स्वस्वनामरसास्वादा लवणो वारुणीवर:।
वाद्र्धी क्षीरघृतवरौ चत्वार इति र्कीित्तता:।।२७।।
अर्थ— (लवण:) लवण (वारुणीवर:) वारुणीवर (क्षीरघृतवरौ) क्षीरवर और घृतवर (वाद्र्धी) समुद्र (इति), इस प्रकार (चत्वार:) चार समुद्र (स्वस्वनामरसास्वादा:) अपने नाम रस स्वाद वाले (र्कीित्तता:) कहे गये हैं।
भावार्थ—लवणसमुद्र, वारुणीवर समुद्र, क्षीरसमुद्र और घृतवर समुद्र अपने नाम के अनुसार स्वाद वाले हैं। अर्थात् लवण समुद्र के जल का स्वाद लवण के समान है। वारुणी का वारुणी के, घृतवर का घृत के समान और क्षीरवर का क्षीर के समान रस स्वाद है।।२७।।
कालोदकपुष्करवरस्वयंभूरमणार्णवा:।
जलास्वादास्त्रय: क्षौद्ररसा: शेषास्तु सागरा:।।२८।।
अर्थ—(कालोदकपुष्करवरस्वयंभूरमणार्णवा:) कालोदधि समुद्र, पुष्करवर समुद्र, स्वयंभूरमण समुद्र, (त्रय:) तीन (जलस्वादा:) जल स्वाद हैं (तु) और (शेषा:) शेष (सागरा:) समुद्र (क्षौद्ररसा:) क्षौद्र रस वाले हैं।
भावार्थ—कालोदधि समुद्र, पुष्करवर समुद्र और स्वयंभूरमण समुद्र यह तीनों समुद्र जल स्वाद वाले हैं और शेष समुद्र क्षौद्र रस वाले हैं।।२८।। (आचारसार पृ. २४३)