युद्ध के मैदान में रामचन्द्र को प्रविष्ट हुए देख लक्ष्मण बोल उठते हैं- ‘‘हाय देव! बड़े दुःख की बात है आप विघ्नों से व्याप्त इस वन में सीता को अकेली छोड़कर यहाँ किसलिए आ गये हो?’’ राम ने कहा-‘‘भाई! मैं तुम्हारा शब्द सुनकर ही यहाँ आया हूँ।’’ लक्ष्मण ने कहा-‘‘ आप शीघ्र ही चले जाइये, आपने अच्छा नहीं किया।’’ अच्छा, तुम परम उत्साह से शत्रुओं को सब प्रकार से जीतो। ऐसा कहकर शंकितचित्त हुए राम अपने स्थान पर पहुँचते हैं और वहाँ सीता को न देखकर – ‘‘हा सीते!’’ ऐसा कहकर मूर्च्छित हो गिर जाते हैं। जब स्वयं सचेत होते हैं तब व्याकुलचित्त हुए इधर-उधर खोजने लगते हैं- ‘‘हे देवी! तुम कहाँ गई हो? आओ, आओ, हे प्रिये! यदि हँसी करने के लिए कहीं छिप गई हो तो जल्दी आ जाओ।’’ पुनः कुछ ही दूर पर जटायु को मरणासन्न देखकर उसे महामंत्र सुनाकर सन्यास ग्रहण कराते हैं। वह पक्षी मरकर देव पर्याय को प्राप्त हो जाता है। इधर रामचन्द्र सीता के अपहरण का अनुमान लगाकर और पक्षी के मरण को देखकर पुनः रुदन करते हुए मूर्च्छित हो जाते हैं। पुनः सचेत हो विलाप करते हुए वृक्षों और पक्षियों से सीता के बारे में पूछते हुए हा-हाकार करते हैं और शोक के भार से पीड़ित हो पुनः-पुनः मूर्च्छित हो जाते हैं। उधर लक्ष्मण युद्ध में विजय प्राप्त कर अपने स्थान पर आते हैं और राम को एक तरफ धरती पर पड़े हुए देखकर घबड़ाते हुए बोलते हैं- ‘‘हे नाथ! उठो और कहो, सीता कहाँ गई हैं?’’ राम सहसा उठ बैठते हैं, लक्ष्मण का घाव रहित शरीर देखकर कुछ हर्षित हो उनका आलिंगन करते हैं, पुनः कहते हैं-‘‘हे भद्र! मैं नहीं जानता कि देवी को किसी ने हर लिया या सिंह ने खा लिया है। मैंने इस वन में बहुत खोजा पर वह दिखी नहीं।’’ विषादयुक्त हो लक्ष्मण बोले- ‘‘हे देव! उद्वेग को छोड़ो, जान पड़ता है कि जानकी किसी दैत्य के द्वारा हरी गई है, सो वे कहीं भी क्यों न हों मैं अवश्य ही उनका पता लगाऊँगा।’’ इस प्रकार मधुर वचनों से सान्त्वना देकर लक्ष्मण ने अग्रज का मुख धुलाया। इसी बीच तुरही का उच्च शब्द सुनकर राम ने पूछा – ‘‘भाई! यह शब्द किसका है? क्या कुछ शत्रु शेष रह गये हैं?’’ ‘‘नहीं, यह शब्द शत्रु का न होकर मित्र का है। प्रभो! सुनिये, भयंकर युद्ध के मध्य एक राजा कुछ सेना लेकर आया और मुझसे कुछ प्रार्थना करने लगा, मैंने शीघ्र ही उसके मस्तक पर हाथ रखकर उसे आश्वासन देते हुए अपने पीछे खड़ा होने को कहा। पुनः वह प्रणाम कर बोला – ‘‘नाथ! आप मुझे इन दुष्टों को मारने का आदेश दीजिए। मेरी स्वीकृति मिलते ही उसने खरदूषण की सारी सेना में खलबली मचा दी। पुनः मैंने भी आपके प्रसाद से इसी सूर्यहास खड्ग से खरदूषण को मार गिराया और उसे उस खरदूषण के राज्य का स्वामी बना दिया।’’ इसी बीच चंद्रोदय विद्याधर का पुत्र विराधित अपनी सेना सहित वहाँ आकर विनय से रामचन्द्र को नमस्कार करके निवेदन करता है- ‘‘प्रभो! चिरकाल बाद आप जैसे महापुरुष हमें प्राप्त हुए हैं सो करने योग्य कार्य के विषय में मुझे आदेश दीजिए।’’ तब लक्ष्मण ने सारी घटना सुनाकर कहा – ‘‘सीता के बिना राम शोक के वशीभूत हो यदि प्राण छोड़ते हैं तो निश्चित ही मैं अग्नि में प्रवेश कर जाऊँगा। क्योंकि हे भद्र! तुम निश्चित समझो कि मेरे प्राण इन्हीं के प्राणों के साथ मजबूत बंधे हुए हैं।’’ विराधित ने मन में सोचा, ‘‘अहो! मैं अपने राज्य को प्राप्त करने हेतु इनकी शरण में आया, परन्तु देखो, सभी जीव कर्मों के आधीन हैं। इन पर तो इस समय महान संकट आ पड़ा है।’’ पुनः बोला – ‘‘देव! मैं अवश्य ही सीता की खोज कराऊँगा।’’ ऐसा कहकर अपने आश्रित हुए तमाम विद्याधरों को उसने दशों दिशाओं में देखने के लिए भेजा। सभी घूम-घूम कर वापस आ गये। तब रामचन्द्र अत्यधिक दु:खी हो विलाप करने लगे। विराधित विद्याधर आदि ने उन्हें समझाते हुए निवेदन किया – ‘‘हे नाथ! आप जैसे महापुरुष को शोक करके शरीर का अनिष्ट करना उचित नहीं है, धैर्य धारण कीजिए और हमारी प्रार्थना स्वीकार कीजिए। खरदूषण के मरने से सुग्रीव, रावण आदि में भयंकर क्षोभ हुआ होगा सो अब आप सुरक्षित स्थान जो अलंकारपुर नगर है वह हम लोगोें की वंश परंपरा से चला आया उत्तम और शत्रु के लिए दुर्गम स्थान है वहीं चलेें। वहीं पर रहकर सीता की खोज करायेंगें।’’ इतना सुन राम-लक्ष्मण रथ में बैठकर उनके साथ चल पड़े। वहाँ पहुँचकर विराधित तथा राम-लक्ष्मण खरदूषण के भवन में यथा योग्य निवास करने लगे। वहाँ पर सुन्दर जिन मंदिर में जिनेन्द्र देव की प्रतिमा का दर्शन कर रामचन्द्र कुछ धैर्य को प्राप्त होते थे। पुनः सीता के शोक में व्याकुल हो उठते थे।