जिनोपदिष्टे निर्ग्रन्थे मोक्षवर्त्मनि रुचि: नि:शंकितत्वाद्यष्टांगा दर्शनविशुद्धि:।।१।।
जिनेन्द्र देव के द्वारा उपदिष्ट निर्ग्रंथ दिगम्बर मोक्षमार्ग में रुचि होना और नि:शंकित आदि आठ अंगों का पालन करना दर्शनविशुद्धि है। इहलोक, परलोक, व्याधि, मरण, अगुप्ति, अत्राण और आकस्मिक इन सात प्रकार के भयों से रहित होना नि:शंकित है अथवा अर्हंत देव के द्वारा कथित प्रवचन में ‘यह ऐसा है या नहीं?’ इत्यादि शंका नहीं करना सो ”नि:शंकित अंग” है। पंचेन्द्रियों के सुख कर्माधीन हैं, विनश्वर हैं और दु:खों से मिश्रित हैं। इनकी इस भव अथवा परभव में आकांक्षा नहीं करना और अनेक प्रकार के कुदृष्टियों के मत की आकांक्षा नहीं करना, ”नि:कांक्षित अंग” है। ये शरीर आदि अपवित्र हैं इनमें पवित्रता की बुद्धि को दूर करना अथवा अरिहंत देव के शासन में मुनियों का स्नान न करना आदि घोर कष्टप्रद है, ठीक नहीं है इत्यादि अशुभ भावना को छोड़ना तथा रत्नत्रय से पवित्र मुनियों के शरीर में ग्लानि नहीं करना ”निर्विचिकित्सा अंग” है। अनेकों दुर्नयों से युक्त मिथ्यामतों को परीक्षाचक्षु से युक्तिशून्य समझकर उसमें मोक्ष को प्राप्त नहीं होना ”अमूढ़दृष्टि अंग” है। उत्तम क्षमा आदि के द्वारा आत्मा के गुणों को बढ़ाना तथा मोक्षमार्ग में चलते हुए किसी अज्ञानी से यदि उसमें दूषण लग जाए तो उसे ढक देना, ”उपवृंहण या उपगूहन अंग” है। धर्म से च्युत करने वाले कषाय आदि के उपस्थित हो जाने पर अपने को अथवा पर को धर्म से च्युत नहीं होने देना ”स्थितिकरण अंग” है। जिनदेव कथित धर्म में नित्य ही अनुराग करना और धर्मात्माओं में भी सहज स्नेह रखना ”वात्सल्य अंग” है। सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र के द्वारा आत्मा को प्रभावित करना और दान, तप, जिनपूजा आदि के द्वारा जैनधर्म का प्रभाव फैलाना ”प्रभावना अंग” है। सम्यग्दर्शन के आठ अंग हैं।
सम्यक्त्व के पच्चीस मलदोष होते हैं। इन आठ अंगों से विपरीत शंका आदि आठ दोष, ज्ञान, पूजा, ऐश्वर्य, कुल, जाति, बल, रूप और तप इन आठ के निमित्त से आठ मद, कुदेव, कुशास्त्र और कुगुरु तथा इन तीनों के उपासक ऐसे छह अनायतन तथा देवमूढ़ता, गुरुमूढ़ता और पाखंडिमूढ़ता ये तीन मूढ़ता ऐसे पचीस दोष होते हैं, इनका त्याग करना चाहिये। इस प्रकार से प्रशम, संवेग, अनुकंपा और आस्तिक्य इन चार गुणों को भी धारण करना चाहिये। यह सम्यग्दृष्टि जीव भय से, आशा से, स्नेह से अथवा लोभ से किसी भी निमित्त से कुदेवों को, गुरुओं को नमस्कार नहीं करता है। इस सम्यक्त्व के होने पर ही आगे की भावनायें कार्यकारी हैं अन्यथा नहीं। इसलिये इस दर्शनविशुद्धि को सर्वप्रथम ग्रहण करना चाहिये।
इस दर्शनविशुद्धि के प्रभाव से राजा श्रेणिक ने सातवें नरक की तेंतीस सागर की आयु को घटा-घटा कर मात्र पहले नरक की ही चौरासी हजार वर्ष प्रमाण ही कर लिया तथा तीर्थंकर प्रकृति का भी बंध कर लिया है। आज तक जितने भी जीव तीर्थंकर हुये हैं, होते हैं अथवा होंगे या मोक्ष गये हैं अथवा जायेंगे, वे सब इस दर्शनविशुद्धि के प्रभाव से ही होते हैं ऐसा समझो।
सौराष्ट्र देश के गिरि नगर में एक दयामित्र नाम का जैनधर्मी सेठ रहता था। एक बार उसने देशांतरों में जाकर धन कमाने का निर्णय किया। तब उसके साथ अनेकों व्यापारी हो लिये। उससे गाँव के बाहर डेरा डाला था कि वहाँ पर एक ब्राह्मण पधारे। सेठजी ने उससे पूछा आप यहाँ क्यों आये हैं? वसुभूति ने अपना परिचय देकर कुछ दिन साथ रहने की इच्छा व्यक्त की। सेठजी उदारमना थे उन्होंने साथ रख लिया। सेठजी रोज एक बार सभी व्यापारियों व साथ चलने वालों को बिठाकर धर्मोपदेश दिया करते थे। वसुभूति चिंतित हो सोचने लगा ‘यह सेठ अभी तक धर्म के मूल से अनभिज्ञ है, यह बेचारा नंगे साधुओं को मानता है और उन्हीं के कहे हुए मार्ग पर अपनी अटूट संपत्ति का दुरुपयोग कर रहा है।’ समय पाकर वह ब्राह्मण सेठ को समझाने लगा। सेठजी भी मन ही मन उसके अज्ञान पर हँस रहे थे और सोचा करते थे कि इसे सच्चे धर्म में कैसे लगाया जाय?
वह खुलकर दिगम्बर मुनियों की निंदा किया करता था। सेठजी भी कभी-कभी उसे समझाया करते थे। एक दिन सेठजी ने युक्ति से उसे धर्ममार्ग पर लाने का निर्णय किया और एकांत में बुलाकर बोले-
‘भूदेव! आप सर्वश्रेष्ठ हैं। मेरे सामने एक समस्या उपस्थित हुई है। उसे आप ही सुलझा सकते हैं।’
‘वह क्या है?’ वह यह है कि ‘‘इस फाल्गुन शुक्ल अष्टमी से पूर्णिमा तक मेरा ऐसा नियम है कि प्रतिदिन दिगम्बर मुनि को आहार देना। वह नियम कैसे पूर्ण हो? चूँकि यहाँ मार्ग में कोई मुनि नहीं मिल सकते अत: मेरी इच्छा है कि आप कुछ दिन के लिये दिगम्बर मुनि बन जाओ। महाराज! पीछे आप जितना भी धन चाहोगे मैं दक्षिणारूप में देकर आपको कृतार्थ कर दूँगा।’’
वसुभूति मन में बहुत कुछ सोच-विचार करके अंत में नग्न मुनि बनने को तैयार हो गया। उसने सोचा यहाँ मुझे पहचानने वाला है कौन? कुछ दिन नंगे रहकर पुन: भरपूर दक्षिणा लेकर घर चला जाऊँगा। समय उचित देखकर दयामित्र ने वसुभूति को निर्जल उपवास का नियम कराकर उच्च पाटे पर बिठाया और दीक्षा की प्रारंभिक क्रिया में उसका केशलोंच करने लगे। वह बेचारा हा, हू, करने लगा। तब दयामित्र ने कहा ऐसा करने से आपको दक्षिणा नहीं मिल सकती। हमारे मुनि प्रसन्नचित्त होकर केशलोंच करते हैं। खैर थोड़ी देर में [[केशलोंच]] करके उसे नग्न बना दिया। दीक्षा विधि के बाद मुनियों की सारी क्रियाएँ उसे समझा दीं। दूसरे दिन एक बार खड़े-खड़े हाथ की अँजुलियों में भोजन करना, पान-इलायची खाना नहीं, पुन: जल पीना नहीं, नहाना नहीं इत्यादि क्रियाओं से वह घबड़ा गया। बोला-
‘‘दयामित्र! मैं इस दीक्षा को निभाने में असमर्थ हूँ। यदि आप सायं को जलपान और प्रात: नदी में स्नान करने की छूट देते हैं तो ठीक अन्यथा मैं इस वेष को छोड़कर वस्त्र पहन लूँगा।’’ सेठजी हँस पड़े पुन: बोले–
‘‘मुनिराज! हमारे साधु प्राण जाने पर भी ऐसा नहीं सोचते हैं। वे इतना ही नहीं, उपवास आदि से खिन्न होकर सायं को जल की इच्छा नहीं करते। अनेकों उपसर्ग व परीषहों को सहन करते हैं।’’ पुन: सेठ ने उसे सम्यक्त्व और चारित्र का उपदेश देकर बोधि की दुर्लभता का उपदेश दिया, जिससे उसे कुछ शांति मिली। वह सोचने लगा, मैंने इनके नग्न श्रमणों को मस्त, स्वच्छंद आदि शब्दों से तिरस्कृत किया था इसीलिये यह बुद्धिमान दयामित्र मुझे दिगम्बर चर्या का ज्ञान करा रहा है। कुछ ही दिनों में दयामित्र के उपदेश से वसुभूति के हृदय से मिथ्यात्व का पिशाच निकल गया और वह सच्चा सम्यग्दृष्टि बन गया। देव-अदेव को, तत्त्व-अतत्त्व को उसने पहचान लिया पुन: भावपूर्वक मुनि की चर्या का निर्वाह करने लगा। एक समय मार्ग में भीलों से व्यापारियों में युद्ध छिड़ गया। उस समय वसुभूति मुनि ध्यानमग्न थे, उनको एक बाण लग जाने से वे आत्मचिंतन करने लगे। दयामित्र ने भी उनकी मरणासन्न स्थिति जानकर उन्हें सल्लेखना ग्रहण करा दी। वे महामंत्र स्मरणपूर्वक प्राण छोड़कर सौधर्म स्वर्ग में मणिकुण्डल नाम के देव हो गये। आगे ये ही देव राजा श्रेणिक के प्रसिद्ध पुत्र अभय कुमार हुये हैं। अभय कुमार ने अंत में दीक्षा लेकर घोर तपश्चरण कर सर्वार्थसिद्धि में अहमिंद्र पद प्राप्त कर लिया है। आगे वे मनुष्य भव में आकर उसी भव से मोक्ष को प्राप्त करेंगे।
इसी तरह से नि:शंकित आदि आठ अंगों में भी अंजन चोर, अनंतमती, उद्दायनराजा, रेवतीरानी, जिनेन्द्रभक्त सेठ, वारिषेण मुनि, वज्रकुमार मुनि और विष्णुकुमार मुनि प्रसिद्ध हुये हैं। उनका भी जीवन चरित्र पढ़ना चाहिये।
मगध देश के अंतर्गत एक मिथिला नगरी थी। उसके राजा पद्मरथ बहुत ही बुद्धिमान, उदार, परोपकारी और राजनीति में कुशल थे। एक दिन राजा पद्मरथ शिकार के लिये वन में गये हुये थे। उन्होंने वहाँ एक खरगोश का पीछा किया किन्तु कुछ क्षण बाद वह न जाने जहाँ अदृश्य हो गया। राजा उसे खोजते-खोजते भाग्य से कालगुफा नाम की एक गुफा में जा पहुँचे। वहाँ एक मुनिराज विराजमान थे, बड़े तपस्वी थे। तपस्या के प्रभाव से उनका शरीर चमक रहा था उनका नाम सुधर्म मुनि था। पद्मरथ राजा ने मुनि को साष्टांग नमस्कार किया और विनयपूर्वक पास में बैठ गये। मुनिराज ने राजा को धर्म का उपदेश दिया। जैसे तपाया हुआ लोहे का गोला जल का संसर्ग पाकर शांत हो जाता है वैसे ही राजा का मन भी दिव्य धर्मोपदेश पाकर शांत हो गया तब राजा ने महामुनि से सम्यक्त्व और [[अणुव्रत]] ग्रहण कर लिये तथा शिकार खेलना आदि हिंसा कार्यों का सर्वथा त्याग कर दिया पुन: मुनिराज से पूछने लगे-
‘‘हे भगवन्! हे संसार के आधार! कहिये, जिनधर्मरूपी समुद्र की वृद्धि करने वाले आपके समान गुणशाली चंद्रमा और भी कोई हैं या आप ही हैं।’’
तब मुनिराज ने कहा-
‘‘राजन्! हैं, और वे मेरे भी महान् जगद्गुरु तीर्थंकर हैं। इस समय चंपानगरी में बारहवें तीर्थंकर भगवान् वासुपूज्य केवलज्ञानरूपी किरणों से भव्य जीवों के मिथ्यात्वरूपी गहन अंधकार को दूर कर रहे हैं। उनमें अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन आदि अनंतगुण विद्यमान हैं। उनके आगे हम जैसे मुनि तो सुमेरु के आगे राई से भी छोटे तुच्छ हैं। राजन्! कहाँ सूर्य का तेज और कहाँ जुगनू ?’’
इतना सुनकर राजा उसी क्षण भगवान् वासुपूज्य के दर्शन को लालायित हो उठे। मुनि को बार-बार नमस्कार कर गुफा से बाहर निकले, अपने घोड़े पर सवार हो शीघ्र ही राजमहल में आ गये और बड़े वैभव के साथ चम्पानगरी के लिये प्रस्थान कर दिया।
इसी बीच धन्वन्तरि और विश्वानुलोम नाम के दो देव स्वर्ग से सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि की परीक्षा के लिये यहाँ मध्यलोक में आये हुये थे। तब सम्यग्दृष्टि देव ने कहा-
‘‘मित्र! जो अभी-अभी सम्यग्दृष्टि बना है, आओ उसी की परीक्षा कर लें।’’
उन दोनों देवों ने राजा के सम्यग्दृष्टि की दृढ़ता और जिनेन्द्र देव की दृढ़ भक्ति की परीक्षा के लिये दैवी प्रकोप चालू कर दिया। उन्होेंने पहले राजा के रथ के सामने भयंकर काला सर्प दिखलाया, राजछत्र को भंग कर दिया पुन: सामने ही भयंकर अग्नि लगा दी। प्रचण्ड हवा के तूफान से पर्वत और पत्थरों का गिरना दिखाया। असमय में ही जल वर्षा और तमाम कीचड़ से राजा का मार्ग ही रोक दिया। फिर भी राजा अत्यंत दृढ़ता के साथ आगे बढ़ने का पुरुषार्थ करने लगा। मंत्रियों ने बहुत ही समझाया-
‘‘महाराज! ये सब महा अपशकुन आपके प्रयाण को रोक रहे हैं और महा-अनिष्ट की सूचना कर रहे हैं अत: आप आज प्रस्थान मत करें, कल-परसों आदि दिवस में जाना चाहिये।’’
राजा ने कहा-
‘‘मंत्रियों! जिस जिनभक्ति में सम्पूर्ण कर्मों को नष्ट कर देने की शक्ति मौजूद है क्या वह इन विघ्न-बाधाओं को नहीं दूर कर सकती ? देखो! सम्यग्दृष्टि को जिनभक्ति के माहात्म्य में शंका नहीं करनी चाहिये। मेरा तो दृढ़ विश्वास है कि जिनेन्द्र देव के प्रसाद से ये सब बाधायें मुझे आज रोक नहीं सकेंगी।
इधर इन दोनों देवों ने विक्रिया से राजा के रथ के हाथी को कीचड़ में ऐसा फंसा दिया कि वह निकल ही नहीं सका। इन सब भयंकर उपद्रवों को देखकर सभी सामंत, मंत्री आदि घबरा गये और पुन:-पुन: राजा से यात्रा स्थगित कर लौट चलने की प्रार्थना करने लगे किन्तु राजा ने किसी की एक भी न सुनी तथा भक्ति में विभोर हो जोर से बोल उठा-
‘‘नम: श्री वासुपूज्याय, नम: श्री वासुपूज्याय, नम: श्री वासुपूज्याय,’’ इस मंत्र का उच्चारण करके झट हाथी को आगे बढ़ा दिया। इस मंत्र के प्रसाद से देवों की शक्ति कुंठित हो गई, वे दोनों आगे कुछ भी विक्रिया नहीं कर सके, तब सारी माया विलीन हो गई और राजा का रथ मार्ग में द्रुत गति से चलने लगा।
उसी क्षण वे दोनों देव अपने असली रूप में प्रगट होकर राजा के सम्यक्त्व की, जिनभक्ति की प्रशंसा करने लगे। उन देवों ने राजा की सच्ची जिनभक्ति से प्रभावित होकर उन्हें सर्व रोगों को नष्ट करने वाला एक दिव्य हार भेंट में दिया और एक दिव्य वीणा दी जिसकी आवाज एक योजन (चार कोश) तक सुनाई देती थी। पुन: राजा की बहुत-बहुत प्रशंसा करते हुये अपने स्थान पर चले गये।
राजा पद्मरथ वासुपूज्य भगवान को हृदय में धारण किये हुए निर्विघ्न और सकुशल चंपानगरी आ गये। वहाँ पहुँचकर रथ से उतरकर जो आनंद हुआ वह शब्दों के अगोचर था। भगवान की पूजा-स्तुति करके मनुष्यों के कोठे में बैठकर प्रभु का दिव्य उपदेश सुना। तत्क्षण ही उन्हें संसार से वैराग्य हो गया, तब वे भगवान के चरणमूल में जैनेश्वरी दीक्षा लेकर मुनि बन गये। दीक्षा लेते ही उनके परिणामों में इतनी निर्मलता आ गई कि अंतर्मुहूर्त में ही उन्हें अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान प्रगट हो गया। अनेक ऋद्धियाँ प्रगट हो गर्इं और वे महामुनि वासुपूज्य भगवान के ‘‘गणधर’’ हो गये।
कुछ दिनों तक घोर तपश्चर्या करते हुये भव्यों को मोक्षमार्ग का उपदेश देते रहे हैं। अनंतर घातिया कर्मों का नाश कर केवली बन गये हैं पुन: ये पद्मरथ केवली सर्व कर्मों का नाश कर निर्वाण धाम को प्राप्त हो गये हैं।
यह है सम्यग्दर्शन की दृढ़ता का उदाहरण, जो कि नियम से संपूर्ण विघ्न-बाधाओं को चकनाचूर कर देने वाला है।