ज्ञान, दर्शन, चारित्र की कृतिकर्म विधिपूर्वक वन्दना अमृतर्विषणी टीका— यहां श्री गौतमस्वामी ने ज्ञान, दर्शन और चारित्र की भी कृतिकर्म विधिपूर्वक वंदना की है। ये पांच प्रकार के ज्ञान—सम्यग्ज्ञान और दर्शन—औपशमिक, क्षायोपशमिक व क्षायिक ये तीनों प्रकार के सम्यग्दर्शन तथा सामायिक, छदोपस्थापना आदि पांच प्रकार के सम्यक््â चारित्र सदा ही पूज्य हैं—वंद्य हैं। ये भी इन्हीं ढाई द्वीपों तक ही होते हैं अर्थात् इनके धारण करने वाले मनुष्य भी ढाई द्वीपों तक ही संभव है।। यद्यपि सम्यग्दर्शन चारों गतियों में होता है–सम्यग्दृष्टि चारों गतियों में व असंख्यात द्वीप समुद्रों तक विद्यमान हैं, फिर भी यहां उन अव्रतियों की कृतिकर्म विधिपूर्वक वंदना नहीं की गई है। ऐसा समझना। कायोत्सर्ग का लक्षण ९ बार णमोकार मंत्र को २७ उच्छ्वासों में जपने को कायोत्सर्ग कहते हैं कायोत्सर्ग के ३२ दोष कायोत्सर्ग के ३२ दोष बतलाते हैं
१. घोटक दोष-घोड़े के समान एक पैर उठाकर अर्थात् एक पैर से भूमि को स्पर्श न करते हुए खड़े होना।
२. लता दोष-वायु से हिलती लता के समान हिलते हुए कायोत्सर्ग करना।
३. स्तंभ दोष-स्तंभ का सहारा लेकर अथवा स्तंभ के समान शून्य हृदय होकर कायोत्सर्ग करना।
४. कुड्य दोष-दीवाल आदि का आश्रय लेकर कायोत्सर्ग करना।
५. माला दोष-पीठादि-पाटा आदि के ऊपर आरोहरण कर अथवा मस्तक के ऊपर कोई रज्जु वगैरह वस्तु का आश्रय लेकर खड़े होना।
६. शबरी दोष-भिल्लनी के समान गुह्य अंग को हाथों से ढककर या जंघा से जघन को पीड़ित करके खड़े होना।
७. निगड दोष-अपने दोनों पैरों को बेड़ी से जकड़े हुए की तरह पैरों में बहुत अंतराल करके खड़े होना।
८. लंबोत्तर दोष-नाभि से ऊध्र्व भाग को लंबा करके अथवा कायोत्सर्ग में स्थित हुए अधिक ऊँचे होना या झुकाना।
९. स्तनदृष्टि दोष-अपने स्तन भाग पर दृष्टि रखना।
१०. वायस दोष-कौवे के समान इधर-उधर देखना।
११. खलीन दोष-जैसे घोड़ा लगाम लग जाने से दाँतों को घिसता-कटकट करता हुआ सिर को ऊपर-नीचे करता है, वैसे ही दाँतों को कट-कटाते हुए सिर को ऊपर नीचे करना।
१२. युग दोष-जैसे कंधे के जुए से पीड़ित बैल गर्दन पैâला देता है, वैसे ही ग्रीवा को लम्बी करके कायोत्सर्ग करना।
१३. कपित्थ दोष-कैथ की तरह मुट्ठी बाँधकर कायोत्सर्ग करना। १४. शिर:प्रकंपित दोष-कायोत्सर्ग करते समय सिर हिलाना।
१५. मूक दोष-मूक मनुष्य के समान मुख विकार करना, नाक सिकोड़ना।
१६. अंगुलि दोष-कायोत्सर्ग करते समय अंगुलियों से गणना करना।
१७. भ्रूविकार दोष-कायोत्सर्ग करते समय भृकुटियों को चढ़ाना या विकार युक्त करना।
१८. वारुणीपायी दोष-मदिरापायी के समान झूमते हुए कायोत्सर्ग करना।
१९. से २८ दिशावलोकन दोष-कायोत्सर्ग करते समय पूर्वादि दिशाओं का अवलोकन करना। इसमें दश दिशा संबंधी दश दोष हो जाते हैं।
२९. ग्रीवोन्नमन दोष-कायोत्सर्ग करते समय गर्दन को ऊँची उठाना।
३०. प्रणमन दोष-कायोत्सर्ग में गर्दन अधिक नीचे झुकाना।
३१. निष्ठीवन दोष-थूकना, श्लेष्मा आदि निकालना। ३२. अंगामर्श दोष-कायोत्सर्ग करने में शरीर का स्पर्श करना। इन बत्तीस दोषों को छोड़कर धीर साधु-दु:खों का नाश करने के लिए माया से रहित, विशेषतासहित, अपनी शक्ति और अवस्था-उम्र के अनुरूप कायोत्सर्ग करते हैं।
१. अनादृत-वंदना में आदर भाव नहीं रखना। २. स्तब्ध-आठ प्रकार के मद में से किसी के वश हो जाना। ३. प्रविष्ट-अर्हंतादि के अत्यन्त निकटजिनप्रतिमा आदि से कम से कम एक हाथ दूर से हटकर वंदना की जाती है उससे अधिक निकट होने में यह दोष आयेगा। चूँकि उठने बैठने आदि क्रियाओं में अपने हाथ-पैर आदि का धक्का उनको लगने से आसादना दोष हो सकता है।होकर वंदना करना। ४. परिपीडित-अपने दोनों हाथों से दोनों जंघाओं या घुटनों का स्पर्श करना। ५. दोलायित-झूला पर बैठे हुए के समान अर्थात् हिलते हुए वंदना करना। ६. अंकुशित-अपने ललाट पर अपने हाथ के अंगुष्ठ को अंकुश की तरह रखना। ७. कच्छपरिंगित-बैठकर वंदना करते हुए कछुये के समान रेंगने की क्रिया करना। ८. मत्स्योद्वर्त-जिस प्रकार मछली एक भाग को ऊपर करके उछला करती है, उसी प्रकार कटिभाग को ऊपर निकालकर वंदना करना। ९. मनोदुष्ट-मन में गुरु आदि के प्रति द्वेष धारण कर वंदना करना अथवा संक्लेशयुक्त मन सहित वंदना करना। १०. वेदिकाबद्ध-अपने स्तन भागों का मर्दन करते हुए वंदना करना या दोनों भुजाओं द्वारा अपने दोनों घुटनों को बाँध लेना। ११. भयदोष-सात प्रकार के भय से डरकर वंदना करना। १२. विभ्यद्दोष-गुरु आदि से डरते हुए वंदना करना। १३. ऋद्धिगौरव-चातुर्वण्र्य संघ में भक्त हो जावेगा, इस अभिप्राय से वंदना करना। १४. गौरव-अपना माहात्म्य आसन आदि द्वारा प्रगट करके अथवा सरस भोजन आदि की स्पृहा रखकर वंदना करना। १५. स्तेनित-आचार्य आदि से छिपाकर वंदना करना या कोठरी आदि के भीतर छिपकर वंदना करना। १६. प्रतिनीत-देव, गुरु आदि के प्रतिवूâल होकर वंदना करना। १७. प्रदुष्ट-अन्य के साथ द्वेष, वैर, कलह आदि करके पुन: क्षमा न कराकर वंदनादि क्रिया करना। १८. तर्जित-अन्यों को तर्जित कर, डर दिखाकर वंदना करना अथवा आचार्यादि के द्वारा अंगुली आदि से तर्जित-अनुशासित किये जाने पर ‘‘यदि वन्दनादि नहीं करोगे, तो संघ से निकाल दूँगा’’ ऐसी फटकार सुनकर वंदना करना। १९. शब्ददोष-शब्द बोलते हुए वंदना करना। अथवा ‘‘वंदना‘‘या जल्पक्रिया वार्तादिकथनं।’’ (अनगार धर्मामृत पृ. ६१४) करते समय बीच में बातचीत करते जाना।’’ २०. हीलित-वचनों द्वारा आचार्यादि का पराभव करके वंदना करना। २१. त्रिवलित-वंदना करते समय कमर, गर्दन और हृदय इन अंगों में भंग-बलि पड़ जाना या ललाट में तीन सल डाल कर वंदना करना। २२. कुंचित-संकुचित हाथों से सिर का स्पर्श करना या घुटनों के बीच शिर रखकर संकुचित होकर वंदना करना। २३. दृष्ट-आचार्यादि यदि देख रहे हों तो ठीक से वंदनादि करना अन्यथा स्वेच्छा से दिशावलोकन करते हुए वंदना करना। २४. अदृष्ट-आचार्यादि न देख सवेंâ, ऐसे स्थान पर जाकर अथवा भूमि, शरीरादि का पिच्छी से परिमार्जन न कर वंदना में एकाग्रता न रखते हुए वंदना करना या आचार्यादि के पीछे जाकर वंदना करना। २५. संघकरमोचन-यदि मैं संघ को वंदनारूपी कर भाग नहीं दूँगा, तो संघ मेरे ऊपर रुष्ट होगा, ऐसे भाव से वंदना करना। २६. आलब्ध-उपकरण आदि प्राप्त करके वंदना करना। २७. अनालब्ध-उपकरण आदि की आशा से वंदना करना। २८. हीन-ग्रन्थ, अर्थ और काल के प्रमाण से रहित वंदना करना। २९. उत्तर चूलिका-वंदना को थोड़े काल में पूर्णकर उसकी चूलिकारूप आलोचनादि पाठ को अधिक समय तक करना। ३०. मूकदोष-गूँगे के समान वंदना के पाठ को मुख के भीतर ही बोलना अथवा वंदना करते समय हुँकार, अंगुली आदि से इशारा करना। ३१. दर्दुर-वंदना के पाठ को इतनी जोर से बोलते हुए महाकलकल ध्वनि करना कि जिससे दूसरों की ध्वनि दब जाये। ३२. चुरुलित-एक ही स्थान में खड़े होकर हस्तांजलि को घुमाकर सबकी वंदना करना अथवा पंचम आदि स्वर से गा-गाकर वंदना करना। इस प्रकार वंदना के ३२ दोष हैं। इन दोषों से रहित वंदना ही शुद्ध वंदना है जो कि विपुल निर्जरा का कारण है। इन ३२ दोषों में से किसी एक दोष को करता हुआ भी साधु कृतिकर्म करते हुए भी कृतिकर्म से निर्जरा को करने वाला नहीं होता है। एक हाथ के अन्तराल से, अपने शरीरादि के स्पर्श से देव का स्पर्श या गुरु को बाधा न करते हुए अपने अंगादि का पिच्छिका से प्रमार्जन करके साधु वंदना की प्रार्थना करके वंदना करता है अर्थात् मैं वंदना करता हूँ, ऐसी विज्ञापना करके यदि गुरु की वंदना करना है, तो उनकी स्वीकृति लेकर वंदना करता है।
किदियम्मं पि करंतो ण होदि किदियम्म णिज्जराभागी। बत्तीसाणण्णदरं साहू ठणं विराधन्तो।।१३५।
हत्थंतरेण बाधे संफासपमज्जणं पउज्जन्तो। जाएंतो वंदणयं इच्छाकारं कुणदि भिक्खू।।१३६।।
(मूलाचार, पृ. ३१५)