भगवान ऋषभदेव की यशस्वती रानी से भरत महाराज का जन्म हुआ था। भगवान ने दीक्षा के लिए जाते समय भरत को साम्राज्य पद पर प्रतिष्ठित किया था। एक समय राज्यलक्ष्मी से युक्त राजर्षि भरत को एक ही साथ नीचे लिखे हुए तीन समाचार मालूम हुए थे। पूज्य पिता को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ है, अन्त:पुर में पुत्र का जन्म हुआ है और आयुधशाला में चक्ररत्न प्रकट हुआ है। क्षणभर में भरत ने मन में सोचा कि केवलज्ञान का उत्पन्न होना धर्म का फल है, चक्र का प्रकट होना अर्थ का फल है और पुत्र का उत्पन्न होना काम का फल है अत: भरत महाराज ने सबसे पहले समवसरण में जाकर भगवान की पूजा की, उपदेश सुना तदनन्तर चक्ररत्न की पूजा करके पुत्र का जन्मोत्सव मनाया।
अनन्तर भरत महाराज ने दिग्विजय के लिए प्रस्थान कर दिया। चक्ररत्न सेना के आगे-आगे चलता था। सम्पूर्ण षट्खण्ड पृथ्वी को जीत लेने के बाद वापस आते समय वैâलाश पर्वत को समीप देखकर सेना को वहाँ ठहराकर स्वयं समवसरण में जाकर राजा भरत ने विधिवत् भगवान की पूजा की और वहाँ से आकर सेना सहित अयोध्या के समीप आ गये।
उस समय भरत महाराज का चक्ररत्न नगर के गोपुरद्वार को उल्लंघन कर आगे नहीं जा सका, तब चक्ररत्न की रक्षा करने वाले कितने ही देवगण चक्र को एक स्थान पर खड़ा हुआ देखकर आश्चर्य को प्राप्त हुए। भरत महाराज भी सोचने लगे कि समस्त दिशाओं को विजय करने में जो चक्र कहीं नहीं रुका, आज मेरे घर के आँगन में क्यों रुक रहा है ?
इस प्रकार से बुद्धिमान भरत ने पुरोहित से प्रश्न किया। उसके उत्तर में पुरोहित ने निवेदन किया कि हे देव! आपने यद्यपि बाहर के लोगों को जीत लिया है तथापि आपके घर के लोग आज भी आपके अनुकूल नहीं हैं, वे आपको नमस्कार न करके आपके विरुद्ध खड़े हुए हैं। इस बात को सुनकर भरत ने हृदय में बहुत कुछ विचार किया। अनन्तर मंत्रियों से सलाह करके कुशल दूत को सबसे पहले अपने निन्यानवे भाइयों के पास भेज दिया।
वे भाई दूत से सब समाचार विदित करके विरक्तमना भगवान ऋषभदेव के समवसरण में जाकर दीक्षित हो गये। अनन्तर भरत ने मन में दुःख का अनुभव करते हुए चक्र के अभ्यन्तर प्रवेश न करने से विचार-विमर्शपूर्वक एक दूत को युवा बाहुबली भाई के पास भेजा। दूत के समाचार से बाहुबली ने कहा २६४ / अमृतर्विषणी टीका वीर ज्ञानोदय ग्रंथमाला श्री गौतम गणधर वाणी कि ‘‘मैं भरत को भाई के नाते नमस्कार कर सकता हूँ किन्तु राजाधिराज कहकर उन्हें नमस्कार नहीं कर सकता, पूज्य पिता की दी हुई पृथ्वी का मैं पालन कर रहा हूँ, इसमें उनसे मुझे कुछ लेना-देना नहीं है’’, इत्यादि समाचारों से बाहुबली ने यह बात स्पष्ट कर दी कि यदि वे मुझसे जबरदस्ती नमस्कार कराना चाहते हैं तो युद्ध भूमि में ही अपनी-अपनी शक्ति का परिचय दे देना चाहिए। इस वातावरण से महाराज भरत सोचने लगे, अहो! जिन्हें हमने बालकपन से ही स्वतंत्रतापूर्वक खिला-पिलाकर बड़ा किया है, ऐसे अन्य कुमार यदि मेरे विरुद्ध आचरण करने वाले हों तो खुशी से हों परन्तु बाहुबली तरुण, बुद्धिमान, परिपाटी को जानने वाला, विनयी, चतुर और सज्जन होकर भी मेरे विषय में विकार को वैâसे प्राप्त हो गया? इस प्रकार छह प्रकार की सेना सामग्री से सम्पन्न हुए महाराज भरतेश्वर ने अपने छोटे भाई को जीतने की इच्छा से अनेक राजाओं के साथ प्रस्थान किया।
दोनों तरफ की सेना के प्रवाह को देखकर दोनों ओर के मुख्य-मुख्य मंत्री विचार कर इस प्रकार कहने लगे कि क्रूर ग्रहों के समान इन दोनों का युद्ध शान्ति के लिए नहीं है क्योंकि ये दोनों ही चरमशरीरी हैं, इनकी कुछ भी क्षति नहीं होगी, केवल इनके युद्ध के बहाने से दोनों ही पक्ष के लोगों का क्षय होगा, इस प्रकार निश्चयकर तथा भारी मनुष्यों के संहार से डरकर मंत्रियों ने दोनों की आज्ञा लेकर धर्म युद्ध करने की घोषणा कर दी अर्थात् इन दोनों के बीच जलयुद्ध, दृष्टियुद्ध और बाहुयुद्ध में जो विजय प्राप्त करेगा, वही विजय लक्ष्मी का स्वयं स्वीकार किया हुआ पति होगा।
मनुष्यों से एवं असंख्य देवों से भूमण्डल और आकाशमण्डल के व्याप्त हो जाने पर इन दोनों का दृष्टियुद्ध प्रारंभ हुआ किन्तु बाहुबली ने टिमकार रहित दृष्टि से भरत को जीत लिया, जलयुद्ध में भी बाहुबली ने भरत के मुँह पर अत्यधिक जल डालकर आकुल करके जीत लिया क्योंकि भरत की ऊँचाई पाँच सौ धनुष और बाहुबली की पाँच सौ पच्चीस धनुष प्रमाण थी। मल्लयुद्ध में भी बाहुबली ने भरत को जीतकर उठाकर अपने कंधे पर बिठा लिया। दोनों पक्ष के राजाओं के बीच ऐसा अपमान देख भरत ने क्रोध से अपने चक्ररत्न का स्मरण किया और उसे बाहुबली पर चला दिया परन्तु उनके अवध्य होने से वह चक्र बाहुबली की प्रदक्षिणा देकर तेजरहित हो उन्हीं के पास ठहर गया। उस समय बड़े-बड़े राजाओं ने चक्रवर्ती को धिक्कार दिया और दुःख के साथ कहा कि ‘बस-बस’ यह साहस रहने दो, बंद करो, यह सुनकर चक्रवर्ती और भी अधिक संताप को प्राप्त हुए। आपने खूब पराक्रम दिखाया, ऐसा कहकर बाहुबली ने भरत को उच्चासन पर बैठाया।
इस घटना से बाहुबली उसी समय विरक्त हो गये और संसार, शरीर, वैभव आदि की क्षणभंगुरता का विचार करते हुए बड़े भाई भरत से अपने अपराध की क्षमा कराकर तपोवन को जाने लगे, तब भरत भी अत्यधिक दुःखी होकर बाहुबली को समझाने और रोकने लगे। बाहुबली अपने वैराग्य को अचल करके तपोवन को चले गये और दीक्षा लेकर एक वर्ष का योग धारण कर लिया। एक वर्ष की श्री गौतम गणधर वाणी अमृतर्विषणी टीका / २६५ ध्यानावस्था में सर्पों ने चरणों के आश्रय वामीरन्ध्र बना लिये, पक्षियों ने घोंसले बना लिये और लताएँ ऊपर तक चढ़कर बाहुबली के शरीर को ढँकने लगीं किन्तु योग चक्रवर्ती बाहुबली भगवान योग में लीन थे।
इधर भरत महाराज का चक्रवर्ती पट्ट पर महासाम्राज्य अभिषेक हुआ। दीक्षा लेते समय बाहुबली ने एक वर्ष का उपवास किया था, जिस दिन उनका वह उपवास पूर्ण हुआ, उसी दिन भरत ने आकर उनकी पूजा की और पूजा करते ही उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हो गया। ‘‘वह भरतेश्वर मुझसे संक्लेश को प्राप्त हुआ है अर्थात् मेरे निमित्त से उसे दु:ख पहुँचा है, यह विचार बाहुबली के हृदय में विद्यमान रहता था, इसलिए भरत के पूजा करते ही बाहुबली का हृदय विकल्प रहित हो गया और उसी समय उन्हें केवलज्ञान प्रकट हो गया। भरतेश्वर ने बहुत ही विशेषता से बाहुबली की पूजा की। केवलज्ञान प्रकट होने के पहले जो भरत ने पूजा की थी, वह अपना अपराध नष्ट करने के लिए ही थी और अनन्तर की पूजा केवलज्ञान के महोत्सव की थी। उस समय देव कारीगरों ने बाहुबली भगवान की गंधकुटी बनाई थी। समस्त पदार्थों को जानने वाले बाहुबली अपने वचनरूपी अमृत के द्वारा समस्त संसार को संतुष्ट करते हुए पूज्य पिता भगवान ऋषभदेव के सामीप्य से पवित्र हुए कैलाशपर्वत पर जा पहुँचे।
१. संक्लिष्टो भरताधीश: सोऽस्मत्त इति यत्किल। हृद्यस्य हार्दं तेनासीत् तत्पूजापेक्षि केवलम्।।१८६।।
आदिपुराण पर्व ३६, पृ. २१७। कृतिकर्म विधि
कुछ काल बीत जाने के बाद एक दिन चक्रवर्ती भरत ने अद्भुत फल दिखाने वाले कुछ स्वप्न देखे। उनके देखने से खेद खिन्न हो भरत ने यह समझ लिया कि इनका फल कटु है और ये पंचम काल में फल देने वाले होंगे। इस प्रकार विचार कर भरत ने भगवान के समवसरण में जाकर पूजा-भक्ति आदि करके भगवान से प्रार्थना की-हे भगवन्! मैंने सिंह, सिंह के बालक आदि सोलह स्वप्न देखे हैं, उनका फल क्या है? और मैंने ब्राह्मण वर्ण की स्थापना की है, वह योग्य है या अयोग्य? कृपया हमारे संशय को दूर कीजिए।
यद्यपि अवधिज्ञान से भरत ने इन स्वप्नों का फल जान लिया था, फिर भी सभी को विशेष जानकारी होने के लिए भगवान से सुनना चाहते थे। भरत का प्रश्न समाप्त होने पर जगद्गुरु भगवान अपनी दिव्यध्वनि से सभा को संतुष्ट करने लगे। हे भरतराज! सुनो!
(१) तुमने जो ‘पृथ्वी पर अकेले विहार कर पर्वत की चोटी पर चढ़ते हुए तेईस सिंह देखे हैं’ उसका फल यह है कि महावीर स्वामी को छोड़कर शेष तीर्थंकरों के समय दुष्ट नयों की उत्पत्ति नहीं होगी।
(२) ‘अकेले सिंह के पीछे हिरणों के बच्चे’ देखने से महावीर के तीर्थ में परिग्रही कुलिंगी बहुत हो जावेंगे।
(३) ‘बड़े हाथी के बोझ को घोड़े पर लदा’ देखने से पंचम काल के साधु तपश्चरण के समस्त गुणों को धारण करने में समर्थ नहीं होगे।
(४) ‘सूखे पत्ते खाने वाले बकरों को देखने’ से आगामी काल में मनुष्य दुराचारी हो जावेंगे।
(५) ‘गजेन्द्र के कंधे पर चढ़े हुए वानरों’ को देखने से आगे चलकर क्षत्रियवंश नष्ट हो जावेंगे, नीच कुल वाले पृथ्वी का पालन करेंगे।
(६) ‘कौवों के द्वारा उलूक को त्रास दिया जाना’ देखने से मनुष्य धर्म की इच्छा से जैन मुनियों को छोड़कर अन्य साधुओं के पास जावेंगे।
(७) ‘नाचते हुए बहुत से भूतों के देखने से’ लोग व्यंतरों को देव समझकर उनकी उपासना करने लगेंगे।
(८) ‘मध्य भाग में शुष्क और चारों तरफ से पानी से भरे हुए तालाब’ के देखने से धर्म मध्य भागों से हटकर यत्र-तत्र रह जावेगा।
(९) ‘धूल से मलिन हुए रत्नों की राशि के देखने से’ पंचमकाल में ऋद्धिधारी उत्तम मुनि नहीं होंगे।
(१०) ‘कुत्ते को नैवेद्य खाते हुए’ देखने से व्रत रहित ब्राह्मण गुणी पात्रों के समान आदर पावेंगे।
(११) ‘ऊँचे स्वर से शब्द करते हुए तरुण बैल का विहार’ देखने से पंचमकाल में अधिकतर लोग तरुण अवस्था में मुनिपद को धारण करेंगे।
(१२) ‘परिमण्डल से घिरे हुए चन्द्रमा’ के देखने से पंचमकाल के मुनियों में अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान नहीं होगा।
(१३) ‘परस्पर मिलकर जाते हुए दो बैलों के’ देखने से पंचमकाल में मुनिजन साथ-साथ रहेंगे, अकेले विहार करने वाले नहीं होगे।
(१४) ‘मेघों के श्री गौतम गणधर वाणी अमृतर्विषणी टीका / २६७ आवरण में रुके हुए सूर्य’ के देखने से प्राय: पंचमकाल में केवलज्ञानरूपी सूर्य का उदय नहीं होता है।
(१५) ‘सूखे वृक्ष के देखने से’ स्त्री-पुरुषों का चारित्र भ्रष्ट हो जायेगा।
(१६) ‘जीर्ण पत्तों के देखने से’ महा औषधियों का रस नष्ट हो जावेगा।
हे भरत! इन स्वप्नों को तुम बहुत समय बाद का फल देने वाला समझो तथा जो तुमने ब्राह्मण वर्ण की स्थापना की है, सो आज तो ठीक है किन्तु ये भी पंचमकाल में जाति के मद से युक्त होकर प्राय: धर्मद्रोही हो जावेंगे, फिर भी अब जिनकी सृष्टि की है, उन्हें नष्ट करना ठीक नहीं है।
भगवान के उपर्युक्त वचन को सुनकर भरत महाराज अपना संशय दूर करके ऋषभदेव को बार-बार प्रणाम करके वहाँ से लौटे। खोटे स्वप्नों से होने वाले अनिष्ट की शांति के लिए जिनेन्द्र भगवान का अभिषेक और उत्तम पात्र को दान देना आदि पुण्य कार्य किये।
प्रत्येक चक्री उत्तम संहनन, उत्तम संस्थान से युक्त सुवर्ण वर्ण वाले होते हैं। उनके छ्यानवे हजार रानियाँ होती हैं-इनमें ३२००० आर्यखण्ड की कन्याएँ, ३२००० विद्याधर कन्याएं और ३२००० म्लेच्छ खण्ड की कन्याएँ होती हैं। प्रत्येक चक्रियों के संख्यात हजार पुत्र-पुत्रियाँ, ३२००० गणबद्ध राजा, ३६० अंगरक्षक, ३६० रसोइये, ३५०००००० (साढ़े तीन करोड़) बंधुवर्ग, ३००००००० गायें, १००००००० थालियाँ, ८४००००० भद्र हाथी, ८४००००० रथ, १८००००००० घोड़े, ८४००००००० उत्तर वीर, ८८००० म्लेच्छ राजा, अनेकों करोड़ विद्याधर, ३२००० मुकुटबद्ध राजा, ३२००० नाट्यशालाएँ, ३२००० संगीतशालाएँ और ४८००००००० पदातिगण होते हैं।
सभी चक्रवर्तियों में से प्रत्येक ९६००००००० ग्राम, ७५००० नगर, १६००० खेट, २४००० कर्वट, ४००० मटंब, ४८००० पत्तन, ९९००० द्रोणमुख, १४००० संवाहन, ५६ अन्तद्र्वीप, ७०० कुक्षि निवास, २८००० दुर्गादि होते हैं एवं चौदह रत्न, नवनिधि और दशांग भोग होते हैं।
गज, अश्व, गृहपति, स्थपति, सेनापति, पट्टरानी और पुरोहित ये सात जीवरत्न हैं। छत्र, असि, दण्ड, चक्र, कांकिणी, चिन्तामणि और चर्म ये सात रत्न निर्जीव होते हैं। चक्रवर्तियों के चामरों (चँवरों) को बत्तीस यक्ष ढोरते हैं।
काल, महाकाल, पांडु, मानव, शंख, पद्म, नैसर्प, पिङ्गल और नाना रत्न ये नवनिधियाँ श्रीपुर में उत्पन्न हुआ करती हैं। इन नवनिधियों में से प्रत्येक क्रम से ऋतु के योग्य द्रव्य, भाजन, धान्य, आयुध, वादित्र, वस्त्र, हम्र्य, आभरण और रत्नसमूहों को दिया करती हैं।
चक्रवर्तियों के २४ दक्षिण मुखावर्त धवल व उत्तम शंख, एक कोड़ाकोड़ी १०००००००००००००० हल होते हैं। रमणीय भेरी और पट बारह-बारह होते हैं, जिनका शब्द बारह योजन प्रमाण देश में सुना जाता है।
दिव्यपुर, रत्न, निधि, सैन्य, भाजन, भोजन, शय्या, आसन, वाहन और नाट्य ये उन चक्रवर्तियों के दशांग भोग कहे जाते हैं।
इन चक्रवर्तियों की अवगाहना, आयु, राज्यकाल आदि का वर्णन चार्ट में देखिए।
नाम उत्सेध आयु कुमारकाल मंडलीक काल
१. भरत ५०० धनुष ८४ लाख पूर्व ७७००००० पूर्व १००० वर्ष
२. सगर ४५० धनुष ७२ लाख पूर्व ५०००० पूर्व ५०००० पूर्व
३. मघवा ४२(१/२) धनुष ५००००० वर्ष २५००० वर्ष २५००० वर्ष
४. सनत्कुमार ४२ धनुष ३००००० वर्ष ५०००० वर्ष ५०००० वर्ष
५. शान्ति ४० धनुष १००००० वर्ष २५००० वर्ष २५००० वर्ष
६. कुंथु ३५ धनुष ९५००० वर्ष २३७५० वर्ष २३७५० वर्ष
७. अर ३० धनुष ८४००० वर्ष २१००० वर्ष २१००० वर्ष
८. सुभौम २८ धनुष ६०००० वर्ष ५००० वर्ष ५००० वर्ष
९. पद्म २२ धनुष ३०००० वर्ष ५०० वर्ष ५०० वर्ष
१०. हरिषेण २० धनुष १०००० वर्ष ३२५ वर्ष ३२५ वर्ष
११. जयसेन १५ धनुष ३००० वर्ष ३०० वर्ष ३०० वर्ष
१२. ब्रह्मदत्त ७ धनुष ७०० वर्ष २८ वर्ष ५६ वर्ष
चक्र. विजयकाल राज्यकाल संयमकाल प्राप्त गति
१. ६०००० वर्ष ६ लाख पूर्व ६१००० वर्ष १ लाख पूर्व मुक्ति प्राप्त
२. ३०००० वर्ष ७० लाख पूर्व ३०००० वर्ष १ लाख पूर्व मुक्ति प्राप्त
३. १०००० वर्ष ३९०००० वर्ष ५०००० वर्ष सनत्कुमार कल्प
४. १०००० वर्ष ९०००० वर्ष १००००० वर्ष सनत्कुमार कल्प
५. ८०० वर्ष २४२०० वर्ष २५००० वर्ष मुक्ति प्राप्त
६. ६०० वर्ष २३१५० वर्ष २३७५० वर्ष मुक्ति प्राप्त
७. ४०० वर्ष २०६०० वर्ष २१००० वर्ष मुक्ति प्राप्त
८. ५०० वर्ष ४९५०० वर्ष ० वर्ष सप्तम नरक
९. ३०० वर्ष १८७०० वर्ष १०००० वर्ष मुक्ति प्राप्त
१०. १५० वर्ष ८८५० वर्ष ३५० वर्ष मुक्ति प्राप्त
११. १०० वर्ष १९०० वर्ष ४०० वर्ष मुक्ति प्राप्त
१२. १६ वर्ष ६०० वर्ष ० वर्ष सप्तम नरक
भरत चक्रवर्ती प्रथम चक्रवर्ती थे और भगवान ऋषभदेव के ज्येष्ठ पुत्र थे, उन्हीं के नाम से यह भरतभूमि ‘भारत’ कहलाती है। इन्होंने दीक्षा लेते ही अन्तर्मुहूर्त मात्रकाल में केवलज्ञान को प्राप्त कर लिया था। इनका जीवनवृत्त महापुराण और भरतेशवैभव में देखिए। इनके भाई कामदेव पदधारक बाहुबली से इनका मानभंग, विजयभंग हुआ है, इसे हुण्डावसर्पिणी काल का दोष बताया है।
बहुत काल तक साम्राज्य सुख का अनुभव करते हुए महाराज भरत ने किसी समय दर्पण में मुख देखते हुए एक श्वेत केश देखा और तत्क्षण भोगों से विरक्त हो गये। अपने पुत्र अर्वâकीर्ति को राज्यपद देकर जैनेश्वरी दीक्षा धारण कर ली, उन्हें उसी समय मन:पर्ययज्ञान प्रकट हो गया और उसके बाद ही केवलज्ञान प्रकट हो गया। ये भरतकेवली अब देवाधिदेव भगवान हो गये और इन्द्रों द्वारा वन्दनीय गंधकुटी में विराजमान हो गये। बहुत काल तक भव्य जीवों को धर्मोपदेश देते हुए अन्त में शेष कर्मों का नाश करके मुक्तिधाम को प्राप्त हो गये।
विजय, अचल, धर्म, सुप्रभ, सुदर्शन, नन्दी, नन्दिमित्र, राम और पद्म ये नौ बलभद्र हुए हैं। त्रिपृष्ठ, द्विपृष्ठ, स्वयंभू, पुरुषोत्तम, पुरुषसिंह, पुरुषपुंडरीक, पुरुषदत्त, नारायण और कृष्ण ये नौ नारायण हुए हैं।
अश्वग्रीव, तारक, मेरक, मधुवैâटभ, निशुम्भ, बलि, प्रहरण, रावण और जरासंध ये नौ प्रतिनारायण हुए हैं।
त्रिपृष्ठ आदि पाँच नारायणों में से प्रत्येक क्रम से श्रेयांसनाथ आदिक पाँच तीर्थंकरों की वंदना करते थे। अर और मल्लिनाथ तीर्थंकर के अन्तराल में दत्तनामक नारायण हुए हैं। सुव्रत और नमि स्वामी के मध्य में लक्ष्मण और भगवान नेमिनाथ के समय में कृष्ण नारायण हुए हैं। नारायण के बड़े भाई ही बलदेव और नारायण के प्रतिशत्रु ही प्रतिनारायण होते हैंं।
नाम उत्सेध आयु प्राप्त गति
१. विजय ८० धनुष ८७००००० वर्ष मोक्ष
२. अचल ७० धनुष ७७००००० वर्ष मोक्ष
३. धर्म ६० धनुष ६७००००० वर्ष मोक्ष
४. सुप्रभ ५० धनुष ३७००००० वर्ष मोक्ष
५. सुदर्शन ४५ धनुष ७००००० वर्ष मोक्ष
६. नन्दी २९ धनुष ६७००० वर्ष मोक्ष
७. नन्दिमित्र २२ धनुष ३७००० वर्ष मोक्ष
८. राम १६ धनुष १७००० वर्ष मोक्ष
९. पद्म १० धनुष १२०० वर्ष ब्रह्म कल्प
नाम उत्सेध आयु कुमार काल
१. त्रिपृष्ठ ८० धनुष ८४००००० वर्ष २५००० वर्ष
२. द्विपृष्ठ ७० धनुष ७२००००० वर्ष २५००० वर्ष
३. स्वयंभु ६० धनुष ६०००००० वर्ष १२५०० वर्ष
४. पुरुषोत्तम ५० धनुष ३०००००० वर्ष ७०० वर्ष
५. पुरुषसिंह ४५ धनुष १०००००० वर्ष ३०० वर्ष
६. पुरुष पुण्डरीक २९ धनुष ६५००० वर्ष २५० वर्ष
७. दत्त २२ धनुष ३२००० वर्ष २०० वर्ष
८. नारायण १६ धनुष १२००० वर्ष १०० वर्ष
९. कृष्ण १० धनुष १००० वर्ष १६ वर्ष
नारायण मण्डलीक काल विजयकाल राज्यकाल प्राप्त गति
१. २५००० वर्ष १००० वर्ष ८३४९००० वर्ष सप्तम नरक
२. २५००० वर्ष १०० वर्ष ७१४९९०० वर्ष षष्ठ नरक
३. १२५०० वर्ष ९० वर्ष ५९७४९१० वर्ष षष्ठ नरक
४. १३०० वर्ष ८० वर्ष २९९७९२० वर्ष षष्ठ नरक
५. १२५० वर्ष ७० वर्ष ९९८३८० वर्ष षष्ठ नरक
६. २५० वर्ष ६० वर्ष ६४४४० वर्ष षष्ठ नरक
७. ५० वर्ष ५० वर्ष ३१७०० वर्ष पंचम नरक
८. ३०० वर्ष ४० वर्ष ११५६० वर्ष चतुर्थ नरक (तृतीय नरक पद्म पु. से)
९. ५६ वर्ष ८ वर्ष ९२० वर्ष तृतीय नरक
नाम उत्सेध आयु प्राप्त गति
१. अश्वग्रीव ८० धनुष ८४००००० वर्ष सप्तम नरक
२. तारक ७० धनुष ७२००००० वर्ष षष्ठ नरक
३. मेरक ६० धनुष ६०००००० वर्ष षष्ठ नरक
४. मधुकेटभ ५० धनुष ३०००००० वर्ष षष्ठ नरक
५. निशुम्भ ४५ धनुष १०००००० वर्ष षष्ठ नरक
६. बलि २९ धनुष ६५००० वर्ष षष्ठ नरक
७. प्रहरण २२ धनुष ३२००० वर्ष पंचम नरक
८. रावण १६ धनुष १२००० वर्ष चतुर्थ नरक (तृतीय नरक पद्म पु. से)
९. जरासंध १० धनुष १००० वर्ष तृतीय नरक
मर्यादा पुरुषोत्तम श्री रामचन्द्र अयोध्या के राजा दशरथ के चार रानियाँ थीं, उनके नाम थे-अपराजिता, सुमित्रा, केकयी और सुप्रभा। अपराजिता (कौशल्या) ने पद्म (रामचन्द्र) नाम के पुत्र को जन्म दिया। सुमित्रा से लक्ष्मण, केकयी से भरत और सुप्रभा से शत्रुघ्न ऐसे दशरथ के चार पुत्र हुए। राजा दशरथ ने इन चारों को विद्याध्ययन आदि में योग्य कुशल कर दिया। लंका नगरी-किसी समय अजितनाथ के समवसरण में राक्षसों के इन्द्र भीम और सुभीम ने प्रसन्न होकर पूर्व जन्म के स्नेहवश विद्याधर मेघवाहन को कहा कि हे वत्स! इस लवण समुद्र में अतिशय सुन्दर हजारों महाद्वीप हैं। उन द्वीपों में से एक ‘राक्षस द्वीप’ है, जो सात सौ योजन लम्बा तथा इतना ही चौड़ा है। इसके मध्य में नौ योजन ऊँचा, पचास योजन चौड़ा, ‘त्रिवूâटाचल’ नाम का पर्वत है। उस पर्वत के नीचे तीस योजन विस्तार वाली लंका नगरी है। हे विद्याधर! तुम अपने बंधुवर्ग के साथ उस नगरी में जावो और सुख से रहो। ऐसा कहकर भीम इन्द्र ने उसे एक देवाधिष्ठित हार भी दिया था। इन्हीं की परम्परा में राजा रत्नश्रवा की रानी केकसी से दैदीप्यमान प्रतापी पुत्र ने जन्म लिया। बहुत पहले राजा मेघवाहन को राक्षसों के इन्द्र भीम ने जो हार दिया था, हजार नागकुमार जिसकी रक्षा करते थे, जिसकी किरणें सब ओर पैâल रही थीं और राक्षसों के भय से इतने दिनों तक जिसे किसी ने नहीं पहना था, उस बालक ने उसे मुट्ठी से खींच लिया। माता ने बड़े प्रेम से बालक को वह हार पहना दिया, तब उसके असली मुख के सिवाय उस हार में नौ मुख और दीखने लगे, जिससे सबने बालक का नाम ‘दशानन’ रख दिया। उसके बाद रानी ने भानुकर्ण, चन्द्रनखा और विभीषण को जन्म दिया था। राक्षसों द्वारा दी गई लंका नगरी में रहने से ये लोग राक्षस वंशी कहलाते थे। सीता का विवाह-मिथिला नगरी के राजा जनक की रानी विदेहा की सुपुत्री सीता थी। किसी समय राजा जनक ने पुत्री के ब्याह के लिए स्वयंवर मंडप बनवाया और यह घोषणा कर दी कि जो वङ्काावर्त धनुष को चढ़ायेगा, वही सीता का पति होगा। श्री रामचन्द्र ने उस वङ्काावर्त धनुष को चढ़ाया और लक्ष्मण ने समुद्रावर्त धनुष को चढ़ाया। रामचन्द्र के गले में सीता ने वरमाला डाली एवं चन्द्रवर्धन विद्याधर ने अपनी अठारह कन्याओं की शादी लक्ष्मण से कर दी। उस समय भरत को विरक्त देख केकयी की प्रेरणा से पुन: स्वयंवर विधि से राजा कनक ने अपनी लोकसुन्दरी का ब्याह भरत के साथ कर दिया। रामचन्द्र का वनवास-किसी समय राजा दशरथ वैराग्य को प्राप्त हो गये और रामचन्द्र को राज्यभार देकर दीक्षा लेने का निश्चय किया। उसी समय भरत भी विरक्तचित्त होकर दीक्षा के लिए उद्यत होने लगे। इसी बीच भरत की माता केकयी घबराकर तथा मन में कुछ सोचकर पति श्री गौतम गणधर वाणी अमृतर्विषणी टीका / २७३ के पास पहुँची और समयोचित वार्तालाप के अनन्तर उसने पूर्व में ब्याह के समय सारथी का कुशल कार्य करने के उपलक्ष्य में राजा द्वारा प्रदत्त ‘वर’ जो कि अभी तक धरोहररूप में था, उसे माँगा और पति की आज्ञा के अनुसार उसने कहा कि ‘मेरे पुत्र के लिए राज्य प्रदान कीजिए’। यह वर देकर राजा दशरथ ने रामचन्द्र को बुलाकर रामचन्द्र से शोकपूर्ण शब्दों में यह सब हाल कह दिया। मर्यादा पुरुषोत्तम रामचन्द्र पिता को अनेक प्रकार से समझाकर शोकमुक्त करके भ्राता लक्ष्मण और सती सीता के साथ वन में चले गये और दशरथ ने भी मुनि दीक्षा ले ली। उस समय भरत ने बड़ी जबरदस्ती से राज्यभार संभाला। रावण की मृत्यु-वनवास के प्रवास में किसी समय धोखे से रावण ने सीता का अपहरण कर लिया। तब हनुमान और सुग्रीव आदि विद्याधरों की सहायता से रामचन्द्र ने रावण से युद्ध प्रारंभ किया। रावण प्रतिनारायण था। उसके चक्ररत्न से ही लक्ष्मण के द्वारा उसकी युद्धभूमि में मृत्यु हो गई और लक्ष्मण उसी चक्ररत्न से ‘नारायण’ पदधारी हो गये। नारायण के सात महारत्न-शक्ति, धनुष, गदा, चक्र, कृपाण, शंख और दण्ड ये सात महारत्न अद्र्धचक्रियों के पास शोभायमान रहते हैं। बलभद्र के चार रत्न-मूसल, हल, रथ और रत्नावली ये चार रत्न प्रत्येक बलदेव के पास शोभित रहते हैं। नौ प्रतिनारायण युद्ध में नव नारायण के हाथों से उन्हीं के चक्रों से मृत्यु को प्राप्त होकर नरक भूमि में जाते हैं। सब नारायण पूर्व भव में तपश्चरण करके निदान से सहित होकर मरकर देव होते हैं तथा वहाँ से आकर नारायण होकर भोगों की आसक्ति में ही मरकर अर्थात् राज्य में ही मरकर नरक जाते हैं। आठ बलदेव मोक्ष और अंतिम बलदेव ब्रह्म स्वर्ग को प्राप्त हुए हैं। यह अंतिम बलदेव स्वर्ग से च्युत होकर कृष्ण के तीर्थ में सिद्ध पद को प्राप्त होंगे। सीता का निष्कासन-बलभद्र पदधारी रामचन्द्र और लक्ष्मण नारायण बहुत काल तक अयोध्या में सुखपूर्वक राज्य करते हुए समय व्यतीत कर रहे थे कि एक समय अकारण ही सीता के अपवाद की चर्चा रामचन्द्र तक आई और राम ने उस निर्दोष गर्भवती सीता को धोखे से वन में भेज दिया। जब वन में विह्वलचित्त सीता विलाप कर रही थी, तब पुंडरीकपुर का स्वामी राजा वङ्काजंघ वहाँ हाथी पकड़ने के लिए सेना सहित आया था। वह बड़े ही धर्मप्रेम से सीता को अपने साथ ले गया। वहीं सीता को युगल पुत्र उत्पन्न हुए जिनका अनंगलवण और मदनांकुश नाम रखा। बाल लीला से माता को प्रसन्न करते हुए ये बालक किशोर अवस्था को प्राप्त हुए। उनके पुण्य से प्रेरित ‘सिद्धार्थ’ नामक क्षुल्लक उन्हें विद्याध्ययन कराने लगे। वे क्षुल्लक जी प्रतिदिन तीनों संध्याओं में मेरुपर्वत के चैत्यालयों की वंदना करके क्षणभर में वापस आ जाते थे। थोड़े ही कृतिकर्म विधि २७४ / अमृतर्विषणी टीका वीर ज्ञानोदय ग्रंथमाला श्री गौतम गणधर वाणी समय में क्षुल्लक जी ने उस बालकों को सम्पूर्ण शस्त्र और शास्त्र विद्याएँ ग्रहण करा दीं। रामचन्द्र का पुत्रों के साथ युद्ध-किसी समय घूमते-घूमते नारद क्षुल्लक वेष में वहाँ आ गये और नमस्कार करते हुए दोनों कुमारों को आशीर्वाद दिया कि ‘राजा रामचन्द्र और लक्ष्मण जैसी विभूति शीघ्र ही आप दोनों को प्राप्त हो’। इसके उत्तर में उन्होंने कहा-हे भगवन्! वे रामलक्ष्मण कौन हैं? नारद ने सीता के वन में छोड़ने तक का सारा वृत्तान्त कह सुनाया। तब इन बालकों ने पूछा-यहाँ से अयोध्या कितनी दूर है? नारद ने कहा-साठ योजन दूर है। दोनों कुमार अयोध्या पर चढ़ाई करने के लिए उद्यत हो गये। माता ने बहुत कुछ समझाया कि हे पुत्रों! तुम विनय से जाकर पिता और चाचा को नमस्कार करो, यही न्यायसंगत है किन्तु वे बोले कि ‘‘इस समय वे रामचन्द्र हमारे शत्रु के स्थान को प्राप्त हैं।’’ इत्यादि कहकर वे जैसे-तैसे माता की आज्ञा लेकर और सिद्ध भगवान को नमस्कार कर युद्ध करने के लिए चल पड़े। वहाँ संग्राम भूमि में महा भयंकर युद्ध होने लगा। अनन्तर कोपवश लक्ष्मण ने चक्ररत्न का स्मरण करके मदनांकुश को मारने के लिए चला दिया किन्तु वह चक्ररत्न वापस लक्ष्मण के पास आ गया। इसी बीच में सिद्धार्थ क्षुल्लक ने रामचन्द्र और लक्ष्मण को सच्ची घटना सुना दी। तब उन लोगों ने शस्त्र डाल दिये और पिछले शोक एवं वर्तमान के हर्ष से विह्वल हो पुत्रों से मिले। पुत्रों ने भी विनय से सिर झुकाकर पिता को नमस्कार किया। सीता की अग्नि परीक्षा-अनंतर रामचन्द्र की आज्ञा से भामंडल, विभीषण, हनुमान, सुग्रीव आदि बड़े-बड़े राजा पुंडरीकपुर से सीता को ले आये। सभा में रामचन्द्र की मुखाकृति को देख सीता किंकत्र्तव्यविमूढ़ सी वहाँ खड़ी रहीं। तब राम ने कहा कि सीते! सामने क्यों खड़ी है? दूर हट, मैं तुझे देखने के लिए समर्थ नहीं हूँ। तब सीता ने कहा कि ‘‘आपके समान दूसरा कोई निष्ठुर नहीं है, दोहला के बहाने मुझ गर्भिणी को वन में भेजना क्या उचित था? यदि मेरे प्रति आपको थोड़ी भी कृपा होती तो आर्यिकाओं की वसति में मुझे छोड़ देते। अस्तु! हे देव! आप मुझ पर प्रसन्न हों और जो भी आज्ञा दें मैं पालने को तैयार हूँ। तब राम ने सोचकर अग्नि परीक्षा का निर्णय दिया। तब सीता ने हर्षयुक्त हो ‘एवमस्तु’ ऐसा कहकर स्वीकार किया। उस समय हनुमान, नारद आदि घबरा गये। महाविकराल अग्निवुंâड धधकने लगा। सीता पंचपरमेष्ठी की स्तुति-पूजा करके मुनिसुव्रतनाथ तीर्थंकर को नमस्कार करके बोलीं ‘मैंने स्वप्न में भी राम के सिवा किसी अन्य मनुष्य को मन, वचन, काय से चाहा हो तो हे अग्नि देवते! तू मुझे भस्मसात् कर दे अन्यथा नहीं जलावे’ इतना कहकर वह सीता उस अग्निकुण्ड में वूâद पड़ी। उसी समय उसके शील के प्रभाव से वह अग्नि श्री गौतम गणधर वाणी अमृतर्विषणी टीका / २७५ शीतल जल हो गयी और कल-कल ध्वनि करती हुई बावड़ी लहराने लगी। वह जल बाहर चारों तरफ पैâल गया और लोक समुदाय घबराने लगा किन्तु वह जल रामचन्द्र के चरण स्पर्श करके सौम्य दशा को प्राप्त हो गया, तब लोग सुखी हुए। वापी के मध्य कमलासन पर सीता विराजमान थीं, आकाश से देव पुष्पवृष्टि कर रहे थे। देवदुंदुभि बाजे बज रहे थे। लवण और अंकुश आजूबाजू खड़े थे। ऐसी सीता को देखकर रामचन्द्र उसके पास गये और बोले-हे देवि! प्रसन्न होवो और मेरे अपराध क्षमा करो। इत्यादि वचनों को सुनकर सीता ने कहा-हे राजन्! मैं किसी पर कुपित नहीं हूँ आप विवाद को छोड़ो। इसमें आपका या अन्य किसी का दोष नहीं है, मेरे पूर्वकृत पाप कर्मों का ही यह विपाक था। अब मैं स्त्री पर्याय को प्राप्त न करूँ, ऐसा कार्य करना चाहती हूँ, ऐसा कहते हुए सीता ने निःस्पृह हो अपने केश उखाड़कर राम को दे दिये। यह देख रामचंद्र मूच्र्छित हो गये। इधर जब तक चन्दन आदि द्वारा राम को सचेत किया गया, तब तक सीता पृथ्वीमती आर्यिका से दीक्षित हो गई। जब रामचन्द्र सचेत हुए, तब सीता को न देखकर शोक और क्रोध में बहुत ही दु:खी हुए और सीता को वापस लाने के लिए देवों से व्याप्त उद्यान में पहुँचे। वहाँ मुनियों में श्रेष्ठ सर्वभूषण केवली को देखा और शांत होकर अंजलि जोड़कर नमस्कार करके मनुष्यों के कोठे में बैठ गये। वहीं पर आर्यिकाओं के कोठे में वस्त्रमात्र परिग्रह को धारण करने वाली आर्यिका सीता बैठी थीं। केवली भगवान का विशेष उपदेश सुनकर राम ने संतोष प्राप्त किया। रामचन्द्र की दीक्षा और निर्वाणगमन-अनन्तर अनंगलवण के पुत्र अनन्तलवण को राज्य देकर रामचन्द्र ने आकाशगामी सुव्रत मुनि के समीप निग्र्रन्थ दीक्षाधारण कर ली। उस समय शत्रुघ्न, विभीषण, सुग्रीव आदि कुछ अधिक सोलह हजार राजा साधु हुए और सत्ताईस हजार प्रमुख-प्रमुख स्त्रियाँ श्रीमती नामक साध्वी के पास आर्यिका हुर्इं। रामचन्द्र उत्तम चर्या से युक्त गुरु की आज्ञा लेकर एकाकी विहार करने लगे। पाँच दिन का उपवास कर धीर वीर योगी रामचन्द्र पारणा के लिए नन्दस्थली नगरी में आये। उनकी दीप्ति और सुन्दरता को देखकर नगर में बड़ा भारी कोलाहल हो गया। पड़गाहन के समय हे स्वामिन्! यहाँ आइये! यहाँ ठहरिये! इत्यादि अनेकों शब्दों से आकाश व्याप्त हो गया, हाथियों ने भी खम्भे तोड़ डाले, घोड़े हिनहिनाने लगे और बंधन तोड़ डाले, उनके रक्षक दौड़ पड़े। प्रतिनन्दी ने भी क्षुभित हो वीरों को आज्ञा दी कि जाओ! इन मुनिराज को मेरे पास ले आओ। इस प्रकार भटों के कहने से महामुनि रामचन्द्र अन्तराय जानकर वापस चले गये, तब वहाँ और अधिक क्षोभ मच गया। कृतिकर्म विधि २७६ / अमृतर्विषणी टीका वीर ज्ञानोदय ग्रंथमाला श्री गौतम गणधर वाणी अनन्तर रामचन्द्र ने पाँच दिन का दूसरा उपवास ग्रहण कर यह प्रतिज्ञा ले ली कि मुझे वन में आहार मिलेगा तो ग्रहण करूँगा अन्यथा नहीं। कारणवश गये हुए इन्हीं राजा प्रतिनन्दी ने रानी सहित वन में रामचन्द्र को आहारदान देकर पंचाश्चर्य प्राप्त किये। रामचन्द्र को अक्षीणमहानस ऋद्धि थी अत: उस बर्तन का अन्न उस दिन अक्षीण हो गया। घोराघोर तपश्चरण करते हुए रामचन्द्र को माघ शुक्ल द्वादशी के दिन केवलज्ञान प्रगट हो गया। तब देवों ने आकर गंधकुटी की रचना की। रामचन्द्र की आयु सत्तर हजार वर्ष की और शरीर की ऊँचाई सोलह धनुष प्रमाण थी। ये रामचन्द्र सर्वकर्म रहित होकर तुंगी से मुक्ति को प्राप्त हुए हैंं। आज भी राम, लक्ष्मण और सीता का आदर्शजीवन सर्वत्र गाया जाता है। दिगम्बर मुनि और आर्यिकाएं ही करपात्र में आहार लेते हैं
णिच्चेल पाणिपत्तं उवइट्ठं परमजिणवरिंदेहिं। एक्को वि मोक्ख मग्गो सेसा य अमग्गया सव्वे।।१०।।
अर्थ-तीर्थंकर परमदेव ने नग्न मुद्रा के धारी निग्र्रंथ मुनि को ही पाणिपात्र में आहार लेने का उपदेश दिया है। यह एक निर्र्गं्रथ मुद्रा ही मोक्षमार्ग है, इसके सिवाय सब अमार्ग हैं-मोक्ष के मार्ग नहीं है।
लिंगं इच्छीणं हवदि भुंजइ पिडं सुएयकालम्मि। अज्जिय वि एक्कवत्था वत्थावरणेण भुंजेई।।२२।।
अर्थ-एक लिंग स्त्रियों का होता है, इस लिंग-आर्यिका वेष को धारण करने वाली स्त्री दिन में एक ही बार करपात्र से आहार ग्रहण करती है। वह आर्यिका एक वस्त्र-साड़ी धारण करती है और वस्त्रावरण सहित ही आहार ग्रहण करती है।
-भगवान कुंदकुंद देव, सूत्र पाहुड़