(ऋद्धियों की महिमा-मथुरा में महामारी प्रकोप, सप्तऋषि के चातुर्मास से कष्ट निवारण)
राजा मधुसुन्दर का वह दिव्य शूलरत्न यद्यपि अमोघ था फिर भी शत्रुघ्न के पास वह निष्फल हो गया, उसका तेज छूट गया और वह अपनी विधि से च्युत हो गया। तब वह (उसका अधिष्ठाता देव) खेद, शोक और लज्जा को धारण करता हुआ अपने स्वामी असुरों के अधिपति चमरेन्द्र के पास गया। शूलरत्न के द्वारा मधु के मरण का समाचार सुनकर चमरेन्द्र को बहुत ही दुःख हुआ। वह बार-बार मधु के सौहार्द का स्मरण करने लगा। तदनंतर वह पाताल लोक से निकलकर मथुरा जाने को उद्यत हुआ। तभी गरुड़कुमार देवों के स्वामी वेणुधारी इन्द्र ने इसे रोकने का प्रयास किया, किन्तु यह नहीं माना और मथुरा में पहुँच गया। वहाँ चरमेन्द्र ने देखा कि मथुरा की प्रजा शत्रुघ्न के आदेश से बहुत बड़ा उत्सव मना रही है तब वह विचार करने लगा- ‘‘ये मथुरा के लोग कितने कृतघ्न हैं कि जो दुःख-शोक के अवसर पर भी हर्ष मना रहे हैं। जिसने हमारे स्नेही राजा मधु को मारा है मैं उसके निवास स्वरूप इस समस्त देश को नष्ट कर दूँगा।’’ इत्यादि प्रकार से क्रोध से प्रेरित हो उस चमरेन्द्र ने मथुरा के लोगों पर दुःसह उपसर्ग करना प्रारंभ कर दिया। जो जिस स्थान पर सोये थे, बैठे थे वे महारोग (महामारी) के प्रकोप से दीर्घ निद्रा को प्राप्त हो गये-मरने लगे। इस महामारी उपसर्ग को देखकर कुल देवता की प्रेरणा से राजा शत्रुघ्न अपनी सेना के साथ अयोध्या वापस आ गये। विजय को प्राप्त कर आते हुए शूरवीर शत्रुघ्न का श्रीराम-लक्ष्मण ने हर्षित हो अभिनंदन किया। माता सुप्रभा ने भी अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार सुवर्ण के कमलों से जिनेन्द्रदेव की महती पूजा सम्पन्न करके धर्मात्माओं को दान दिया। पुनः दीन-दुःखी जनों को करुणादान देकर सुखी किया। यद्यपि वह अयोध्या नगरी सुवर्ण के महलों से सहित थी फिर भी पूर्वभवों के संस्कारवश शत्रुघ्न का मन मथुरा में ही लगा हुआ था। इधर मथुरा नगरी के उद्यान में गगनगामी ऋद्धिधारी सात दिगम्बर महामुनियों ने वर्षायोग धारण कर लिया-चातुर्मास स्थापित कर लिया। इनके नाम थे-सुरमन्यु, श्रीमन्यु, श्रीनिचय, सर्वसुन्दर, जयवान, विनयलालस और जयमित्र। प्रभापुर नगर के राजा श्रीनंदन की धारिणी रानी के ये सातों पुत्र थे। प्रीतिंकर मुनिराज को केवलज्ञान प्राप्त हो जाने पर देवों को जाते हुए देखकर प्रतिबोध को प्राप्त हुए थे। उस समय राजा श्रीनंदन ने अपने एक माह के पुत्र को राज्य देकर अपने सातों पुत्रों के साथ प्रीतिंकर भगवान के समीप दीक्षा ग्रहण कर ली थी। समय पाकर श्रीनंदन ने केवलज्ञान प्राप्त कर मोक्ष प्राप्त कर लिया था और ये सातों मुनि तपस्या के प्रभाव से अनेक ऋद्धियों को प्राप्त कर सातऋषि (सप्तर्षि) के नाम से प्रसिद्ध हो रहे थे। उद्यान में वटवृक्ष के नीचे ये सातों मुनि चातुर्मास में स्थित हो गये थे। इन मुनियों के तपश्चरण के प्रभाव से उस समय मथुरा में चमरेन्द्र के द्वारा फैलायी गयी महामारी एकदम नष्ट हो गई थी। वहाँ नगरी में चारों तरफ के वृक्ष फलों के भार से लद गये थे और खेती भी खूब अच्छी हो रही थी। ये मुनिराज रस-परित्याग, बेला, तेला आदि तपश्चरण करते हुए महातप कर रहे थे। कभी-कभी ये आहार के समय आकाश को लांघकर निमिषमात्र में विजयपुर, पोदनपुर आदि दूर-दूर नगरों में जाकर आहार ग्रहण करते थे। वे महामुनिराज परगृह में अपने करपात्र में केवल शरीर की स्थिति के लिए आहार लेते थे। एक दिन ये सातों ही महाऋषिराज जूड़ाप्रमाण (चार हाथ प्रमाण) भूमि को देखते हुए अयोध्या नगरी में प्रविष्ट हुए। वे विधिपूर्वक भ्रमण करते हुए अर्हद्दत्त सेठ के घर के दरवाजे पर पहुँचे। उन मुनियों को देखकर अर्हद्दत्त सेठ विचार करने लगा- ‘‘यह वर्षाकाल कहाँ ? और इन मुनियों की यह चर्या कहाँ ? इस नगरी के आस-पास पर्वत की कंदराओं में, नदी के तट पर, वृक्ष के नीचे, शून्य घर में, जिनमंदिर में तथा अन्य स्थानों में जहाँ कहीं जो भी मुनिराज स्थित हैं वे सब वर्षायोग पूरा किये बिना इधर-उधर नहीं जाते हैं। परन्तु ये मुनि आगम के विपरीत चर्या वाले हैं, ज्ञान से रहित और आचार्यों से रहित हैं। इसलिए ये इस समय यहाँ आ गये हैंं। यद्यपि ये मुनि असमय में आये थे फिर भी अर्हद्दत्त के अभिप्राय को समझने वाली वधू ने उनका पड़गाहन करके उन्हें आहारदान दिया। आहार के बाद ये सातों मुनि तीन लोक को आनंदित करने वाले ऐसे जिनमंदिर में पहुँचे जहाँ भगवान् मुनिसुव्रतनाथ की प्रतिमा विराजमान थी और शुद्ध निर्दोष प्रवृत्ति करने वाले दिगम्बर साधुगण भी विराजमान थे। ये सातों मुनिराज पृथ्वी से चार अंगुल ऊपर चल रहे थे। ऐसे इन मुनियों को वहाँ पर स्थित द्युति भट्टारक-द्युति नाम के आचार्य देव ने देखा। इन मुनियों ने उत्तम श्रद्धा से पैदल चलकर ही जिनमंदिर में प्रवेश किया तब द्युति भट्टारक ने खड़े होकर नमस्कार कर विधि से उनकी पूजा की। ‘‘यह हमारे आचार्य चाहे जिसकी वंदना करने के लिए उद्यत हो जाते हैं।’’ ऐसा सोचकर उन द्युति आचार्य के शिष्यों ने उन सप्तर्षियों की निंदा का विचार किया। तदनंतर सम्यक् प्रकार से स्तुति करने में तत्पर वे सप्तर्षि मुनिराज जिनेन्द्र भगवान् की वंदना कर आकाशमार्ग से पुनः अपने स्थान पर चले गये। जब वे आकाश में उड़े तब उन्हें चारण ऋद्धि के धारक जानकर द्युति आचार्य के शिष्य जो अन्य मुनि थे उन्होंने अपनी निंदा, गर्हा आदि करके प्रायश्चित्त कर अपनी कलुषता दूर कर अपना हृदय निर्मल कर लिया। इसी बीच में अर्हद्दत्त सेठ जिनमंदिर में आये तब द्युति आचार्य ने कहा- ‘‘हे भद्र! आज तुमने ऋद्धिधारी महान् मुनियों के दर्शन किये होंगे। वे सर्वजग वंदित महातपस्वी मुनि मथुरा में निवास करते हैं आज मैंने उनके साथ वार्तालाप किया है। उन आकाशगामी ऋषियों के दर्शन से आज तुमने भी अपना जीवन धन्य किया होगा।’’ इन आचार्यदेव के मुख से उन साधुओं की प्रशंसा सुनते ही सेठ अर्हद्दत्त खेदखिन्न होकर पश्चात्ताप करने लगा- ‘‘ओह! यथार्थ को नहीं समझने वाले मुझ मिथ्यादृष्टि को धिक्कार हो, मेरा आचरण अनुचित था, मेरे समान दूसरा अधार्मिक भला और कौन होगा ? इस समय मुझसे बढ़कर दूसरा मिथ्यादृष्टि अन्य कौन होगा ? हाय! मैंने उठकर मुनियों की पूजा नहीं की तथा नवधाभक्ति से उन्हें आहार भी नहीं दिया। साधुरूपं समालोक्य न मुंचत्यासनं तु यः। दृष्ट्वाऽपमन्यते यश्च स मिथ्यादृष्टिरुच्यते।। दिगम्बर मुनियों को देखकर जो अपना आसन नहीं छोड़ता है-उठकर खड़ा नहीं होता है तथा देखकर भी उनका अपमान करता है वह मिथ्यादृष्टि कहलाता है। मैं पापी हूँ, पाप कर्मा हूँ, पापात्मा हूँ, पाप का पात्र हूँ अथवा जिनागम की श्रद्धा से दूर निंद्यतम हूँ। जब तक मैं हाथ जोड़कर उन मुनियों की वंदना नहीं कर लूँगा तब तक मेरा शरीर एवं हृदय झुलसता ही रहेगा। अहंकार से उत्पन्न हुए इस पाप का प्रायश्चित्त उन मुनियों की वंदना के सिवाय और कुछ भी नहीं हो सकता है।’’ (इस कथा से यह स्पष्ट हो जाता है कि आकाशगामी मुनि चातुर्मास में भी अन्यत्र जाकर आहार ग्रहण करके आ जाते थे।) शत्रुघ्न के लिए महामुनि का उपदेश मथुरा नगरी में इन मुनियों के चातुर्मास करने से चमरेन्द्र द्वारा किये गये सारे उपद्रव-महामारी आदि नष्ट हो गये थे। नगर में पुनः पूर्ण शांति का वातावरण हो गया था। इधर अयोध्या से अर्हद्दत्त सेठ महान वैभव के साथ कार्तिक शुक्ला सप्तमी के दिन उन ऋषियों की वंदना करने के लिए पहुँच गये थे। राजा शत्रुघ्न भी इन मुनियों का उपदेश श्रवणकर भक्ति से प्रेरित हुए मथुरा के उद्यान में आ गये थे और उनकी माता सुप्रभा भी विशाल वैभव और धन आदि को लेकर इन मुनियों की पूजा करने के लिए आ गई। उन सम्यग्दृष्टि महापुरुषों ने और सुप्रभा आदि रानियों ने मुनिराज की महान पूजा की। उस समय वहाँ वह उद्यान और मुनियों के आश्रम का स्थान प्याऊ, नाटकशाला, संगीतशाला आदि से सुशोभित हुआ स्वर्गप्रदेश के समान मनोहर हो गया था। अनन्तर भक्ति एवं हर्ष से भरे हुए शत्रुघ्न ने वर्षायोग को समाप्त करने वाले उन मुनियों को पुनः पुनः नमस्कार करके उनसे आहार ग्रहण करने के लिए प्रार्थना की तब इन सातों में जो प्रमुख थे, वे ‘‘सुरमन्यु’’ महामुनि बोले- ‘‘हे नर श्रेष्ठ! जो आहार मुनियों के लिए संकल्प कर बनाया जाता है दिगम्बर मुनिराज उसे ग्रहण नहीं करते हैं। जो आहार न स्वयं किया गया है न कराया गया है और जिसमें न बनाते हुए को अनुमति दी गई है ऐसे नवकोटि विशुद्ध आहार को ही साधुगण ग्रहण करते हैं।’’ पुनः शत्रुघ्न ने निवेदन किया- ‘‘हे भगवन् ! आप भक्तों के ऊपर अनुग्रह करने वाले हैं। आप अभी कुछ दिन और यहीं मथुरा में ठहरिये। आपके प्रभाव से ही यहाँ महामारी की शांति हुई है….।’’ पुनः शत्रुघ्न चिंता करने लगा- ‘‘ऐसे महामुनियों को विधिवत् आहार दान देकर मैं कब संतुष्ट होऊँगा?’’ शत्रुघ्न को नतमस्तक देखकर उन मुनिराज ने पुनः आगे आने वाले काल का वर्णन करते हुए उपदेश दिया- ‘‘हे राजन् ! जब अनुक्रम से तीर्थंकरों का काल व्यतीत हो जायेगा-पंचम काल आ जाएगा तब यहाँ धर्म कर्म से रहित अत्यन्त भयंकर समय आ जाएगा। दुष्ट पाखण्डी लोगों द्वारा यह परम पावन जैन शासन उस तरह तिरोहित हो जायेगा कि जिस तरह धूलि के छोटे-छोटे कणों द्वारा सूर्य का बिम्ब ढक जाता है। यह संसार चोरों के समान कुकर्मी, क्रर, दुष्ट, पाखण्डी लोगों से व्याप्त होगा। पुत्र, माता-पिता के प्रति और माता-पिता पुत्रों के प्रति स्नेह रहित होंगे। उस कलिकाल में राजा लोग चोरों के समान धन के अपहर्ता होंगे। कितने ही मनुष्य यद्यपि सुखी होंगे फिर भी उनके मन में पाप होगा, वे दुर्गति में ले जाने वाली ऐसी विकथाओं से एक-दूसरे को मोहित करते हुए प्रवृत्ति करेंगे। हे शत्रुघ्न! कषाय बहुल समय के आने पर देवागमन आदि समस्त अतिशय नष्ट हो जायेंगे। तीव्र मिथ्यात्व से युक्त मनुष्य व्रतरूप गुणों से सहित एवं दिगम्बर मुद्रा के धारक मुनियों को देखकर ग्लानि करेंगे। अप्रशस्त को प्रशस्त मानते हुए कितने ही दुर्बुद्धि लोग भय पक्ष में उस तरह जा पड़ेंगे जिस तरह के पतंगे अग्नि में जा पड़ते हैं। कितने ही मूढ़ मनुष्य हंसी करते हुए शान्तचित्त मुनियों को तिरस्कृत करके मूढ़ मनुष्यों को आहार देवेंगे। जिस प्रकार शिलातल पर रखा हुआ बीज यद्यपि सदा सींचा जाय तो भी उसमें फल नहीं लग सकता है वैसे ही शील रहित मनुष्यों के लिए दिया हुआ दान भी निरर्थक होता है। ‘जो गृहस्थ मुनियों की अवज्ञा कर गृहस्थ के लिए आहार देते हैं वे मूर्ख चंदन को छोड़कर बहेड़ा ग्रहण करते१ हैं। हे शत्रुघ्न! इस प्रकार दुषमता के कारण निकृष्ट काल को आने वाला जानकर तुम आत्मा के लिए हितकर शुभ और स्थायी ऐसा कार्य करो। तुम नामी पुरुष हो अतः निग्र्रन्थ मुनियों को आहार देने का निश्चय करो यही तुम्हारी धन-संपदा का सार है। हे राजन् ! आगे आने वाले काल में थके हुए मुनियों के लिए आहार देना अपने गृहदान के समान एक बड़ा भारी आश्रय होगा। इसलिए हे वत्स! तुम ये दान देकर इस समय गृहस्थ के शीलव्रत का नियम धारण करो और जीवन को सार्थक बनाओ। मथुरा के समस्त लोग समीचीन धर्म को धारण करें। दया और वात्सल्य भाव से सम्पन्न तथा जिनशासन की भावना से युक्त होवें। घर-घर में जिनप्रतिमाएं स्थापित की जावें, उनकी पूजाएं हों, अभिषेक हों और विधिपूर्वक प्रजा का पालन किया जाये।
सप्तर्षि प्रतिमा दिक्षु चतसृष्वपि यत्नतः।
नगर्यां कुरू शत्रुघ्न! तेन शांतिर्भविष्यति।।७४।।
अद्यप्रभृति यद्गेहे जैनं बिबं न विद्यते।
मारी भक्ष्यति यद्व्याघ्री यथाऽनाथं कुरंगवंâ१।। ७५।।
हे शत्रुघ्न! इस नगरी की चारों दिशाओं में सप्तर्षियों की प्रतिमाएं स्थापित करो, उसी से सब प्रकार की शांति होगी। आज से लेकर जिस घर में जिनप्रतिमा नहीं होगी उस घर को महामारी उसी तरह खा जायेगी कि जिस तरह व्याघ्री अनाथ मृग को खा जाती है।१ जिसके घर में अंगूठा प्रमाण भी जिनप्रतिमा होगी उसके घर में गरुड़ से डरी हुई सर्पिणी के समान महामारी का प्रवेश नहीं होगा।’’ महामुनि के इस उपदेश को सुनकर हर्ष से युक्त हो राजा शत्रुघ्न ने कहा- ‘‘आपने जैसी आज्ञा दी है वैसा ही हम लोग करेंगे’’ इत्यादि। इसके बाद वे महामना सातों मुनि आकाश में उड़कर विहार कर गये। वे सप्तर्षि निर्वाण क्षेत्रों की वंदना करके अयोध्या में सीता के घर उतरे। अत्यधिक हर्ष को धारण करने वाली एवं श्रद्धा आदि गुणों से सुशोभित सीता ने उन्हें विधिपूर्वक उत्तम आहार दिया। जानकी के नवधाभक्ति से दिये गये सर्वगुणसम्पन्न आहार को ग्रहण कर उसे शुभाशीर्वाद देकर वे मुनि आकाश मार्ग से चले गये। अनन्तर शत्रुघ्न ने नगर के भीतर और बाहर सर्वत्र जिनेंद्र भगवान की प्रतिमाएं विराजमान करायीं तथा ईतियों को दूर करने वाली सप्तर्षियों की प्रतिमाएं भी चारों दिशाओं में विराजमान करायीं। उस समय वहाँ पर सर्वप्रकार से सुभिक्ष, क्षेम और शांति का साम्राज्य हो गया। तब राजा शत्रुघ्न निर्विघ्नरूप से राज्य का संचालन करते हुए और प्रजा का पुत्रवत् पालन करते हुए सुखपूर्वक मथुरा नगरी में रहने लगे।