मेघ के समान दुंदुभि का शब्द सुनकर लक्ष्मण विराधित से पूछते हैं- ‘‘कहो, यह किसका शब्द है?’’ विराधित कहता है- ‘‘हे देव! वानर वंशियों का स्वामी सुग्रीव आपके पास आया हुआ है यह उसी की सेना का शब्द है।’’ इसी वार्तालाप के मध्य सुग्रीव राजभवन में प्रवेश करता है। लक्ष्मण आदि उसका आलिंगन कर अमृततुल्य वाणी से परस्पर वार्तालाप करते हैंं तदनन्तर एक वृद्ध सज्जन रामचन्द्र से सुग्रीव का परिचय देते हुए कहते हैं- ‘‘हे नाथ! यह किष्किन्ध नगर का राजा सुग्रीव है। एक समय कोई दुष्ट मायावी विद्याधर इसी जैसा रूप बनाकर इसके अन्तःपुर में घुस आया। उस समय उसकी रानी सुतारा उसे कृत्रिम समझकर भयभीत हो अपने परिजनों से कहती है कि यद्यपि इसका रूपरंग सभी मेरे पति के सदृश है फिर भी जैसे चिह्न, व्यंजन आदि मेरे पति के हाथ आदि में हैं वैसे इसके नहीं हैं। इसी बीच सत्य सुग्रीव भी वहाँ आ जाता है। वह अपने जैसे रूपधारी को देख गर्जना करके उसे पराजित करना चाहता है कि वह भी गर्जना करने लगता है किन्तु युद्ध में सत्य सुग्रीव ही कहीं न मारा जाय इस कारण युद्ध रोक दिया जाता है। इस समस्या में मंत्री आदि लोग संदिग्ध होकर मंत्रणा करके यह निर्णय करते हैं कि ‘लोक में गोत्र की शुद्धि दुर्लभ है अतः उसकी रक्षा करना अपना कर्तव्य है।’’ इसलिए वे लोग नगर के दक्षिण भाग में कृत्रिम सुग्रीव को और उत्तर भाग में सत्य सुग्रीव को स्थापित कर देते हैं। सात सौ अक्षौहिणी प्रमाण आधी सेना और अंग पुत्र पिता की आशंका से कृत्रिम सुग्रीव के पास चला जाता है और आधी सेना के साथ अंगद पुत्र अपने पिता के पास चला जाता है। सुग्रीव के बड़े भाई बालि ने दीक्षा ले ली थी। उनका पुत्र चन्द्ररश्मि यह आदेश दे देता है कि सही निर्णय होने तक दोनों सुग्रीव में से जो भी सुतारा के भवन की ओर आयेगा वह मेरे द्वारा बाध्य होगा। इस संकट में पड़े हुए सुग्रीव का संकट हनुमान आदि भी दूर नहीं कर सके हैं अब यह आपकी शरण में आया है सो आप ही इसके दुःख को दूर करने में समर्थ हैं। इतना सुनकर रामचन्द्र मन में सोचते हैं- ‘‘ओह! यह तो मुझ से भी अधिक दुःखी है, अहो! इसका शत्रु तो प्रत्यक्ष में ही इसे बाधा पहुँचा रहा है।’’ पुनः रामचन्द्र और लक्ष्मण विराधित आदि के साथ मंत्रणा करके सुग्रीव को आश्वासन देते हुए कहते हैं-‘‘भद्र! मैं तुम्हारे शत्रु को मारकर तुम्हारी प्रिया और राज्य को वापस दिला दूँगा। बाद में यदि तुम मेरी प्राणाधिका प्रिया का पता लगा सको तो उत्तम बात है।’’ सुग्रीव कहता है- ‘‘नाथ! यदि मैं सात दिन के अंदर सीता का पता न लगा दूँ तो मैं अग्नि में प्रवेश कर जाऊँगा।’ राम और सुग्रीव जिनालय में जिनधर्मानुसार शपथ ग्रहण करते हैं कि ‘‘हम दोनों परस्पर में द्रोह रहित एक-दूसरे के मित्र हैं।’’ पुनः महासामंतों से सेवित राम-लक्ष्मण सुग्रीव के साथ किष्किन्धापुर चल देते हैं। वहाँ पर पहुँचकर दोनों सुग्रीव का युद्ध शुरू हो जाता है। एक बार तो राम भी संशय में पड़ जाते हैं कि वास्तव में सुग्रीव कौन है? और मायावी कौन है? युद्ध में सुग्रीव को मायावी सुग्रीव पराजित कर देता है वह मूर्च्छित हो जाता है तब लोग उसे शिविर में ले आते हैं। होश आने पर वह रामचन्द्र से कहता है- ‘‘नाथ! आपने हाथ में आए हुए शत्रु को कैसे छोड़ दिया? ओहो!! मालूम पड़ता है कि मेरे दुःखों का अंत अब नहीं होगा।’’ रामचन्द्र कहते हैं- ‘‘भद्र! कहीं तेरा ही वध न हो जाये इसलिए मैं आज तटस्थ रहा हूँ। चूँकि जिनागम का उच्चारण कर तू मेरा मित्र बना है।’’ पुनः द्वितीय दिवस लक्ष्मण वास्तविक सुग्रीव का आलिंगन कर युद्ध में जाने से उसे रोक लेते हैंं उधर रामचन्द्र कृत्रिम सुग्रीव का सामना करते हैंं उस समय रामचन्द्र को बलभद्र समझ वैताली विद्या उस मायावी के शरीर से निकलकर भाग जाती है और वह अपने असली रूप में दिखने लगता है। सारे विद्याधर चिल्ला उठते हैं- ‘अरे, अरे! यह साहसगति नाम का विद्याधर है जो कि माया से सुग्रीव बना हुआ था। इसी बीच रामचन्द्र उसके साथ घोर युद्ध कर अन्त में उसे पृथ्वी का आलिंगन करा देते हैं। साहसगति को मरा हुआ सुनकर सुग्रीव हर्ष से विभोर हो लक्ष्मण सहित राम की पूजा करता है और अपनी सुतारा को तथा राज्य को पाकर कृतकृत्य हो जाता है। रामचन्द्र चन्द्रप्रभ जिनालय में जाकर भगवान की पूजा भक्ति कर वहीं ठहर जाते हैं और विराधित आदि विद्याधर उस चैत्यालय के बाहर ही अपनी सेना ठहरा लेते हैं।अनंतर सुग्रीव अपनी चंद्रा, हृदयावली आदि तेरह पुत्रियाँ राम को समर्पित करते हैं। वे कन्यायें वीणा वादन, मधुर गान आदि से राम को सुखी करना चाहती हैं किन्तु रामचन्द्र सीता के स्थान के सिवाय किसी की तरफ आँख उठाकर देखते भी नहीं हैं। यदि कदाचित् किसी से बोलते भी हैं तो सीता समझकर ही बोलते हैं। एक समय रामचन्द्र उद्विग्न चित्त हो सोच रहे हैं- ‘‘क्या सुग्रीव को भी सीता का पता नहीं लगा? क्या वह मृत्यु को प्राप्त हो गई है या जीवित है? अहो, देखो सुग्रीव अपनी पत्नी में आसक्त हो मेरे दुःख को भूल गया है। …….ओह!! ….. अब मुझे वह मेरी प्रिया मिलेगी या नहीं ?….’’ सोचते-सोचते उनकी आँखें सजल हो जाती हैंऔर शरीर शिथिल हो जाता है। उस समय लक्ष्मण अग्रज के अभिप्राय को समझकर क्षुभित चित्त हो नंगी तलवार हाथ में ले कर सुग्रीव के भवन में पहुँच जाते हैं और बोलते हैं- ‘‘अरे पापी, दुर्बुद्धिधर! मूढ़! जबकि परमेश्वर रामचन्द्र स्त्री दुःख में निमग्न हैं तब तू स्त्री के साथ सुखोपभोग क्यों कर रहा है? अरे दुष्ट! नीच विद्याधर! मैं तुझ भोगासक्त को वहीं पहुँचाए देता हूँ जहाँ के स्वामी ने तेरी आकृति के धारक को पहुँचाया है।’’ इस गर्जना को सुनकर घबराया हुआ सुग्रीव लक्ष्मण को नमस्कार करता है और उसकी स्त्रियाँ हाथ में अर्घ ले- लेकर प्रणाम करके लक्ष्मण को शांत करती हैं। लक्ष्मण सुग्रीव को प्रतिज्ञा का स्मरण कराते हैं और सुग्रीव पश्चात्तापपूर्वक क्षमायाचना करके राम के समीप आकर नमस्कार करके अपने सामंतों को व किन्नरों को बुलाकर सर्वत्र भेज देता है और भामंडल को भी समाचार भिजवाकर स्वयं ही वह विमान में बैठकर सीता की खोज के लिए निकल पड़ता है। आकाश में भ्रमण करते हुए सुग्रीव को एक पर्वत पर ध्वजा दिखती है। वहाँ पहुँचकर वह रत्नजटी नाम के विद्याधर से मिलता है और उसे विमान में बिठाकर ले आता है। रत्नजटी राम के पास आकर नमस्कार कर निवेदन करता है- ‘‘प्रभो! आपकी सीता का अपहरण दुष्ट रावण ने किया है। वह पुष्पक विमान में बिठाकर ले जा रहा था और मैं उधर से आ रहा था। सीता के करुण क्रंदन से मैंने परिचय पूछकर रावण से उसे छोड़ देने को कहा। जब वह नहीं माना तब मैंने उसका सामना किया। उस समय उस पापी ने मेरी विद्यायें छीनकर मुझे आकाश से नीचे गिरा दिया।’’ सीता का समाचार सुनते ही राम बार-बार उसका आलिंगन कर प्रसन्न होते हैं। पुनः हर्ष-विषाद को प्राप्त हुए राम लोगों से पूछते हैं- ‘‘कहो, लंका यहाँ से कितनी दूर है?’’ लोग कहते हैं- ‘‘नाथ! लवणसमुद्र में एक राक्षसद्वीप है उसमें त्रिकूटाचल पर्वत है उसके शिखर पर लंका नगरी स्थित है।’’ पुनः ये लोग रावण के पराक्रम का वर्णन करते हुए बार-बार यही कहते हैं कि – ‘‘देव! उस रावण से आपका और हम लोगों का यु द्ध सर्वथा विषम है। हम लोग उसे जीतने में सर्वथा असमर्थ हैं।’’ तब लक्ष्मण उन सबकी बातों का अनादर कर कहते हैं-‘‘वह परस्त्रीलंपट महाक्षुद्र नीच है, हम उसे अवश्य ही निर्जीव करेंगेें।’’ तब वे लोग पुनः कहते हैं- ‘‘हे राजन् ! एक बार अनंतवीर्य केवली ने यह बताया था कि जो कोटि शिला को उठायेगा वही रावण का वधकर्ता होगा।’’ इतना सुनते ही राम-लक्ष्मण वहाँ चलने को उद्यत हो जाते हैं। वहाँ पंहुचकर ये लोग गंध पुष्प आदि से उस कोटि शिला की अच्छी तरह पूजा करते हैं। सिद्धों को नमस्कार करके लक्ष्मण उस कोटि शिला को अपनी भुजाओं से हिला देते हैं पुनः उसे भुजाओं से ऊपर तक उठा लेते हैं। आकाश से देवतागण पुष्पों की वृष्टि करते हुए धन्य-धन्य शब्द से दिशाओं को मुखरित कर देते हैं और विद्याधरों के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहता है। अब वे लोग निश्चय कर लेते हैं कि रावण का शत्रु लक्ष्मण ही हो गा। फिर भी आपस में मंत्रणा करते हैं- युद्ध में न जाने कितने जीवों का संहार होगा अतः पहले दूत भेजकर उसके अभिप्राय को जाना जाये और उसे समझाकर सीता को वापस लाकर राम-लक्ष्मण व रावण की परस्पर में संधि करा दी जाये। इस कार्य के लिए पवनञ्जय के पुत्र हनुमान को उपयुक्त समझकर उन्हें वहाँ बुलाया जाता है और रामचन्द्र उसे अपनी अँगूठी देकर सीता की खबर लाने के लिए उसे तरह-तरह से समझाकर भेज देते हैं।