‘‘भरतैरावतयोर्वृद्धिह्रासौ षट्समयाभ्यामुत्सर्पिण्यवसर्पिणीभ्यां’’ तत्त्वार्थसूत्र अ. ३, सूत्र २७।
इस सूत्र में कहे गये अनुसार भरत और ऐरावत क्षेत्रों में ही उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी के षट्कालों से मनुष्यों की आयु, अवगाहना आदि में वृद्धि ह्रास होती रहती है। इन भरत ऐरावत क्षत्रों के पाँच-पाँच म्लेच्छ खण्ड में ये काल परिवर्तन नहीं है केवल चतुर्थकाल के आदि से लेकर अंत तक ही परिवर्तन होता है और अंत से आदि तक चतुर्थ की आदि जैसा हो जाता है। भरत क्षेत्र के आर्यखंड में अवसर्पिणी और उत्सर्पिणीरूप काल की पर्यायें होती हैं। अवसर्पिणी काल में मनुष्य एवं तिर्यंचों की आयु, शरीर की ऊँचाई और विभूति इत्यादि सभी घटते रहते हैं एवं उत्सर्पिणी में बढ़ते रहते हैं। दस कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण अवसर्पिणी और दस कोड़ाकोड़ी प्रमाण उत्सर्पिणी काल है। इन दोनों को मिलाने पर बीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम का एक कल्पकाल होता है। अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी में से प्रत्येक के छह-छह भेद हैं। सुषमा-सुषमा, सुषमा, सुषमादुष्षमा, दुष्षमा-सुषमा, दुष्षमा और अतिदुष्षमा। इन छहों में से प्रथम सुषमासुषमा चार कोड़ाकोड़ी सागर, सुषमा तीन कोड़ाकोड़ी सागर, तीसरा काल दो कोड़ाकोड़ी सागर, चौथा ब्यालीस हजार वर्ष कम एक कोड़ाकोड़ी सागर, पंचम दुष्षमाकाल इक्कीस हजार वर्ष प्रमाण और छठा अतिदुष्षमा काल इक्कीस हजार वर्ष प्रमाण है। इनका परिवर्तन आरे के समान होता है अर्थात् प्रथम काल से छठे काल तक अवसर्पिणी पुन: छठे काल से प्रथम काल तक उत्सर्पिणी चलती है।
सुषमासुषमा नामक प्रथम काल में उत्तम भोगभूमि की व्यवस्था रहती है। इस काल में वहाँ की भूमि रज, कण्टक, विकलत्रय से रहित होती है। वहाँ कल्हार, कमल आदि से मनोहर वापियाँ रत्नों की सीढ़ियों से सहित रहती हैं। भोगभूमिजनों के सुंदर भवन शय्या आसनों से रमणीय अनुपम हैं। वहाँ की पृथ्वी चार अंगुल प्रमाण हरित घास से सहित पंचवर्ण वाली मन नयनों को हरण करने वाली होती है वहाँ पर वापिका, कल्पवृक्ष आदि से परिपूर्ण उन्नत पर्वत हैं वहाँ पर असंज्ञी जीव नहीं हैं। परस्पर में कलह, विरोध, स्वामी, भृत्य आदि भेद नहीं रहता है। ये युगलिया चौथे दिन (बेर) के बराबर आहार करते हैं, यहाँ के स्त्री, पुरुषों की ऊँचाई तीन कोस, आयु तीन पल्य प्रमाण होती है। प्रत्येक के पृष्ठ भाग में दो सौ छप्पन हड्डियाँ होती हैं। उत्तम संहनन, संस्थान से सहित मंदकषायी, कवलाहार करते हुए भी मलमूत्र से रहित होते हैं। वहाँ के पानांग आदि दस प्रकार के कल्पवृक्ष उत्तम भोगोपभोग सामग्री को प्रदान करते रहते हैं। पानांग, तूर्यांग, वस्त्रांग, भूषणांग, भोजनांग, आलयांग, दीपांग, भाजनांग, मालांग और ज्योतिरंग जाति के कल्पवृक्ष अपने नामों के अनुसार ही फल देने वाले हैं। इन भोगभूमि के मनुष्यों का बल नौ हजार हाथी के प्रमाण होता है। मिथ्यात्व से युक्त, मंदकषायी, दानादि से तत्पर मनुष्य और तिर्यंच भोगभूमि को प्राप्त करते हैं कदाचित् तिर्यंच आयु का बंध करके पुन: क्षायिक आदि सम्यक्त्व को प्राप्त करने वाला मनुष्य इन भोगभूमियों में जन्म ले लेता है। भोगभूमि के मनुष्यों और तिर्यंचों में आयु के नव मास शेष रहने पर उनकी माता को गर्भ रहता है और युगल बालक—बालिका के जन्म लेते ही वे माता-पिता जंभाई एवं छींक से मरण को प्राप्त हो जाते हैं। मरकर ये भोगभूमिज युगल भवनत्रिक से सौधर्म युगल तक देवगति में जन्म ले लेते हैं। भोगभूमि के जन्मे बालयुगल अंगूठा चूसने, बैठने, अस्थिर गमन करने, स्थिर गमन करने, कलागुणों की प्राप्ति, तारुण्य और सम्यक्त्व की योग्यता इनमें से प्रत्येक अवस्था में कम से कम तीन दिन व्यतीत करते हैं। अर्थात् २१ दिनों में तरुण हो जाते हैं। वहाँ के मनुष्य-तिर्यंच में कोई जातिस्मरण से, कोई देवों से प्रतिबोधित होकर, कोई ऋद्धिधारी मुनियों के उपदेश से सम्यक्त्व को ग्रहण करते हैं। वे भोगभूमिज, चौंसठ कलाओं से सहित, परस्पर के वैर विरोध से रहित मृदु-मधुर भाषी होते हैं। वहाँ के व्याघ्र आदि पशुगण मधुर कल्पवृक्षों के ही फलों का, तृण, कंद, अंकुरादि का उपयोग करते हैं। माँसाहारी नहीं हैं। यहाँ के जीव सुवर्ण की कांति सदृश कांति वाले हैं। काल के प्रारंभ से अंत तक यहाँ पर धीरे-धीरे आयु, शरीर की ऊँचाई आदि में ह्रास होने लगता है।
इस द्वितीयकाल में मध्यम भोगभूमि की व्यवस्था होती है यहाँ के मनुष्यों की आयु दो पल्य और शरीर की अवगाहना दो कोस रहती है, शरीर का वर्ण चंद्रमा के सदृश धवल रहता है। इनके पृष्ठ भाग की हड्डियाँ एक सौ अट्ठाईस रहती हैं, उत्तम संस्थान एवं संहनन से युक्त ये जीव तीन दिन में बहेड़ा के समान आहार लेते हैं। इस काल में बाल युगल अंगूठा चूसने में ५-५ दिन व्यतीत करते हैं अर्थात् ३५ दिनों में तरुण होकर सम्यक्त्व ग्रहण के योग्य हो जाते हैं। बाकी वर्णन प्रथम कालवत् है। इसमें भी आयु बल आदि घटते जाते हैं।
ऊँचाई आदि घटते-घटते तृतीय काल प्रवेश करता है उस समय यहाँ पर जघन्य भोगभूमि की व्यवस्था रहती है। मनुष्यों के शरीर की ऊँचाई एक कोस, आयु एक पल्य है एवं हड्डियाँ चौंसठ होती हैं। इस काल में उत्तम संहनन आदि से युक्त मनुष्य एक दिन के अंतराल से आंवले के बराबर अमृतमय आहार लेते हैं। इस काल में उत्पन्न हुये बाल युगल अंगूठा चूसने में सात दिन, बैठने में सात दिन आदि से ४९ दिन में सम्यक्त्व ग्रहण की योग्यता प्राप्त कर लेते हैं। इन भोगभूमियों में शत्रु आदि की बाधायें, असि मषि आदि षट्कर्म, प्रचंडशीत, उष्ण आदि बाधायें नहीं होती हैं। वहाँ के जीव संयम, देश संयम को ग्रहण नहीं कर सकते हैं।
इस तृतीय काल के अंत में कुछ कम एक पल्योपम के आठवाँ भाग मात्र काल शेष रहता है तब ‘प्रतिश्रुति’ नामक प्रथम कुलकर जन्म लेता है। इसके शरीर का उत्सेध एक हजार आठ सौ धनुष, आयु पल्य के दसवें भाग प्रमाण और देवी स्वयंप्रभा नामक थी। उस समय समस्त भोगभूमिज लोग चंद्र और सूर्य के मण्डलों को देखकर ऐसा समझकर डर गये कि ‘‘यह कोई आकस्मिक महाभयंकर उत्पात हुआ है।’’ तब प्रतिश्रुति नामक कुलकर ने उनको निर्भय करने के लिए बताया कि कालवश अब तेजांग जाति के कल्पवृक्षों के किरण-समूह मंद पड़ गये हैं इस कारण अब आकाश में सूर्य-चंद्र मण्डल प्रकट हुये हैं। इनकी ओर से तुम लोगों को भय का कोई कारण नहीं है। आकाश में यद्यपि इनका उदय और अस्त नित्य ही होता रहा है, किन्तु ज्योतिरंग कल्पवृक्ष की किरणों से प्रकट नहीं दिखते थे। इस प्रकार के कुलकर के वचनों को सुनकर सभी जन निर्भय होकर उनकी पूजा स्तुति करते हैं। इन प्रतिश्रुति कुलकर के क्रम से सन्मति, क्षेमंकर, क्षेमंधर, सीमंकर, सीमंधर, विमलवाहन, चक्षुष्मान्, यशस्वी, अभिचंद्र, चन्द्राभ, मरुदेव, प्रसेनजित् और नाभिराज ये १४ कुलकर उत्पन्न हुये हैं जो कि क्रम से काल के वश में होने वाली एक-एक असुविधाओं को दूर करते रहे हैं। अंतिम कुलकर श्री नाभिराय की पत्नी ‘मरुदेवी’ नाम की थी, इनकी आयु एक कोटि पूर्व प्रमाण, शरीर उत्सेध पाँच सौ धनुष एवं वर्ण स्वर्ण के सदृश था। उस समय बालकों का नाभिनाल अत्यंत लम्बा होने लगा था इसलिए नाभिराय कुलकर उसके काटने का उपदेश देते हैं। इसके पहले आठवें मनु के समय माता पिता पुत्र युगल को देखने लगते थे आगे संतान जीवित रहने पर उन्हें क्रीड़ा कराना, चुप करना आदि कार्य करने लगते थे। चौदहवें मनु के समय कल्पवृक्ष नष्ट हो गये तब प्रजाजन श्री नाभिराज कुलकर की शरण में आये और करुणापूर्वक नाभिराज ने आजीविका के लिए वनस्पति फल आदि खाने का उपदेश दिया। प्रतिश्रुति को आदि लेकर नाभिराज पर्यंत ये चौदह मनु पूर्वभव में विदेह क्षेत्र के भीतर महाकुल में राजकुमार थे। वे सब संयम, तप और ज्ञान से युक्त पात्रों के लिए दानादि देने में कुशल अपने योग्य अनुष्ठान से संयुक्त, मार्दव, आर्जव आदि गुणों से सहित होते हुये पूर्व में मिथ्यात्व सहित होने से मनुष्यायु का बंध कर लेते हैं, पश्चात् जिनेन्द्र भगवान के चरणों के समीप क्षायिक सम्यक्त्व को ग्रहण करते हैं। अपने योग्य श्रुत को पढ़कर इन राजकुमारों में से कितने ही आयु के क्षीण होने पर अवधिज्ञान के साथ भोगभूमि में मनुष्य होकर अवधिज्ञान से और कितने ही जातिस्मरण से भोगभूमिज मनुष्यों को जीवन के उपाय बतलाते हैं इसलिये मुनीश्वरों के द्वारा ये ‘मनु’ कहे जाते हैं।
सुषमादुष्षमा नामक चतुर्थ काल में चौरासी लाख पूर्व, तीन वर्ष, आठ मास और एक पक्ष शेष रहने पर भगवान ऋषभदेव का अवतार हुआ है और तृतीय काल में तीन वर्ष, आठ मास, एक पक्ष के अवशिष्ट रहने पर ऋषभदेव सिद्धपद को प्राप्त हुये हैं।
अब यहाँ से आगे, पुण्योदय से भरतक्षेत्र में मनुष्यों में श्रेष्ठ और संपूर्ण लोक में प्रसिद्ध त्रेसठ शलाका पुरुष उत्पन्न होने लगते हैं। चौबीस तीर्थंकर, बारह चक्रवर्ती, नव बलभद्र, नव वासुदेव और नव प्रतिवासुदेव ये त्रेसठ शलाका पुरुष हैं। नाभिराय के पुत्र भी वृषभदेव प्रथम तीर्थंकर हुये हैं ऐसे ही महावीर पर्यंत चौबीस तीर्थंकर धर्मतीर्थ के प्रवर्तक हैं। भरत, सगर, मघवा, सनत्कुमार, शांति, कुंथु, अर, सुभौम, पद्म, हरिषेण, जयसेन और ब्रह्मदत्त ये बारह चक्रवर्ती हुये हैं। विजय, अचल, सुधर्म, सुप्रभ, सुदर्शन, नंदी, नंदिमित्र, राम और पद्म ये नव बलभद्र हुये हैं। त्रिपृष्ठ, द्विपृष्ठ, स्वयंभू, पुरुषोतम, पुरुषसिंह, पुंडरीक, दत्त, लक्ष्मण और कृष्ण ये नव नारायण हैं। अश्वग्रीव, तारक, मेरक, मधुकैटभ, निशुंभ, बलि, प्रहरण, रावण और जरासंध ये नव प्रतिनारायण हैं। ये भरतक्षेत्र के तीर्थंकर पंचमहाकल्याण से पृथ्वी तल पर विख्यात रहते हैं। इस हुंडावसर्पिणी के निमित्त से नौ रुद्र एवं नव नारद भी उत्पन्न होते हैं। इन सबका विस्तृत वर्णन तिलोयपण्णत्ति ग्रंथ से देख लेना चाहिए। चौबीस तीर्थंकरों के समयों में अनुपम आकृति के धारक बाहुबलि को प्रमुख करके चौबीस कामदेव होते हैं। तीर्थंकर उनके माता-पिता, चक्रवर्ती, बलदेव, नारायण, प्रतिनारायण, रुद्र, नारद, कामदेव और कुलकर पुरुष यह सब भव्य होते हैं, नियम से सिद्ध पद को प्राप्त करते हैं। तीर्थंकर तो उसी भव से मोक्ष प्राप्त करते हैं, अन्यों के लिए उसी भव का नियम नहीं है। भगवान ऋषभदेव के मुक्त हो जाने के पश्चात् पचास लाख करोड़ सागरों के बीतने पर अजितनाथ तीर्थंकर ने मोक्ष पद प्राप्त किया। भगवान् ऋषभदेव ने तीसरे काल में ही मोक्ष प्राप्त किया है और भगवान् के समय तृतीय काल में ही कर्मभूमि की व्यवस्था हो गयी थी। यह बात केवल इस हुंडावसर्पिणी के निमित्त से ही हुई है।
चतुर्थ काल में तीन वर्ष, आठ मास, एक पक्ष अवशिष्ट रहने पर श्री वीरप्रभु सिद्धपद को प्राप्त हुये हैं। अर्थात् वीर भगवान के निर्वाण होने के पश्चात् तीन वर्ष, आठ मास और एक पक्ष के व्यतीत हो जाने पर दुष्षमाकाल नामक पंचम काल प्रवेश करता है। इस पंचम काल के प्रवेश में मनुष्यों की उत्कृष्ट आयु एक सौ बीस वर्ष, ऊँचाई सात हाथ और पृष्ठ भाग में हड्डियाँ चौबीस होती हैं। जिस दिन भगवान महावीर स्वामी मुक्त हुये उसी दिन गौतम गणधर स्वामी को केवलज्ञान प्राप्त हुआ। गौतमस्वामी के मुक्त होने के बाद, सुधर्मा स्वामी, उनके बाद जम्बूस्वामी केवली हुये। ये सब चतुर्थ काल के ही जन्म लेने वाले हैं। जम्बूस्वामी के मोक्ष जाने के पश्चात् अन्य कोई मोक्ष नहीं गये। अनंतर ग्यारह अंग, चौदह पूर्व के पारंगत श्रुतकेवली, कुछ-कुछ अंगों के धारक, पुन: अंगों के अंश के धारक आचार्य परमेष्ठी होते रहे हैं। आज भी श्रमण परम्परा को अक्षुण्ण रखने वाले दिगम्बर, मुनिराज विहार कर रहे हैं। इस दुष्षम काल में मनुष्यों की आयु, ऊँचाई, धर्म आदि का ह्रास होता रहता है। आगे इस काल के अंत में इक्कीसवां कल्की उत्पन्न होता है उसके समय में ‘वीरांगज’ नामक एक मुनि, ‘सर्वश्री’ नामक आर्यिका, अग्निदत्त श्रावक और पंगुश्री श्राविका होगी। एक दिन कल्की अपने मंत्रियों से कहता है कि मंत्रिवर! ऐसा कोई पुरुष तो नहीं है जो मेरे वश में न हो। तब मंत्री कहता है कि हे राजन्! एक मुनि आपके वश में नहीं है। तब कल्की राजा की आज्ञा होती है कि तुम उस मुनि के आहार में प्रथम ग्रास को शुल्क के रूप में ग्रहण करो। तत्पश्चात् कल्की की आज्ञा से प्रथम ग्रास के माँगे जाने पर मुनीन्द्र तुरंत उसे देकर और अंतराय करके वापस चले जाते हैं एवं अवधिज्ञान को भी प्राप्त हो जाते हैं उसी समय मुनिराज आर्यिका और श्रावक, श्राविका को बुलाकर प्रसन्नचित्त से कहते हैं कि अब दुष्षमा काल का अंत आ चुका है, तुम्हारी और हमारी तीन दिन की आयु शेष है और यह अंतिम कल्की है। तब वे चारों जन चार प्रकार के आहार और परिग्रहादि को जन्मपर्यंत छोड़कर संन्यास को ग्रहण कर लेते हैं। ये सब कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष के अंत में—अमावस्या के दिन स्वाति नक्षत्र में सूर्य के उदित रहने पर संन्यास को धारण करके समाधिमरण को प्राप्त कर लेते हैं और सौधर्म स्वर्ग में देव हो जाते हैं। उसी समय मध्यान्ह काल में क्रोध से सहित कोई असुरकुमार जाति का उत्तम देव कल्की राजा को मार डालता है और सूर्यास्त समय अग्नि नष्ट हो जाती है यह कल्की धर्मद्रोह से मरकर पहली नरक पृथ्वी में चला जाता है।
इसके बाद तीन वर्ष आठ माह और एक पक्ष के बीत जाने पर महाविषम अतिदुष्षमा नामक छठा काल प्रविष्ट होता है। इस काल के प्रवेश में शरीर की ऊँचाई साढ़े तीन हाथ, पृष्ठ भाग की हड्डियाँ बारह और उत्कृष्ट आयु बीस वर्ष प्रमाण होती है। उस काल में सब मनुष्यों का आहार मूल, फल और मत्स्य आदि होते हैं। उस समय मनुष्यों को वस्त्र, वृक्ष, मकान आदि दिखाई नहीं देते हैं। अत: सभी मनुष्य नंगे और भवनों से रहित होकर वनों में घूमते हैं। उस समय के लोग सर्वांग धूम्रवर्ण, पशुवत् आचरण करने वाले, क्रूर, बहिरे, अन्धे, गूंगे, दारिद्र्य एवं क्रोध से परिपूर्ण दीन, हुंडक संस्थान युक्त, कुबड़े, बौने, व्याधि वेदना से विकल, लोभ, मोहयुक्त, पापिष्ठ, पुत्र—कलत्र से रहित, दुर्गंध युक्त होते हैं। इस छठे काल में ये जीव नरक, तिर्यंच गति से आते हैं और नरक, तिर्यंच गति में ही जाते हैं। दिन—प्रतिदिन इन जीवों की आयु, बल, ऊॅँचाई आदि हीन होते जाते हैं। उनंचास दिन कम इक्कीस हजार वर्षों के बीतने पर जंतुओं को भयदायक घोर प्रलयकाल प्रस्तुत होता है। उस समय महागंभीर एवं भीषण संवर्तक वायु चलती है जो सात दिन तक वृक्ष, पर्वत और शिला प्रभृति को चूर्ण करती है। इससे वहाँ के मनुष्य, तिर्यंचों को महादु:ख प्राप्त होता है तथा वे वस्त्र और स्थान की अभिलाषा करते हुए बहुत प्रकार से विलाप करते हैं इस समय पृथक्-पृथक् संख्यात वह बहत्तर युगल गंगा, सिंधु नदियों की वेदी और विजयार्ध वन के मध्य में प्रवेश करते हैं। इसके अतिरिक्त देव और विद्याधर दयार्द्र होकर मनुष्य और तिर्यंचों में से संख्यात जीवराशि को उन प्रदेशों मेें ले जाकर रखते हैं। उस समय गंभीर गर्जना से युक्त मेघ-सात-सात दिन तक हिम आदि की वर्षा करते हैं क्रमश: उनके नाम—बर्फ, क्षारजल, विषजल, धूम्र, धूलि, वज्र और अग्नि है। इन वज्र, अग्नि आदि की वर्षा से भरतक्षेत्र के भीतर आर्यखंड में चित्रा पृथ्वी के ऊपर स्थित वृद्धिंगत हुई एक योजन की भूमि जलकर नष्ट हो जाती है अर्थात यहाँ के आर्यखंड की चित्रा पृथ्वी एक योजन तक ऊँची उठ गई है वह जलकर खाक होकर शेष भूमियों के समान हो जाती है। इस छठे काल के अंत के मनुष्यों की ऊँचाई एक हाथ, आयु सोलह वर्ष प्रमाण रहती है। इस प्रकार इक्कीस हजार वर्ष का यह काल समाप्त हो गया है।
इसके पश्चात् उत्सर्पिणी इस नाम से विख्यात काल प्रवेश करता है इसके छह भेदों में से प्रथम अतिदुष्षमा, दुष्षमा, दुष्षमसुषमा, सुषमदुष्षमा, सुषमा और सुषमा-सुषमा काल क्रम से आते हैं। प्रथम अतिदुष्षमा काल छठे काल के सदृश छठा काल ही कहलाता है। उत्सर्पिणी काल के प्रारंभ में पुष्कर मेघ सात दिन तक सुखोत्पादक जल बरसाते हैं। जिससे वज्राग्नि से जली हुई पृथ्वी उत्तम हो जाती है। पुन: क्षीर मेघ क्षीर जल बरसाते हैं, अमृत मेघ अमृत जल बरसाते हैं और रस मेघ दिव्यरस की वर्षा करते हैं विविध रसपूर्ण औषधियों से भरी हुई भूमि सुस्वाद परिणत हो जाती है। पश्चात् शीतल गंध को ग्रहण कर वे मनुष्य और तिर्यंच गुफाओं के बाहर निकल आते हैं। दिन प्रतिदिन उनकी आयु, अवगाहना, बुद्धि, तेज, बाहुबल, क्षमा, धैर्य इत्यादि बढ़ते जाते हैं। इस प्रकार इक्कीस हजार वर्षों के बीत जाने पर भरतक्षेत्र में अतिदुष्षमा नामक काल पूर्ण होता है।
पुन: दुष्षमाकाल प्रवेश करता है। इस काल में मनुष्य, तिर्यंचों का आहार बीस वर्ष तक पहले के समान रहता है। इस काल के प्रथम प्रवेश में उत्कृष्ट आयु बीस वर्ष और ऊँचाई तीन हाथ प्रमाण होती है इस काल में एक हजार वर्षों के शेष रहने पर भरतक्षेत्र में चौदह कुलकरों की उत्पत्ति होने लगती है उसमें कनक, कनकप्रभ आदि कुलकरों में अंतिम कुलकर पद्मपुंगव नाम के होते हैं इनमें से प्रथम कुलकर की ऊँचाई चार हाथ और अंतिम कुलकर की ऊँचाई सात हाथ होती है उस समय श्रेष्ठ औषधि, वनस्पति आदि के होते हुए भी अग्नि नहीं रहती है अत: मथ करके अग्नि उत्पन्न करो, अन्न पकाओं आदि रूप से शिक्षा देते हैं वे पुरुष अत्यन्त म्लेच्छ होते हैं विशेष यह है कि पद्मपुंगव कुलकर के समय से विवाह विधियाँ प्रचलित हो जाती हैं।
चतुर्थ काल के प्रवेश में ऊँचाई सात हाथ और आयु एक सौ बीस वर्ष प्रमाण होती है। इस समय मनुष्य के पृष्ठ भाग की हड्डियाँ चौबीस होती हैं तथा मनुष्य पाँच वर्ण वाले शरीर से युक्त, मर्यादा, विनय, लज्जा से सहित संतुष्ट और सम्पन्न होते हैं। इस काल में चौबीस तीर्थंकर होते हैं उनमें से अंतिम कुलकर का पुत्र अन्तिम तीर्थंकर होता है उस समय से यहाँ विदेह क्षेत्र जैसी वृत्ति होने लगती है। महापद्म सुरदेव से लेकर अनंतवीर्य पर्यंत चौबीस तीर्थंकर होते हैं। इनमें से प्रथम तीर्थंकर की ऊँचाई सात हाथ और आयु एक सौ सोलह वर्ष प्रमाण होती है तथा अंतिम तीर्थंकर की आयु एक पूर्वकोटि और ऊँचाई पाँच सौ धनुष प्रमाण होती है। इस काल में बारह चक्रवर्ती, नव बलभद्र, नव नारायण, नव प्रतिनारायण उत्पन्न होते हैं। ये त्रेसठ शलाका पुरुष एक कोड़ा-कोड़ी सागरोपम प्रमाण इस तृतीय काल में क्रम से उत्पन्न होते हैं। यह काल ब्यालीस हजार वर्ष कम एक कोड़ा-कोड़ी सागर प्रमाण है। इस काल के अंत में मनुष्यों की आयु एक पूर्व कोटि प्रमाण, ऊँचाई पाँच सौ पच्चीस धनुष और पृष्ठ भाग की हड्डियाँ चौंसठ होती हैं। उस समय नर-नारी देव एवं अप्सराओं के सदृश होते हैं।
इसके बाद सुषमा दुष्षमा काल के प्रारंभ में मनुष्यों की आयु एक पूर्व कोटि वर्ष प्रमाण होती है। उस समय उन मनुष्यों की ऊँचाई पाँच सौ धनुष प्रमाण होती है, पुन: क्रम से उत्तरोत्तर आयु और ऊँचाई प्रत्येक काल के बल से बढ़ती ही जाती है। इस समय यह पृथ्वी जघन्य भोगभूमि कही जाती है। इस काल के अंत में मनुष्यों की आयु एक पल्य प्रमाण होती है उस समय मनुष्य एक कोस ऊँचे और प्रियंगु जैसे वर्ण के होते हैं। उस समय से यहाँ पर कल्पवृक्ष उत्पन्न होने लगते हैं।
इसके बाद सुषमा नामक काल प्रवेश करता है। इस काल के प्रथम प्रवेश में मनुष्य, तिर्यंचों की आयु आदि पूर्व के ही समान होती है परन्तु काल स्वभाव से उत्तरोतर बढ़ती जाती है। उस समय के नर-नारी दो कोस ऊँचे, पूर्ण चंद्रमा के सदृश मुख वाले, बहुत विनय एवं शील से सम्पन्न होते हैं एवं मनुष्यों के पृष्ठ भाग की हड्डियाँ एक सौ अट्ठाईस हैं। इस समय यहाँ पर मध्यम भोगभूमि की व्यवस्था रहती है।
तदनंतर सुषमासुषमा नामक काल प्रविष्ट होता है काल स्वभाव से मनुष्य, तिर्यंचों की आयु, अवगाहना आदि आगे बढ़ती जाती है। उस समय यह पृथ्वी उत्तम भोगभूमि के नाम से प्रसिद्ध हो जाती है। उस काल के अंत में मनुष्यों की आयु तीन पल्य प्रमाण और ऊँचाई तीन कोस प्रमाण है। उस समय के मनुष्य सूर्य के समान स्वर्ण वर्ण वाले हैं। उन मनुष्यों की पृष्ठ भाग की हड्डियां दो सौ छप्पन होती हैं तथा वे बहुत प्रकार की विक्रिया करने में समर्थ ऐसी शक्तियों से संयुक्त होते हैं। इस प्रकार से फिर नियम से वही अवसर्पिणी काल प्रवेश करता है। इस प्रकार आर्यखंड में छह काल प्रवर्तते रहते हैं।
पाँच म्लेच्छ खंड और विद्याधर श्रेणियों में अवसर्पिणी एवं उत्सर्पिणी में क्रम से चतुर्थ और तृतीय काल के प्रारंभ से अंत तक हानि व वृद्धि होती रहती है अर्थात् इन स्थानों में अवसर्पिणी में चतुर्थ काल के प्रारंभ से अंत तक हानि और उत्सर्पिणी काल में तृतीय काल के प्रारंभ से अंत तक वृद्धि होती ही रहती है। यहाँ अन्य कालों की प्रवृत्ति नहीं होती है। भरत और ऐरावत क्षेत्र में अरहट की घड़ी के समान अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी काल अनंतानंत होते हैं। असंख्यात अवसर्पिणी, उत्सर्पिणी की शलाकाओं के बीत जाने पर हुंडावसर्पिणी नाम से प्रसिद्ध एक काल आता है जो कि आजकल चल रहा है। इस हुंडावसर्पिणी काल के भीतर सुषमादुषमा काल की स्थिति में से कुछ काल के अवशिष्ट रहने पर भी वर्षा आदि पड़ने लगती है और विकलत्रय जीवों की उत्पत्ति होने लगती है। इसके अतिरिक्त इसी काल में कल्पवृक्षों का अंत और कर्मभूमि का व्यापार प्रारंभ हो जाता है उस काल में प्रथम तीर्थंकर और प्रथम चक्रवर्ती भी उत्पन्न हो जाते हैं। चक्रवर्ती का विजय भंग और थोड़े से ही जीवों का मोक्ष गमन, चक्रवर्ती द्वारा की गयी द्विजों के वंश की उपत्ति होती है। दुषमासुषमा काल में अट्ठावन ही शलाका पुरुष होते हैं और मध्य में धर्मतीर्थ की व्युच्छित्ति भी होती है। ग्यारह रुद्र और कलहप्रिय नौ नारद होते हैं तथा इसके अतिरिक्त सातवें, तेइसवें और अंतिम तीर्थंकर के ऊपर उपसर्ग भी होता है। तृतीय-चतुर्थ, पंचम काल में उत्तम धर्म को नष्ट करने वाले दुष्ट, पापिष्ट, कुदेव, कुलिंगी भी दिखने लगते हैं। चाण्डाल, शबर, पुलिंद, किरात इत्यादि जातियाँ उत्पन्न होती हैं तथा दुषमाकाल में ब्यालीस कल्की व उपकल्की होते हैं। अतिवृष्टि, अनावृष्टि, भूवृद्धि, भूकम्प, वज्राग्नि आदि विचित्र भेदों को लिये हुये नाना प्रकार के दोष इस हुंडावसर्पिणी काल में हुआ करते हैं।