(यहाँ पंचकल्याणक के सभी बाह्य दृश्य भगवान ऋषभदेव के आधार से हैं, जहाँ जिन तीर्थंकर की पंचकल्याणक प्रतिष्ठा हो रही हो, वहाँ उन तीर्थंकर का नाम, नगरी, माता-पिता आदि के नामों में परिवर्तन करके दृश्यों को प्रस्तुत करें।)
-सूत्रधार-
शुरू हुआ भाई शुरू हुआ, पंचकल्याणक शुरू हुआ। आज गर्भ कल्याणक, कल जन्मकल्याणक, दीक्षा ले त्रिभुवन गुरू हुआ।। शुरू हुआ.।। शुरू हुआ भाई शुरू हुआ……………………….।। सुनो! सुनो! सुनो! मेरे प्यारे भाइयों, बहनों, माताओं, दोस्तों, बुजुर्गों, नन्हे-मुन्नों! सब सुनो! जरूर आप सब यही सोच रहे होंगे ये नटखट राम आज क्या संदेशा लाए हैं? तो सुनो! आप सब जिस पवित्र धरती पर बैठे मेरी बातें सुन रहे हैं ना, उसका नाम है-अयोध्या यानी जिसे कोई योद्धा आज तक जीत न सका वह है अयोध्या। अरे भाई! कैसे तो हम सब अपने नगर के पांडाल में बैठे हैं लेकिन चूँकि अयोध्या का दृश्य यहाँ दिखाया जा रहा है सो कह दिया अयोध्या, जानते हो, शाश्वत जन्मभूमि है यह अयोध्या। यहाँ पर आज से इस युग के प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव का पंचकल्याणक महोत्सव होने जा रहा है। अब तक आप लोग यह जान ही गए होंगे कि पंचकल्याणक महोत्सव में क्या-क्या होता है? क्या कहा आपने? भगवान की मूर्ति की प्रतिष्ठा होती है! बिल्कुल ठीक कहा आपने! ये महोत्सव एक-दो दिन में नहीं समाप्त होगा, पूरे पाँच दिन चलेगा। हाँ! कहीं-कहीं तो यह महोत्सव 7-8 दिन तक भी चलता है। एक बात बताऊँ भैया! यह प्रतिष्ठा महोत्सव एक बहुत ही पवित्र कार्य है इसमें पण्डित जी खूब सारे मंत्र पढ़-पढ़कर पत्थर की मूर्ति को भगवान बना देते हैं। जितनी ज्यादा विधि से प्रतिष्ठा की जाती है उतनी ही अधिक मूर्ति चमत्कारी हो जाती हैं, हाँ! सुनो! सुनो! आज गर्भकल्याणक है ना! अभी थोड़ी देर में इन्द्र सभा, माता के सोलह सपने आदि सुन्दर-सुन्दर दृश्य दिखाए जाएँगे, आप लोग आराम से बैठ जाओ। अगर कहीं इधर-उधर जाओगे न, तो आपकी जगह चली जाएगी, फिर मुझसे कुछ मत कहना। अभी स्वर्ग से देवियाँ आकर माता की सेवा करेंगी, उनसे खूब अच्छे-अच्छे प्रश्न पूछेंगी और माता उनका उत्तर देंगी। भैया! मैं तो जरूर सुनूंगा, क्योंकि मुझे कुछ भी तो मालूम नहीं है आज माता के मुँह से सुनकर मेरा भी कुछ ज्ञान बढ़ जाएगा। और हाँ सुनो! कल सुबह खूब जल्दी आ जाना, कल तीर्थंकर भगवान का जन्मकल्याणक है, राजा के दरबार में खूब नृत्य-गीत होंगे, बड़ा मजा आएगा। और हाँ! राजा सबको रत्न बाटेंगे, सब लोग जरूर आना। अच्छा तो अब मैं जाता हूँ, अब आप गर्भकल्याणक के अच्छे-अच्छे दृश्य देखो। शुरू हुआ भाई…………………..(सूत्रधार चला जाता है, पर्दा गिरा दें)
(मंच पर सामूहिक प्रार्थना का दृश्य) पुरुदेव की वाणी अखिल विश्व में,
अमृतकण बरसाये। पुरुदेव की वाणी…………..।।टेक.।।
युग की आदी में ऋषभदेव ने, यहाँ पुण्य अवतार लिया।
माता मरुदेवी के आँगन में, उत्सव अपरम्पार हुआ।।
आये हैं इन्द्र सभी मिलकर, भक्ती से अति हरषाये। पुरुदेव की वाणी…………..।।1।।
इस जम्बूद्वीप के मध्य सुदर्शन-मेरु सुवर्णमयी सुन्दर।
है एक लाख योजन ऊँचे पर, पांडुकशिला बनी मनहर।।
जिन शिशु को सुरपति ले जाकर, वहाँ पर अभिषेक रचाएँ। पुरुदेव की वाणी…………..।।2।।
जो चन्द्रकिरण चंदन गंगाजल से भी है शीतल वाणी।
यह अनेकांतमय सत्य अहिंसा, धर्मरूप है जिनवाणी।।
तुम कर्णपुटों से पियो इसे, सब जन्म रोग नश जाये।। पुरुदेव की वाणी…………..।।3।।
घट-घट का अज्ञान अंधेरा, उसको दूर भगाती है।
जन-जन के मानस मंदिर मे, यह ज्ञान की ज्योति जलाती है।
तुम पूर्ण ‘ज्ञानमती’ प्रगट करो, जिससे अशेष दुःख जाये। पुरुदेव की वाणी…………..।।4।।
स्वर्ग में सौधर्म इन्द्र की सुधर्मा सभा का दृश्य (इन्द्र का आसन कम्पायमान) (एक नृत्य)
स्थान-इन्द्रसभा (सौधर्म इन्द्र अपने सिंहासन पर बैठे हुए हैं। पास में अनेक देवगण बैठे हुए हैं। इन्द्रसभा लगी हुई है।)
इन्द्र-(प्रसन्न मुद्रा में) जय हो! तीर्थंकर भगवान की जय हो। हे इन्द्रों! हमें आज मध्यलोक चलना है।
शचि इन्द्राणी-स्वामिन! किसलिए? इन्द्र-देवी! इसलिए कि जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में आज से छह महीने बाद तीर्थंकर भगवान स्वर्ग से मध्यलोक में अवतार लेने वाले हैं। अतः हे धनकुबेर! सुनो, आप वहाँ जाकर उस आर्यखण्ड की अयोध्या नगरी को इतनी सुन्दर सजा दो कि वह सुवर्णमयी दिखने लगे।
कुबेर-अहो हा! हमारे बहुत पुण्य का उदय आया है जो आज ऐसा पुण्य अवसर मिला है।
इन्द्र-हाँ! तीर्थंकर प्रभु के कल्याणक मनाने का अवसर मिलना महान पुण्य का सुयोग है। हे धनपते! आप आज से ही वहाँ माता मरुदेवी के आँगन में उत्तम-उत्तम रत्नों की वर्षा शुरू कर दो।
कुबेर’-(हाथ जोड़कर) जो आज्ञा आपकी। (कुबेर द्वारा रत्नवृष्टि हेतु जाना) (पर्दा गिरता है)
(राजमहल में रत्नों की वृष्टि हो रही है, स्वर्ग से धनकुबेर अयोध्या नगरी में आकर उत्तम-उत्तम रत्नों की वर्षा कर रहा है। चारों ओर खुशी का वातावरण है। सभी लोग आपस में चर्चा कर रहे हैं।)
एक आदमी-देखो, देखो! चारों ओर कैसे रत्न बांटे जा रहे है, हमारी अयोध्या नगरी कितनी सुन्दर लग रही है।
दूसरा-हाँ सो तो है! लेकिन भाई! यह तो बताओ कि ये रत्नवृष्टि क्यों हो रही है? पहला-अरे भाई! कमाल है! तुम्हें यह भी नहीं मालूम! अपने महाराज नाभिराय हैं न! उनकी रानी मरुदेवी के तीर्थंकरपुत्र उत्पन्न होने वाला है।
दूसरा-क्या कहा? पुत्र उत्पन्न होने वाला है! लेकिन इस व्यक्ति को कैसे मालूम हुआ? (धनकुबेर की ओर इशारा करते हुए)
पहला-ये कोई साधारण व्यक्ति नहीं है। ये स्वर्ग से आए धनकुबेर हैं।
दूसरा-धनकुबेर! मुझे ठीक से बताओ।
पहला-सुनो! सौधर्मइन्द्र ने अपने अवधिज्ञान से सब कुछ जानकर इन कुबेर जी को यहाँ रत्नवृष्टि करने भेजा है।
दूसरा-अच्छा, तो ये बात है! हाँ भाई, आखिर भगवान जी जन्म लेने वाले हैं।
पहला-हाँ, अब से पन्द्रह महीने बाद हम भी तीर्थंकर बालक को गोद में खिलायेंगे।
(वहीं खड़ी एक स्त्री, जो कि अब तक सब सुन रही थी, चैंक पड़ी और बोली)
स्त्री-क्या कहा? पन्द्रह महीने बाद?
पुरुष-हाँ, अब से छह महीने बाद प्रभु गर्भ में आयेंगे पुनः नव महीने बाद जन्म लेंगे।
दूसरा पुरुष-तो क्या पन्द्रह महिने तक रोज ही ऐसे रत्नों की वर्षा होती रहेगी?
पहला पुरुष-हाँ भाई! यही तो तीर्थंकर प्रभु की महिमा है।
तीसरा पुरुष-देखो! जन्म लेने से पहले ही जब इतना अतिशय है तो जन्म लेने के बाद तो कितना मजा आएगा।
(महाराज नाभिराज का 81 खन ऊँचा महल, रात्रि का पिछला प्रहर है। महारानी मरुदेवी शयनकक्ष में निद्रामग्न हैं। तभी पिछले प्रहर में रानी एक, दो नहीं पूरे सोलह स्वप्न देखती हैं मंच पर सोलह स्वप्नों को पेन्टिंग के चित्रों में दिखाया जाता है। यहीं पर प्रतिष्ठाचार्य पृष्ठ 48 से माता के 16 स्वप्नों को पद्य में प्रस्तुत करें। देवियाँ उन्हें मधुर संगीत के साथ जगाती हैं।) प्रातः प्रसन्नमुद्रा में उठकर हाथ जोड़कर प्रभु को नमस्कार करती हैं-
रानी मरुदेवी-ऊँ नमः सिद्धेभ्यः। णमो अरिहंताणं……(आस-पास चारों ओर अष्ट दिक्कुमारियाँ खड़ी हुई हैं, रानी को प्रसन्नचित्त देखकर पूछती हैं।)
देवी-महारानी की जय हो! रानी जी! आज आप बहुत खुश लग रही हैं, क्या बात है?
महारानी-हाँ देवी! बात ही कुछ ऐसी है।
दूसरी देवी-(उत्सुकता से) जल्दी कहिए, महारानी जी!
महारानी-सुनो! आज रात्रि में मैंने सोलह स्वप्न देखे हैं।
देवियाँ-(चैंककर एक साथ) क्या महारानी जी! सोलह स्वप्न देखे हैं आपने! महारानी
मरुदेवी-(हँसती हुई) हाँ, हाँ मैंने ठीक से गिने थे, पूरे सोलह सपने थे।
देवी-(हाथ जोड़कर) रानी जी, अब जल्दी से उन स्वप्नों के बारे में बता दीजिए। महारानी
मरुदेवी-इतनी आतुर मत होओ, सुमंगला! अभी स्नान वगैरह करके महाराज के पास चलते हैं, वहीं तुम भी सुन लेना।
(देवियाँ रानी को हंसी-खुशी स्नानादि करवाती हैं पुनः तैयार होकर महारानी दरबार में प्रवेश करती हैं) (दरबार का दृश्य, राजा सिंहासन पर बैठे हैं प्रजाजन यथास्थान बैठे हैं, महारानी सखियों सहित प्रवेश करती हैं प्रजा के लोग अपने स्थान पर खड़े होकर महारानी का सम्मान करते हैं।)
सामूहिक स्वर-महारानी की जय हो! रानी मरुदेवी की जय हो! (रानी अपने आसन पर बैठ जाती हैं, प्रजा के लोग भी यथास्थान बैठ जाते हैं)
महाराजा नाभिराय-कहिए महारानी जी! आप ठीक हैं न!
मरुदेवी-हाँ स्वामिन्! मैं बिल्कुल ठीक हूँ और आपकी कुशलता की कामना करती हूँ।
नाभिराय-आज कोई खास बात है क्या? आज सुबह-सुबह राजदरबार में आपका पधारना कैसे हुआ है?
मरुदेवी-हाँ स्वामी! बात ही कुछ ऐसी थी कि मुझे राजदरबार में सुबह-सुबह आना पड़ा।
नाभिराय-कहिय प्राणप्रिये! आप क्या कहना चाहती हैं?
मरुदेवी-(प्रसन्न मुद्रा में) प्राणनाथ! आज रात्रि में मैंने सपने देखे हैं।
नाभिराय-तो क्या हुआ देवी! सपने तो रोज सभी देखते हैं।
एक देवी-(बीच में ही) यही तो आपको बताने आई हैं ये। इन्होंने एक नहीं, दो नहीं पूरे सोलह सपने देखे हैं।
नाभिराय-(आश्चर्य से) सोलह सपने! जरा मैं भी तो सुनूँ उन सोलह स्वप्नों की कहानी!
मरुदेवी-हाँ महाराज! सुनिये! पहले स्वप्न में मैंने बहुत बड़ा सफेद ऐरावत हाथी देखा है, जो कि सुन्दर गर्जना कर रहा है।
नाभिराय-देवि! तुमने जो ऐरावत हाथी देखा है उसका फल यह है कि ‘तुम त्रिभुवन के गुरु ऐसे तीर्थंकर पुत्र को जन्म दोगी।
मरुदेवी-दूसरे स्वप्न में मैंने उत्तम बैल देखा है, जो कि अपने पदप्रहार से पृथ्वी को कँपा रहा है।
नाभिराय-स्वप्न में बैल के देखने से तुम्हारा पुत्र समस्त विश्व में श्रेष्ठ होगा।
मरुदेवी-तीसरे स्वप्न में मैंने पीली-पीली अयाल वाला उत्तम सिंह देखा है।
नाभिराय-देवि! स्वप्न में सिंह के देखने से तुम्हारा पुत्र अनंत बल से सहित होगा।
मरुदेवी-हे स्वामिन्! मैंने चैथे स्वप्न में लक्ष्मी को देखा है, जो कमल के आसन पर बैठी हैं और देवों के हाथी सुवर्ण कलशों से उसका अभिषेक कर रहे हैं।
नाभिराय-देवि! अभिषेक को प्राप्त होती हुई लक्ष्मी को देखने से वह पुत्र सुमेरु पर्वत के मस्तक पर देवों के द्वारा अभिषेक को प्राप्त होगा।
मरुदेवी-पाँचवें स्वप्न में सुन्दर और सुगंधित फूलों की दो मालाएँ देखी हैं।
नाभिराय-हे देवि! स्वप्न में मालाओं के देखने से तुम्हारा पुत्र सच्चे धर्मतीर्थ का चलाने वाला होगा
मरुदेवी-छठे स्वप्न में पूर्ण चन्द्रमा देखा है, जिसको चारों तरफ से तारा मंडल घेरे हुए हैं और जिसकी पूर्ण चाँदनी छिटक रही है।
नाभिराय-पूर्ण चन्द्रमा देखने से वह समस्त लोगों को परम आनंद देने वाला होगा।
मरुदेवी-सातवें स्वप्न में उगता हुआ सूर्य देखा है।
नाभिराय-देवि! तुम्हारा पुत्र भी सूर्य के समान देदीप्यमान प्रभा का धारक होगा।
मरुदेवी-स्वामिन्! आठवें स्वप्न में मैंने सुवर्ण के दो कलश देखे हैं जिन पर कमल रखे हुए हैं।
नाभिराय-प्रिये! दो कलशों के देखने से वह पुण्यरूप अनेक निधियों का स्वामी होगा। मरुदेवी-नाथ! नवमें स्वप्न में मैंने कुमुद और कमलों से शोभायमान ऐसे तालाब में क्रीड़ा करती हुई दो मछलियाँ देखी हैं।
नाभिराय-देवि! मछलियों के देखने से सुख सरोवर में अवगाहन करने वाला होगा। मरुदेवी-दसवें स्वप्न में सरोवर देखा है, जिसके पानी के ऊपर कमलों की केसर फैल जाने से ऐसा लगता था मानों पिघला हुआ सुवर्ण ही चमक रहा हो।
नाभिराय-इस तालाब के देखने से वह महापुरुष अनेक लक्षणों से शोभित होगा। मरुदेवी-ग्यारहवें स्वप्न में मुझे ऐसा विशाल समुद्र दिखा है कि जो उठती हुई लहरों से मानों अट्टाहस कर रहा है।
नाभिराय-समुद्र के देखने से वह पुत्र अपने ज्ञान को पूर्ण कर केवलज्ञानी बनेगा। मरुदेवी-बारहवें स्वप्न में मुझे ऐसा स्वर्णमयी सिंहासन दिखा है कि जिसमें अनेक प्रकार के चमकीले मणि जड़े हुए हैं।
नाभिराय-इस दिव्य सिंहासन के देखने से वह जगत् का गुरु होकर साम्राज्य को प्राप्त करेगा।मरुदेवी–तेरहवें स्वप्न में मैंने स्वर्ण का विमान देखा है जो कि बहुमूल्य श्रेष्ठ रत्नों से देदीप्यमान हो रहा है।
नाभिराय-देवविमान देखने से वह स्वर्ग से अवतीर्ण होगा।मरुदेवी-चैदहवें स्वप्न में मुझे पृथ्वी को भेदन कर आता हुआ नागेन्द्र भवन दिखा है।
नाभिराय-हे सुमुखि! नागेन्द्र भवन के देखने से वह पुत्र अवधिज्ञानरूपी लोचनों से सहित होगा।मरुदेवी-पंद्रहवें स्वप्न में मैंने रत्नों की राशि देखी है, जिसकी किरणों से आकाश में इन्द्रधनुष की शोभा-सी बन गई थी।
नाभिराय-देवि! इन चमकते हुए रत्नों के ढेरे के देखने से वह पुत्र अनेक गुणरत्नों की खान होगा।
मरुदेवी-हे देव! सोलहवें स्वप्न में मैंने जलती हुई प्रकाशमान धूमरहित अग्नि देखी।
नाभिराय-प्रिये! इस निर्धूम अग्नि के देखने से तुम्हारा पुत्र कर्मरूपी र्ईंधन को जलाने वाला होगा।
(इस प्रकार महारानी, महाराज को सोलह स्वप्नों के बारे में बताती हैं पुनः कहती हैं)
मरुदेवी-हे नाथ! स्वप्नों के अंत में मैंने देखा कि एक सुन्दर सा बैल मेरे मुख में प्रवेश कर रहा है।
नाभिराय-इसका अर्थ यह है कि तुम्हारे पवित्र गर्भ में तीर्थंकर का जीव अवतीर्ण हो चुका है।
(इस प्रकार सभी प्रजाजन भी हर्ष से पुलकित हो उठते हैं, देवियाँ भी हर्ष से रोमांचित हो जाती हैं तथा महारानी मरुदेवी के साथ अठखेलियाँ करते हुए उन्हें अन्तःपुर में ले जाती हैं)
स्वर्ग से देवतागण आकर गर्भकल्याणक महोत्सव मनाते हैं। श्री, धृति आदि देवियाँ माता की सेवा कर रही हैं, उनसे अनेक-अनेक प्रश्न करके माता का मनोरंजन कर रही हैं। (माता और देवियों के पद्यमय संवादों को पृष्ठ 50 से प्रस्तुत करें ) पुनः गर्भ कल्याणक के सामूहिक गीत-नृत्य के साथ (पृष्ठ 58 पर है) प्रथम दिवस का कार्यक्रम सम्पन्न करें।
भगवान का जन्मकल्याणक दिखाने से पूर्व इस दृश्य को मंच पर दिखाएँ (पंचम दृश्य) (चैत्र वदी नवमी का शुभ दिवस है। माता मरुदेवी ने तीर्थंकर बालक को जन्म दिया है। सम्पूर्ण अयोध्या नगरी इन्द्रों ने स्वर्ग जैसी सजाई है। सब तरफ मुंह-मांगा धन बँट रहा है। सब तरफ ढोल, नगाड़े बज रहे हैं।) स्वर्ग का दृश्य-स्वर्ग में सौधर्म इन्द्र अपने अवधिज्ञान से तीर्थंकर का जन्म हुआ जानकर अपने सिंहासन से उतरकर सात पैर आगे बढ़कर परोक्ष में प्रभु को नमस्कार करते हैं पुनः आदेश देते हैं-
सौधर्म इन्द्र-स्वर्ग में रहने वाले मेरे सभी देव भाइयों! सुनो! चलो ऐरावत हाथी को खूब सुन्दर सजा दो, हम सब मध्यलोक चलेंगे।
देव-जो आज्ञा सौधर्मेन्द्र! (सौधर्म इन्द्र ऐरावत हाथी पर बैठकर अपने विशाल देवपरिकर के साथ नाचते-झूमते मध्यलोक पहुँचते हैं)
देवों का सामूहिक स्वर-तीर्थंकर ऋषभदेव की जय हो! अयोध्या तीर्थ की जय हो! महाराजा नाभिराय की जय हो! महारानी मरुदेवी की जय हो!
सौधर्म इन्द्र-(पिता नाभिराय से) महाराज! हमें भी प्रभु का जन्मोत्सव मनाने की आज्ञा प्रदान कीजिए।
पिता नाभिराय-(खुशी से) हाँ हाँ क्यों नहीं! देवराज! हमारे लिए इससे ज्यादा खुशी की और क्या बात है!
सौधर्म इन्द्र-(शची इन्द्राणी से) हे देवि! आप प्रसूतिगृह में जाकर जिनशिशु का प्रथम दर्शन करो और अपनी स्त्रीलिंग का छेद करके अपने जन्म को सफल करो। और हाँ! जल्दी ही शिशु को लेकर आना, मैं भी दर्शन करके अपने नेत्रों को सफल करूँगा और प्रभु को सुमेरु पर्वत पर ले जाकर जन्माभिषेक करूँगा। (शची इन्द्राणी बहुत धीरे-धीरे (संगीत ध्वनि के साथ) अंदर जाती हैं और सो रही माता मरुदेवी को मायामयी निद्रा में सुला देती हैं और उनके पास एक मायामयी बालक को सुलाकर जिनशिशु को गोद में उठा लेती हैं और खूब जी भरकर प्रभु को देखती हैं और फिर बाहर आती हैं, इन्द्र देखते ही आगे बढ़ते हैं)
सौधर्म इन्द्र-लाओ, लाओ देवी!, जल्दी से मैं प्रभु का दर्शन करूँ। शची इन्द्राणी-हाँ हाँ अभी देती हूँ, अभी मेरा जी नहीं भर रहा है। सौधर्म इन्द्र-(मनुहार करते हुए) हे देवी! अब मेरी आकुलता बढ़ती जा रही है, जल्दी से मुझे जिन बालक को दे दो। (शची से बालक लेकर इन्द्र झूम उठता है और नाच-नाचकर गाने लगता है)
नाम तिहारा तारनहारा, कब तेरा दर्शन होगा। तेरी प्रतिमा इतनी सुन्दर, तू कितना सुन्दर होगा।। जाने कितनी माताओं ने, कितने सुत जन्मे हैं। पर इस वसुधा पर तेरे सम, कोई नहीं बने हैं।। पूर्व दिशा में सूर्यदेव सम, सदा तेरा सुमिरन होगा। तेरी प्रतिमा इतनी सुन्दर, तू कितना सुन्दर होगा।।
(इस प्रकार नाचते-गाते इन्द्र तीर्थंकर शिशु को लेकर ऐरावत हाथी पर बैठकर सुमेरु पर्वत की ओर चल पड़ते हैं, अनेक देव, देवियाँ चंवर ढुराते जा रहे हैं। ऐसा सुन्दर दृश्य! जो कि पहले किसी ने नहीं देखा।) इस प्रकार विशाल वैभव के साथ सभी लोग सुमेरु पर्वत के पास पहुँचते हैं। सौधर्म इन्द्र ऐरावत हाथी से उतरकर शिशु को सुमेरु पर्वत की पाण्डुक शिला पर बैठा देते हैं, सभी देवगण ऊपर से नीचे तक पंक्ति में खड़े हो जाते हैं। सभी के हाथों में बड़े-बड़े कलशों में क्षीरोदधि का प्रासुक जल है। जयजयकार की ध्वनि के साथ ही क्रम-क्रम से 1008 कलशों से अभिषेक सम्पन्न हो रहा है। (अभिषेक के पश्चात् शची इन्द्राणी शिशु को सुन्दर-सुन्दर वस्त्राभूषण पहनाती है जो कि वो स्वर्ग से लाई थी पुनः सब लोग गाते-बजाते वापस अयोध्या नगरी आ जाते हैं। बालक को शची इन्द्राणी माता मरुदेवी के हाथों में सौंप देती हैं, माता मरुदेवी बालक को लेकर बार-बार चूमती हैं। बालक को कहीं नजर न लग जाए, इस डर से काला टीका लगा देती हैं। पुनः पलने में झुलाती हैं बालक को। (यह पालने का दृश्य प्रायः रात्रि में दिखाया जाता है) पालना गीत-आदीश्वर झूले पालना, मरुदेवी लोरी गावें………(पृष्ठ 59 से पढ़ें) (धीरे-धीरे समय बीतता गया, प्रभु बड़े होने लगे, पहले धरती पर सरकना शुरू किया, पुनः चलना शुरू किया और अपनी तोतली भाषा में सबका मन बहलाने लगे। (यहाँ पर भगवान महावीर की बाल सभा एवं सर्प क्रीड़ा का दृश्य पृष्ठ 54 से दिखावें) (पंचकल्याणक प्रतिष्ठा में विधिनायक से अतिरिक्त चूंकि अन्य तीर्थंकरों की प्रतिष्ठेय प्रतिमाएं भी रहती हैं अतः महावीर की बाल सभा एवं सर्प क्रीड़ा भी दिखाई जा सकती है।)
दीक्षाकल्याणक के दिन प्रातः इस दृश्य को मंच पर प्रस्तुत करावें इस प्रकार प्रभु जब युवावस्था को प्राप्त हुए, तब स्वयं ही सभी विद्याओं और कलाओं में निष्णात हो गये। एक बार की बात है, प्रजा घबराई-घबराई सी राजा नाभिराय के दरबार में पहुँचती है)
सामूहिक स्वर-महाराज की जय हो! महाराज की जय हो! महाराजा
नाभिराय-क्या बात है भाइयों! आप लोग इतने परेशान क्यों हैं? सब कुशल तो है?
प्रजा-महाराज! कल्पवृक्षों ने फल देना बंद कर दिया है, अब आप ही बताइए कि हम क्या करें, क्या खाएँ?
नाभिराय-ठीक है प्रजा जनो! अब आप लोग युवराज ऋषभदेव के पास जाइए, वे ही इसका समाधान करेंगे। (प्रजा युवराज ऋषभ कुमार के पास जाती है और कहती है)
प्रजा-तीर्थंकर युवराज की जय हो! स्वामी! आप बताएं कि हम अब क्या करें, कैसे जिएँ?
भगवान ऋषभदेव-(अपने अवधिज्ञान से जानकर) हाँ हाँ भाइयों! मैं तुम लोगों की समस्या को समझ गया हूँ। अब तुम लोग चिंता मत करो। कल्पवृक्ष चले गये तो क्या हुआ? वृक्ष तो हैं ही! अब इन्हीं से जीवनयापन करना मैं सिखाऊँगा।
प्रजा-लेकिन भगवन्! इन वृक्षों के पास खड़े होकर मांगने से कुछ मिलता ही नहीं है।
ऋषभदेव-प्रजाजनों! अब आप लोगों को भोगभूमि से कर्मभूमि की ओर आना है। अब मैं तुम्हें खेती आदि करना बताता हूँ।
प्रजा-(सामूहिक स्वर में) ठीक है प्रभु! हम सब तैयार हैं। (बस, यहाँ से मानव अपने पुरुषार्थपूर्वक जीवन का संचालन करने लगा। भगवान ऋषभदेव ने स्वयं ही उन्हें असि, मसि, कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्न इन छह क्रियाओं को करना सिखाया, जो आज तक भी चल रही हैं, धीरे-धीरे समय बीतता गया……) (एक बार महाराजा नाभिराय ने अपने मन में चिन्तन किया कि ऋषभदेव चूंकि विषयों के प्रति उदासीन हैं फिर भी इनके विवाह हेतु किसी योग्य कन्या का विचार करना चाहिए, ऐसा चिन्तन करके वे मंत्रियों से कहते हैं)-
महाराजा नाभिराय-मंत्रियों! हमें ऋषभदेव के पास चलना है।
मंत्री-चलिए महाराज! (महाराज नाभिराय ऋषभदेव के निकट पहुँचते हैं। वे आसन पर बैठे थे, उठकर खड़े हो जाते हैं पुनः दोनों यथायोग्य आसन पर बैठ जाते हैं। सिंहासन आजू-बाजू एक समान रक्खे हैं।)
महाराजा नाभिराय-हे देव! में आपसे कुछ कहना चाहता हूँ। ऋषभदेव-कहिए पिताजी!
महाराजा नाभिराय-देव! अब आप इस संसार की सृष्टि की ओर अपनी बुद्धि लगाइए और किसी इष्ट कन्या के साथ विवाह कीजिए। यह विवाह कार्य गृहस्थों का एक धर्म है। यदि आप मुझे किसी भी तरह से बड़ा मानते हैं तो आपको मेरे वचन उल्लंघन नहीं करने चाहिए। (इतना कहकर महाराजा नाभिराय चुप हो गये, तब ऋषभदेव बोले)
ऋषभदेव-(मुस्कुराते हुए) ओम्। (उसी समय सौधर्म इन्द्र आदि आ जाते हैं और भगवान ऋषभदेव द्वारा विवाह की स्वीकृति पाकर अत्यन्त प्रसन्न हो जाते हैं।) सभी तरफ विवाह की जोरदार तैयारियाँ चल रही हैं। शुभ दिन में युवराज ऋषभदेव का विवाह कच्छ, महाकच्छ राजाओं की बहनें यशस्वती और सुनन्दा नाम की दो सुन्दर कन्याओं से हो जाता हैं। धीरे-धीरे समय बीतता गया……रानी यशस्वती ने भरत आदि सौ पुत्र एवं एक पुत्री ब्राह्मी को तथा रानी सुनन्दा ने एक पुत्र बाहुबलि और एक पुत्री सुन्दरी को जन्म दिया। पिता नाभिराय भी पुत्र-पौत्रों के साथ सुख में मग्न हैं) (यहाँ ब्राह्मी-सुन्दरी के रूप में किन्हीं दो कुमारी कन्याओं को ऋषभदेव के द्वारा अक्षर और अंक लिपि का ज्ञान कराते हुए दिखावें तथा भरत-बाहुबली आदि पुत्रों को धनुष विद्या आदि सिखाते हुए दिखा सकते हैं)
राजदरबार में सामूहिक नृत्य के पश्चात् 32 मुकुटबद्ध राजाओं का आगमन आदि दिखावें- एक दिन नाभिराय विचार करते हैं कि अब मुझे राजमुकुट त्याग करके ऋषभदेव का राज्यतिलक करना चाहिए। ऐसा सोचते ही उन्होंने घोषणा कर दी- नाभिराय-सभासदों! अब मैंने निश्चय किया है कि मैं अपना राजमुकुट उतारकर पुत्र ऋषभदेव को दे रहा हूँ मुझे आशा है कि आप सब सहमत होंगे। प्रजा ने जयजयकार के द्वारा सहमति प्रदान की और शुभ मुहूर्त में ऋषभदेव का राज्याभिषेक हुआ। प्रजा खुशी से गीत गा रही है-(यहाँ पृष्ठ 59 से सामूहिक गीतनृत्य प्रस्तुत करें) (राजदरबार का दृश्य-पुनः किसी दिन ऋषभदेव सिंहासन पर आरूढ़ हैं, सभी लोग प्रसन्न हैं तभी इन्द्र ने नृत्य के लिए ऐसी नीलांजना नर्तकी को प्रस्तुत किया जिसकी आयु बहुत थोड़ी है। नृत्य करते-करते वह नीलांजना नर्तकी आयु पूर्ण होने पर अदृश्य हो गई और उसकी जगह वैसी ही दूसरी देवांगना उपस्थित हो गई, नृत्य बराबर चलता रहा, कोई भी इस रहस्य को नहीं जान सका लेकिन प्रभु को सब पता लग गया और उनके हृदय में वैराग्य के अंकुर प्रस्फुटित हो गए) ऋषभदेव-बस, बस, बंद कर दो ये नृत्य और संगीत। ओह! मैं समझ गया। ये वैभव, ये राज्यलक्ष्मी सब क्षणभंगुर हैं। अब मैं दीक्षा धारण करके अपना जन्म सफल करूँगा। (उनके मन में वैराग्य भाव उत्पन्न होते ही स्वर्ग से ब्रह्मर्षि के रूप में लौकांतिक देव प्रभु के वैराग्य की अनुमोदना करने हेतु राजसभा में प्रगट हो जाते हैं।)
आठ बालकों को सफेद धोती-दुपट्टा पहनाकर लौकांतिक देव के रूप में राजसभा में प्रस्तुत करें, वे लौकांतिकदेव दोनों हाथों से भगवान के समक्ष पीले चावल की पुष्पांजलि डालते हुए हाथ जोड़कर निम्न प्रकार से अपने-अपने अभिमत प्रस्तुत करें-
1. सारस्वतदेव –हे युगादिपुरुष! आपने जो दीक्षा का विचार बनाया है, सो बहुत ही उत्तम है। अठारह कोड़ाकोड़ी सागर के बाद इस भरतक्षेत्र में अब आप मोक्षमार्ग को खुला करेंगे। इसलिए आप ही मुक्तिपथ के विधाता-निर्माता हैं।
2. आदित्यदेव –हे युगस्रष्टा! विश्व के सभी प्राणी मोहरूपी अंधकार में सोये हुए हैं, उन्हें ज्ञानप्रकाश देकर मुक्तिमार्ग में ले चलने वाले उनके नेता आप ही हैं अतः आपको मेरा शत-शत नमन है।
3. बन्हिदेव –युग के प्रथम अवतार ऋषभदेव भगवान्! अब आप तपरूपी अलंकारों से सुसज्जित होकर मुक्तिकन्या के स्वयंवर मण्डप में प्रवेश करने जा रहे हैं सो हम आपके वैराग्य की अनुशंसा करते हैं।
4. अरुणकुमार देव -हे प्रभो! आप स्वयं ज्ञानवान् होने से स्वयंबुद्ध कहलाते हैं। आप भगवान हैं फिर भी हम लोग जो आपके वैराग्य की अनुमोदना कर रहे हैं सो यह हम लोगों का नियोगमात्र है।
5. गर्दतोयदेव –भगवन्! हम लोग तो केवल आपकी प्रशंसा और स्तुति ही कर सकते हैं न कि आपको सम्बोधन! हम लोग तो आपसे सम्बोधन प्राप्त करने की प्रतीक्षा ही कर रहे हैं।
6. तुषितदेव –पुरुदेव! आज हम लोग आपके दीक्षा कल्याणक में भाग लेकर धन्य हो गये हैं।
7. अव्याबाधदेव -हे युगस्रष्टा! आप जिस प्रकार से राज्य अवस्था में सबसे श्रेष्ठ और ज्येष्ठ हैं उसी प्रकार से मोक्षमार्ग में प्रवर्तन करने से आप सर्वश्रेष्ठ महापुरुष के रूप में जाने जायेंगे।
8. अरिष्टदेव –भगवन्! आपके वैराग्य से अब न जाने कितने भव्य प्राणियों का उद्धार होने वाला है। प्रभु! आपकी जय हो! जय हो! जय हो!।
(केवलज्ञान कल्याणक के दिन प्रातः भगवान की आहारचर्या से कुछ क्षण पूर्व मंच पर यह दृश्य सहप्रतिष्ठाचार्य प्रस्तुत करावें- (सूत्रधार द्वारा) बंधुओं! कल्पना कीजिए उस युग की, जब आज से कोड़ाकोड़ी सागर वर्ष पूर्व भारत देश की इस पुण्य धरा पर देवाधिदेव 1008 भगवान ऋषभदेव ने जन्मावतार लिया था। भगवान ऋषभदेव के समय इस धरती से कल्पवृक्ष लुप्तप्राय हो गये, तब भगवान ऋषभदेव ने प्रजा को असि, मसि, कृषि आदि शिक्षाएं प्रदान कीं, जिससे वह सुख से अपना जीवनयापन कर सकें। एक दिन राजदरबार में नीलांजना का नृत्य हो रहा था। महाराजा ऋषभदेव के साथ अन्य दरबारीगण भी बैठे उस नृत्य को देख रहे थे तभी बीच में ही नीलांजना की आयु समाप्त हो जाती है। सौधर्म इन्द्र अपनी विक्रिया से बिल्कुल वैसी ही दूसरी नीलांजना उसी क्षण उपस्थित कर देता है। कोई कुछ नहीं जान पाता परन्तु भगवान ऋषभदेव उस संपूर्ण क्रिया को जान लेते हैं और उन्हें जीवन की क्षणभंगुरता का अहसास हो जाता है, उन्हें वैराग्य हो जाता है और भगवान ऋषभदेव तपस्या करने के लिए प्रयाग नाम के वन की ओर प्रस्थान कर जाते हैं। अपने सारे वस्त्राभूषण का त्यागकर, पंचमुष्टि केशलोंच कर वटवृक्ष के नीचे छः माह का योग धारण करके खड़े हो जाते हैं, ध्यान मग्न हो जाते हैं। छः माह के योग धारण करने के पश्चात्, जब भगवान आहार के लिए निकले तो पुनः उन्हें 6 माह 39 दिनों तक कहीं आहार नहीं मिला, इस प्रकार उनका 1 वर्ष 39 दिन तक निर्जल उपवास हो गया। किन्तु उनके शरीर में किसी प्रकार की शिथिलता नहीं आई क्योंकि वे तो तीर्थंकर प्रभु के अवतार थे न। बंधुओं! उस समय भी ऐसा नहीं था कि कोई उन्हें आहार नहीं देना चाहता था अपितु किसी को आहारदान की विधि ही नहीं मालूम थी और आपको तो मालूम ही है कि जैन साधु बिना नवधाभक्ति के आहार नहीं ग्रहण करते। सभी लोग अपने घरों से बाहर निकल-निकलकर भगवान को तरह-तरह से वस्त्राभूषण आदि भेंट करना चाहते हैं- एक व्यक्ति-आओ प्रभु! आज हमारे यहाँ बहुत अच्छा भोजन बना है।
महिला-प्रभु! आपको सर्दी लगती होगी, ये अच्छे-अच्छे कपड़े हैं, ले लो।
दूसरा व्यक्ति-भगवन्! आप हमारी इस कन्या के साथ विवाह कर लीजिए। (भगवान ऋषभदेव का समय बताने के लिए यहाँ पर कुछ श्रावकों को भगवान के आवाहन आदि के लिए अपने-अपने घरों के आगे खड़े रहने का निर्देश दें तथा विधिनायक दीक्षाकल्याणक वाले भगवान को मस्तक पर धारण करके प्रतिष्ठाचार्य भगवान की आहारचर्या प्रदर्शित करने के लिए कुछ देर श्रावकों की बस्ती में भ्रमण करें) (इस प्रकार से लोग कहते रहे, पर प्रभु आगे बढ़ते गए। चलते-चलते छह माह के भ्रमण के पश्चात् भगवान ऋषभदेव हस्तिनापुर पहुँचते हैं। प्रभु के पहुँचने के एक दिन पूर्व वहाँ के राजा श्रेयांस ने रात्रि के पिछले प्रहर में सुमेरु पर्वत आदि सात स्वप्न देखे। प्रातःकाल पुरोहित से उनका फल पूछा)
(राजा श्रेयांस सुख की निद्रा से उठते हैं)
श्रेयाँस-ॐ नमः सिद्धेभ्यः। आ हा! आज रात्रि में मैंने कितने सुन्दर-सुन्दर स्वप्न देखे, एक नहीं, दो नहीं, पूरे सात, सात स्वप्न देखे हैं मैंने! मुझे तुरंत ज्योतिषी से इसका फल पूछना चाहिए। (आज्ञा देते हैं) द्वारपाल!
द्वारपाल-महाराज की जय हो! आज्ञा करें।
श्रेयाँस-जाओ और इसी समय राजज्योतिषी को बुलाकर लाओ।
द्वारपाल-जो आज्ञा महाराज (चला जाता है) (ज्योतिषी का प्रवेश) (पन्ना वगैरह लिए हुए)
ज्योतिषी-प्रणाम महाराज! आज सुबह-सुबह मुझे कैसे याद किया।
श्रेयाँस-ज्योतिषी जी, आज रात्रि के पिछले प्रहर में मैंने सात स्वप्न देखे हैं, मैं आपसे उन प्रश्नों का फल जानना चाहता हूँ।
ज्योतिषी-वे स्वप्न क्या हैं, महाराज! मुझे बताइये।
श्रेयाँस-हे विप्रवर! आज स्वप्न में मैंने सर्वप्रथम सुदर्शन मेरु का दर्शन किया है उसके पश्चात् क्रमशः कल्पवृक्ष, सिंह, बैल, सूर्य, चन्द्र, रत्नों से भरा समुद्र और व्यंतर देवों की मूर्तियाँ देखी हैं।
ज्योतिषी-हे राजन्! सुदर्शन मेरु के दर्शन से आज आपको किसी ऐसे महापुरुष के दर्शन होंंगे, जिनका कि सुमेरु पर्वत पर अभिषेक हुआ हो और अन्य शेष स्वप्न भी शुभ फल को ही कहने वाले हैं। (तभी द्वारपाल का प्रवेश)
द्वारपाल-महाराज की जय हो! महाराज! हमारे नगर में महामुनि आदिनाथ पधारे हैं, सम्पूर्ण प्रजा उनकी जयजयकार कर रही है। (राजा श्रेयांस परोक्ष में भगवान ऋषभदेव को नमस्कार करते हैं) (राजा श्रेयांस तुरंत महल से बाहर आते हैं और भगवान ऋषभदेव के दर्शनमात्र से उन्हें दशभव पूर्व का जातिस्मरण हो जाता है कि किस प्रकार से उन्होंने वज्रजंघ और रानी श्रीमती के रूप में जंगल में एक मुनिराज को आहार दिया था। ये वज्रजंघ का जीव ही तो हैं जो महामुनि ऋषभदेव बन गये हैं और मैं ही वह रानी श्रीमती का जीव हूँ। अहो! कितने महान पुण्य का उदय आया है! अब मैं महामुनि ऋषभदेव को उसी प्रकर नवधाभक्तिपूर्वक आहार दूँगा। अपने बड़े भाई राजा सोमप्रभ और भाभी लक्ष्मी को आवाज देते हैं।) श्रेयाँस-अरे भैय्या, भाभी! जल्दी आओ। हम महामुनि ऋषभदेव को आहार देंगे। अरे! जल्दी से पड़गाहन करो। हे स्वामी! नमोस्तु, नमोस्तु, नमोस्तु, अत्र तिष्ठ तिष्ठ, आहार जल शुद्ध है। अरे यह क्या! मुनिराज तो खड़े हो गये, आज पूरे 1 वर्ष और 39 दिनों के पश्चात् आहार ग्रहण करेंगे। राजा श्रेयांस अपने भैय्या-भाभी सहित तीन बार मुनिराज की परिक्रमा करते हैं। नमोस्तु, नमोस्तु, नमोस्त! श्रेयाँस-मन शुद्धि, वचन शुद्धि, काय शुद्धि, आहार जल शुद्ध है, स्वामी! भोजनशाला में प्रवेश कीजिए। (भगवान ऋषभदेव का राजा श्रेयांस ने पड़गाहन कर लिया है, भगवान का आहार होता है, पंचाश्चर्य की वृष्टि होती है, जब अयोध्या के राजा चक्रवर्ती सम्राट् भरत को यह शुभ समाचार प्राप्त होता है तो वह स्वयं हस्तिनापुर आते हैं और राजा श्रेयांस को दानतीर्थप्रवर्तक की उपाधि प्रदान कर सम्मानित करते हैं। जिस दिन महामुनि ऋषभदेव ने आहार ग्रहण किया, वह दिन आज भी अक्षय तृतीया के नाम से प्रसिद्ध है, इस दिन को देशभर में श्रद्धा और भक्ति के साथ उत्सव के रूप में मनाया जाता है।) आहार-संबंधी भजन (आहार के बीच में ही पृष्ठ 61 से पढ़ें) (अयोध्या नरेश भरत ने जब यह समाचार सुना तो उनके हर्ष का पार नहीं रहा। वे तुरंत ही वहाँ से चलकर हस्तिनापुर आ गये। महामुनिराज के दर्शन किए और राजा श्रेयांस का बहुत ही सम्मान करके उन्हें ‘‘दान तीर्थ प्रवर्तक’’ की उपाधि से अलंकृत किया, तभी से धरती पर सम्मान की परम्परा का शुभारंभ हुआ)
(पुनः भगवान ऋषभदेव चलते-चलते पुरिमतालपुर के प्रयाग नाम के उद्यान में पहुँचे और तपस्या करते-करते जब एक हजार वर्ष बीत गए, तब भगवान को दिव्य केवलज्ञान प्रगट हो गया, उस समय सौधर्म इन्द्र की आज्ञा से कुबेर ने अद्र्धनिमिष मात्र में आकाश में अधर समवसरण की रचना कर दी। उसमें बारह कोठों में देव, मनुष्य,विद्याधर, पशु-पक्षी आदि सभी उपस्थित हुए, भगवान की दिव्यध्वनि सुनने के लिए भारी जनसमूह उमड़ पड़ा, सभी ने प्रभु की दिव्यवाणी को अपनी-अपनी भाषा में समझ लिया।) (यहाँ समवसरण की रचना दिखावें तथा उपस्थित आचार्य या मुनि गणधर के रूप में जनता को दिव्यध्वनि के प्रतीक में सम्बोधित करें।) (जब भगवान श्रीविहार करते हैं, तब समवसरण तो विघटित हो जाता है और प्रभु आकाश में अधर गमन करते हैं। इन्द्र प्रभु के चरणकमल के नीचे सुगंधित स्वर्णकमलों की रचना करता है, चारों ओर सुभिक्ष हो जाता है।) (यहाँ चांदी के कमलों को बनवाकर भगवान के समीप रखकर अनन्तर लोगों को वितरित किया जा सकता है।) इस प्रकार प्रभु ने एक दिन जान लिया कि मेरी आयु मात्र चैदह दिन शेष है, वे विहार करके कैलाशगिरि पहुँच गए। एकाग्र ध्यान में लीन प्रभु को चैदह दिन बाद शिवलक्ष्मी ने वरण कर लिया। तब इन्द्रों ने खूब दीपावली मनाई। भगवान के निर्वाणकल्याणक की खूब धूमधाम से पूजा की। उस समय भरत को बहुत दुखी देखकर श्री वृषभसेन गणधर सम्बोधित करते हैं। वृषभसेन-हे भव्य प्राणी! तुम अफसोस मत करो। तुमने तो प्रभु बहुत कुछ सीखा है। अतः अब उनके उपदेशों को धारण करके सभी को सिखाना है। (इस प्रकार के वचन सुनकर भरत को संतुष्टि हुई। प्रभु ऋषभदेव के मोक्षगमन के पश्चात् क्रम-क्रम से चैदह लाख राजाओं ने दीक्षा लेकर इस परम्परा का निर्वाह किया।)(पृष्ठ 64 से निर्वाणकल्याणक का भजन प्रस्तुत करें) अंत में सूत्रधार-हे भगवान्! अब मुझे भी परम्परा से मुक्ति धाम प्राप्त हो, यही प्रार्थना है। भगवान ऋषभदेव की जय! आदिब्रह्मा भगवान ऋषभदेव की जय!