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* यदि संयोगवश कोई उस व्यसन में फंसा हुआ हो जिसमें आप पहले से ही फंसे हुए हैं तो तब तक उपदेश न देना जब तक आप स्वयं उससे मुक्त न हो लें। स्वयं को व्यसन-मुक्त करना।
* प्रदर्शन की भूख, यदि है तो उसे संभव प्रयत्न के साथ उत्तरोत्तर घटाना। ऐसा करते हुए अपने देश, समाज तथा परिवार की आर्थिक/सामाजिक/सांस्कृतिक स्थितियों का ध्यान रखना।
* अश्लीलताओं/अभद्रताओं से बचना और जहां भी किसी किस्म की अश्लीलता घटित हो या मौजूद दिखायी दे वहां उसका सशक्त; किन्तु शालीन एवं व्यावहारिक विरोध करना।
* आत्मालोचन करना कि क्या आप दूसरों के साथ वैसा ही बर्ताव कर रहे हैं, जैसे बर्ताव की अपेक्षा आप उनसे करते हैं ? यदि नहीं तो अपने परम्परित रुख/ आचरण में परिवर्तन लाना।
* अपने दैनंदिन खर्च की युक्तियुक्त समीक्षा करना और यदि उसमें किसी तरह की तर्कसंगत कटौती संभव हो तो ऐसा करते हुए बचे हुए धन को समाजहित में खर्च करना।
* किसी को छोटा या हीन न मानना। हर हालत में उसका सम्मान बनााये रखना।
* बालक/किशोर/पशु-पक्षी सभी बेहद संवेदनशील होते हैं। वे हमेशा सच को सच और झूठ को झूठ देखना चाहते हैं; अत: दोहरे आचरण से प्रयत्नपूर्वक बचना।
* स्वयं के द्वारा हो रहे सेवाकार्य की समीक्षा करना और देखना कि कहीं आप सेव्य के प्रति अहंकारी, अविनम्र और ग्लानियुक्त तो नहीं हैं ? यदि हैं तो आत्मालोचन द्वारा सहज, विनम्र और ग्लानिमुक्त होना।
* दूसरों के साथ किसी भी तरह का छल न करना और यदि उनके साथ किसी तरह का कपट हो रहा हो तो उसके प्रति उन्हें कुशलतापूर्वक सावधान करना।
* भीतर-बाहर से समन्वित, स्वच्छ और संघटित होना ताकि अधिक काम किया जा सके। इस रहस्य को जानना कि वघटन या बिखराव विनाश; और समन्वय निर्माण/सृजन का रास्ता है।
* संसार की खुशियों को बढ़ाना। कम-से-कम ऐसे कामों से अवश्य बचना जिनसे दुनिया की खुशियों का खजाना घटता हों याद रखना, कि एक खुशमिजाज इन्सान दुनिया की सबसे बड़ी नेमत होता है।
* जब भी सत्य की डोर हाथ से छूटती लगे, उसे अधिक कस कर पकड़ रखने की कोशिश करना; फिर ऐसा करते हुए चाहे कितनी ही क्षति क्यों न उठानी पड़े। ध्यान रखना कि सत्याग्रही कभी भी कायर, कमजोर और विचलित नहीं होता। असल में ऐसे क्षणों को अग्निपरीक्षा के क्षण मानकर अपने चरित्र को सुदृढ़ और जीवन्त बनाना चाहिए।
* उचित करना। अनुचित और दूसरों के लिए हानिकारक या अप्रिय से बचना। औचित्य की पहचान और तदनुसार आचरण अन्तत: किसी भी व्यक्ति की उत्थान की राह पर ले जाते हैं।
* प्रकृति बहुआयामी है। सब उसके अंश-अवयव हैं। उनसे सीखना। मसलन, सूरज से नियमित रहना; वृक्ष से पीड़ा झेल कर भी मीठे फल देना; नदी से चट्टानें काट कर भी रफ्तार में रहना; पक्षियों में चहकना इत्यादि।
* यदि कोई बुराई करें तो उससे उदास या खिन्न या नाराज न होना बल्कि आत्मावलोकन करना कि आखिर निन्दा का केन्द्र और उसका कारण क्या है ? यदि खुद में कोई खोट हो तो उसे प्रसन्तापूव्रक निकाल फेकना।
* दूसरों के दुख-सुख को अपना दुख-सुख मानना। ऐसा तभी संभव है जब हमारे भीतर स्वार्थ या खुदगर्जी न हो। एक सूक्ति है- संसार के समस्त प्राणी खुद-जैसे हैं; उन्हें वैसा ही मानो यदि ऐसा करोगे तो क्या अन्यों पर क्रोध या अन्यों से ईष्र्या अथवा उनका शोषण करता है ?
* यदि संयोगवश स्वयं से कोई गलती हो जाए तो उसे ढाँकने या उसेक सही साबित करने की अपेक्षा उसे मंजमर करना; क्योंकि आत्मस्वीकृति से अच्छा कोई काम नहीं है। दिन भर में एक बार, सिलसिले से, खुद को खोजना ताकि दूसरे दिन का सूरज अधिक रोशनी ले कर क्षितिज पर आये। अपनी भूल कोे तुरन्त और नि:संकोच मान लेना सफलता का अचूक मन्त्र है।
* पलायन-वृत्ति का त्याग करना। यदि कोई समस्या अथवा उलझन सामने आ खड़ी हो तो उसे अपने वक्षस्थल पर झेलना, उसे पीठ दिखा कर न भागना।
* दुनिया को, अपने इर्दगिर्द के अस्तित्वों को सिर्फ जानो ही नहीं उनका अनुभव करो। जानने और अनुभव करने में फर्क है। इस रास्ते चल कर जब तुम दूसरों के दु:खों को सिर्फ जानोगे ही नहीं बल्कि उनका अनुभव भी करोगे तब तय है तुम उनसे छुटकारे की कोई राह अवश्य ढूंढ निकालोगे। तुम्हारे ऐसा करने से सुख का क्षेत्रफल बढ़ेगा।
* अस्तित्व मात्र की इज्जत करना ताकि दुव्र्यवहार सर्वथा/नितान्त असंभव हो उठे। सबसे प्रेम करना ताकि ईष्र्या अपना विस्तर-बोरिया बांध कर विदा हो; क्योंकि ऐसा संभव नहीं है कि कोई सम्मान्य का असम्मान करे और प्रिय के साथ अशालीन हो।
* अतिथि को अतिथि मानो। उसका आदर करो। चाहेफिर वह उम्र में छोटा या बड़ा; शिक्षित या अशिक्षित; ओहदेदार या सामान्य ही क्यों न हो। जाति आये उसकी अगवानी करो और संयोगवश कभी वक्त न हो या कोई अप्रत्याशित विवशता हो तो उसे अत्यन्त विनम्र भाव से अपनी कठिनाई बताओ।
* दृष्टा बनना। भीतर जो भी दूसरे को चुभने जैसा हो उसे सिन्ग्ध/कोमल करना ताकि वातावरण में मिठास बनी रहे और हर आदमी अपने लक्ष्य की ओर निर्विघ्न बढ़ सके।
* यदि कोई जान-बूझ कर या अनजाने में कानून तोड़े पतो उसकी देखादेखी स्वयं वैसा न करना। ऐसा करने को दिलेरी, पराक्रम या शूरवीरता न मानना, बल्कि वह व्यक्ति जिसने कानून अथवा मर्यादा का उल्लंघन किया हो यदि मिले, तो उसे प्रेम से बताना कि आखिर सही रास्ता क्या है या सच्चाई का रास्ता क्या हो सकता है ?
* जो कहना, वह करना। लोगों को देखने देना कि तुम जैसा कहते हो, वैसा करते हो। कभी ऐसा कुछ न करना जिसे बताने में शर्म या संकोच का अनुभव होता है।
* लोगों को अपने अनुकूल न बनाना, बल्कि कोशिश करना कि अपनी प्रतिकूलताओंं का प्रतिशत कम हो। प्रतिवूâलताएं घटाना एक कला है- एक ऐसा काम है, जिससे धरती एक कुटुम्ब की शक्ल ले लेती है।
* समन्दर के किनारे खड़े होकर उसकी गर्जना को सुनना और यह देखना कि वह ऊपर से गरजता है; किन्तु भीतर/तह में बिल्कुल शान्त और गम्भी है। यह सोचना कि क्या समन्दर की तरह अतल, शज्ञन्त और गम्भीर होना संभव है ? समुद्र की एक विशेषता है कि वह कभी अपनी मया्रदा छोड़कर धरती पर नहीं आता; उसके भीतर से प्रतिपल यह सत्य दहाड़ता है कि तुम चाहे जितने बढ़े बनो, या रहो; किन्तु निर्धारित सीमाओं का उल्लंघन मत करो।
* स्वच्छताएं बढ़ाना। शुचिता के लिए, अर्थात् लघुशंका आदि के लिए, जो भी स्थान निर्धारित हों, उन्हीं का उपयोग करना। यदि कोई अन्यथा कर रहा हो तो उसे सदभावनापूर्वक समझाना।
* आग्रह मत करो। अपना विचार या प्रस्ताव जो भी हो उसे मजबूती से प्रस्तुत करो। आग्रह, विशेषत: दुराग्रह की आंच सत्य को मुरझा देती है।
* किसी भी वर्णन या घटना को अतिरंजित न करना। जब भी, जहां भी, जिस किसी से, जो भी बात कहें उसे ज्यों का त्यों कहें; बड़ा-चढ़ा कर कहने से भ्रान्ति या गलतफहमी संभव है। यदि ऐसी कोई स्थिति बने तो उससे स्वयं को निर्लिप्त रखना और संबंधित व्यक्ति को गलतफहमी में उलझने से यथाशक्ति बचाना।
* उपदेश मत दो। जो चाहते हो उसे अपना जीवन-संदेश बनाओ। उसे जी कर दिखाओ। उसे अपने आचरण में प्रकट करो।
* बर्गर किसी प्रयोजन के पेड़-पौधे न उखाड़ना, वृक्षों के पत्ते, उनकी टहनियों आदि न तोड़ना। ध्यान में रखना कि वनस्पति देश की बहुमूल्य संपदा है; उसकी रक्षा करना हर देशवासी का कर्तव्य है।
* किसी के भी साथ विश्वासघात न करना। मनुष्य, पशु-पक्षी, या अन्य कोइ्र जीवधारी हो, उसके साथ कोई धोखाधड़ी या छल-फरेब न करना। न खुद को और न ही दूसरों को धोखा देना। स्वयं की असली/सही ताकत को पहचानना और उसे विश्व को ऊँचा उठाने में लगाना।
* जो अकर्मण्य हों उन्हें कर्मण्य बनाने की कोशिक करना। यदि संभव हो तो यथाशक्ति उस कारण को दूर करना जिसकी वजह से संबंधित व्यक्ति निष्क्रिय हुआ हो। स्वयं पुरुषार्थ करना तथा अन्यों को रचनात्मक पुरुषार्थ के लिए प्रेरित/उत्साहित करना।
* यदि कोई व्यक्ति किसी वस्तु को भूल गया हो, या किसी व्यक्ति की कोई वस्तु (महत्त्वपूर्ण दस्तावेज, धन, पर्स, पेन, चाबी इत्यादि) मिले तो उसे प्रयत्नपूर्वक उस व्यक्ति तक पहुंचाना। ऐसा करते हुए लोभ लालच से बचना।