वदसमिदिकसायाणं, दंडाण तहिंदियाण पंचण्हं। धारणपालणणिग्गहचागजओ संजमो भणिओ।।११९।।
व्रतसमितिकषायाणां दण्डानां तथेन्द्रियाणां पंचानाम्। धारणपालननिग्रहत्यागजय: संयमो भणित:।।११९।।
अर्थ — अहिंसा, अचौर्य, सत्य, शील (ब्रह्मचर्य), अपरिग्रह इन पाँच महाव्रतों का धारण करना, ईर्या, भाषा, एषणा, आदाननिक्षेपण, उत्सर्ग इन पाँच समितियों का पालना, क्रोधादि चार प्रकार की कषायों का निग्रह करना, मन, वचन, कायरूप दण्ड का त्याग तथा पाँच इंद्रियों का जय इसको संयम कहते हैं। अतएव संयम के पाँच भेद हैं।
संगहिय सयलसंजममेयजममणुत्तरं दुरवगम्मं। जीवो समुव्वहन्तो, सामाइयसंजमो होदि।।१२०।।
संगृह्य सकलसंयममेकयममनुत्तरं दुरवगम्यम्। जीव: समुद्वहन् सामायिकसंयमो भवति।।१२०।।
अर्थ —उक्त व्रतधारण आदिक पाँच प्रकार के संयम में संग्रह नय की अपेक्षा से एकयम—भेद रहित होकर अर्थात् अभेद रूप से ‘‘मैं सर्व सावद्य का त्यागी हूँ’’ इस तरह से जो सम्पूर्ण सावद्य का त्याग करना इसको सामायिक संयम कहते हैं। यह संयम अनुपम है, दुर्लभ है और दुर्धर्ष है। इसके पालन करने वाले को सामायिक संयमी कहते हैं।
छेत्तूण य परियायं, पोराणं जो ठवेइ अप्पाणं। पंचजमे धम्मे सो, छेदोवट्ठावगो जीवो।।१२१।।
छित्वा च पर्यायं पुराणं य: स्थापयति आत्मानम्। पंचयमे धर्मे स: छेदोपस्थापको जीव:।।१२१।।
अर्थ—प्रमाद के निमित्त से सामायिकादि से च्युत होकर जो सावद्य क्रिया के करने रूप सावद्य पर्याय होती है उसका प्रायश्चित्त विधि के अनुसार छेदन करके जो जीव अपनी आत्मा को व्रतधारणादिक पाँच प्रकार के संयमरूप धर्म में स्थापन करता है उसको छेदोपस्थापनसंयमी कहते हैं।
पंचसमिदो तिगुत्तो, परिहरइ सदा वि जो हु सावज्जं। पंचेक्कजमो पुरिसो, परिहारयसंजदो सो हु।।१२२।।
पंचसमित: त्रिगुप्त: परिहरति सदापि यो हि सावद्यम्। पंचैकयम: पुरुष: परिहारकसंयत: स हि।।१२२।।
अर्थ —पाँच प्रकार के संयमियों में से सामान्य—अभेदरूप से अथवा विशेष—भेदरूप से सर्व-सावद्य का सर्वथा परित्याग करने वाला जो जीव पाँच समिति और तीन गुप्ति को धारण कर उनसे युक्त रहकर सदा सावद्य का त्याग करता है उस पुरुष को परिहारविशुद्धि संयमी कहते हैं अर्थात् जो इस तरह से सावद्य से सदा दूर रहता है वह जीव पाँच प्रकार के संयमियों में तीसरे परिहारविशुद्धिसंयम का धारक माना जाता है।
अणुलोहं वेदन्तो, जीवो उवसामगो व खवगो वा। सो सुहुमसांपराओ, जहखादेणूणओ किंचि।।१२३।।
अणुलोभं विदन् जीव: उपशामको वा क्षपको वा। स सूक्ष्मसाम्पराय: यथाख्यातेनोन: किंचित्।।१२३।।
अर्थ —जिस उपशम श्रेणी वाले अथवा क्षपक श्रेणी वाले जीव के अणुमात्र लोभ—सूक्ष्मकृष्टि को प्राप्त लोभकषाय के उदय का अनुभव होता है उसको सूक्ष्मसांपरायसंयमी कहते हैं इसके परिणाम यथाख्यात चारित्र वाले जीव के परिणामों से कुछ ही कम होते हैं क्योंकि यह संयम दशवें गुणस्थान में होता है और यथाख्यात संयम ग्यारहवें से शुरू होता है।
उवसंते खीणे वा, असुहे कम्मम्मि मोहणीयम्मि। छदुमट्ठो व जिणो वा, जहखादो संजदो सो दु।।१२४।।
उपशान्ते क्षीणे वा अशुभे कर्मणि मोहनीये। छद्मस्थो वा जिनो वा यथाख्यात: संयत: स तु।।१२४।।
अर्थ—अशुभरूप मोहनीय कर्म के सर्वथा उपशम हो जाने से ग्यारहवें गुणस्थानवर्ती जीवों के और सर्वथा क्षीण हो जाने से बारहवें गुणस्थानवर्ती जीवों के तथा तेरहवें, चौदहवें गुणस्थान वाले जीवों के यथाख्यात संयम होता है।
भावार्थ —यथावस्थित आत्मस्वभाव की उपलब्धि को यथाख्यात संयम कहते हैं। यह संयम ग्यारहवें से लेकर चौदहवें तक चार गुणस्थानों में होता है। ग्यारहवें में चारित्र मोहनीय कर्म के उपशम से और ऊपर के तीन गुणस्थानों में क्षय से यह होता है। इस तरह से यह संयम छद्मस्थ और जिन दोनों ही प्रकार के जीवों के पाया जाता है। क्षायोपशमिक ज्ञानी को छद्मस्थ और क्षायिक ज्ञानी को जिन कहते हैं।
दंसणवयसामाइय, पोसहसच्चित्तरायभत्ते य। बम्हारंभपरिग्गह, अणुमणमुद्दिट्ठदेसविरदेदे।।१२५।।
दर्शनव्रतसामायिका: प्रोषधसचित्तरात्रिभक्ताश्च। ब्रह्मारम्भपरिग्रहानुमतोदिदष्टदेशविरता एते।।१२५।।
अर्थ —दार्शनिक, व्रतिक, सामायिक, प्रोषधोपवासी, सचित्तविरत, रात्रिभुक्तिविरत, ब्रह्मचारी, आरम्भविरत, परिग्रहविरत, अनुमतिविरत, उद्दिष्टविरत ये देशविरत (पाँचवें गुणस्थान) के ग्यारह भेद हैं।
भावार्थ —नाम के एकदेश से पूर्ण नाम का बोध हो जाता है, इस नियम के अनुसार यद्यपि गाथा में ग्यारह प्रतिमाओं के नाम का एकदेश मात्र ही लिखा है परन्तु उससे पूर्ण नाम ग्रहण कर लेना चाहिए।
जीवा चोद्दसभेया, इंदियविसया तहट्ठबीसं तु। जे तेसु णेव विरया, असंजदा ते मुणेदव्वा।।१२६।।
जीवाश्चतुर्दशभेदा इंद्रियविषया: तथाष्टाविंशतिस्तु। ये तेषु नैव विरता असंयता: ते मन्तव्या:।।१२६।।
अर्थ —चौदह प्रकार के जीव समास और अट्ठाईस प्रकार के इंद्रियों के विषय इनसे जो विरक्त नहीं हैं उनको असंयत कहते हैं।
भावार्थ —चौदह जीव समासों के भेद पहले बता चुके हैं और इंद्रिय विषयों के अट्ठाईस भेद आगे की गाथा में बता रहे हैं। जो इनसे विरत हैं वे संयमी हैं। जो विरत नहीं हैं वे असंयमी हैं। संयम दो प्रकार का है—प्राणि संयम और इंद्रिय संयम। जीवों की रक्षा को प्राणि संयम और इंद्रिय विषयों के त्याग को इंद्रिय संयम कहते हैं। जो इस संयम से रहित हैं उनको असंयमी कहते हैं।
पमदादिचउण्हजुदी, सामयियदुगं कमेण सेसतियं। सत्तसहस्सा णवसय, णवलक्खा तीहिं परिहीणा।।१२७।।
प्रमत्तादिचतुर्णां युति: सामायिकद्विकं क्रमेण शेषत्रिकम्। सप्तसहस्राणि नव शतानि नव लक्षाणि त्रिभि: परिहीनानि।।१२७।।
अर्थ —प्रमत्तादि चार गुणस्थानवर्ती जीवों का जितना प्रमाण है उतने सामायिकसंयमी होते हैं और उतने ही छेदोपस्थापनासंयमी होते हैं। परिहारविशुद्धि संयम वाले तीन कम सात हजार (६९९७), सूक्ष्मसांपराय संयम वाले तीन कम नौ सौ (८९७), यथाख्यात संयम वाले तीन कम नौ लाख (८९९९९७) होते हैं।
संयममार्गणा का लक्षण—अहिंसादि पंचमहाव्रतों को धारण करना, पाँच समितियों का पालना, क्रोधादि चार कषायों का निग्रह करना, मन वचन, काय रूप दण्ड का त्याग तथा पाँच इंद्रियों का जय इसको संयम कहते हैं। संयम के पाँच भेद हैं—सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसांपराय और यथाख्यात। इसी में संयमासंयम और असंयम के मिलाने से संयममार्गणा के सात भेद हो जाते हैं।
प्रश्नv—संयममार्गणा में देशसंयम और असंयम को क्यों लिया ?
उत्तर —उस उस मार्गणा में उसके प्रतिपक्षी को भी ले लिया जाता है अथवा जैसे—वन में आम्र की प्रधानता होने से आम्रवन कहलाता है किन्तु उसमें नींबू आदि के वृक्ष भी रहते हैं। जो संयम की विरोधी नहीं है ऐसी संज्वलन बादर कषाय के उदय से आरंभ के तीन संयम होते हैं। सूक्ष्मसंज्वलन लोभ के उदय से सूक्ष्म सांपराय संयम और सम्पूर्ण मोहनीय कर्म के उपशम या क्षय से यथाख्यात संयम होता है। तीसरी प्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय से संयमासंयम और दूसरी अप्रत्याख्यानावरण के उदय से असंयम भाव होता है।
सामायिक —‘‘मैं सर्व सावद्य का त्यागी हूँ’’ इस तरह अभेद रूप से जो सम्पूर्ण सावद्य का त्याग करता है वह अनुपम दुर्लभ सामायिक संयम का धारी है।
छेदोपस्थापना —प्रमाद के योग से सामायिकादि से च्युत होकर उसका विधिवत् छेदन करके अपनी आत्मा को पंच प्रकार के व्रतों में स्थापन करना।
परिहारविशुद्धि —जन्म से लेकर तीस वर्ष तक सुखी रहकर पुन: दीक्षा ग्रहण कर तीर्थंकर के पादमूल में आठ वर्ष तक प्रत्याख्यान नामक नवमें पूर्व का अध्ययन करने वाले मुनि के यह संयम प्रगट होता है। इससे वे मुनि तीन संध्याकाल को छोड़कर प्रतिदिन दो कोस गमन करते हैं। इस संयम में वर्षाकाल में विहार का निषेध नहीं है। इसमें प्राणी पीड़ा का परिहार—त्याग होने से विशुद्धि है अत: ये संयमी जीवराशि में विहार करते हुए भी जल से भिन्न कमलवत् हिंसा से अलिप्त रहते हैं।
सूक्ष्मसांपराय —सूक्ष्म लोभ के उदय से दसवें गुणस्थान में सूक्ष्म सांपराय संयम होता है।
यथाख्यात —मोहनीय कर्म के सर्वथा उपशम या क्षय से यह संयम होता है। ग्यारहवें में उपशम से होता है और बारहवें, तेरहवें, चौदहवें गुणस्थान में कषाय के क्षय से होता है।
संयमासंयम —जो सम्यग्दृष्टि पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत, चार शिक्षाव्रत ऐसे बारह व्रतों से युक्त हैं वे देशव्रती अथवा संयमासंयमी हैं। इस देशव्रत से भी जीवों के असंख्यातगुणी कर्मों की निर्जरा होती है। इस देशव्रत में दर्शन प्रतिमा से लेकर उद्दिष्ट त्याग प्रतिमा तक ग्यारह भेद भी होते हैं।
असंयम —चौदह प्रकार के जीवसमास और अट्ठाईस प्रकार के इंद्रियों से जो विरत नहीं हैं उनको असंयम कहते हैं। जीव१ समास का पहले वर्णन हो चुका है। पाँच रस, पाँच वर्ण, दो गंध, आठ स्पर्श और षड्ज, ऋषभ, गांधार, मध्यम, पंचम, धैवत, निषाद ये सात स्वर तथा एक मन इस तरह इंद्रियों के अट्ठाईस विषय हैं अर्थात् संयम के प्राणिसंयम, इंद्रियसंयम की अपेक्षा दो भेद हैं। जीवसमासगत प्राणिहिंसा से विरत होना प्राणिसंयम और इंद्रिय विषयों से विरत होना इंद्रिय संयम है। असंयम में दोनों प्रकार की विरति नहीं है।
संयमी जीवों की संख्या—छठे गुणस्थान से लेकर चौदहवें तक सब संयमी हैं। उन सबकी संख्या तीन कम नव करोड़ प्रमाण है अर्थात् एक साथ अधिक से अधिक इतने संयमी रह सकते हैं। प्रमत्त गुणस्थानवर्ती जीव ५,९३,९८,२०६, अप्रमत्त वाले २,९६,९९,१०३, उपशमश्रेणी वाले चारों गुणस्थानवर्ती १,१९६, क्षपकश्रेणी वाले चारों गुणस्थानवर्ती २,३९२, सयोगीजिन ८,९८,५०२, अयोगीजिन ५९८ इन सबका जोड़ ८,९९,९९,९९७ है। इन सबको मैं हाथ जोड़कर सिर झुकाकर त्रिकरणशुद्धि- पूर्वक नमस्कार करता हूँ। आज पंचमकाल में मिथ्यात्व से लेकर चतुर्थ गुणस्थान तक असंयमी, देशसंयमी तथा मुनि अवस्था में सामायिक, छेदोपस्थापना संयमधारी मुनि होते हैं और पंचम काल के अंत तक होते रहेंगे इसमें कोई संशय नहीं है, ऐसा श्री कुन्दकुन्द भगवान ने कहा है। ऐसा समझकर वर्तमान काल के मुनियों को भी भावलिंगी मानकर नमस्कार, भक्ति, आहारदान आदि करके अपने मनुष्य जीवन को सफल करना चाहिए। हाँ, यदि कोई साधु चारित्रभ्रष्ट हों तो उनका स्थितिकरण उपगूहन करना चाहिए अन्यथा उनकी उपेक्षा कर देना चाहिए, उनकी निंंदा करके अपने सम्यक्त्व को मलिन नहीं करना चाहिए और स्वयं असंयत जीवन से निकलकर देशसंयत या मुनि बनना चाहिए।