स्वपर समय विस्तर निश्चयज्ञेषु च बहुश्रुतेषु। भावविशुद्धियुक्तोऽनुराग: भक्ति:।।१२।।
स्व समय पर-समय पर विस्तार से जानने वाले बहुश्रुत उपाध्यायों में भावों की विशुद्धिपूर्वक अनुराग होना बहुश्रुत भक्ति है।
बहुश्रुत को धारण करने वाले महामुनि ही हम लोगों को सच्चा मोक्षमार्ग दिखलाते हैं। भावश्रुत और अर्थ पदों के कर्ता तीर्थंकर हैं। अनंतर इंद्रभूति ने बाहर अंग और चौदह पूर्वरूप ग्रंथों की एक ही मुहूर्त में क्रम से रचना की थी इसलिये वे गौतम स्वामी ग्रन्थकर्ता हैं। परम्परा से यह श्रुतज्ञान अंग और पूर्व के एकदेश रूप में धरसेनाचार्य को प्राप्त हुआ।
सौराष्ट्र देश में गिरिनगर के निकट ऊर्जयन्तगिरि नाम का महान् पर्वत है। उस पर्वत की चन्द्रगुहा में निवास करने वाले परममुनियों में प्रधान तपस्वी धरसेन नाम के महान् आचार्य हो गये हैं। इन्हें ‘अग्रायणीय’ नामक द्वितीय पूर्व की पंचम वस्तु के चतुर्थ महाकर्मप्राभृत का ज्ञान था। किसी समय अपनी आयु अल्प जानकर आचार्यश्री ने मन में विचार किया कि जितना भी श्रुतज्ञान मुझे है यदि कोई इसे ग्रहण नहीं कर लेगा तो भविष्य में इसका व्युच्छेद हो जावेगा।
उसी समय देशेन्द्र नामक देश में वेणाकतटीपुर में महामहिमा के अवसर पर विशाल मुनिसमुदाय विराजमान था। श्री धरसेनाचार्य ने एक ब्रह्मचारी के हाथ से वहाँ मुनियों के पास एक पत्र भेजा। वहाँ के साधुगण ने भी ब्रह्मचारी के हाथ से उस पत्र को लेकर उसे खोलकर पढ़ा। उसमें लिखा था-
स्वस्ति श्रीमत इत्यूर्जयंततटनिकटचन्द्रगुहा।
वासाद् धरसेनगणी वेणाकतटसमुदितयतीन्।।
अभिवंद्य कार्यमेवम् निगदत्यत्माकमायुरवशिष्टम्।
स्वल्पं तस्मादस्मच्छुतस्य शास्त्रस्य व्युच्छिति:।।
न स्यादयथा तथा द्वौ यतीश्वरो गृहणधारण समर्थो।
निशितप्रज्ञौ यूयं प्रस्थापयत।।
‘स्वस्ति श्रीमान् ऊर्जयंततट के निकट स्थित चन्द्रगुहावास से धरसेनाचार्य वेणाकतट पर स्थित मुनि समूहों की वंदना करके इस प्रकार से कार्य को कहते हैं कि हमारी आयु अब अल्प ही अवशिष्ट रही है इसलिये हमारे श्रुतज्ञान का व्युच्छेद जिस प्रकार से न होने पाये उसी तरह से आप लोग तीक्ष्ण बुद्धि वाले श्रुत को ग्रहण और धारण करने में समर्थ ऐसे यतीश्वरोंं को यहाँ मेरे पास भेजो।
इस पत्र के अर्थ को अच्छी तरह समझकर वहाँ पर स्थित संघ के प्रमुख साधुओं ने अपने समुदाय में अन्वेषण करके अत्यंत कुशल दो मुनियों को भेज दिया। वे मुनिश्री वहाँ ऊर्जयंत गिरि पर आ गये।
जिस दिन वे मुनि वहाँ पहुँचने वाले थे उसकी पहली रात्रि के अंतिम प्रहर में भी धरसेनाचार्य ने स्वप्न देखा कि दो श्वेत बैल मेरे चरणों में नमस्कार कर रहे हैं। इस स्वप्न के देखते ही आँखें खुल गर्इं और ‘जयतु श्रुतदेवता’ इस प्रकार के उच्चारण करते हुए गुरुदेव उठ बैठे। अत: प्रात:काल ही वे दोनों मुनि गुरुदेव के चरण सान्निध्य में पहुँच गये।
उन दोनों मुनियों ने गुरुदेव की वंदना की। गुरु ने भी शास्त्रोक्त विधि से उनका आदर किया। आगंतुक मुनियों ने तीन दिन तक विश्राम करके अनंतर अपने आगमन का हेतु निवेदित किया। तब गुरु ने मन में विचार किया कि यद्यपि ये योग्य प्रतीत होते हैं तो भी इनकी बुद्धि की परीक्षा अवश्य ही कर लेनी चाहिये क्योंकि सुपरीक्षित शिष्य ही सर्वांगीण योग्य माने जाते हैं। अनंतर गुरु ने उन दोनों मुनियों को एक-एक विद्या सिद्ध करने के लिये दी। वे दोनों गुरुदेव के द्वारा दी गई विद्या को लेकर और उनकी आज्ञा से श्री नेमिनाथ तीर्थंकर की सिद्धभूमि पर जाकर विधानपूर्वक अपनी-अपनी विद्या की साधना करने लगे जब उनकी विद्या सिद्ध हो गई तब उनके सामने दो देवियाँ आईं , उनमें से एक देवी के एक ही आँख थी और दूसरी देवी के दाँत बड़े थे।
मुनियों ने जब सामने स्थित इन देवियाँ को देखा तब मन में विचार किया कि देवताओं का यह स्वभाव नहीं है, अवश्य ही हम दोनों के मंत्रों में कुछ अशुद्धि है, तब विद्यायंत्र व्याकरण से उन मंत्रों को देखा। उसमें से जिनके सामने एक आँख वाली देवी आई थी उन्होंने अपने मंत्र में एक वर्ण कम पाया तब मन्त्र व्याकरण के अनुसार ही उसमें शुद्धवर्ण को मिलाकर मंत्र शुद्ध किया तथा जिनके सामने लम्बे दांत वाली देवी आई थी उन्होंने अपने मंत्र को अच्छी तरह देखने पर एक वर्ण अधिक पाया तब मंत्र व्याकरण शास्त्र से उसको निकाल कर मंत्र शुद्ध किया। पुनरपि इन दोनों मुनियों ने अपने शुद्ध मंत्रों का अनुष्ठान किया, मंत्रों की सिद्धि हो जाने पर उनके सामने देवियाँ दिव्य रूप में प्रगट हो गर्इं और बोलीं-हे नाथ! क्या आज्ञा है? बोलिये-
वे मुनि बोले-देवियों! हमारा ऐहिक और पारलौकिक ऐसा कुछ भी कार्य नहीं है जो आप दोनों के द्वारा सिद्ध किया जा सके, मैंने तो केवल गुरुदेव की आज्ञा से ही विद्यामंत्र की आराधना की है। ऐसा सुनकर वे देवियाँ अपने स्थान को चली गर्इं। दोनों मुनिराजों ने मुदितमना वहाँ से आकर गुरु के पास सारा वृतांत निवेदित कर दिया। गुरु ने भी उन्हें अतिशय योग्य समझ करके शुभ मुहूर्त में ग्रंथ पढ़ाना प्रारंभ कर दिया। उन दोनों मुनियों ने गुरु विनय और ज्ञान विनय को करते हुये प्रमादरहित होकर अध्ययन करना शुरू कर दिया।
कुछ दिन व्यतीत हो जाने पर आषाढ़ शुक्ला एकादशी के दिन ग्रंथ अध्ययन की समाप्ति हुई। उस दिन ही देवों ने इन दोनों मुनियों की पूजा की। एक मुनिराज के दाँतों की विषमता को दूर कर देवों ने उनके दाँत कुन्द पुष्प के समान सुन्दर करके उनका ‘‘पुष्पदन्त’’ यह नामकरण किया तथा दूसरे मुनिराज की भी भूत जाति के देवों ने तूरनाद, जयघोष और गंध पुष्पमाला, धूप आदि से पूजा करके ‘‘भूतबलि’’ ऐसा नाम घोषित किया।
अनंतर श्री धरसेनाचार्य ने विचार किया कि अब मेरी मृत्यु का समय निकट है। इन दोनों शिष्यों को संक्लेश न हो जावे अत: उन्हें प्रियहित वचनों द्वारा योग्य उपदेश देकर दूसरे ही दिन वहाँ से कुरीश्वर देश की तरफ विहार करा दिया। वे दोनों मुनिराज गुरु की पुन:-पुन: वंदना करके गुरु से अमूल्य निधिरूप श्रुतज्ञान को लेकर वहाँ से निकले और नौ दिनों में उस नगर में जाकर आषाढ़ वदी पंचमी। (श्रावण वदी पंचमी)१ को वर्षायोग ग्रहण कर लिया। वर्षाकाल समाप्त कर वे मुनि दक्षिण की तरफ विहार करके करहाठ देश में पहुँच गये।
उनमें से पुष्पदंत महामुनि ने ‘‘जिनपालित’’ नाम के अपने भानजे को देखकर उसे दीक्षा देकर अपने साथ लिया और वनवास देश में निकल गये। भूतबलि मुनिराज द्रविड़ देश की मथुरा नगरी में ठहर गए। पुष्पदंत मुनिराज अपने भानजे को पढ़ाने के लिये ‘‘महाकर्म प्रकृति प्राभृत’’ का छह खण्डों में उपसंहार करना चाहते थे अत: उन्होंने बीस अधिकार गर्भित सत्प्ररूपणा सूत्रों को बनाकर शिष्य को पढ़ाया और श्री भूतबली गुरु का अभिप्राय जानने के लिये जिनपालित को यह ग्रंथ देकर उनके पास भेज दिया। इस रचना की और पुष्पदंत मुनि के षट्खण्डागम रचना के अभिप्राय को जानकर एवं उनकी आयु भी अल्प है ऐसा समझकर श्री भूतबलि आचार्य ने द्रव्य प्ररूपणा आदि अधिकारों को बनाया। इस तरह पूर्व के सूत्रों सहित छह हजार श्लोक प्रमाण में इन्होंने पाँच खण्ड बनाये और तीस हजार प्रमाण सूत्रों में ‘‘महाबंध’’ नाम का छठा खण्ड बनाया। छह खण्डों के नाम-जीवस्थान, क्षुद्रकबंध, स्वामित्व, वेदनाखण्ड, वर्गणाखण्ड और महाबंध हैं।
भूतबलि आचार्य के इन षट्खण्डागम सूत्रों को पुस्तकबद्ध किया और ज्येष्ठ सुदी पंचमी के दिन चतुर्विध संघ सहित कृतिकर्मपूर्वक महापूजा की। उसी दिन से इस पंचमी का ‘‘श्रुतपंचमी’’ यह नाम प्रसिद्ध हो गया और तब से लेकर आज तक जैन लोग इस श्रुतपंचमी के दिन श्रुत की पूजा करते आ रहे हैं।
पुन: भूतबलि ने जिनपालित को षट्खण्डागम ग्रंथ देकर पुष्पदंत मुनि के पास भेज दिया। उन्होंने अपने चिंतित कार्य को पूरा हुआ देखकर महान् हर्ष और श्रुत के अनुराग से चातुर्वर्ण संघ के मध्य गंध, अक्षत, माला, वस्त्र, चंदोवा, घंटा आदि के द्वारा महापूजा की। इस तरह षट्खण्डागम श्रुत की उत्पत्ति और ‘‘श्रुतपंचमी’’ की प्रसिद्धि का वर्णन हुआ।
इसी तरह श्री गुणधर आचार्य ने ‘‘कषायप्राभृत’’ नाम का सिद्धांत ग्रंथ बनाया है। इन षट्खण्डागम और कषायप्राभृत दोनों सिद्धांत ग्रंथों पर अनेक टीकायें रची गई हैं, जिनमें ‘‘षट्खण्डागम’’ की ‘‘धवला’’ टीका ही उपलब्ध है शेष नहीं एवं कषायप्राभृत के चूर्णिसूत्र एवं ‘‘जयधवला’’ टीका उपलब्ध हैं और महाबंध पर ‘‘महाधवला’’ नाम की टीका उपलब्ध है।
षट्खण्डागम के ऊपर रची गई टीकायें, उनके रचयिता आचार्य और उनका अनुमानित समय देखिये-
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! टीका के नाम !! आचार्य !! श्लोक प्रकाण टीकायें !! शताब्दी
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” परिकर्म “” कुन्दकुन्द देव “” १२००० “” दूसरी
“-
” पद्धति “”शामकुंड “” १२००० “”तीसरी
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” चूड़ामणि “” तुम्बुलु “” ९१००० “” चौथी
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” संस्कृतमयी “” र्तािककार्व “” ४८००५ “” पाँचवीं
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” ± “” समंतभद्र “” ± “” ±
“-
” व्याख्या प्रज्ञप्ति “” वप्पदेवगुरु “” ८००० “” छठी
“-
” धवला “” श्रीवीरसेन “” ९२००० “”आठवीं
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“महाधवला “” श्रीजिनसेन “” ± “” नवमीं
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ऐसे महान ग्रंथराज की जिस दिन पूजा हुई है और द्वादशांग का अंश रूप होने से जिसका महावीर प्रभु की वाणी से सीधा संबंध है ऐसे ‘‘धवल’’ ग्रंथों को विराजमान कर उनकी श्रुतपंचमी के दिन महामहोत्सव से पूजा करिये जिससे ज्ञान का क्षयोपशम वृद्धिंगत होकर आगे केवलज्ञान की प्राप्ति होगी।
इसी तरह श्री कुन्दकुन्द देव, पूज्यपाद स्वामी, अकलंक देव आदि ने बहुश्रुत गुरुओं की भक्ति करके ही महान-महान् ग्रंथों का सृजन किया है। जिन ग्रंथों के दर्शन से, स्वाध्याय से आज हम लोगों का मोक्षमार्ग प्रशस्त हो रहा है अत: यह बहुश्रुतभक्ति भावना भी तीर्थंकर प्रकृति बंध का कारण है।