भविया सिद्धी जेसिं, जीवाणं ते हवंति भवसिद्धा।
तव्विवरीयाऽभव्वा, संसारादो ण सिज्झंति।।१४६।।
भव्या सिद्धिर्येषां जीवानां ते भवन्ति भवसिद्धा:।
तद्विपरीता अभव्या: संसारान्न सिध्यन्ति।।१४६।।
अर्थ—जिन जीवों की अनंत चतुष्टयरूप सिद्धि होने वाली हो अथवा जो उसकी प्राप्ति के योग्य हों उनको भवसिद्ध कहते हैं। जिनमें इन दोनों में से कोई भी लक्षण घटित न हो उन जीवों को अभव्यसिद्ध कहते हैं।
भावार्थ—कितने ही भव्य ऐसे हैं जो मुक्ति प्राप्ति के योग्य हैं परन्तु कभी मुक्त न होंगे, जैसे—बन्ध्यापने के दोष से रहित विधवा सती स्त्री में पुत्रोत्पत्ति की योग्यता है परन्तु उसके कभी पुत्र उत्पन्न नहीं होगा। इसके सिवाय कोई भव्य ऐसे हैं जो नियम से मुक्त होंगे, जैसे—बन्ध्यापने के दोष से रहित स्त्री के निमित्त मिलने पर नियम से पुत्र उत्पन्न होगा। इस तरह योग्यता भेद के कारण भव्य दो प्रकार के हैं। इन दोनों योग्यताओं से जो रहित हैं उनको अभव्य कहते हैं। जैसे—बन्ध्या स्त्री के निमित्त मिले चाहे न मिले परन्तु पुत्र उत्पन्न नहीं हो सकता है।
भव्वत्तणस्स जोग्गा, जे जीवा ते हवंति भवसिद्धा।
ण हु मलविगमे णियमा, ताणं कणओवलाणमिव।।१४७।।
भव्यत्वस्य योग्या ये जीवास्ते भवन्ति भवसिद्धा:।
न हि मलविगमे नियमात् तेषां कनकोपलानामिव।।१४७।।
अर्थ—जो जीव अनंतचतुष्टयरूप सिद्धि की प्राप्ति के योग्य हैं उनको भवसिद्ध कहते हैं। किन्तु यह बात नहीं है कि इस प्रकार के जीवों का कर्ममल नियम से दूर होवे ही। जैसे—कनकोपलका।
भावार्थ—ऐसे भी बहुत से कनकोपल हैं जिनमें कि निमित्त मिलाने पर शुद्ध स्वर्णरूप होने की योग्यता तो है परन्तु उनकी इस योग्यता की अभिव्यक्ति कभी नहीं होगी अथवा जिस तरह अहमिन्द्र देवों में नरकादि में गमन करने की शक्ति है परन्तु उस शक्ति की अभिव्यक्ति कभी नहीं होती। इस ही तरह जिन जीवों में अनंत चतुष्टय को प्राप्त करने की योग्यता है परन्तु उनको वह कभी प्राप्त नहीं होगी उनको भी भवसिद्ध कहते हैं। ये जीव भव्य होते हुए भी सदा संसार में ही रहते हैं।
ण य जे भव्वाभव्वा, मुत्तिसुहाती दणंतसंसारा।
ते जीवा णायव्वा, णेव य भव्वा अभव्वा य।।१४८।।
न च ये भव्या अभव्या मुक्तिसुखा अतीतानन्तसंसारा:।
ते जीवा ज्ञातव्या नैव च भव्या अभव्याश्च।।१४८।।
अर्थ—जिनका पाँच परिवर्तन रूप अनंत संसार सर्वथा छूट गया है और इसीलिये जो मुक्तिसुख के भोक्ता हैं उन जीवों को न तो भव्य समझना और न अभव्य समझना चाहिए क्योंकि अब उनको कोई नवीन अवस्था प्राप्त करना शेष नहीं रही है इसलिये वे भव्य भी नहीं हैं और अनंत चतुष्टय को प्राप्त हो चुके हैं इसलिये अभव्य भी नहीं हैं।
भावार्थ—जिसमें अनंत चतुष्टय के अभिव्यक्त होने की योग्यता ही न हो उसको अभव्य कहते हैं अत: मुक्त जीव अभव्य भी नहीं हैं क्योंकि उन्होंने अनंत चतुष्टय को प्राप्त कर लिया है और ‘‘भवितुं योग्या भव्या’’ इस निरुक्ति के अनुसार भव्य उनको कहते हैं जिनमें कि अनंत चतुष्टय को प्राप्त करने की योग्यता है किन्तु अब वे उस अवस्था को प्राप्त कर चुके इसलिये उनके भव्यत्व—उनकी उस योग्यता का परिपाक हो चुका अतएव अपरिपक्व अवस्था की अपेक्षा से भव्य भी नहीं हैं।
जिन जीवों की अनंतचतुष्टय रूप सिद्धि होने वाली हो अथवा जो उसकी प्राप्ति के योग्य हों उनको भव्य कहते हैं। जनमें इन दोनों में से कोई लक्षण घटित न हो उनको अभव्य कहते हैं अर्थात् कितने ही भव्य ऐेसे हैं जो मुक्ति प्राप्ति के योग्य हैं परन्तु कभी भी मुक्त न होंगे। जैसे—विधवा सती स्त्री में पुत्रोत्पत्ति की योग्यता है परन्तु उसके कभी पुत्र उत्पन्न नहीं होगा। कोई भव्य ऐसे हैं जो नियम से मुक्त होंगे। जैसे-बन्ध्यापने से रहित स्त्री के निमित्त मिलने पर नियम से पुत्र उत्पन्न होगा। इस तरह स्वभाव भेद के कारण भव्य दो प्रकार के हैं। इन दोनों स्वभावों से रहित अभव्य हैं जैसे— बन्ध्या स्त्री के निमित्त मिले चाहे न मिले किन्तु पुत्र उत्पन्न नहीं हो सकता है।
जघन्य युक्तानन्त प्रमाण अभव्य राशि है और भव्य राशि इससे बहुत ही अधिक है। काल के अनंत समय हैं फिर भी ऐसा कोई समय नहीं आयेगा कि जब भव्य राशि से संसार खाली हो जाए। अनंतानंत काल के बीत जाने पर भी अनंतानंत भव्यराशि संसार में विद्यमान ही रहेगी क्योंकि यह राशि अक्षय अनंत है।
यद्यपि छह महीना आठ समय में ६०८ जीव मोक्ष चले जाते हैं और छह महीना आठ समय में इतने ही जीव निगोदराशि से निकलते हैं फिर भी कभी संसार का अंत नहीं हो सकता है न निगोद राशि में ही घाटा आ सकता है।
जिनका पंचपरिवर्तन रूप अनंत संसार सर्वथा छूट गया है और इसलिये जो मुक्ति सुख के भोक्ता हैं उन जीवों को न तो भव्य समझना और न अभव्य समझना क्योंकि अब उनको कोई नवीन अवस्था प्राप्त करना शेष नहीं रहा इसलिये भव्य नहीं हैं और अनंत चतुष्टय को प्राप्त हो चुके इसलिये अभव्य भी नहीं हैं। ऐसे मुक्त जीव भी अनंतानंत हैं।