उसी युद्ध भूमि में चारों तरफ से सफाई करके विद्याधर लोग तम्बू लगाकर शिविर बना देते हैंं। पहले गोपुर के दरवाजे पर राजा नल, दूसरे पर नील, तीसरे पर विभीषण, चौथे पर कुमुद, पाँचवें पर सुषेण, छठे पर सुग्रीव और सातवें द्वार पर स्वयं भामंडल हाथ में नंगी तलवार लेकर सुरक्षा में खड़े हो जाते हैं। महाराज राम वहाँ आकर भाई के शोक में विह्वल हो मूर्च्छित हो जाते हैं। अनेक उपचारों से होश को प्राप्त होकर वे करुण विलाप करने लगते हैं – ‘‘हे भाई! तू कर्म योग से इस दुर्लंघ्य सागर को भी उल्लंघ कर यहाँ आया और अब इस दुरावस्था को कैसे प्राप्त हो गया? हाय भाई ! मैं तेरे बिना एक क्षण भी नहीं रह सकता हूँ अब जल्दी उठ और मेरे से वार्तालाप कर। ओह!….अब तुझे सीता से भी कुछ प्रयोजन नहीं है। अरे….तू सुख में दुःख में सदैव साथ देता रहा है। तेरे बिना मैं जीवित नहीं रह सकूंगा।…..’’
राम इधर-उधर देखकर कहते हैं – ‘‘सुग्रीव! भामण्डल! अब तुम लोग अपने-अपने स्थान जाओ। ओह! विभीषण! मैं तुम्हारा कुछ भी उपकार नहीं कर सका सो मुझे बहुत ही दु:ख है। ओह!……अब आप लोग चिता प्रज्ज्वलित करो मैं अपने प्यारे भाई के साथ उसी में बैठकर परलोक प्रयाण करूँगा। अब मुझे कुछ भी नहीं चाहिए।’’ इतना कहते हुए श्रीराम लक्ष्मण का आलिंगन करने को आगे बढ़ते हैं कि मध्य में ही जाम्बूनद राजा उन्हें रोक लेते हैं – ‘‘नाथ! सावधान होइए, ऐसा प्रमाद उचित नहीं है ये दिव्य अस्त्र हैं। देव! आप धैर्य धारण करो, विलाप करना यह इसका प्रतीकार नहीं है। आपका भाई नारायण है इसका असमय में मरण नहीं हो सकता। आप शांति धारण करो।’’अन्य विद्याधर कहते हैं – ‘‘अहो! सूर्योदय के पहले-पहले यदि इस शक्ति का कुछ उपाय सूझ गया तो ठीक अन्यथा इनका मरण निश्चित है।’’ सभी विद्याधर मंत्रणा में लगे हुए हैं और र्दुिर्दन के समान अश्रुवर्षा कर रहे हैं। उधर दरवाजे पर एक अपरिचित व्यक्ति आता है और अन्दर घुसना चाहता है।