परहितकर प्रवृत्तेषु (आचार्येषु) भावविशुद्धि युक्तोऽनुराग: भक्ति:।।११।।
परहित में प्रवृत्त हुये आचार्यों में भावविशुद्धिपूर्वक अनुराग करना आचार्य भक्ति है।१
आज तक जितने भी जीव मोक्ष गये हैं, जाते हैं व जायेंगे वे सब आचार्यदेव का आश्रय लेकर ही गये हैं। यहाँ तक कि तीर्थंकर भी पूर्व जन्म में दीक्षा गुरु से ही दीक्षा लेते हैं पुन: तीर्थंकर प्रकृति के सत्ता में रहने से ही वे इस भव में स्वयं दीक्षित होते हैं।
चन्द्रगुप्त मुनिराज श्री भद्रबाहु आचार्य की भक्ति से उन्हीं के पास रह गये। गुरु की समाधि के बाद वहीं गुरु की निषद्या की वंदना करते हुये रहने लगे। बाहर वर्ष तक देवों ने उन्हें नगर बसाकर आहार दिया । जब मुनियों का संघ वहाँ आया, कुछ साधु आहारार्थ गये, वापस एक मुनि कमंडलु भूल आये, मध्यान्ह में लेने को गये तब वहाँ कमंडलु को वृक्ष में लटका हुआ देखा और कुछ गांव नजर नहीं आया। गुरु से निवेदन करने पर यह निश्चित हुआ कि आज तक मुनि चन्द्रगुप्त को देवों ने आहार दिया। चन्द्रगुप्त मुनिराज ने गुरु से इसका प्रायश्चित लिया क्योंकि देवों के हाथ का आहार दिगम्बर जैन साधु नहीं लेते हैं। देखिये आप श्रीचंद्रगुप्त की गुरुभक्ति कि जिसके प्रसाद से देवों ने उनकी परिचर्या की। सच है-
गुरु भक्ति: सती मुक्त्यै क्षुद्रं किं वा न साधयेत्।
त्रिलोकी मूल्य रत्नेन दुर्लभ: किं तुषोत्कर:।।
समीचीन गुरुभक्ति मुक्ति को प्राप्त कराने वाली होती है पुन: क्षुद्र कार्य क्या नहीं सिद्ध होंगे? क्या त्रैलोक्य मूल्य वाले रत्न से भूसे का ढेर खरीदना दुर्लभ है? नहीं। यह आचार्य भक्ति भी तीर्थंकर प्रकृति के बंध का कारण है।
गुरुओं की मात्र हँसी का फल कितना बुरा होता है सो देखो-
किसी समय चतुर्विध संघ सम्मेदशिखर की वंदना के लिये जा रहा था उस समय एक ‘अंतिक’ नामक ग्राम से संघ निकला । दिगम्बर साधुओं को देखकर गाँव के लोग हँसने लगे। एक-एक को देखकर सबके सब हँसने लगे और कुवचन कहने लगे । उस ग्राम के एक कुम्भकार ने सबको हँसने से मना किया और संघ की स्तुति की। संघ के साधुओं को कुछ नहीं, उन्हें तो निंदा-स्तुति दोनों ही समान हैं। कुछ दिन बाद उस गांव में किसी ने चोरी की, तब राजा ने कुपित होकर घेरा डालकर सारा गाँव का गाँव जला दिया। जिस दिन वह गाँव जलाया गया उस दिन वह कुम्भकार कहीं बाहर गया हुआ था सो वह बच गया ।
गुरुओं पर हँसने का दुष्परिणाम कितना बुरा निकला। पुन: वह कुम्भकार व्यापारी हुआ उसने सब कौड़ी खरीद ली। अनंतर ये सब कौड़ी मरकर गिजाई हो गये, कुम्भकार का जीव राजा हो गया सो उस राजा के हाथी के नीचे दबकर सब गिजाई मर गये । इन जीवों ने एक साथ पाप बांधा था सो एक साथ ही भोगते रहे। क्रमश: ये सबके सब सगर चक्रवर्ती के साठ हजार पुत्र हो गये और यह कुम्भकार सगर चक्रवर्ती का पोता भागीरथ हो गया है ।
गुरुभक्ति से स्वयमेव विद्यायें सिद्ध हो जाती हैं। देखो, एकलव्य भील का उदाहरण प्रसिद्ध है-
किसी समय वन में अर्जुन ने एक कुत्ते को देखा, उसका मुख बाण प्रहार से भरा हुआ था। उसे देख अर्जुन ने सोचा यह शब्दभेदी धनुर्विद्या गुरु ने मुझे ही दी है, इसका जानकार यहाँ कौन है? खोजते-खोजते एक भील मिला। वार्तालाप होने से उसने कहा ‘मेरे गुरु द्रोणाचार्य हैं मैंने उन्हीं से यह विद्या सीखी है।’ अर्जुन के आश्चर्य का पार नहीं रहा। तब भील ने वन में बनाये हुये मिट्टी के स्तूप के पास ले जाकर अर्जुन को दिखाया और कहा-मेरे गुरु ये ही हैं। मैंने इन्हीं में द्रोणाचार्य की कल्पना कर रखी है। मैं इसी स्तूप को गुरु मानकर उपासना करके शब्दभेदी धनुर्विद्या में निपुण हुआ हूँ ।
अर्जुन ने हस्तिनापुर आकर गुरु द्रोणाचार्य से सारी घटना सुना दी और कहा कि वह पापी भील निरपराध पशुओं को मारकर पाप कर्म का संचय कर रहा है, आपको उसे रोकना चाहिए। गुरु द्रोणाचार्य अर्जुन के साथ वहाँ गये जब भील को पता चला कि सचमुच में ये ही द्रोणाचार्य हैं, उसकी भक्ति का पार नहीं रहा। गद्गद् होकर उसने साष्टांग नमस्कार किया, बहुत ही भक्ति प्रदर्शित की। द्रोणाचार्य ने कहा कि ‘‘मैं एक वस्तु तुम से माँगूं तुम दोगे?’’ उत्तर में उसने सहर्ष स्वीकार कर लिया। तब गुरु ने कहा ‘‘दाहिने हाथ का अँगूठा मुझे दे दो’’ उस भील ने उसी समय अपना अंगूठा काटकर दे दिया। अब वह बाण चलाने में असमर्थ हो गया और जीव हिंसा से बच गया ।
देखो! गुरु भक्ति से भील ने आज भी अपना नाम अमर कर दिया है ।
जो आज गुरुओं से द्रोह करते हैं, निंदा करते हैं, उपेक्षा करते हैं, उन्हें पाप अवश्य लगता है ।
जो गुरुभक्ति करते हैं वे अनेकों लौकिक सुखों को प्राप्त करके एक दिन मोक्ष सुख को भी प्राप्त कर लेते हैं किन्तु जो निंदा करते हैं वे गुरुद्रोही, कृतघ्नी, आत्मद्रोही, महापापी हैं बहुत काल तक संसार में परिभ्रमण करते रहते हैं इसलिये गुरु विरोध कभी नहीं करना चाहिये और सदैव गुरु भक्ति करते रहना चाहिये ।
‘गुरु भक्ति: सती मुक्त्यै क्षुद्रं किं वा न साधयेत्’
जब गुरु भक्ति मुक्ति को भी प्राप्त करा देती है तब छोटे-छोटे कार्यों की सिद्धि करा देवे इसमें आश्चर्य ही क्या है ? यह आचार्य भक्ति नाम की ग्यारहवीं भावना है जो कि संसार समुद्र से पार कराने वाली है ।