भाई को पड़ा देख विभीषण मोह और शोक से पीड़ित हो अपना वध करने के लिए छुरी को उठाता है कि इसी बीच उसे मूर्च्छा आ जाती है। सचेत हो पुनः आत्मघात करने के लिए तैयार होता है। तब श्रीराम रथ से उतरकर बड़ी कठिनाई से उसे पकड़ रखते हैं। वह बार-बार मूच्र्छित हो जाता है और होश में आने पर घोर विलाप करता है – ‘‘हे भाई! हे शूरवीर! हे आश्रितजनवत्सल! तुम इस पाप पूर्ण दशा को वैâसे प्राप्त हो गये? ओह! तुम्हारे ही इस चक्र ने तुम्हारे वक्षस्थल को कैसे विदीर्ण कर डाला? हे कृपासागर! मुझसे वार्तालाप करो, मुझे छोड़कर कहाँ चले गये…..?’’ रामचन्द्र जैसे-तैसे उसे सान्त्वना देते हैं कि इसी बीच रावण की १८ हजार रानियाँ वहाँ एकत्रित हो जिस तरह करुण क्रंदन करती हैं कि वह लेखनी से नहीं लिखा जा सकता है। रत्नों की चूड़ियाँ तोड़-तोड़कर फेंक देती हैं और अपने वक्षस्थल को कूटते हुए बार-बार मूर्च्छा को प्राप्त हो जाती हैं। लक्ष्मण और विभीषण सहित श्री रामचन्द्र मंदोदरी आदि सभी को सान्त्वना देते हुए लंकेश्वर का विधिवत् दाह-संस्कार करते हैं। पुनः पद्म नामक महासरोवर में स्नान करके तीर पर बैठ जाते हैं और कुम्भकर्ण आदि को छोड़ देने का आदेश देते हैं। भामंडल आदि मंत्रणा करते हैं – ‘‘विभीषण का भी इस समय विश्वास नहीं करना चाहिए।’’ ‘‘कुम्भकर्ण, इन्द्रजीत आदि भी पिता की चिता जलती देख कुछ उपद्रव कर सकते हैं।’’अतः ये लोग सावधान हो पास में ही बैठ जाते हैं। रामचन्द्र के आदेश के अनुसार बेड़ियों से सहित वुंâभकर्ण, इंद्रजित और मेघवाहन लाये जाते हैं। आपस में दुःख वार्ता के अनंतर श्रीराम उनसे राज्य को संभालने के लिए अनुरोध करते हैं किन्तु वे कहते हैं-‘‘अब हम लोग पाणिपात्र में ही आहार ग्रहण करेंगे ऐसी प्रतिज्ञा कर ली है।’’ उस समय रामचन्द्र आदि उन्हें भोगों में लगाने के लिए सब कुछ उपाय करते हैं किन्तु सफल नहीं हो पाते हैं। उसी दिन अंतिम प्रहर में श्री अनंतवीर्य महामुनि अपने छप्पन हजार आकाशगामी मुनियों के साथ वहाँ आकर कुसुमायुध उद्यान में ठहर जाते हैं। दो सौ योजन तक पृथ्वी उपद्रव रहित हो जाती है और वहाँ पर रहने वाले सभी जीव परस्पर में निर्वैर हो जाते हैं। आचार्य कहते हैं कि – ‘‘यदि यह संंघ प्रातःकाल में आ जाता तो रावण और लक्ष्मण की परस्पर में परम प्रीति हो जाती।’’ रात्रि में अनंतवीर्य सूरि को केलज्ञान प्रगट हो जाता है और देवों के आगमन का दुन्दुभि वाद्य आदि का मधुर शब्द होने लगता है।
इन्द्रजित, कुम्भकर्ण और मेघवाहन आदि विद्याधर वहाँ पहुँच कर जैनेश्वरी दीक्षा लेकर महामुनि बन जाते हैं। शशिकान्ता आर्यिका से संबोधन को प्राप्त हुई मंदोदरी आदि ४८ हजार स्त्रियाँ संयम धारण कर आर्यिका हो जाती हैं। अनंतर राम-लक्ष्मण महावैभव के साथ लंका नगरी में प्रवेश करते हैं। सीता से मिलने के लिए उत्कंठित हुए प्रमदवन की तरफ चलते हैंं। पतिदेव को आते हुए देख उनके स्वागत के लिए आकुल हुई सीता उठकर आगे कदम बढ़ाती हैं, रामचन्द्र निकट आकर हाथ जोड़े हुए विनय से नम्र सीता का अपनी भुजाओं से आलिंगन कर लेते हैं। उस समय उनके सुख का अनुभव वे ही कर रहे हैंं। शील शिरोमणि दम्पत्ति के समागम को देखकर आकाश से देवतागण पुष्पांजलि छोड़ते हैं। सर्वत्र सब तरफ से जय-जयकार की ध्वनि गूंज उठती है – ‘‘अहो! धन्य है सीता का धैर्य, धन्य है इसका शीलव्रत और धन्य है इसका शुद्ध आचरण।’’ लक्ष्मण भी विनय से सीता के चरणयुगल को नमस्कार करते हैं और भामंडल भी भ्रातृ प्रेम से निकट आ जाते हैंं सीता के नेत्रों में वात्सल्य के अश्रु आ जाते हैं। सुग्रीव, हनुमान आदि विद्याधर सीता देवी को सिर झुकाकर अभिवादन करते हैं अन्य सभी विद्याधर अपना-अपना परिचय देते हुए अभिवादन करते हैं। अनन्तर रामचन्द्र सीता का हाथ पकड़कर अपने साथ ऐरावत हाथी पर बिठाकर वहाँ से चलकर रावण के भवन में प्रवेश करते हैं। श्री शांतिनाथ जिनालय में पहुँचकर भावविभोर हो स्तुति पाठ पढ़ते हुए वंदना करते हैं। अनंतर विभीषण के अनुरोध से उनके महल में प्रवेश करके पद्मप्रभ जिनालय में पहुँचकर श्री पद्मप्रभजिनेन्द्र की वंदना करते हैं। पुनः विभीषण की प्रार्थना से स्नान आदि से निवृत्त होकर सभी लोग वहीं पर भोजन करते हैं। तत्पश्चात् विभीषण, सुग्रीव आदि विद्याधर श्रीराम-लक्ष्मण के बलदेव-नारायण पद प्राप्ति के लिए राज्याभिषेक की तैयारी प्रारंभ कर देते हैं और पास आकर प्रार्थना करते हैं – ‘‘हे देव! अब आप हम लोगों के द्वारा किये जाने वाले राज्याभिषेक को स्वीकार करके हम लोगों को सनाथ कीजिए।’’ तब श्रीराम कहते हैं – ‘‘पिता दशरथ की आज्ञा से अयोध्या में भरत का राज्याभिषेक किया गया था अतः वे ही तुम्हारे और हम दोनों के स्वामी हैं।’’ विभीषण आदि कहते हैं – ‘‘स्वामिन् ! जैसा आप कह रहे हैं यद्यपि वैसा ही है तथापि महापुरुषों से मान्य इस मंगलमय अभिषेक में क्या दोष है?’’ ‘‘ओम् ’’ स्वीकृति प्राप्त कर सभी विद्याधर इन दोनों का बलदेव और अर्धचक्री के पद के उचित महावैभवशाली राज्याभिषेक करके इनके ललाट पर उत्तम मुकुट बाँध देते हैं।अनंतर वनवास के समय श्रीराम और लक्ष्मण ने जिन – जिन कन्याओं को विवाहा था, पत्र देकर भामंडल, हनुमान आदि को भेजकर उन सबको वहीं बुला लेते हैं। वहाँ लंका नगरी में सबके द्वारा स्तुति प्रशंसा को प्राप्त करते हुए और दिव्य अनुपम भोगों को भोगते हुए इन राम-लक्ष्मण का समय सुख से व्यतीत हो रहा है।