प्रवचने च श्रुतदेवतासन्निधिगुणयोगदुरासदे
मोक्षपदभवनारोहणसुरचितसोपानभूते भावशुद्धियुक्तोऽनुराग: भक्ति:।।१३।।
श्रुतदेवता के प्रसाद से कठिनता से प्राप्त होने वाले और मोक्ष महल पर आरोहण करने के लिये सीढ़ीरूप ऐसे प्रवचन में भावविशुद्धिपूर्वक अनुराग करना प्रवचनभक्ति है ।
प्रवचन अर्थात् जिनेन्द्र भगवान् के मुख से निकले हुये वचन जो कि पूर्वापर दोष रहित शुद्ध होते हैं उन्हें ‘आगम’ यह संज्ञा भी है। गणधर देव ने इन जिन वचनों को द्वादशांगरूप में गूँथा है । आचारांग, सूत्रकृतांग आदि बारह अंग हैं । अंतिम अंग में ही परिकर्म सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्वगत और चूलिका ऐसे पाँच भेद हैं। चतुर्थ भेद पूर्वगत के उत्पादपूर्व, अग्रायणीयपूर्व आदि चौदह भेद होते हैं ।
वर्तमान में अंग-पूर्वरूप श्रुतज्ञान नहीं है फिर भी उसी के अंशरूप श्रुत को प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग इन चार अनुयोगरूप में कहा गया है। यह उपलब्ध श्रुत भी साक्षात् जिनेन्द्र भगवान के वचनरूप ही है। ‘‘जैसे कि नदी का जल घड़े में भर लेने पर भी वह नदी का ही है ।’’१
इस श्रुतज्ञान को भी गुणभद्रसूरि श्रुतस्कंध कहते हुये बहुत ही सुन्दर भाव दर्शाते हैं-
अनेकांतात्मार्थ प्रसवफलभारातिविनते।
वच: पर्णाकीर्णे विपुलनयशाखाशतयुते।।
समुत्तुंगे सम्यक् प्रततमतिमूले प्रतिदिनं।
श्रुतस्वंधे धीमान् रमयतु मनोमर्वटममुम्।।१७०।।
जो श्रुतस्वंधरूप वृक्ष अनेक धर्मात्मक पदार्थरूप एवं फूल-फलों के भार से अतिशय झुका हुआ है, वचनों रूप पत्तों से व्यक्त है, विस्तृत नयों रूप सैकड़ों शाखाओं से युक्त है, उन्नत है तथा समीचीन एवं विस्तृत मतिज्ञानरूप जड़ से स्थिर है, उस श्रुतज्ञानरूप वृक्ष के ऊपर बुद्धिमान् साधु अपने मनरूप बंदर को प्रतिदिन रमाता रहे ।
पटना नगर के राजा चन्द्ररुचि की चन्द्रप्रभा रानी के श्रुतशालिनी नाम की एक कन्या थी। उसने जिनमती आर्यिका के पास विद्याध्ययन किया। एक दिन घर में स्वत: बुद्धि से चौकी पर उसने श्रुतस्वंध मण्डल बनाया। यह देखकर सभी को बहुत ही आश्चर्य हुआ। एक दिन उद्यान में श्री वर्धमान मुनि को आया सुनकर राजा सपरिवार वंदना हेतु गये। वहाँ पर कन्या के विषय में प्रश्न किया। मुनिराज ने कहा – राजन् ! यह विदेह क्षेत्र में राजा गुणभद्र की रानी गुणवती थी। श्री सीमंधर भगवान के मुख से व्रत का महत्त्व सुनकर इसने विधिवत् उसका अनुष्ठान किया था । इस व्रत के माहात्म्य को सुनकर पुन: श्रुतशालिनी ने उसका विधिवत् अनुष्ठान किया । चारित्र के प्रभाव से विषय कषायों को अतिशय मंद कर अंत में समाधिपूर्वक मरण करके इंद्रपद प्राप्त कर लिया । वहाँ से च्युत होकर विदेह क्षेत्र के अशोकपुर नगर के राजा पद्मनाथ की पट्टरानी जितपद्मा के गर्भ से पुत्र होकर तीर्थंकर प्रकृति का बंध करके नयंधर नाम के तीर्थंकर प्रसिद्ध हो गये। यह श्रुतस्वंध व्रत भादों बदी एकम् से शुरू होकर पूर्णिमा तक किया जाता है । इसी तरह जिनागम की पूजा, भक्ति, विनय करना व स्वाध्याय करना सब ‘प्रवचन भक्ति’ है ।
मगध देश के अंतर्गत अहिच्छत्र नाम का एक सुन्दर शहर है। वहाँ के राजा का नाम अवनिपाल था। उसके यहाँ पाँच सौ अच्छे विद्वान् ब्राह्मण थे, वे वेद-वेदांग के जानकार थे और राज्यकार्य में भी अवनिपाल को अच्छी सहायता देते थे किन्तु उनमें एक अवगुण था कि वे लोग बड़े घमण्डी थे और अपने से सबको हीन समझते थे। वे प्रतिदिन प्रात:काल और सायंकाल नियम से अपनी संवंदन आदि क्रियायें किया करते। उनमें विशेष बात यह थी कि जब वे राजसभा में जाते थे तो मार्ग में स्थित भगवान् पाश्र्वनाथ के मंदिर में होकर जाया करते थे।
एक दिन एक चारित्रभूषण नाम के मुनिराज भगवान के सम्मुख देवागम स्तोत्र का पाठ कर रहे थे। उन सब ब्राह्मणों में प्रधान पात्रकेशरी ने वह स्तोत्र पाठ सुना, उन्हें वह बहुत ही भावपूर्ण और अच्छा लगा।
उन्होंने मुनि से कहा– ‘‘क्या आप इसका अर्थ भी जानते हैं ?’’
मुनिराज ने कहा– ‘‘नहीं, मैं तो केवल मात्र पढ़ता ही हूँ ।’’
पात्रकेसरी फिर बोले – ‘‘हे मुने ! इस स्तोत्र को पुन: एक बार पढ़कर सुना दीजिये ।’’
मुनिराज ने पुन: देवागम स्तोत्र पढ़ा। पात्रकेसरी की धारणा शक्ति बड़ी विलक्षण थी। उन्हें एक बार के सुनने से ही पूरा का पूरा स्तोत्र याद हो गया। वे घर गये और उसका अर्थ सोचने लगे। उस समय दर्शनमोहनीय कर्म के क्षयोपशम से उन्हें यह निश्चय हो गया कि जिनेन्द्रदेव ने जो जीवादि पदार्थों का स्वरूप कहा है वही सत्य है, इनसे अतिरिक्त और कुछ सत्य नहीं है। वे पात्रकेसरी रात्रि में सोचने लगे-
‘‘अहो! इस स्तोत्र में तत्व की, सर्वज्ञ की मीमांसा करते हुए सच्चे तत्वों का और सच्चे देव का स्वरूप बताया है। प्रमाण और नयों का विवेचन भी बहुत ही सुन्दर है किन्तु अनुमान प्रमाण का लक्षण समझ में नहीं आ रहा है।’’
ऐसा सोचते-सोचते वे चिंतानिमग्न हो गये। इसी बीच पद्मावती देवी का आसन कम्पायमान हुआ, उन्होंने आकर पात्रकेसरी से कहा-
‘‘आपको अनुमान के लक्षण में संदेह है, चिन्ता मत कीजिये। प्रात: भगवान पार्श्वनाथ की र्मूित के फणा पर लिखा हुआ लक्षण मिल जाने से आपकी शंका का समाधान आपको मिल जायेगा।’’
पद्मावती माता के दर्शन से पात्रकेशरी को बहुत ही संतुाष्ट हुई। वे प्रात: ही प्रसन्नमना पार्श्वनाथ जिन भगवान् के दर्शनार्थ पहुँचे। वहाँ फणा पर श्लोक लिखा देखते हैं-
अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम्।
नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम्।।
अर्थ – जहाँ पर अन्यथानुपपत्ति है, वहाँ हेतु के दूसरे तीन रूप मानने से क्या प्रयोजन है ? तथा जहाँ पर अन्यथानुपपत्ति नहीं है, वहाँ हेतु के तीन रूप मानने से भी क्या फल है ?
साध्य के अभाव में हेतु के न मिलने को ही अन्यथानुपपन्न कहते हैं। इसलिये यह अन्यथानुपपत्ति हेतु का असाधारण लक्षण है किन्तु बौद्ध इसको न मानकर हेतु के तीन रूप अवयव मानते हैं-पक्षे सत्व, सपक्षेसत्व और विपक्षाद् व्यावृत्ति। किन्तु जैनाचार्यों का कहना है कि कहीं-कहीं पर इन तीनों अवयवों के न रहने पर भी अन्यथानुपपत्ति के बल से हेतु समीचीन हेतु हो जाता है और कहीं-कहीं पर हेतु के तीन रूप रहने पर भी अन्यथानुपपत्ति के न होने से हेतु सत् हेतु न होकर अहेतु हो जाता है। जैसे एक मुहूर्त के अनंतर रोहिणी का उदय होगा क्योंकि अभी कृतिका का उदय है। यहाँ पर पक्षेसत्व न होकर भी अन्यथानुपपत्ति के बल से यह हेतु सच्चा हेतु है। तथा ‘‘गर्भस्थ पुत्र काला होगा क्योंकि यह मैत्र सेठ का पुत्र है।’’ यहाँ पर त्रैरूप्य के रहने पर भी अन्यथानुपपत्ति के न होने से यह हेतु हेत्वाभास है।
जब पात्रकेसरी विद्वान ने इस श्लोक को पढ़ा उनके आनंद का पार नहीं रहा, जैसे सूर्योदय के होने पर सम्पूर्ण अन्धकार भाग जाता है उसी प्रकार से उनका संदेहरूपी अंधकार भाग गया। इसके पश्चात् पात्रकेसरी विद्वान ने जिनेन्द्रदेव को ही अपना आराध्य देव बना लिया और दृढ़ सम्यग्दृष्टि बन गया। देखो, देवागम स्तोत्र के सुनने मात्र से उसका दर्शन मोह अंधकार दूर हो गया और वह सच्चा तत्वान्वेषी बन गया। जिनेन्द्रदेव के स्तोत्र, देवागम स्तोत्र, स्वयंभूस्तोत्र आदि जिनेन्द्र देव के प्रवचन के अंश को लिये हुए हैं। इन स्तोतों की या अन्य किसी भी जिनदेव द्वारा प्ररूपित और महामुनियों द्वारा कथित शास्त्र की प्रवचन यह संज्ञा है। उनकी भक्ति करना, विनय करना, पूजा करना, बड़े आदर से उन्हें अपने हृदय में धारण करना, उनका पढ़ना-पढ़ाना सब प्रवचन भक्ति के ही प्रकार हैं। यह देवागम स्तोत्र श्री समंतभद्र स्वामी द्वारा रचा गया है। इसमें आप्त की मीमांसा की गई है। इसी स्तोत्र पर श्री भट्टाकलंक देव ने अष्टशती भाष्य की रचना की और उस भाष्य को गुंफित करके श्री विद्यानंद आचार्य ने इसी स्तोत्र की ‘अष्टसहस्री’ नाम से विस्तृत टीका की है। जिसका नाम स्वयं ग्रंथकार ने ‘कष्टसहस्री’ कहा है। यह जैन दर्शन का सर्वोपरि न्याय ग्रंथ है। इसकी महिमा बहुत ही विशेष है। इसकी