चरित्रविकल्पेषु शीलव्रतेषु निरवद्या वृत्ति: शीलव्रतेष्वनतिचार:।।३।।
अहिंसा आदि व्रत हैं तथा उनके परिपालन के लिये क्रोधादि का वर्जन करना सो शील है। इन व्रतों और शीलों में मन-वचन-काय की निर्दोष प्रवृत्ति करना शीलव्रतेष्वनतिचार भावना है।
पाँच महाव्रतों के परिपूर्ण पालन करने के लिए जो उनकी पचीस भावनायें हैं, पाँच समिति और तीन गुप्ति रूप चारित्र हैं वे सब भी शील नाम से कहे जाते हैं अथवा अट्ठाईस मूलगुणों को व्रत समझने पर बारह तप व बाईस परीषहजय ये चौंतीस उत्तर गुण भी शील शब्द से कहे जाते हैं। श्रावकों के पाँच अणुव्रत व्रत हैं एवं तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत ये सात शील कहलाते हैं। वृत्ति में अकलंक देव ने क्रोधादि के त्याग करने को शील कहा है चूँकि ये कषायें व्रतों का विघात कर देती हैं।
एक गुणनिधि नामक मुनिराज ने आहार का त्याग कर पर्वत के शिखर पर चार माह के लिये वर्षायोग धारण कर लिया। सुर-असुर देव उनकी स्तुति करने लगे। वे मुनि चारण ऋद्धि के धारक थे, धीर-वीर थे। चार माह का योग समाप्त कर कहीं आकाशमार्ग से विहार कर गये। उसी समय मृदुमति नाम के मुनिराज आहार हेतु उसी नगर में आये। तब राजा और नगरवासियों ने यही समझा कि ये वे ही महामुनि हैं जिनकी देव पूजा करते थे और कहने भी लगे-हे मुनिवर! आप धन्य हैं, आपकी देवगण भी वंदना करते थे। ऐसा सुनकर भी इन मुनि ने मायाचारी से कुछ उत्तर नहीं दिया और सोचा कि मुझे उन मुनि के रूप में जानकर लोग अधिक पूजा करेंगे अन्यथा कम करेंगे इत्यादि, आगे वे मुनिराज मरकर स्वर्ग में देव हो गये अनंतर वहाँ से च्युत हो इस मायाचारी के पाप से वह त्रिलोकमंडन नाम का हाथी हो गया जो रावण के यहाँ था, पुन: रामचंद्र जी उसे अयोध्या में ले आये थे। ऐसा केवली भगवान ने श्री रामचंद्र आदि को बताया था। कहने का मतलब यही है कि क्रोध आदि कषायें व्रतों को दूषित करके जीव को दुर्गति में डाल देती हैं।
‘‘हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील आदि पाँचों पापों से परलोक में भले ही दु:ख हो किन्तु इस लोक में तो सुख मिलता ही है और अपने को तो इस जन्म में ही आनंद चाहिये। परलोक भला किसने देखा है?’’
‘‘नहीं-नहीं, ऐसी बात नहीं है। पापों के सेवन से इस जन्म में भी अनेक दु:ख भोगने पड़ते हैं। हिंसक, क्रूर, झूठे, चोर व कुशीली लोग अच्छे लोगों की नजर में निंद्य, पापी गिने जाते हैं और विश्वास के अपात्र हो जाते हैं।
किसी समय विदेह क्षेत्र में एक मुनिराज सर्प सरोवर के निकट के वन में आये। एक देवयुगल ने उनके दर्शन करके संतुष्ट होकर मुनिराज से धर्मोपदेश देने की प्रार्थना की तब मुनिराज कहने लगे-
मैं अभी नवदीक्षित हूँ अत: धर्मोपदेश देने में समर्थ नहीं हूँ चूँकि यह उपदेश देने का कार्य समस्त शास्त्रों में पारंगत मुनियों का ही है फिर भी किंचित् कहता हूँ सो सुनो। ऐसा कहकर मुनिराज ने सम्यग्दर्शन, सत्पात्रदान, श्रावक धर्म व मुनिचर्या आदि का किंचित् उपदेश दिया। पुन: देव कहता है-
‘‘भगवन्! आपने किस कारण से मुनि दीक्षा ली है सो कृपा कर कहिये!’’ मुनिराज बोले-विदेह क्षेत्र की पुंडरीकिणी नगरी में मैं एक दरिद्र कुल में उत्पन्न हुआ। मेरा नाम भीम रखा गया। कुछ बड़ा होने पर काललब्धि आदि के निमित्त से एक दिन मैंने एक मुनिराज के दर्शन किये। उनके पास में आठ मूलगुण ग्रहण कर लिये और घर आ गया। जब पिता को इस बात का पता चला तो वे कहने लगे-अरे पुत्र! हम लोग महादरिद्री हैं सो हम लोगों को व्यर्थ के इन कठिन व्रतों से क्या प्रयोजन! इनका फल इस लोक में तो मिलता नहीं, अत: आ चल! स्वर्ग के इच्छुक उस मुनि को ही ये व्रत वापस कर आवें। हम लोग तो इस लोक संबंधी फल चाहते हैं जिससे कि जीविका चल सके अत: व्रत देने वाले गुरु का स्थान मुझे दिखा। ऐसा कहकर पिता मुझे साथ लेकर चल पड़े।
मार्ग मे मैंने देखा कि वङ्काकेतु नाम के एक पुरुष को दण्ड दिया जा रहा है तब मैंने पिताजी से कारण पूछा और वे ज्ञात कर कहने लगे-
‘‘यह सूर्य की किरणों में अनाज सुखा रहा था, किसी मंदिर का मुर्गा उसे खाने लगा तब उसको इसने इतना मारा कि वह मर गया इसलिये लोग इसे दण्ड दे रहे हैं।’’
आगे बढ़कर मैंने देखा धनदेव की जीभ निकाली जा रही है। पूछने पर पिताजी ने बताया कि ‘‘इसने जिनदेव के द्वारा रखी गई धरोहर को हड़प लिया और झूठ बोल गया, भेद खुलने पर इसकी जीभ उखाड़ी जा रही है।’’
आगे देखा रतिपिंगल को शूली पर चढ़ाने के लिये ले जा रहे हैं। पूछने पर ज्ञात हुआ, ‘‘इसने एक सेठ के घर से बहुमूल्य मणियों का हार चुराकर एक वेश्या को दे दिया सो कोतवाल द्वारा पकड़ा जाने पर इसे प्राणदण्ड की आज्ञा हुई है।’’
आगे बढ़ने पर देखा कि ‘‘एक कोतवाल का सिपाही किसी व्यक्ति का गुह्य अंग काट रहा है। पूछने पर पता चला कि इस पापी ने अपनी मौसी की पुत्री के घर जाकर रात्रि में उससे व्यभिचार किया है अत: राजाज्ञा से राज्य कर्मचारी इसे ऐसा दण्ड दे रहे हैं।’’
और आगे बढ़ने पर देखा कि लोल नामक किसान विलाप कर रहा है। पूछने पर मालूम हुआ कि ‘‘इसने खेत के लोभ से अपने बड़े लड़के को डंडों से इतना मारा कि वह मर गया। इससे उसे देशनिर्वासन दंड दिया गया है अत: यह बिलख रहा है।’’
आगे बढ़ते ही देखा कि सागरदत्त ने जुएँ में समुद्रदत्त का बहुत सा धन जीत लिया परन्तु समुद्रदत्त उस धन को देने में असमर्थ था अत: उसने क्रोध से बहुत देर तक समुद्रदत्त को दुर्गन्धित धुएँ के बीच में बैठा रखा है। पुन: किसी जगह मैंने देखा कि ‘‘आनंद महाराजा द्वारा अभय घोषणा कराये जाने पर भी उन्हीं के पुत्र अंगद ने राजा के मेंढे को मार कर खा लिया है। इसके दण्ड में उसके हाथ काट कर उसे विष्ठा का भक्षण कराया जा रहा है।’’ ‘‘पुन: अन्य स्थान पर देखता हूँ कि शराब पीने वाली महिला ने शराब खरीदने के लिए किसी के बालक को मारकर जमीन में गाड़ दिया और उसके जेवर निकाल लिये। भेद खुल जाने पर राजकर्मचारी उसे दण्ड दे रहे हैं।’’
हिंसा आदि पापों से होने वाले इन फलों को मैंने प्रत्यक्ष में देखा अत: मैंने यह निश्चय कर लिया कि ये महापाप इस भव में तो नाना दु:ख देने वाले हैं ही तथा परलोक में भी इनका फल नरक-निगोद ही है। मैंने भी जो दरिद्रता पाई है वह भी तो पाप ही का फल है अत: मैंने अपने पिता को छोड़कर मोक्ष की इच्छा से उन्हीं गुरु के पास जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण कर ली है। गुरु के प्रसाद से मैं शीघ्र ही सर्वशास्त्र समुद्र का पारगामी हो गया हूँ और मेरी बुद्ध भी विशुद्ध हो गई है इसलिये पाप और पुण्य का फल इस जीव को संसार में भोगना ही पड़ता है। उसी के फलस्वरूप अनेक दु:ख और राज्यवैभव आदि सुख भी मिलते रहते हैं। जब पुण्य-पाप को छोड़कर यह जीव निर्विकल्प ध्यान में स्थित हो जाता है तब शुद्धोपयोग के बल से कर्मों का नाश कर मोक्ष को प्राप्त कर लेता है अत: परलोक और मोक्ष आदि को भी स्वीकार करना ही चाहिये।
मुनिराज के इस अपनी दीक्षा के कारण को सुनकर देव अति प्रभावित हुये ।
ये व्रत गृहस्थों के लिये अणुव्रतरूप होते हैं और निरतिचार पालन करने पर नियम से स्वर्ग को प्राप्त कराते हैं तथा मुनियों के महाव्रतरूप होते हैं। वे मोक्ष के कारण हैं कदाचित् इस भव में मोक्ष न प्राप्त करा सकें तो स्वर्ग तो नियम से प्राप्त कराते ही हैं।
जो मुनि या श्रावक अपने महाव्रत या अणुव्रतों को निर्दोष पालते हैं, अतीचार नहीं लगाते हैं। जैसे कि अहिंसाणुव्रत के पशु आदि जीवों का वध, बंधन, अंगछेदन, अतिभार आरोपण और अन्नपान का निरोध ये पाँच अतिचार हैं। इन अतिचारों को श्रावकाचार से समझकर श्रावकों को अपने व्रतों को निर्दोष बनाना चाहिये और सात शीलों के भी अतिचार छोड़ना चाहिए। मुनियों को भी महाव्रत और समिति आदि के अतिचारों को दूर करके उन्हें निर्मल बनाना चाहिये। निरतिचार व्रत और शील नियम से स्वर्ग-मोक्षरूप फल देते हैं तथा दर्शनविशुद्धिपूर्वक इस भावना को प्राप्त करने से तीर्थंकर प्रकृति का भी बंध कर लेते हैं।