सुहदुखसुबहुसस्सं कम्मक्खेत्तं कसेदि जीवस्स।
संसारदूरमेरं तेण कसाओ त्ति णं बेंति।।८८।।
सुखदु:खसुबहुसस्यं कर्मक्षेत्रं कृषति जीवस्य।
संसारदूरमर्यादं तेन कषाय इतीमं ब्रुवन्ति।।८८।।
अर्थ —जीव के सुख-दु:ख आदि रूप अनेक प्रकार के धान्य को उत्पन्न करने वाले तथा जिसकी संसार रूप मर्यादा अत्यंत दूर है ऐेसे कर्मरूपी क्षेत्र (खेत) का यह कर्षण करता है, इसलिये इसको कषाय कहते हैं।
भावार्थ —कृष विलेखने धातु से यह कषाय शब्द बना है जिसका अर्थ जोतना होता है। कषाय यह किसान के स्थानापन्न है। जिस तरह किसान लम्बे चौड़े खेत को इसलिये जोतता है कि उसमें बोया हुआ बीज अधिक से अधिक प्रमाण में उत्पन्न हो उसी तरह कषाय द्रव्यापेक्षया अनाद्यनिधन कर्मरूपी क्षेत्र को जिसकी कि सीमा बहुत दूर तक है इस तरह से जोतता है कि शुभाशुभ फल इसमें अधिक से अधिक उत्पन्न हों।
सम्मत्तदेससयलचरित्तजहक्खादचरणपरिणामे।
घादंति वा कसाया, चउसोल असंखलोगमिदा।।८९।।
सम्यक्त्वदेशसकलचरित्रयथाख्यातचरणपरिणामान्।
घातयन्ति वा कषाया: चतु:षोडशासंख्यलोकमिता:।।८९।।
अर्थ —सम्यक्त्व, देशचारित्र, सकलचारित्र, यथाख्यातचारित्ररूपी परिणामों को जो कषे—घाते, न होने दे उसको कषाय कहते हैं। इसके अनंतानुबंधी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण एवं संज्वलन इस प्रकार चार भेद हैं। अनंतानुबंधी आदि चारों के क्रोध, मान, माया, लोभकषाय इस तरह चार-चार भेद होने से कषाय के उत्तर भेद सोलह होते हैं किन्तु कषाय के उदयस्थानों की अपेक्षा से असंख्यात लोकप्रमाण भेद हैं। (जो सम्यक्त्व को रोके उसको अनंतानुबंधी, जो देशचारित्र को रोके उसको अप्रत्याख्यानावरण, जो सकलचारित्र को रोके उसको प्रत्याख्यानावरण, जो यथाख्यातचारित्र को रोके उसको संज्वलन कषाय कहते हैं।
भावार्थ —हिंसार्थक कष धातु से भी कषाय शब्द निष्पन्न होता है अर्थात् सम्यक्त्वादि विशुद्धात्मपरिणामान् कषति हिनस्ति इति कषाय:। इसके भेद ऊपर लिखे अनुसार होते हैं।
सिलपुढविभेदधूलीजलराइसमाणओ हवे कोहो।
णारयतिरियणरामरगईसु उप्पायओ कमसो।।९०।।
शिलापृथ्वीभेदधूलिजलराजिसमानको भवेत् क्रोध:।
नारकतिर्यग्नरामरगतिषूत्पाद: क्रमश:।।९०।।
अर्थ —क्रोध चार प्रकार का होता है। एक पत्थर की रेखा के समान, दूसरा पृथ्वी की रेखा के समान, तीसरा धूलि रेखा के समान, चौथा जल रेखा के समान। ये चारों प्रकार के क्रोध क्रम से नरक, तिर्यव्, मनुष्य तथा देवगति में उत्पन्न करने वाले हैं।
भावार्थ —ऊपर जो कषाय के अनंतानुबंधी आदि चार भेद बताये हैं वे उसके स्वरूप और विषय को बताते हैं। जिससे उनका जाति भेद और वे आत्मा के किस-किस गुण का घात करते हैं यह मालूम हो जाता है। इस गाथा में सब प्रकार के क्रोधों में से प्रत्येक क्रोध के उसकी शक्ति के तरतम स्थानों की अपेक्षा चार-चार भेद बताये हैं। साथ ही इन तरतम स्थानों के द्वारा बंधने वाले कर्मों और प्राप्त होने वाले संसार फल की विशेषता को भी दिखाया है। शक्ति की अपेक्षा क्रोध के चार भेद इस प्रकार हैं—उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, अजघन्य और जघन्य। इन्हीं चार भेदों को यहाँ पर क्रम से दृष्टांतगर्भित शिला भेद आदि नाम से बताया है। जिस तरह शिला, पृथ्वी, धूलि और जल में की गई रेखा उत्तरोत्तर अल्प-अल्प समय में मिटती है उसी तरह उत्कृष्टादि कषाय स्थानों के विषय में समझना चाहिए तथा वे अपने-अपने योग्य आयु, गति, आनुपूर्वी आदि कर्मों के बंधन की योग्यता रखते हैं।
सेलट्ठिकट्ठवेत्ते, णियभेएणणुहरंतओ माणो।
णारयतिरियणरामरगईसु उप्पायओ कमसो।।९१।।
शैलास्थिकाष्ठवेत्रान् निजभेदेनानुहरन् मान:।
नारकतिर्यग्नरामरगतिषूत्पादक: क्रमश:।।९१।।
अर्थ —मान भी चार प्रकार का होता है। पत्थर के समान, हड्डी के समान, काठ के समान तथा बेंत के समान। ये चार प्रकार के मान भी क्रम से नरक, तिर्यंच, मनुष्य तथा देवगति के उत्पादक हैं।
भावार्थ —जिस प्रकार पत्थर किसी तरह नहीं नमता उसी प्रकार जिसके उदय से जीव किसी भी तरह नम्र न हो उसको शैल समान (पत्थर के समान) मान कहते हैं। ऐसे मान के उदय से नरकगति उत्पन्न होती है। इस ही तरह अस्थि समान (हड्डी के समान) आदिक मान को भी समझना चाहिए।
वेणुवमूलोरब्भयसिगे गोमुत्तए य खोरप्पे।
सरिसी माया णारयतिरियणरामरगईसु खिवदि जियं।।९२।।
वेणूपमूलोरभ्रकशृंगेण गोमूत्रेण च क्षुरप्रेण।
सदृशी माया नारकतिर्यग्नरामरगतिषु क्षिपति जीवम्।।९२।।
अर्थ —माया भी चार प्रकार की होती है। बाँस की जड़ के समान, मेढे के सींग के समान, गो मूत्र के समान, खुरपा के समान। यह चार तरह की माया भी क्रम से जीव को नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देवगति मेें ले जाती है।
भावार्थ – माया के ये चार भेद कुटिलता की अपेक्षा से हैं। जितनी अधिक कुटिलता जिसमें पाई जाये वह उतनी ही उत्कृष्ट माया कही जाती है और वह उक्त क्रमानुसार गतियों की उत्पादक होती है। वेणुमूल में सबसे अधिक वक्रता पाई जाती है इसलिये शक्ति की अपेक्षा उत्कृष्ट माया का यह दृष्टांत है। इसी प्रकार अनुत्कृष्ट माया का मेषशृंग, अजघन्य माया का गोमूत्र और जघन्य माया का खुरपा दृष्टांत समझना चाहिए।
किमिरायचक्कतणुुमलहरिद्दराएण सरिसओ लोहो।
णारयतिरिक्खमाणुसदेवेसुप्पायओ कमसो।।९३।।
क्रिमिरागचक्रतनुमलहरिद्रारागेण सदृशो लोभ:।
नारकतिर्यग्मानुषदेवेषूत्पादक: क्रमश:।।९३।।
अर्थ —लोभ कषाय भी चार प्रकार की है। क्रिमिराग के समान, चक्रमल (रथ आदिक के पहियों के भीतर का ओंगन) के समान, शरीर के मल के समान, हल्दी के रंग के समान। यह भी क्रम से नरक, तिर्यंच, मनुष्य एवं देवगति की उत्पादक है।
भावार्थ —जिस प्रकार किरिमिजी का रंग अत्यंत गाढ़ होता है—बड़ी ही मुश्किल से छूटता है उसी प्रकार जो लोभ सबसे अधिक गाढ़ हो उसको किरिमिजी के समान कहते हैं। इससे जो जल्दी-जल्दी छूटने वाले हैंं उनको क्रम से ओंगन, शरीर मल, हल्दी के रंग के सदृश समझना चाहिए।
अप्पपरोभयबाधणबंधा संजमणिमित्तकोहादी।
जेसिं णत्थि कसाया अमला अकसाइणो जीवा।।९४।।
आत्मपरोभयबाधनबन्धा संयमनिमित्तक्रोधादय:।
येषां न सन्ति कषाया अमला अकषायिणो जीवा:।।९४।।
अर्थ —जिनके स्वयं को, दूसरे को तथा दोनों को ही बाधा देने और बंधन करने तथा असंयम करने में निमित्तभूत क्रोधादिक कषाय नहीं हैं तथा जो बाह्य और अभ्यन्तर मल से रहित हैं ऐसे जीवों को अकषाय कहते हैं।
भावार्थ —यद्यपि गाथा में कषाय शब्द का ही उल्लेख है तथापि यहाँ नोकषाय का भी ग्रहण कर लेना चाहिए। गुणस्थानों की अपेक्षा ग्यारहवें गुणस्थान से लेकर सभी जीव अकषाय हैं।
जीव के सुख-दु:ख आदि रूप अनेक प्रकार के धान्य को उत्पन्न करने वाले तथा जिसकी संसाररूप मर्यादा अत्यन्त दूर है, ऐसे कर्मरूपी क्षेत्र (खेत) का यह कर्षण करता है, इसलिए इसको कषाय कहते हैं।
‘‘सम्यक्त्वादि विशुद्धात्म परिणामान् कषति हिनस्ति इति कषाय:’’ सम्यक्त्व, देशचारित्र, सकलचारित्र, यथाख्यातचारित्ररूपी परिणामों को जो कषे-घाते, न होने दे उसको कषाय कहते हैं। इसके अनन्तानुबंधी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण एवं संज्वलन इस प्रकार चार भेद हैं। अनंतानुबंधी आदि चारों के क्रोध, मान, माया, लोभ इस तरह चार-चार भेद होने से कषाय के उत्तर भेद सोलह होते हैं किन्तु कषाय के उदयस्थानों की अपेक्षा से असंख्यात लोक प्रमाण भेद हैं। जो सम्यक्त्व को रोके उसको अनंतानुबंधी, जो देशचारित्र को रोके उसको अप्रत्याख्यानावरण, जो सकलचारित्र को रोके उसको प्रत्याख्यानावरण और जो यथाख्यातचारित्र को रोके उसको संज्वलन कषाय कहते हैं।
क्रोध चार प्रकार का होता है। एक पत्थर की रेखा के समान, दूसरा पृथ्वी की रेखा के समान, तीसरा धूलि रेखा के समान और चौथा जलरेखा के समान। ये चारों प्रकार के क्रोध क्रम से नरक, तिर्यक्, मनुष्य तथा देवगति में उत्पन्न करने वाले हैं।
मान भी चार प्रकार का होता है। पत्थर के समान, हड्डी के समान, काठ के समान तथा बेंत के समान। ये चार प्रकार के मान भी क्रम से नरक, तिर्यंच, मनुष्य तथा देवगति के उत्पादक हैं।
माया भी चार प्रकार की होती है। बांस की जड़ के समान, मेढे के सींग के समान, गोमूत्र के समान, खुरपा के समान। यह चार तरह की माया भी क्रम से जीव को नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देवगति में ले जाती है।
लोभ कषाय भी चार प्रकार की होती है। क्रिमिराग के समान, चक्रमल अर्थात् रथ आदिक के पहियों के भीतर के ओंगन के समान, शरीर के मल के समान, हल्दी के रंग के समान। यह भी क्रम से नरक, तिर्यंच, मनुष्य एवं देवगति की उत्पादक है।
जिनके स्वयं को, दूसरे को तथा दोनों को ही बाधा देने और बंधन करने तथा असंयम करने में निमित्तभूत क्रोधादिक कषाय नहीं है तथा जो बाह्य और अभ्यंतर मल से रहित हैं ऐसे जीवों को अकषाय कहते हैं।
शक्ति, लेश्या तथा आयु के बंधाबंधगत भेदों की अपेक्षा से क्रोधादि कषायों के क्रम से चार, चौदह और बीस स्थान होते हैं।
यह चारों ही कषाय जीव को चारों गतियों में परिभ्रमण कराने वाली एवं महान दुख को उत्पन्न करने वाली हैं अत: इनका सर्वथा त्याग कर अपनी आत्मा को भगवान आत्मा बनाने का पुरुषार्थ करना चाहिए।