अर्हदाचार्येषु बहुश्रुतेषु प्रवचने च भावविशुद्धियुक्तोऽनुरागो भक्ति:।।१०।।
अरिहंत, आचार्य, बहुश्रुत और प्रवचन इनमें भाव विशुद्धिपूर्वक अनुराग का होना भक्ति है। यहाँ पर अरिहंत भक्ति से प्रयोजन है अत: चौंतीस अतिशय, आठ प्रातिहार्य और चार अनंत चतुष्टय से सहित तथा अठारह दोषों से रहित वीतराग, सर्वज्ञ, हितोपदेशी जिनेन्द्र भगवान की भक्ति करना अरिहंत भक्ति है।
मेढ़क भक्ति से फूल की पाँखुड़ी लेकर भगवान के दर्शन को चला, राजा श्रेणिक के हाथी के नीचे दबकर, मरकर तत्क्षण ही देव हो गया। मनोवति ने दर्शन प्रतिज्ञा ली थी तब देवों ने वन में पृथ्वी के नीचे मंदिर बनाकर उसकी प्रतिज्ञा पूरी की। वादिराज मुनिराज ने एकीभावस्तोत्र की रचना के बल से शरीर का कुष्ठ नष्ट कर दिया, मानतुंग के ४८ ताले टूट गये। पूज्यपाद स्वामी ने शांतिभक्ति के प्रसाद से नेत्र ज्योति को प्राप्त कर लिया था, ऐसे अनेकों उदाहरण भरे पड़े हैं। जिनबिम्ब की भक्ति भी अरिहंत भक्ति है, क्योंकि जिनबिम्ब दर्शन से भी सम्यक्त्व प्रगट हो सकता है। धवला व राजवार्तिक आदि ग्रंथों में ‘जिन-बिम्ब दर्शन’ और ‘जिन महिमादर्शन’ को सम्यक्त्व की उत्पत्ति में कारण बतलाया है।
पद्मपुराण में कहा है कि-‘जो मनुष्य जिनमंदिर बनवाता है उसके भोगोत्सव का वर्णन कौन कर सकता है ? जो मनुष्य जिनप्रतिमा का निर्माण कराता है वह शीघ्र ही परमपद को प्राप्त कर लेता है। तीनों कालों और तीनों लोकों में व्रत, ज्ञान, तप और दान के द्वारा मनुष्य के जो पुण्य का संचय होता है वह भावपूर्वक एक प्रतिमा के बनवाने की बराबरी नहीं सकता । इस ग्रंथ में बतलाया है कि ‘जो जिनप्रतिमा के दर्शन की भावना करता है वह बेला के उपवास के फल को, उद्यम करने से तेला के उपवास को, ऐसे क्रम से मंदिर के द्वार में प्रवेश करने से वर्षोपवास के फल को एवं क्रम से जिन स्तुति से अनंत उपवास के फल को प्राप्त होता है।’ इस प्रकार से अरिहंत देव की भक्ति में सतत तत्पर रहना तीर्थंकर प्रकृति के बंध का कारण है ।
राजगृह नगर में एक नागदत्त सेठ रहता था। उसकी स्त्री का नाम भवदत्ता था। जब सेठ मरणासन्न स्थिति में था तब उसका अपनी पत्नी के प्रति ममत्व भाव बहुत ही था, वह अपनी पत्नी में मोह करता हुआ आर्तध्यान में मर गया और घर की बावड़ी में ही मेढ़क हो गया। जब भवदत्ता बावड़ी पर जल भरने आती तब यह मेढक उछल कर उसके ऊपर आ जाता जिससे वह घबरा कर भागती । ऐसे कई दिन निकल गये तब उसने एक अवधिज्ञानी मुनि के पास जाकर उन्हें नमस्कार कर इस मेढक को अपने ऊपर उछल-उछल कर आने का कारण पूछा, मुनिराज ने कहा-
‘‘भद्रे ! यह तुम्हारे पति नागदत्त का जीव ही मेढक हो गया है।’’ सेठानी को बहुत ही आश्चर्य हुआ। तब मुनिराज ने कहा-
‘‘पुत्री! इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है, मरते समय उनका तुम्हारे प्रति बहुत ही मोह था अत: वह आर्तध्यान से मरकर तिर्यंच योनि में आ गया है।’’
भवदत्ता ने घर आकर उस मेढक को सारी कथा सुना दी। सुनते ही मेढक को जातिस्मरण हो गया।
‘‘अहो! मैं इस घर का स्वामी, इतना बड़ा धनी, बुद्धिमान सेठ था और आज इस तिर्यंच योनि में तुच्छ मेढक की पर्याय में आ गया हूँ।’’
किन्तु बेचारा अब क्या कर सकता है? अपने कृतकर्मों की निंदा करते हुये, पश्चाताप करते हुए समय यापन कर रहा था। एक दिन राजगृह में वैभार पर्वत पर भगवान महावीर स्वामी का समवसरण आया है सुनकर राजा श्रेणिक बहुत बड़े लवाजमें के साथ भगवान के दर्शन के लिये चल पड़ते हैं। लाखों की संख्या में स्त्री-पुरुष भगवान की वंदना के लिये चले जा रहे हैं। सेठानी भवदत्ता भी दर्शन के लिये चली जाती है। तभी मेढक भी बावड़ी से एक कमल की पाँखुड़ी तोड़कर मुख में दबाकर भगवान महावीर के दर्शन की भावना से चल पड़ता है। वह मार्ग में दकता हुआ चला जा रहा है किन्तु इतनी भीड़ में उसको कहाँ गति है? बेचारा मेढक राजा श्रेणिक के हाथी के पैर तले कुचल जाता है। तत्क्षण ही उसके प्राण निकल जाते हैं और अन्तर्मुहूर्त में वह मेढक का जीव देव पर्याय में जन्म ले लेता है। वहां पर अपने अवधिज्ञान से जान लेता है कि मेढक की पर्याय से छूटकर यहाँ देव योनि में आ गया हूँ, साथ ही उसे यह भी बोध हो जाता है कि पत्नी के मोह में मरकर मैं मेढक हो गया था और भगवान की भक्ति-वंदना की भावना मात्र से मरकर इतने महान् देवों के वैभव को प्राप्त करने वाला देव हो गया हूँ तो जो प्रत्यक्ष में भगवान की भक्ति करते हैं भला उन्हें कितना पुण्य मिलता होगा? सचमुच में जिनेन्द्र देव की पूजा कल्पवृक्ष से अधिक उत्तमोत्तम फल देने वाली है।
ऐसा सोचकर वह तत्क्षण ही भगवान् महावीर के दर्शन के लिये समवसरण में आ गया। भगवान को गंधकुटी में विराजमान देखकर भक्ति विभोर हो गद्गद वाणी से स्तुति करते हुए नाचने लगा। उस समय उसने अपने मुकुट में मेढक का चिन्ह बना रखा था। राजा श्रेणिक वहाँ पहुँचकर भगवान की वंदना करके जब एक देव को भक्ति से तन्मय देखते हैं और उसके मुकुट में मेढक का चिन्ह देखते हैं तो कौतुकवश गौतम स्वामी से प्रश्न करते हैं-
‘‘हे भगवन्! यह देव कौन है? और इसके मुकुट में मेढक के चिन्ह का क्या रहस्य है?’’
तभी गौतम स्वामी उस मेढक का सारा इतिहास सुना देते हैं। जिससे सभा में बैठे हुये असंख्य देवगण तथा सभी राजा-महाराजा आदि मनुष्य लोग ‘‘जिनपूजा’’ के माहात्म्य को प्रत्यक्ष में देखकर बहुत ही प्रभावित होते हैं। कितने ही भव्य लोग नित्यप्रति ‘देवपूजा’ करने का नियम लेकर अपने मनुष्य भव को सफल बना लेते हैं। यह है अरिहंत देव की भक्ति का अचिन्त्य फल । सच है जब अरिहंत भक्ति अपने भक्त को साक्षात् तीर्थंकर अर्हन्त बना देती है तब उससे भला अन्य और वस्तु क्या दुर्लभ हैं अर्थात् सब कुछ सुलभ है ।
श्री अरिहंतदेव की भक्ति से बड़े-बड़े संकट टल जाते हैं और अकालमृत्यु तक दूर हो जाती है ।
किसी समय पोदनपुर के राजा श्रीविजय राजसिंहासन पर विराजमान थे कि अकस्मात् एक पुरुष आकर बोला कि हे राजन्! आज से सातवें दिन पोदनपुर के राजा के मस्तक पर महावज्र गिरेगा अत: शीघ्र ही उसके प्रतीकार का विचार कीजिये। उसी समय कुपित होकर युवराज बोले कि तू सर्वज्ञ है तो बता उस दिन तेरे मस्तक पर क्या पड़ेगा? उस व्यक्ति ने कहा कि मेरे मस्तक पर अभिषेक के साथ रत्नवृष्टि पड़ेगी। उसके अभिमानपूर्ण वचन से राजा को आश्चर्य हुआ। उसे आसन पर बिठाकर उसका परिचय आदि पूछा तब उसने बताया कि मैंने दिगम्बर मुनि के पास निमित्तज्ञान सीखा है। आज कुछ निमित्तों का फल जानकर मैंने सही बात बताई है। तब सभी ने उसको विदा करके चिंतित होकर राजा की सुरक्षा का विचार प्रारंभ किया। किसी ने कहा कि लोहे के संदूक में बंद कर समुद्र में रख दो, किसी ने कहा कि विजयार्ध की गुफा में छिपा दो आदि। इस पर मतिसागर नाम के बुद्धिमान मंत्री ने कहा कि निमित्तज्ञानी ने पोदनपुर नरेश के मस्तक पर वङ्कापात की बात कही है तो मेरी समझ में ऐसा उपाय करो कि जिससे हर तरफ से लाभ हो। देखो! महाराज श्रीविजय सात दिन के लिये राज्य का त्याग कर मंदिर में धर्मध्यान करें, यदि जीवित रहे तो पुन: राज्य करेंगे, यदि मरण होगा तो समाधि से मरकर स्वर्ग प्राप्त करेंगे। यह बात राजा को और सभी मंत्री वर्गों को जंच गई ।
अनंतर मंत्रियों ने एक यक्ष की प्रतिमा को राज्यसिंहासन पर स्थापित कर ‘आप पोदनपुर के राजा है’ ऐसा कहकर उसकी पूजा की। इधर राजा ने सर्व भोगादि का त्याग कर दान-पूजन आदि कार्य प्रारंभ कर दिये और जिनचैत्यालय में शांति कार्य करते हुए बैठ गये। सातवें दिन भयंकर शब्द करते हुए महावज्र उस यक्ष की मूर्ति पर गिरा और राजा मंदिर में पूजा पाठ करते हुए इस उपद्रव से बच गया। इस घटना से नगरनिवासीजनों में बहुत ही हर्ष व्याप्त हो गया, सर्वत्र नगाड़े आदि बाजे बजने लगे। राजा श्रीविजय की अकालमृत्यु का योग टल गया, ऐसा समझ कर सभी मंत्रियों ने अरहंत भगवान की भक्ति के साथ शांति पूजा की, महाभिषेक किया और राजा को सिंहासन पर बिठाकर सुवर्ण घड़ों से उनका राज्याभिषेक किया।
पुन: राजा ने उसी समय बड़े हर्ष के साथ निमित्तज्ञानी को बुलाकर उसका सत्कार किया और पद्मिनी-खेट के साथ-साथ सौ गांव उसे दे दिये।उसके बाद बहुत काल तक इन्होंने सुख से राज्य किया। इस श्रीविजय से नवमें भव में ये ही महापुण्यशाली भगवान शातिनाथ के समवसरण में चक्रायुध नाम के गणधर हुये हैं।
यदि ये श्रीविजय महाराज राज्य का त्याग कर धर्म का अनुष्ठान नहीं करते तो अवश्य ही मृत्यु को प्राप्त हो जाते और राज्य में मरकर दुर्गति में ही चले जाते। अत:-
अनंतानंतसंसार संततिच्छेदकारणम्।
जिनराजपदाम्भोजस्मरणं शरणं मम।।
ऐसी भावना करते हुये सदैव अरिहंत देव की भक्ति करते रहना चाहिये ।