जं सामण्णं गहणं, भावाणं णेव कट्टुमायारं।
अविसेसदूण अट्ठे, दंसणमिदि भण्णदे समये।।१२८।।
यत् सामान्यं ग्रहणं भावनां नैव कृत्वाकारम्।
अविशेष्यार्थान् दर्शनमिति भण्यते समये।।१२८।।
अर्थ—सामान्य—विशेषात्मक पदार्थ के विशेष अंश को ग्रहण न करके केवल सामान्य अंश का जो निर्विकल्परूप से ग्रहण होता है उसको परमागम में दर्शन कहते हैं।
भावार्थ —यद्यपि वस्तु सामान्य-विशेषात्मक है फिर भी उसमें आकार-भेद न करके जाति गुण क्रिया आकार प्रकार की विशेषता किए बिना ही जो स्व या पर का सत्तामात्र सामान्य ग्रहण होता है वही दर्शनोपयोग है।
चक्खूण जं पयासइ, दिस्सइ तं चक्खुदंसणं वेंति।
सेसिंदियप्पयासो, णायव्वो सो अचक्खू त्तिं।।१२९।।
चक्षुषो: यत् प्रकाशते पश्यति तत् चक्षुर्दर्शनं ब्रुवन्ति।
शेषेन्द्रियप्रकाशो ज्ञातव्य: स अचक्षुरिति।।१२९।।
अर्थ—चक्षुरिन्द्रिय संबंधी जो सामान्य प्रकाश—आभास अथवा देखना, अथवा वह ग्रहण विषय का प्रकाशनमात्र जिसके द्वारा हो—जिसके द्वारा वह देखा जाय, यद्वा उसके कर्ता—देखने वाले को चक्षु दर्शन कहते हैं और चक्षु के सिवाय दूसरी चार इंद्रियों के द्वारा अथवा मन के द्वारा जो पदार्थ का सामान्यरूप से ग्रहण होता है उसको अचक्षु दर्शन कहते हैं।
परमाणुआदियाइं, अन्तिमखंधं ति मुत्तिदव्वाई।
तं ओहिदंसणं पुण, जं पस्सइ ताइं पच्चक्खं।।१३०।।
परमाण्वादीनि अन्तिमस्कन्धमिति मूर्तद्रव्याणि।
तदवधिदर्शनं पुन: यत् पश्यति तानि प्रत्यक्षम्।।१३०।।
अर्थ—अवधिज्ञान होेने के पूर्व समय में अवधि के विषयभूत परमाणु से लेकर महास्कन्धपर्यन्त मूर्तद्रव्य का जो सामान्यरूप से प्रत्यक्ष—देखना-ग्रहण-प्रकाश-अवभासन होता है। उसको अवधिदर्शन कहते हैं। इस अवधिदर्शन के अनंतर प्रत्यक्ष अवधिज्ञान होता है।
बहुविहबहुप्पयारा, उज्जोवा परिमियम्मि खेत्तम्मि।
लोगालोगवितिमिरो, जो केवलदंसणुज्जोओ।।१३१।।
बहुविधबहुप्रकारा उद्योता: परिमिते क्षेत्रे।
लोकालोकवितिमिरो य: केवलदर्शनोद्योत:।।१३१।।
अर्थ—तीव्र, मंद, मध्यम आदि अनेक अवस्थाओं की अपेक्षा तथा चंद्र-सूर्य आदि पदार्थों की अपेक्षा अनेक प्रकार के प्रकाश जगत में पाये जाते हैं परन्तु वे परिमित क्षेत्र में ही रहते और काम करते हैं किन्तु जो लोक और अलोक दोनों जगह प्रकाश करता है ऐसे आत्मा के सामान्य आभास रूप प्रकाश को केवलदर्शन कहते हैं।
भावार्थ —समस्त पदार्थों का जो सामान्य दर्शन होता है उसको केवलदर्शन कहते हैं।
दर्शनोपयोग का लक्षण—प्रत्येक वस्तु सामान्य विशेषात्मक है फिर भी उसमें आकार भेद रूप विशेष अंश को ग्रहण करके जो स्व या पर का सत्तारूप सामान्य ग्रहण होता है उसे दर्शन कहते हैं।
उसके चार भेद हैं —चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन, केवलदर्शन।
चक्षुदर्शन —चक्षुइंद्रिय संबंधी जो सामान्य आभास होता है वह चक्षुदर्शन है।
अचक्षुदर्शन —चक्षु के सिवाय अन्य चार इंद्रियों के द्वारा या मन के द्वारा जो पदार्थ का सामान्य रूप से ग्रहण होता है वह अचक्षुदर्शन है।
अवधिदर्शन —अवधिज्ञान के पूर्व समय में अवधि के विषयभूत पदार्थों का जो सामान्यावलोकन है वह अवधिदर्शन है।
केवलदर्शन —जो लोक और अलोक दोनों जगह प्रकाश करता है ऐसे आत्मा के सामान्य आभास रूप प्रकाश को केवलदर्शन कहते हैं।
तीन इंद्रिय जीवों तक अचक्षुदर्शन ही होता है। चार इंद्रिय और पंचेन्द्रिय जीवों को दोनों दर्शन होते हैं। पंचेन्द्रिय सम्यग्दृष्टि को ही किन्हीं अवधिज्ञानी को अवधिदर्शन और केवली भगवान को ही केवलदर्शन होता है। संसारी जीवों के ज्ञान और दर्शन एक साथ नहीं होते हैं किन्तु केवली भगवान के दोनों एक साथ ही होते हैं।
अत: दर्शनमार्गणा को समझकर समस्त बाह्य संकल्प विकल्प को छोड़कर अंतर्मुख होकर निर्विकल्प समाधि में स्थिरता प्राप्त कर शुद्धात्मा का अवलोकन करना चाहिए।