लिपइ अप्पीकीरइ, एदीए णियअपुण्णपुण्णं च।
जीवो त्ति होदि लेस्सा लेस्सागुणजाणयक्खादा।।१३२।।
लिंपत्यात्मीकरोति एतया निजापुण्यपुण्यं च।
जीव इति भवति लेश्या लेश्यागुणज्ञायकाख्याता।।१३२।।
अर्थ —लेश्या के गुण को—स्वरूप को जानने वाले गणधरादि देवों ने लेश्या का स्वरूप ऐसा कहा है कि जिसके द्वारा जीव अपने को पुण्य और पाप से लिप्त करे—पुण्य और पाप के अधीन करे उसको लेश्या कहते हैं।
भावार्थ —लेश्या दो प्रकार की है—द्रव्य लेश्या और भावलेश्या। द्रव्यलेश्या शरीर के वर्ण रूप और भावलेश्या जीव के परिणामस्वरूप है। यहाँ पर भावलेश्या को ही दृष्टि में रखकर यह निरुक्ति सिद्ध कहा गया है।
किण्हा णीला काऊ, तेऊ पम्मा य सुक्कलेस्सा य।
लेस्साणं णिद्देसा, छच्चेव हवंति णियमेण।।१३३।।
कृष्णा नीला कापोता तेज: पद्मा च शुक्ललेश्या च।
लेश्यानां निर्देशा: षट् चैव भवन्ति नियमेन।।१३३।।
अर्थ—लेश्याओं के नियम से ये छह ही निर्देश—संज्ञायें हैं—कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या, तेजोलेश्या (पीतलेश्या), पद्मलेश्या, शुक्ल लेश्या।
भावार्थ —इस गाथा में कहे हुए एव शब्द के द्वारा ही नियम अर्थसिद्ध हो जाने से पुन: शब्द का ग्रहण करना व्यर्थ ठहरता है। अतएव वह व्यर्थ ठहरकर ज्ञापन सिद्ध विशेष अर्थ को सूचित करता है कि लेश्या के यद्यपि सामान्यतया नैगम नय की अपेक्षा छह भेद ही हैं तथापि पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा से लेश्याओं के असंख्यात लोक प्रमाण अवान्तर भेद होते हैं।
पहिया जे छप्पुरिसा, परिभट्टारण्णमज्झदेसम्हि।
फलभरियरूक्खमेगं, पेक्खित्ता ते विचिंतंति।।१३४।।
पथिका ये षट् पुरुषा: परिभ्रष्टा अरण्यमध्यदेशे।
फलभरितवृक्षमेकं प्रेक्षित्वा ते विचिन्तयन्ति।।१३४।।
णिम्मूलखंधसाहुवसाहं छित्तुं चिणित्तु पडिदाइं।
खाउं फलाइं इदि जं, मणेण वयणं हवे कम्मं।।१३५।।
निर्मूलस्कन्धशाखोपशाखं छित्वा चित्वा पतितानि।
खादितुं फलानि इति यन्मनसा वचनं भवेत् कम्र्म।।१३५।।
अर्थ—कृष्ण आदि छह लेश्या वाले कोई छह पथिक वन के मध्य में मार्ग से भ्रष्ट होकर फलों से पूर्ण किसी वृक्ष को देखकर अपने-अपने मन में इस प्रकार विचार करते हैं और उसके अनुसार वचन कहते हैं। कृष्णलेश्या वाला विचार करता है और कहता है कि मैं इस वृक्ष को मूल से उखाड़कर इसके फलों का भक्षण करूँगा। नीललेश्या वाला विचारता है और कहता है कि मैं इस वृक्ष को स्कन्ध से काटकर इसके फल खाऊँगा। कापोतलेश्या वाला विचारता है और कहता है कि मैं इस वृक्ष की बड़ी-बड़ी शाखाओं को काटकर इसके फलों को खाऊँगा। पीतलेश्या वाला विचारता है और कहता है कि मैं इस वृक्ष की छोटी-छोटी शाखाओं को काटकर इसके फलों को खाऊँगा। पद्मलेश्या वाला विचारता है और कहता है कि मैं इस वृक्ष के फलों को तोड़कर खाऊँगा तथा शुक्ललेश्या वाला विचारता है और कहता है कि मैं इस वृक्ष से स्वयं टूटकर पड़े हुए फलों को खाऊँगा। इस तरह जो मन:पूर्वक वचनादि की प्रवृत्ति होती है वह लेश्या का कर्म है। यहाँ पर यह एक दृष्टांत मात्र दिया गया है इसलिए इस ही तरह अन्यत्र भी समझना चाहिए।
चण्डो ण मुंचइ वेरं, भंडणसीलो य धरमदयरहिओ।
दुट्ठो ण य एदि वसं, लक्खणमेयं तु किण्हस्स।।१३६।।
चण्डो न मुंचति वैरं भण्डनशीलश्च धर्मदयारहित:।
दुष्टो न चैति वशं लक्षणमेतत्तु कृष्णस्य।।१३६।।
अर्थ—तीव्र क्रोध करने वाला हो, वैर को न छोड़े, युद्ध करने का (लड़ने का) जिसका स्वभाव हो, धर्म और दया से रहित हो, जो दुष्ट हो, किसी के भी वश न हो ये सब कृष्णलेश्या वाले के चिन्ह—लक्षण हैं।
मन्दो बुद्धिविहीणो, णिव्विण्णाणी य विसयलोलो य।
माणी मायी य तहा, आलस्सो चेव भेज्जो य।।१३७।।
मन्दो बुद्धिविहीनो निर्विज्ञानी च विषयलोलश्च।
मानी मायी च तथा आलस्यश्चैव भेद्यश्च।।१३७।।
णिद्दावंचणबहुलो, धणधण्णे होदि तिव्वसण्णा य।
लक्खणमेयं भणियं, समासदो णीललेस्सस्स।।१३८।।
निद्रावंचनबहुलो धनधान्ये भवति तीव्रसंज्ञश्च।
लक्षणमेतद् भणितं समासतो नीललेश्यस्य।।१३८।।
अर्थ—काम करने में मंद हो अथवा स्वच्छन्द हो, वर्तमान कार्य करने में विवेक रहित हो, कला चातुर्य से रहित हो, स्पर्शनादि पाँच इंद्रियों के विषयों में लम्पट हो, मानी हो, मायाचारी हो, आलसी हो, दूसरे लोग जिसके अभिप्राय को सहसा न जान सके तथा जो अति निद्रालु और दूसरों को ठगने में अतिदक्ष हो और धनधान्य के विषय में जिसकी अति तीव्र लालसा हो ये नीललेश्या वाले के संक्षेप से चिन्ह बताये हैं।
रूसइ णिंदइ अण्णे, दूसइ बहुसो य सोयभयबहुलो।
असुयइ परिभवइ परं, पसंसये अप्पयं बहुसो।।१३९।।
रुष्यति निन्दति अन्यं दुष्यति बहुशश्च शोकभयबहुल:।
असूयति परिभवति परं प्रशंसति आत्मानं बहुश:।।१३९।।
णयपत्तियइ परं सो, अप्पाणं यिव परं पि मण्णंतो।
थूसइ अभित्थुवंतो, ण य जाणइ हाणि-विंड्ढ वा।।१४०।।
न च प्रत्येति परं स आत्मानमिव परमपि मन्यमान:।
तुष्यति अभिष्टुवतो न च जानाति हानिवृद्धी वा।।१४०।।
मरणं पत्थेइ रणे, देइ सुबहुगं वि थुव्वमाणो दु।
ण गणइ कज्जाकज्जं, लक्खणमेयं तु काउस्स।।१४१।।
मरणं प्रार्थयते रणे ददाति सुबहुकमपि स्तूयमानस्तु।
न गणयति कार्याकार्य लक्षणमेतत्तु कापोतस्य।।१४१।।
अर्थ—दूसरे के ऊपर क्रोध करना, दूसरे की निंदा करना, अनेक प्रकार से दूसरों को दु:ख देना अथवा औरों से बैर करना, अधिकतर शोकाकुलित रहना या हो जाना, दूसरों के ऐश्वर्यादि को सहन न कर सकना, दूसरे का तिरस्कार करना, अपनी नाना प्रकार से प्रशंसा करना, दूसरे के ऊपर विश्वास न करना, अपने समान दूसरों को भी मानना, स्तुति करने वाले पर सन्तुष्ट हो जाना, अपनी हानि-वृद्धि को कुछ भी न समझना, रण में मरने की प्रार्थना करना, स्तुति करने वाले को खूब धन दे डालना, अपने कार्य-अकार्य की कुछ भी गणना न करना ये सब कापोतलेश्या वाले के चिन्ह हैं। ==
जाणइ कज्जाकज्जं, सेयमसेयं च सव्वसमपासी।
दयदाणरदो य मिदू, लक्खणमेयं तु तेउस्स।।१४२।।
जानाति कार्याकार्यं सेव्यमसेव्यं च सर्वसमदर्शी।
दयादानरतश्च मृदु: लक्षणमेतत्तु तेजस:।।१४२।।
अर्थ—अपने कार्य-अकार्य, सेव्य-असेव्य को समझने वाला हो, सबके विषय में समदर्शी हो, दया और दान में तत्पर हो, मन, वचन, काय के विषय में कोमल परिणामी हो ये पीतलेश्या वाले के चिन्ह हैं।
चागी भद्दो चोक्खो, उज्जवकम्मो य खमदि बहुगं पि।
साहुगुरुपूजणरदो, लक्खणमेयं तु पम्मस्स।।१४३।।
त्यागी भद्र: सुकर: उद्युक्तकर्मा च क्षमते बहुकमपि।
साधुगुरुपूजनरतो लक्षणमेतत्तु पद्मस्य।।१४३।।
अर्थ—दान देने वाला हो, भद्र परिणामी हो, जिसका उत्तम कार्य करने का स्वभाव हो, कष्ट रूप तथा अनिष्ट रूप उपद्रवों को सहन करने वाला हो, मुनिजन, गुरुजन आदि की पूजा में प्रीतियुक्त हो ये सब पद्मलेश्या वाले के लक्षण हैं।
ण य कुणइ पक्खवायं, ण वि य णिदाणं समो य सव्वेसिं।
णत्थि य रायद्दोसा, णेहो वि य सुक्कलेस्सस्स।।१४४।।
न च करोति पक्षपातं नापि च निदानं समश्च सर्वेषाम्।
न स्त: च रागद्वेषी स्नेहीऽपि च शुक्ललेश्यस्य।।१४४।।
अर्थ—पक्षपात न करना, निदान को न बांधना, सब जीवों में समदर्शी होना, इष्ट से राग और अनिष्ट से द्वेष न करना, स्त्री, पुरुष, मित्र आदि में स्नेहरहित होना ये सब शुक्ललेश्या वाले के लक्षण हैं। इस प्रकार सोलह अधिकारों के द्वारा लेश्याओं का वर्णन करके अब लेश्यारहित जीवों का वर्णन करते हैं-
किण्हादिलेस्सरहिया, संसारविणिग्गया अणंतसुहा।
सिद्धिपुरं संपत्ता, अलेस्सिया ते मुणेयव्वा।।१४५।।
कृष्णादिलेश्यारहिता: संसारविनिर्गता अनंतसुखा:।
सिद्धिपुरं संप्राप्ता अलेश्यास्ते ज्ञातव्या:।।१४५।।
अर्थ—जो कृष्ण आदि छहों लेश्याओं से रहित हैं, अतएव जो पंच परिवर्तनरूप संसारसमुद्र के पार को प्राप्त हो गये हैं तथा जो अतीन्द्रिय अनन्त सुख से तृप्त हैं, आत्मोपलब्धिरूप सिद्धिपुरी को जो प्राप्त हो गये हैं, उन जीवों को अयोगकेवली या सिद्ध भगवान कहते हैं।
भावार्थ -जो अनन्त सुख को प्राप्तकर संसार से सर्वथा रहित होकर सिद्धिपुरी को प्राप्त हो गये हैं वे जीव सर्वथा लेश्याओं से रहित होते हैं, अतएव उनको अलेश्य-सिद्ध कहते हैं, क्योंकि लेश्याओं का संबंध कषाय और योग से है अतएव जहाँ तक कषायों के उदयस्थान और योगप्रवृत्ति पाई जाती है वहाँ तक लेश्याएँ भी मानी जाती हैं, इनके ऊपर चौदहवें गुणस्थान एवं सिद्ध अवस्था में इनका सर्वथा अभाव है, अतएव ये दोनों ही स्थान अलेश्य हैं।
लेश्या का लक्षण—जो आत्मा को पुण्य पाप से लिप्त करे ऐसी कषायोदय से अनुरक्त योग (मन, वचन काय) की प्रवृत्ति लेश्या है। लेश्या के दो भेद हैं—द्रव्यलेश्या, भावलेश्या। द्रव्यलेश्या शरीर के वर्णरूप है और भावलेश्या आत्मा के परिणामस्वरूप है। लेश्या के छह भेद हैं—कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म, शुक्ल। इनके अवांतर भेद असंख्यात लोक प्रमाण हैं।
द्रव्यलेश्या का वर्णन—वर्ण नामकर्म के उदय से जीव के शरीर का वर्ण द्रव्यलेश्या है। सम्पूर्ण नारकी कृष्ण वर्ण हैं। कल्पवासी देवों की द्रव्यलेश्या, भावलेश्या सदृश है। भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिषी, मनुष्य, तिर्यंच इनकी द्रव्य लेश्या छहों हैं। विक्रिया से रहित देवों के शरीर छहों वर्ण के हो सकते हैंं। उत्तम भोगभूमियों-उत्तर कुरु के मनुष्य तिर्यंचों का वर्ण सूर्य के समान, मध्यम भोगभूमि-हरि-रम्यक् वालों का चंद्र के समान, जघन्य भोगभूमि-हैमवत-हैरण्यवत् वालों का हरित वर्ण है।
भावलेश्या का वर्णन—अशुभ तीन लेश्या में तीव्रतम, तीव्रतर और तीव्र ये तीन स्थान होते हैं। शुभ लेश्या में मंद, मन्दतर, मन्दतम ये तीन स्थान होते हैं।
कृष्णलेश्या—तीव्र क्रोधी, वैर न छोड़े, युद्धाभिलाषी, धर्मदया से शून्य, दुष्ट और किसी के वश में न होवे यह कृष्णलेश्या के लक्षण हैं।
नीललेश्या—काम करने में मंद हो, स्वच्छंद हो, विवेक, चतुरता रहित हो, इंद्रियलम्पट, मानी, मायाचारी, आलसी हो, गूढ़ अभिप्रायी, निद्रालु, वंचक, विषयों का लोलुपी हो ये सब नीललेश्या के लक्षण हैं।
कापोतलेश्या—दूसरे पर क्रोध करना, निंदा करना, दु:ख देना, वैर करना, शोकाकुलित रहना, भयग्रस्त होना, दूसरों के ऐश्वर्यादि को न सह सकना, दूसरे का तिरस्कार करना, अपनी प्रशंसा करना, स्तुति में संतुष्ट होना आदि इस लेश्या के लक्षण हैं।
पीतलेश्या—अपने कार्य-अकार्य, सेव्य-असेव्य को समझना, सबके विषय में समदर्शी होना, दया और दान में तत्पर होना, मन वचन काय से कोमल परिणामी होना ये सब पीतलेश्या के चिन्ह हैं।
पद्मलेश्या—दान देने वाला हो, भद्र परिणामी, उत्तम कार्य करने का स्वभावी हो, कष्टरूप व अनिष्ट उपसर्गों का सहन करने वाला हो, मुनिजन, गुरुजन की पूजा में प्रीतियुक्त हो ये सब पद्मलेश्या के लक्षण हैं।
शुक्ललेश्या—पक्षपात न करना, निदान को न बाँधना, सब जीवों में समदर्शी होना, इष्ट से राग अनिष्ट से द्वेष न करना, स्त्री, पुत्र आदि में स्नेह रहित होना ये सब शुक्ललेश्या के लक्षण हैं।
कृष्णादि लेश्या वाले छह पथिक वन में मार्ग भूल जाने से एक फलों के भार से युक्त वृक्ष के पास जाकर इस प्रकार क्रिया करते हैं। कृष्ण लेश्या वाला इस वृक्ष को जड़ से उखाड़कर फल खाने का इच्छुक होकर वृक्ष को जड़ से काटने लगा। नीललेश्या वाला वृक्ष के स्कंध को काटकर फल खाने का इच्छुक हो स्कंध काटने लगा। कापोतलेश्या वाला बड़ी-बड़ी शाखाओं को काटकर फल खाने लगा। पीतलेश्या वाला छोटी-छोटी शाखाओं को काटकर फल लेकर खाने लगा। पद्मलेश्या वाला फलों को वृक्ष से तोड़कर खाने लगा और शुक्ललेश्या वाला वृक्ष से स्वयं टूट कर पड़े हुए फलों को उठाकर खाने लगा। इस प्रकार से लेश्या के और भी उदाहरण समझना। लेश्याओं का काल—सभी लेश्याओं का जघन्य काल अंतर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल तैंतीस सागर आदि है।लेश्याओें के छब्बीस अंश और आयुबंध का अपकर्ष कालछहों लेश्याओं के जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट भेद की अपेक्षा अठारह भेद होते हैं। इनमें आठ अपकर्षकाल संबंधी अंशों के मिलाने पर छब्बीस भेद हो जाते हैं।
जैसे—किसी कर्मभूमिया मनुष्य की भुज्यमान आयु का प्रमाण ‘‘छह हजार पाँच सौ इकसठ’’ वर्ष है। इसके तीन भाग में से दो भाग के बीतने पर और एक भाग शेष रहने पर, इस एक भाग के प्रथम समय से लेकर अंतर्मुहूर्त पर्यंत प्रथम अपकर्ष काल कहा गया है। इस अपकर्षकाल में परभव संबंधी आयु का बंध होता है। यदि यहाँ आयु न बंधी तो अवशिष्ट आयु के तीन भाग में से एक भाग शेष रहने पर दूसरा अपकर्ष काल आता है। यदि यहाँ भी आयु न बंधी तो शेष आयु के तीन भाग में से शेष एक भाग के रहने पर अपकर्षकाल आता है। यदि यहाँ भी न बंधी तो ऐसे ही चौथे, पाँचवें, छठे, सातवें, आठवें अपकर्ष में से परभव संबंधी आयु का बंध होता है। यदि इन आठ अपकर्ष कालों में से किसी में भी बंध न हुआ तो भुज्यमान आयु के अंतिम आवली के असंख्यातवें भाग प्रमाण काल से पूर्व के अन्तर्मुहूर्त में अवश्य ही आयु का बंध होता है यह नियम है। अगली आयु के बंध के बिना मरण असंभव है।
इन आठ अपकर्ष काल में से किसी में भी लेश्याओं के आठ मध्य- मांशों में से जो अंश होगा उसके अनुसार आयु का बंध होगा, अपकर्ष काल में होने वाले लेश्याओं के आठ मध्यम अंशों को छोड़कर बाकी के आठ अंश चारों गतियों के गमन के कारण होते हैं। यह सामान्य कथन है। शुक्ललेश्या के उत्कृष्ट अंश से संयुक्त जीव मरकर नियम से सर्वार्थसिाद्ध को जाते हैं। विशेष—कर्मभूमियाँ मनुष्य और तिर्यंच के लिये आयु के तीन भाग में से एक भाग शेष रहने पर ही आयु बंध के कारणभूत आठ अपकर्ष काल होते हैं। देव, नारकियों के आयु का छह महिना शेष रहने पर आठ अपकर्ष काल आते हैं। भोगभूमिया मनुष्य या तिर्यंच के आयु के नौ महीना शेष रहने पर ये आठ अपकर्ष काल आते हैं। इस प्रकार लेश्याओं के ये आठ अंश आयु बंध के कारण कहे गये हैं।
सिद्ध भगवान द्रव्यभाव लेश्या से रहित हैं— जो कृष्णादि छहों लेश्याओं से रहित हैं अत: पंचपरिवर्तनरूप संसार समुद्र के पार हो गये हैं, अतीन्द्रिय, अनंतसुख से तृप्त, आत्मोपलब्धि रूप सिद्धपुरी को पहुँच चुके हैं वे अयोेगीकेवली या सिद्ध भगवान हैं। लेश्याओं के प्रकरण को समझकर अशुभ लेश्या से बचकर शुभ लेश्या को धारण करते हुए लेश्यारहित शुद्धात्मा स्वरूप में स्थिर होने के लिये बार-बार प्रयत्न करना चाहिये। यह आत्मा वर्णादि से रहित शुद्ध परम स्वच्छ है। उसी का नित्य प्रति चिंतवन करना चाहिए।