गुणवद्दु:खोपनिपाते निरवद्येन विधिना तदपहरणं वैयावृत्यम्।।९।।
गुणवान साधुओं के ऊपर किसी प्रकार के दु:ख आ जाने पर या व्याधि आदि से पीड़ित होने पर निर्दोष औषधि के द्वारा उसको दूर करना यह बहु उपकार को करने वाला वैयावृत्यकरण है।
श्री उमास्वामी आचार्य भी कहते हैं-‘आचार्य, उपाध्याय, तपस्वी, शैक्ष, ग्लान, गण, कुल, संघ, साधु और मनोज्ञ’ इन दश प्रकार के मुनियों के क्लेश और संक्लेश को दूर करने के लिए साधु या श्रावक जो कुछ भी व्यापार करता है उसको वैयावृत्ति कहते हैं।
जो शिक्षा-दीक्षा देते हैं, संघ के नायक हैं, वे आचार्य हैं। संघ में पढ़ाने वाले उपाध्याय हैं। महोपवासी साधु होते हैं। रोगादि से युक्त साधु ग्लान हैं। स्थविर की संतति गण हैं। दीक्षाचार्य की परम्परा कुल है। चातुर्वर्ण श्रमण समूह अथवा मुनि, आर्यिका, श्रावक, श्राविका ये संघ है। चिरकाल से दीक्षित को साधु संज्ञा है और लोक में अतिशय मान्य साधु मनोज्ञ कहलाते हैं। इनके क्लेश, कष्ट, उपद्रव, संकट, रोग आदि के प्रसंग में औषधि परिचर्या, सेवा-शुश्रूषा आदि करना वह सब वैयावृत्य कहलाता है।
आचार्यों ने तप करने के लिये शक्तित: शब्द का प्रयोग किया है किन्तु वैयावृत्य तप को तपश्चरण का प्राण ही कह दिया है। देखिये-
‘‘सहधर्मियों पर आपत्ति आने पर जो प्रमाद कर देते हैं वे मनुष्य सर्व सम्पत्तियों को छोड़ देते हैं क्योंकि यह वैयावृत्य तप का हृदय प्राण है ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है।’’१ वैयावृत्य करने वाले साधु या श्रावक साधुओं की समाधि में सहयोगी बनते हैं। निर्विचिकित्सा गुण पालन करते हैं। सहधर्मियों में वात्सल्य करते हैं, और भी अनेक गुणों के स्वामी बन जाते हैं।
श्रीकृष्ण ने एक मुनिराज के शरीर में कुछ रोग देखा तब गुरू से प्रश्न किया-भगवन्! इस रोग के लिए क्या औषधि है ? मुनि ने कुछ नाम बता दिया। वैद्य को बुलाकर श्रीकृष्ण ने उस औषधि को समझा, पुन: रसोईघर में उस औषधिमिश्रित लड्डू बनवा दिये। मुनि को आहार के समय वे लड्डू दिये गये जिससे उनका रोग शांत हो गया। उसके पुण्य के प्रसाद से श्रीकृष्ण भविष्य में तीर्थंकर होवेंगे।
वास्तव में यह शरीर ही धर्म का साधन है। यदि इसमें वात, पित्त, कफ आदि दोष प्रकुपित हो जाते हैं तब धर्म साधन में भी बाधा उपस्थित हो जाती है। ऐसे प्रसंग पर श्रीकुन्दकुन्द देव ने भी प्रवचनसार में मुनियों को साधुओं की वैयावृत्य के लिये असंयमियों से, श्रावकों से बोलने की छूट दी है। इससे भी वैयावृत्य महत्व विशेष रूप से दिख जाता है। समयोचित सेवा करना ही वैयावृत्य है और गुरु के अनुकूल प्रवृत्ति करना भी वैयावृत्य है ।
एक समय श्री धर्मघोष मुनिराज चंपानगरी में आहार करके तपोवन की ओर आ रहे थे। चलने के अधिक परिश्रम से वे अत्यधिक थक गये तब एक वृक्ष के नीचे बैठ गये। उस समय वे प्यास की बाधा से व्याकुल हो रहे थे। गंगादेवी उन्हें प्यासा देखकर कलश में पवित्र जल लेकर वहाँ आई और बोली-हे भगवन्! आप इस ठंडे जल को पीकर प्यास शांत कीजिये। मुनि ने कहा-देवी! तूने अपना कर्तव्य किया सो ठीक, परन्तु हमारे लिये देवों द्वारा दिया गया आहार पानी काम नहीं आता। देवी सुनकर चकित रह गई। उसी समय वह विदेह क्षेत्र में गई और वहाँ भगवान् के समवसरण में प्रश्न किया कि हे भगवन्! एक प्यासे मुनि को मैं जल पिलाने गई किन्तु उन्होंने नहीं पिया सो क्या कारण है? दिव्यध्वनि से उसे उत्तर मिला कि मुनि लोग देवों के हाथ से आहार नहीं लेते हैं। देवी उत्तर पाकर निरूपाय हुई। फिर भी उसने सोचा हमें कुछ तो वैयावृत्य करके इनकी प्यास को शांत करना चाहिये। वह वहाँ से आकर मुनि के चारों तरफ सुगंधित ठण्डे जल की वर्षा शुरू कर देती है। जिससे ठण्डी-ठण्डी हवा लगकर मुनि को एकदम शांति हो जाती है। इसके बाद वे मुनिराज ध्यान में आरूढ़ होकर तत्क्षण ही केवली हो जाते हैं। स्वर्ग से देव उनकी पूजा करने आ जाते हैं, वहाँ पर गंधकुटी की रचना हो जाती है। यह थी देवी की वैयावृत्ति!
श्री समंतभद्र स्वामी ने तो अतिथिसंविभाग व्रत के स्थान पर वैयावृत्य नाम का ही अंतिम शिक्षाव्रत लिया है और उसमें मुनियों के आहारदान पर अत्यधिक जोर दिया है। बल्कि यहाँ तक कहा है कि ‘‘गृहस्थी में पंचसूना आदि से जो हमेशा पाप संचित होते रहते हैं उनके पालन का यदि कोई उपाय है तो एक गृहवास से रहित मुनियों को आहार देना, जैसे कि रुधिर से रंगे हुये वस्त्र को जल धोकर साफ कर देता है वैसे ही अतिथियों को दिया गया आहार गृहस्थ के पापों को धोकर साफ कर देता है।’’
यह तो साधुओं के लिये वैयावृत्ति का विधान किया किन्तु श्रावक-श्राविकाएं गृहस्थों की भी वैयावृत्ति कर सकते हैं।
गृहस्थों में भी पूज्य पुरुषों की, गुणीजनों की, घर के बड़े जनों की और तो क्या छोटे हों या बड़े, स्त्री हो या पुरुष सभी की समयोचित वैयावृत्ति करनी चाहिये।
बात यह है कि ‘‘धर्म धर्मात्माओं के बिना नहीं रहता है।’’ इसलिये रत्नत्रय रूप धर्म को धारण करने वाले साधुओं की वैयावृत्ति करना एक तप है। शेष लोगों की वैयावृत्ति भी धर्म है, कर्तव्य है, सेवा है। इससे भी परस्पर में स्नेह बना रहता है, इसलिये गृहस्थाश्रम में रहते हुये यथोचित सभी की सेवा, वैयावृत्ति करनी ही चाहिये। देखो, जीवंधर कुमार ने कुत्ते को भी महामंत्र सुनाकर उसे सांत्वना दी, यह भी तो एक वैयावृत्ति ही है। सच है, इस वैय्यावृत्ति तप का महत्त्व अचिन्त्य ही है।१
वैयावृत्य के एकाग्रचिन्तानिरोधरूप ध्यान, सनाथपना, ग्लानि का अभाव तथा सहधर्मी वात्सल्य आदि गुण सिद्ध हो जाते हैं ।
मगधदेश के शालिग्राम नगर में दरिद्र ब्राह्मणी के एक पुत्र का जन्म हुआ। गर्भ में आते ही उसका पिता मर गया और जन्मते ही माता मर गई। मौसी ने उसका पालन किया, आठ वर्ष की वय में मौसी भी मर गई। पुन: कुछ दिन मामा के घर पला। इसके शरीर से दुर्गंध आती थी और कुरूप था अत: उसे घर से भी निकाल दिया गया। अंत में शोक से व्याकुल हो वह एक पर्वत पर चढ़कर गिरकर मरना चाहता था कि दो मुनियों ने उसे संबोधन कर रोका और गुरु के पास लाकर दीक्षा दिला दी। ये ब्राह्मण पुत्र नंदिषेण गुरू के प्रसाद से घोर तपश्चरण करते हुये अनेकों ऋद्धियों से समन्वित हो गये। वैयावृत्य के लिये वे मुनि अपनी ऋद्धियों का उपयोग करते रहते थे। एक बार इंद्र ने सभा में नंदिषेण के वैयावृत्य की बहुत प्रशंसा की। ऐसा सुनकर एक देव रुग्ण मुनि का वेष लेकर आया, नंदिषेण मुनि ने उसकी अपने हाथों से सेवा की, उससे पूछा-मैं तुम्हें औषधि देता हूँ बोलो, तुम्हारी किस भोजन में रुचि है। उसने कहा मुझे पूर्व देश का चावल, पाँचाल देश की दाल, पश्चिम देश की गायों का घी और कलिंग देश की गायों का दूध आदि पदार्थ चाहिये। नंदिषेण मुनि ने अपनी ऋद्धि के बल से सर्व वस्तुओं को मँगाकर उसे आहार में दिला दी। कृत्रिम मुनि ने आहार करके पुन: रात्रि में खूब दस्त कर दिया। मुनि ने अपने हाथों से उसे धोया और ग्लानि नहीं किया तब वह मुनि अपने देव रूप में आकर नंदिषेण मुनि की खूब स्तुति करने लगा। वह नंदिषेण मुनि ही आगे श्रीकृष्ण के पिता वसुदेव हुये हैं ।
प्रासुकद्रव्ययोगेन वैयावृत्योद्यतस्य हि।
संयतस्यापि नो बंधो निर्जरैव तु जायते।।१४२।।
गृहस्थ की तो बात ही क्या? प्रासुक द्रव्य के द्वारा वैयावृत्य करने में तत्पर हुये मुनि को भी उससे बंध नहीं होता है किन्तु निर्जरा ही होती है।
व्यापत्तिव्यपनोद: पदयो: संवाहनं च गुणरागात्।
वैयावृत्यं यावानुपग्रहोन्योऽपि संयमिनाम् ।।११२।।
गुणानुराग से संयमी पुरुषों की आपत्तियों को दूर करना, उनके चरणों को दबाना तथा इसी प्रकार और भी जो उनकी सेवा-टहल करना सो सब वैयावृत्य है। यह भावना तीर्थंकर प्रकृति के बंध में कारण है।