्यग्दृष्टि और देशसंयत ऐसे मनुष्य और तिर्यंच उत्कृष्टता से अच्युतकल्प पर्यंत ही उत्पन्न होते हैं। जो द्रव्य से निर्गं्रथ हैं और भाव से मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि अथवा देशसंयमी हैं, वे अंतिम ग्रैवेयक पर्यंत उत्पन्न होते हैं, इससे ऊपर नहीं। सम्यग्दृष्टि महाव्रती सर्वार्थसिद्धि पर्यंत, सम्यग्दृष्टि भी भोगभूमिज मनुष्य और तिर्यंच सौधर्म युगलपर्यंत और मिथ्यादृष्टि भोगभूमिज मनुष्य, तिर्यंच एवं पंचाग्नि साधक तापसी साधु उत्कृष्टता से भवनत्रिक पर्यंत ही जाते हैं। नग्नांड लक्षणवाले चरक, एकदंडी, त्रिदंडी ऐसे परिव्राजक संन्यासी ब्रह्मकल्प पर्यन्त ही उत्पन्न होते हैं। कांजिक आदि भोजन करने वलो आजीवक साधु अच्युतकल्प पर्यंत ही उत्पन्न होते हैं आगे नहीं। अन्यत्र भी कहा है-‘‘चार प्रकार के दान में प्रवृत्त कषायों से रहित, पंचगुरुओं की भक्ति से युक्त, देशव्रत संयुत जीव सौधर्म स्वर्ग से लेकर अच्युतस्वर्ग पर्यन्त जन्म लेते हैं। सम्यक्त्व, ज्ञान, आर्जव, लज्जा एवं शीलादि से परिपूर्ण स्त्रियाँ अच्युतकल्प पर्यन्त उत्पन्न होती हैं। जो अभव्य जिनलिंग को धारण करने वाले और उत्कृष्ट तप के श्रम से परिपूर्ण हैं, वे उपरिम ग्रैवेयक पर्यन्त उत्पन्न होते हैं। पूजा, व्रत, तप, दर्शन, ज्ञान और चारित्र से सम्पन्न निर्गं्रथ भव्य इससे आगे सर्वार्थसिद्धि पर्यन्त उत्पन्न होते हैं। मंदकषायी, प्रियभाषी कितने ही चरक (साधु विशेष) और पारिव्राजक क्रम से भवनवासियों आदि को लेकर ब्रह्मकल्प तक उत्पन्न होते हैं। जो कोई पंचेन्द्रिय तिर्यंच संज्ञी जीव हैं, अकामनिर्जरा से युक्त और मंदकषायी हैं वे सहस्रारकल्प तक उत्पन्न होते हैं। जो तनुदंडन अर्थात् कायक्लेश से सहित (साधु) हैं, तीव्र क्रोधी हें ऐसे कितने ही जीव क्रमश: भवनवासियों से लेकर अच्युत स्वर्ग पर्यन्त जन्म लेते हैं२। इससे यह स्पष्ट है कि वस्त्र सहित ऐलक अथवा आर्यिका भी सोलह स्वर्ग के ऊपर नहीं जा सकते हैं और वस्त्र रहित दिगम्बर मुनि चाहे भाव से मिथ्यादृष्टि भी क्यों न हों, नवग्रैवेयक तक जा सकते हैं तथा दिगम्बर मुनि भावलिंगी ही नवअनुदिश, पाँच अनुत्तरों में जाते हैं।
किन्तु अन्य संप्रदाय के परमहंस नामक नग्न साधु बारहवें स्वर्ग से ऊपर नहीं जा सकते हैं। अत: दिगम्बर जैन मुिन हुए बिना मुक्ति की प्राप्ति असंभव है। श्री शुभचंद्राचार्य भी कहते हैं- जो पुरुष बाह्य परिग्रह को भी छोड़ने में असमर्थ हैं वह नपुंसक (नामर्दव व कायर) आगे कर्मों की सेना को कैसे हनेगा?’’ ‘‘एक लंगोटी मात्र परिग्रह भी रखने पर उसको धोना, सुखाना, सुरक्षा करना, फट जाने पर याचना करना आदि अनेकों दोष आते हैं। पुन: निर्विकल्प, अवस्था रूप शुक्लध्यान की सिद्धि असंभव है ही। यही कारण है कि ‘‘दिगम्बर साधु वृक्षों की छाल, पत्ते, चर्म और वस्त्रादि से शरीर को नहीं ढँकते हैं अतएव अलंकार परिग्रह और काम विहार से रहित नग्नमुद्रा को धारण करते हैं।’’ इन्हीं सब कारणों से दिगम्बर जैन सम्प्रदाय में स्त्रियों को इसी भव से मुक्ति का निषेध है, ऐसा समझना। यह दिगम्बरत्व अपरिग्रह की चरम सीमा है, जितेन्द्रियता और निर्विकारता ही कसौटी है। ये दिगम्बर मुनि सदैव बालकवत् निर्विकार रहते हैं और निर्भय रहते हैं। ये शीलरूपी वस्त्र को धारण किये हैं अत: नंगे नहीं भी हैं। इसी मुद्रा को यथाजात कहते हैं। अर्थात् जन्म के समय जो रूप था सो ही है, अत: यथाजात, यथारूप, प्रकृरूप, प्राकृतिकमुद्रा, जिनमुद्रा आदि शब्दों से यह रूप जाना जाता है। इस जिनरूप को धारण करते हुए दिगम्बर मुनि सदैव इस पृथ्वीतल पर विचरण करते रहें और मोक्षमार्ग स्वर्ग अस्खलितरूप से चलता रहे।