हनुमान विमान में बैठे हुए बहुत ऊँचे आकाश में उड़ते चले जा रहे हैं। प्राकृतिक शोभा को देखते हुए दधिमुख नगर के ऊपर से निकलते हैं। उस नगर के बाहर चारों तरफ के उद्यान की शोभा हनुमान के मन को बरबस अपनी ओर खींच रही है। धीरे-धीरे विमान आगे बढ़ता जा रहा है, कुछ दूर चलकर भंयकर वन दिखता है। वहाँ पर तमाम जंगली पशु विचरण कर रहे हैं, आगे बढ़ते ही देखते हैं कि उस वन में भयंकर अग्नि की ज्वाला अपनी लपटों से मानों आकाश को छूने का ही उपक्रम कर रही है। एकदम घबराते हुए हनुमान तत्क्षण ही दूसरी तरफ दृष्टि डालते हैं तो क्या देखते हैं – दो महामुनि अपनी भुजाओं को नीचे लटकाये हुए नासाग्र दृष्टि सौम्यमुद्रा से युक्त कायोत्सर्ग से खड़े हुए हैं। उनसे कुछ दूर ही वह अग्नि मानों उनके दर्शन की अभिलाषा से ही अथवा उनके ध्यान का परीक्षण करने के लिए उधर की ओर बढ़ती आ रही है। वहीं से लगभग पांच कोश की दूरी पर तीन कन्यायें ध्यान मुद्रा में स्थित हैं। वे शुक्ल वस्त्र को धारण किए हुए हैं उनका मनोहर रूप उनके विशेष पुण्य को सूचित कर रहा है। हनुमान के हृदय में उन महामुनियों के प्रति परम भक्ति-भाव उमड़ पड़ता है और साथ ही वात्सल्य भाव से प्रेरित हो सोचने लगते हैं – ‘‘अहो! सुख-दुख में समभावी ये महामुनि कुछ क्षण में ही इस अग्नि के उपसर्ग से इस नश्वर शरीर को छोड़ने को प्रयत्नशील हैं। इनके लिए जीवन और मरण एक समान है फिर भी मेरा क्या कर्तव्य है?……क्या मैं इनके उपसर्ग को दूर करके सातिशय पुण्य का भागी बन सकता हूँ? और ये कन्यायें कौन हैं?….जो भी हो’। इतना सोचते ही हनुमान शीघ्रता से ही समुद्र का जल खींच कर उसे मेघरूप में परिणत कर लेते हैं और उन मेघों को हाथ में लेकर आकाश में ऊँचे जाकर वर्षा शुरू कर देते हैं। देखते ही देखते दावानल अग्नि शांत हो जाती है और हनुमान कृतकृत्य हुए के समान नीचे आकर गुरु के चरणों में नमस्कार कर पुष्प, अक्षत आदि सामग्री से उनके चरणों की पूजा करना शुरू कर देते हैं। इसी बीच वे कन्यायें मेरु पर्वत की प्रदक्षिणा देकर वहीं पर आ जाती हैं और गुरु की वंदना करके बैठ जाती हैं पुनः हनुमान से कहती हैं – ‘अहोबन्धु! आप जिन शासन के परमभक्त हैं। आज आपने अन्यत्र कहीं जाते हुए जो इन महामुनियों के उपसर्ग का निवारण किया है सो आपका यह धर्मी के प्रति वात्सल्य आपके अपूर्व माहात्म्य को प्रकट कर रहा है।’