”श्री गौतमस्वामी श्री वर्धमानस्वामी को प्रत्यक्ष करके ‘जयति भगवान्’ इत्यादि उच्चारण करते हैं—” जयति भगवान् हेमाम्भोजप्रचारविजृंभिता- वमरमुकुटच्छायोद्गीर्णप्रभापरिचुम्बितौ । कलुषहृदया मानोद्भ्रान्ता:परस्परवैरिणो विगतकलुषा: पादौ यस्य प्रपद्य विशश्वसु:।।१।।
पद्यानुवाद जय हे भगवन् ! चरण कमल तव, कनक कमल पर करें विहार। इन्द्रमुकुट की कांति प्रभा से, चुंबित शोभें अति सुखकार।। जातविरोधी कलुषमना, क्रुध मान सहित जन्तूगण भी। ऐसे तव पद का आश्रय ले, प्रेम भाव को धरें सभी।।१।।
अर्थ- जो सुवर्णमय कमलों पर सामान्य मनुष्यों में न पाये जाने वाले और चरण क्रम के संचार से रहित प्रचार-गमन से शोभायमान हैं, देवों के मुकुटों में लगी हुई छाया-मणियों से निकलती हुई प्रभा से आलिंगित-स्पर्शित हैं ऐसे जिनके चरणों में आकर कलुष हृदय वाले, अहंकार से युक्त, परस्पर वैरी ऐसे सर्प, नेवला आदि जीव अपने-अपने स्वाभाविक क्रूर स्वभाव को छोड़कर विश्वास को प्राप्त होते हैं वे भगवान् जिनेन्द्र जयवंत रहें ।।१।। ”श्रीगौतमस्वामी जिनेंद्रधर्म को नमस्कार करते हुये कहते हैं—”
तदनु जयति श्रेयान् धर्म: प्रवृद्धमहोदय: कुगति-विपथ-क्लेशाद्योऽसौ विपाशयति प्रजा:।
परिणतनयस्याङ्गीभावाद्विविविक्तविकल्पितं भवतु भवतस्त्रातृ त्रेधा जिनेन्द्रवचोऽमृतम्।।२।।
जय हो श्रेयस्कर धर्मामृत, वृद्धिंगत महिमाशाली। कुगति कुपथ से प्राणीगण को, निकालकर दे सुख भारी।।
नय को मुख्य गौण करने से, बहुत भेदयुत सुखदाता। ऐसे जिनवचनामृतमय, हे धर्म! करो जग से रक्षा।।२।।
अर्थ- अनन्तर उत्तमक्षमादिलक्षण श्रेष्ठ धर्म जयवंत हो, जिससे प्राणियों के स्वर्गादि पदों की प्राप्ति वृद्धि को प्राप्त होती है। जो संसारी जीवों को नरकादि कुगतियों से, मिथ्यादर्शन आदि कुमार्गों से और उनसे जायमान—उत्पन्न क्लेशोें से छुड़ाता है तथा द्रव्यार्थिक नय को गौणकर पर्यार्यािथक नय की प्रधानता लेकर अङ्ग, पूर्व आदि रूप से रचा गया अथवा पूर्वापर दोषरहित रचा गया ऐसा उत्पाद—व्यय—ध्रौव्यरूप से अथवा अङ्ग, पूर्व और अंग—बाह्यरूप से तीन प्रकार का जिनेन्द्र का वचनरूप अमृत संसार से रक्षा करे।।२।। ”श्री गौतमस्वामी भगवान के ज्ञान की वंदना करते हैं—”
तदनु जयताज्जैनी वित्ति: प्रभंगतरंगिणी। प्रभवविगमध्रौव्यद्रव्यस्वभावविभाविनी।।
निरुपमसुखस्येदं द्वारं विघट्य निरर्गलं। विगतरजसं मोक्षं देयान्निरत्ययमव्ययम्।।३।।
जय हो जैनी वाणी जग में, सप्तभंगमय गंगा है। व्यय उत्पाद ध्रौव्ययुत द्रव्यों, के स्वभाव को प्रगट करे।।
अनुपम शिवसुख द्वार खोलती, अव्यय सुख को देती है। विघ्न रहित अरु कर्म धूलि से, रहित मोक्ष को देती है।।३।।
अर्थ- अनन्तर जिनेन्द्र का केवलज्ञान जयवंत हो, जिसमें स्यादस्ति, स्यान्नास्ति आदि सात भंगरूप कल्लोलें हैं जो द्रव्यों के उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यरूप स्वभावों को प्रकाशित करता है। ऐसा यह केवलज्ञान अनन्तसुख के मोहनीयरूप द्वार को अंतराय-रूप आगल से रहित उद्घाटन कर ज्ञानदर्शनावरणरूप रज से रहित व्याधि अथवा जरा- मरण से रहित अविनश्वर मोक्ष को देवे।।३।। ”श्री गौतमस्वामी नवदेवों की स्तुति कर रहे हैं—”
अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायेभ्यस्तथा च साधुभ्य:।
सर्वजगद्वन्द्येभ्यो नमोऽस्तु सर्वत्र सर्वेभ्य:।।४।।
अर्हत् सिद्धाचार्य उपाध्याय, सर्व साधुगण सुरवंदित।
त्रिभुवन वंदित पंच परमगुरु, नमोऽस्तु तुमको मम संतत।।४।।
अर्थ- सम्पूर्ण जगत् द्वारा वन्दनीय सब अर्हंतों को , सब आचार्यों को, सब उपाध्यायों को और सब साधुओं को नमस्कार हो ।।४।।
मोहादिसर्वदोषारिघातकेभ्य: सदाहतरजोभ्य:।
विरहितरहस्कृतेभ्य: पूजार्हेभ्यो नमोऽर्हद्भ्य: ।।५।।
मोहारि के घातक द्वयरज, आवरणों से रहित जिनेश।
विघ्न-रहस विरहित पूजा के, योग्य अर्हत को नमूँ हमेश।।५।।
अर्थ- जो मोह, राग, द्वेष आदि सम्पूर्ण दोषरूप शत्रुओं के घातक हैं जिनने हमेशा के लिये ज्ञानावरणरूप रज को नष्ट कर दिया है तथा अन्तराय कर्म का भी जिनने विनाश कर दिया है ऐसे पूजा योग्य अर्हंतों को नमस्कार हो ।।५।।
क्षान्त्यार्जवादिगुणगणसुसाधनं सकललोकहितहेतुं।
शुभधामनि धातारं वन्दे धर्मं जिनेन्द्रोक्तम्।।६।।
क्षमादि उत्तम गुणगण साधक, सकल लोक हित हेतु महान्।
शुभ शिवधाम धरे ले जाकर, जिनवर धर्म नमूँ सुख खान।।६।।
अर्थ- क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, आदि गुणों का समुदाय जिसकी उत्पत्ति में साधन है। जो सम्पूर्ण लोक के हित का कारण है और शुभ धाम—जो निर्वाण उसमें स्थापन करने वाला है ऐसे जिनेन्द्रोक्त धर्म की वन्दना करता हूँ ।।६।।
मिथ्याज्ञानतमोवृतलोवैâकज्योतिरमितगमयोगि।
सांगोपांगमजेयं जैनं वचनं सदा वन्दे।।७।।
मिथ्याज्ञान तमोवृत जग में, ज्योतिर्मय अनुपम भास्कर।
अंगपूर्वमय विजयशील, जिनवचन नमूँ मैं शिर नत कर।।७।।
अर्थ- जो मिथ्याज्ञानरूप अन्धकार से आच्छादित लोक का प्रकाशक होने से अद्वितीय ज्योति है। अपरिमित श्रुतज्ञान का जनक होने से संबंधी है। आचारादि अङ्गों और पूर्व वस्तु आदि उपांगों से युक्त है तथा एकान्तवादियों कर अजेय है ऐसे जैनवचन की सदा वन्दना करता हूँ ।।७।।
भवनविमानज्योतिव्र्यंतरनरलोकविश्वचैत्यानि।
त्रिजगदभिवन्दितानां वन्दे त्रेधा जिनेन्द्राणां।।८।।
भवनवासि व्यन्तर ज्योतिष, वैमानिक में नरलोक में ये।
जिनभवनों की त्रिभुवन वंदित, जिनप्रतिमा को वंदूूँ मैं।।८।।
अर्थ- भवनवासी देवों, कल्पवासी देवों,ज्योतिष्क देवों और व्यन्तर देवों के विमानों में तथा मनुष्य लोक में तीन जगत् कर वन्दनीय जिनेन्द्रदेव की जितनी भर प्रतिमा हैं उन सबको मन, वचन और काय से वन्दना करता हूँ ।।८।।
भुवनत्रयेऽपि भुवनत्रयाधिपाभ्यच्र्यतीर्थकर्तृणाम्।
वन्दे भवाग्निशान्त्यै विभवानामालयालीस्ता:।।९।।
भुवनत्रय में जितने जिनगृह, भवविरहित तीर्थंकर के।
भवाग्नि शांति हेतु नमूँ मैं, त्रिभुवनपति से अर्चित ये।।९।।
अर्थ- जिनका संसारपरिभ्रमण विनष्ट हो चुका है, तीन भुवन के स्वामी देवेन्द्र, नरेन्द्र और धरणेन्द्र द्वारा पूज्य ऐसे तीर्थंकरों के आलय-मन्दिर की पंक्तियों को भी संसाररूप अग्नि की शांति के लिये वन्दना करता हूं ।।९।।
इति पंच महापुरुषा: प्रणुता जिनधर्म-वचन-चैत्यानि।
चैत्यालयाश्च विमलां दिशन्तु बोधिं बुधजनेष्टां।।१०।।
इस विध प्रणुत पंचपरमेष्ठी, श्री जिनधर्म जिनागम को।
विमल चैत्य चैत्यालय वंदूँ, बुधजन इष्ट बोधि मम दो।।१०।।
अर्थ-इस तरह वंदना किये गये अर्हंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु, जिनधर्म, जिनवचन, जिनचैत्य और जिनचैत्यालय ये नवदेवता बुधजन जो गणधर देवादि उनको इष्ट ऐसी मुझे निर्मल बोधि देवें ।।१०।। ”श्रीगौतमस्वामी कृत्रिम—अकृत्रिम जिनप्रतिमाओं की वंदना करते हैं—”
अकृतानि कृतानि चाप्रमेयद्युतिमन्ति द्युतिमत्सु मन्दिरेषु।
मनुजामरपूजितानि वंदे प्रतिबिम्बानि जगत्त्रये जिनानाम्।।११।।
द्युतिकर जिनगृह में अकृत्रिम, कृत्रिम अप्रमेय द्युतिमान।
नर सुर पूजित भुवनत्रय के, सब जिन बिंब नमूँ गुणखान।।११।।
अर्थ- तीन जगत में विद्यमान प्रचुरप्रभा से समन्वित मन्दिरों में स्थित मनुष्यों और देवों द्वारा पूज्य, प्रचुरतर प्रभायुक्त कृत्रिम और अकृत्रिम जिनेन्द्र के प्रतिबिंबों को प्रणमन करता हूँ ।।११।।
द्युतिमंडलभासुराङ्गयष्टी: प्रतिमा अप्रतिमा जिनोत्तमानाम्।
भुवनेषु विभूतये प्रवृत्ता वपुषा प्राञ्जलिरस्मि वन्दमान:।।१२।।
द्युतिमंडल भासुर तनु शोभित, जिनवर प्रतिमा अप्रतिम हैं।
जग में वैभवहेतु उन्हें, वंदूँ अंजलिकर शिर नत मैं।।१२।।
अर्थ- जो तीन भुवन में विद्यमान हैं जिनका शरीर-यष्टि प्रभामंडल से दैदीप्यमान है, ऐसी अर्हंतों की अनुपम प्रतिमाओं को वन्दना करने वाला मैं पुण्य की प्राप्ति के निमित्त शरीर से अंजलि बांधता हूँ अर्थात् ऐसी प्रतिमाओं को हाथ जोड़कर नमस्कार करता हूँ।।१२।।
विगतायुधविक्रियाविभूषा: प्रकृतिस्था: कृतिनां जिनेश्वराणाम्।
प्रतिमा: प्रतिमागृहेषु कांत्याप्रतिमा: कल्मषशान्तयेऽभिवन्दे।।१३।।
आयुध विक्रिय भूषा विरहित, जिनगृह में प्रतिमा प्राकृत।
कांती से अनुपम हैं कल्मष, शांति हेतु मैं नमूँ सतत।।१३।।
अर्थ- जो आयुध, विकार, आभूषणों से रहित हैं। अपने ही स्वभाव में स्थित हैं तथा कान्ति कर अतुल्य हैं ऐसी कृती अर्थात् कृतकृत्य जिनेश्वरों की प्रतिमागृहों में विराजमान प्रतिमाओं को पाप की शान्ति के लिये वन्दन करता हूँ।।१३।।
कथयंति कषायमुक्तिलक्ष्मीं परया शान्ततया भवान्तकानाम्।
प्रणमाम्यभिरूपमूर्तिमंति प्रतिरूपाणि विशुद्धये जिनानाम्।।१४।।
परम शांति से कषायमुक्ती, को कहती मनहर अभिरूप।
भव के अंतक जिन की प्रतिमा, प्रणमूँ मन विशुद्धि के हेतु।।१४।।
अर्थ- उत्कृष्ट शान्तता युक्त होने से कषाय का अभावरूप लक्ष्मी को कहने वाली, जिनेश्वर का जैसा रूप है वैसी मूर्तिमती, ऐसी संसार का नाश कर देने वाले जिनेश्वरों की मूर्तियों को आत्मपरिणामों की निर्मलता होने के लिये नमस्कार करता हूँ।।१४।।
यदिदं मम सिद्धभक्तिनीतं सुकृतं दुष्कृतवत्र्मरोधि तेन।
पटुना जिनधर्म एव भक्तिर्भवताज्जन्मनि जन्मनि स्थिरा मे।।१५।।
दुष्कृतपथ रोधक मम सिद्ध-भक्ति से हुआ पुण्य जो भी।
भव-भव में जिनधर्म हि में, दृढ़ भक्ति रहे फल मिले यही।।१५।।
अर्थ- तीन जगत में प्रसिद्ध अर्हंतों के प्रतिबिंबों की भक्ति करने से जो यह पुण्य मुझे प्राप्त हुआ है जो कि पाप के मार्ग को रोकने वााला है उस समर्थ पुण्य से मेरी भक्ति जन्म-जन्म में जिनधर्म में ही स्थिर होवे ।।१५।। ”चर्तुिणकाय देवों के गृहों में व मध्यलोक के कृत्रिम—अकृत्रिम जिनप्रतिमाओं की वंदना करते हैं—”
अर्हतां सर्वभावानां दर्शनज्ञानसम्पदाम् ।
कीर्तयिष्यामि चैत्यानि यथाबुद्धि विशुद्धये ।।१६।।
सब पदार्थवित् दर्श ज्ञान-सम्पत् युत अर्हत् की प्रतिमा।
यथा बुद्धि मनशुद्धि हेतु, गुण कीर्तन करूँ अतुल महिमा।।१६।।
अर्थ- सम्पूर्ण पदार्थ जिनके विषयभूत हैं अथवा परिपूर्ण यथाख्यातचारित्र जिनके विद्यमान है, क्षायिकदर्शन और क्षायिकज्ञानरूप संपदा जिनके मौजूद है ऐसे अर्हंतों के चैत्यों का अपनी बुद्धि के अनुसार परिणामों की निर्मलता के लिए अथवा कर्ममल के प्रक्षालन के लिये कीर्तन करूँगा ।।१६।।
श्रीमद्भावनवासस्था: स्वयंभासुरमूर्तय:।
वंदिता नो विधेयासु: प्रतिमा: परमां गतिम् ।।१७।।
श्रीमद् भवनवासि के गृह में, भासुर जिनमूर्ति स्वयमेव।
परम सिद्धगति करें हमारी, वंदूँ उन्हें करूँ नित सेव।।१७।।
अर्थ- मेरे द्वारा जिनकी वन्दना की गई है जो भवनवासी देवों के दैदीप्यमान भवनों में स्थित हैं जिनका स्वरूप स्वयं भासुररूप है ऐसी प्रतिमाएँ मुझ वंदक को परमगति अर्थात् मुक्ति प्रदान करें।।१७।। ”श्री गौतमस्वामी मध्यलोक के कृत्रिम—अकृत्रिम जिनिंबबों की वन्दना करते हैं—”
यावन्ति सन्ति लोकेऽस्मिन्नकृतानि कृतानि च।
तानि सर्वाणि चैत्यानि वन्दे भूयांसि भूतये।।१८।।
इस जग में जितनी प्रतिमा हैं, कृत्रिम अकृत्रिम सबको।
मैं वंदूँ शिव वैभव हेतु, सब जिनचैत्य जिनालय को।।१८।।
अर्थ- इस तिर्यग्लोक में कृत्रिम और अकृत्रिम जितने प्रचुरतर प्रतिबिंब हैं उन सबको विभूति के लिए वंदन करता हूँ ।।१८।।
ये व्यन्तरविमानेषु स्थेयांस: प्रतिमागृहा:।
ते च संख्यामतिक्रान्ता: सन्तु नो दोषविच्छिदे।।१९।।
व्यंतर के विमान में जिनगृह, उनमें अकृत्रिम प्रतिमा।
संख्यातीत कही हैं वंदूँ, दोष नाश के हेतु सदा।।१९।।
अर्थ- व्यंतरों के आवासों में सर्वदा अवस्थित जो असंख्यात प्रतिमागृह हैं वे मेरे दोषों की शान्ति के लिये होवें ।।१९।।
ज्योतिषामथ लोकस्य भूतयेऽद्भुतसम्पद:।
गृहा: स्वयंभुव: सन्ति विमानेषु नमामि तान् ।।२०।।
ज्योतिष देवों के विमान में, अद्भुत संपत्युत जिनगेह।
स्वयंभुवा प्रतिमा भी अगणित, उन्हें नमूँ निज वैभव हेतु।।२०।।
अर्थ- अनन्तर ज्योतिषी देवों के विमानों में अद्भुत सम्पत्तिधारी अर्हंतों के जो शाश्वत गृह हैं उनको मैं विभूति के निमित्त नमस्कार करता हूँ ।।२०।।
वन्दे सुरतिरीटाग्रमणिच्छायाभिषेचनम्।
या: क्रमेणैव सेवन्ते तदर्चा: सिद्धिलब्धये।।२१।।
सुरपति के नत मुकुटमणि-प्रभ से अभिषेक हुआ जिनका।
वैमानिक सुर सेवित प्रतिमा, सिद्धि हेतु मैं नमूँ सदा।।२१।।
अर्थ- जो देवों के मुकुट के अग्र भाग में लगी हुई मणियों की कान्ति से अभिषेक को चरणों द्वारा सेवन करती हैं अर्थात् जिनके चरणों में वैमानिक देव सिर झुकाते हैं उन वैमानिक देवों के विमान संबंधी प्रतिमाओं को मुक्ति की प्राप्ति के लिये नमस्कार करता हूँ ।।२१।।
इति स्तुतिपथातीतश्रीभृतामर्हतां मम। चैत्यानामस्तु संकीर्ति: सर्वास्रवनिरोधिनी।।२२।।
इस विध स्तुति पथातीत, अन्तर बाहिर श्रीयुत अर्हन्। चैत्यों के संकीर्तन से मम, सर्वास्रव का हो रोधन।।२२।।
अर्थ- इस प्रकार स्तुति के मार्ग को अतिक्रमण करने वाली अर्थात् जिसकी स्तुति इन्द्रादिक देव भी नहीं कर सकते ऐसी अंतरंग और बहिरंग लक्ष्मी को धारण करने वाले अर्हंतों के चैत्यों की स्तुति मेरे सम्पूर्ण आस्रवों को रोकने वाली होवे ।।२२।। ”श्री गौतमस्वामी अर्हंत भगवान को महानदीरूपी तीर्थ बना रहे हैं—”
अर्हन्महानदस्य त्रिभुवनभव्यजनतीर्थयात्रिकदुरित- प्रक्षालनैककारणमतिलौकिककुहकतीर्थमुत्तमतीर्थम्।।२३।। लोकालोकसुतत्त्वप्रत्यवबोधनसमर्थदिव्यज्ञान- प्रत्यहवहत्प्रवाहं व्रतशीलामलविशालकूलद्वितयम्।।२४।। शुक्लध्यानस्तिमितस्थितराजद्राजहंसराजितमसकृत्। स्वाध्यायमंद्रघोषं नानागुणसमितिगुप्ति-सिकतासुभगम्।।२५।। क्षान्त्यावर्तसहस्रं सर्वदया -विकचकुसुमविलसल्लतिकम् दु:सहषरीषहाख्यद्रुततररंगत्तरंगभंगुरनिकरम् ।।२६।। व्यपगतकषायपेâनं रागद्वेषादिदोष-शैवलरहितम् । अत्यस्तमोह-कर्दममतिदूरनिरस्तमरण-मकरप्रकरम्।।२७।। ऋषिवृषभस्तुतिमंद्रोद्रेकितनिर्घोष-विविधविहगध्वानम्। विविधतपोनिधि-पुलिनं सास्रवसंवरणनिर्जरानिस्रवणम्।।२८।। गणधरचक्रधरेन्द्रप्रभृतिमहाभव्यपुंडरीकै: पुरुषै:। बहुभि: स्नातं भक्त्या कलिकलुषमलापकर्षणार्थममेयम्।।२९।। अवतीर्णवत: स्नातुं ममापि दुस्तरसमस्तदुरितं दूरं । व्यवहरतु परमपावनमनन्यजय्यस्वभावभावगभीरम्।।३०।।
अर्हद्देव महानद उत्तम-तीर्थ अलौकिक हैं जग में। त्रिभुवन भविजन तीर्थस्नान से, पापों का क्षालन करते।।२३।। लोकालोक सुतत्त्व प्रकाशक, दिव्यज्ञान जल नित बहता। शील रु सद्व्रत विशाल निर्मल, दो तट से शोभित दिखता।।२४।। शुक्लध्यानमय राजहंस, स्थिर राजत है इस नद में। मंद्रघोष स्वाध्याय विविधगुण, समिति गुप्ति बालू चमके।।२५।। क्षमादि हैं आवर्त सहस्रों, सर्वदयामय कुसुम खिले। लता शोभती दुःसह परीषह, भंग तरंगित हैं लहरें।।२६।। रहित कषाय पेâन से राग-द्वेष आदि शैवाल रहित। रहित मोह कीचड़ से मरणादिक जलचर मकरादि रहित।।२७।। ऋषि प्रधान के मधुर स्तव हों, विविध पक्षि के शब्द सदृश। विविध साधुगण तट हैं आस्रव, रोध निर्जरा जल निःसृत।।२८।। गणधर चक्री इन्द्र आदि जो, भव्य प्रवर बहु पुरुष प्रधान। कलिमल कलुष दूर करने हित, भक्ति से यहाँ किया स्नान।।२९।। इस विध श्री अर्हंत महाप्रभु, महातीर्थ गणधर कहते। भविजन पाप मैल क्षालन हित, इसमें अवगाहन करते।। अति पावन यह तीर्थ अन्य से, अजेय अनुपम है गंभीर। मैं स्नान हेतु उतरा हूँ, मम दुष्कृत मल करिये दूर।।३०।।
अर्थ- जो तीन भुवन में निवास करने वाले भव्यजनरूप तीर्थ यात्रियों के पाप कर्म के प्रक्षालन करने में अद्वितीय कारण है, जिसने लौकिक मिथ्या तीर्थों का अतिक्रमण-उल्लंघन कर दिया है, जिसमें लोक और अलोक का सच्चा स्वरूप समझाने में समर्थ ऐसे दिव्य केवलज्ञान या मतिश्रुतादि ज्ञान ही प्रतिदिन बहते हुये प्रवाह हैं, व्रत और शील ही जिसके स्वच्छ और विशाल दो तट हैं, जो शुक्ल ध्यानरूप स्थित ऐसे दीप्त राजहंसों कर शोभित है, जिसमें निरंतर स्वाध्याय पाठ ही मनोज्ञ नाद (शब्द) हैं, जो चौरासी लाख गुण, पंच समिति और तीन गुप्तिरूप सिकता (बालू) से सुशोभित है, जिसमें क्षमागुण ही हजारों आवर्त-लहरें हैं, सम्पूर्ण प्राणियों पर दयाभाव ही खिले हुए पुष्पों से शोभायमान बेल है, दु:सह क्षुधादि परीषह ही शीघ्र इधर-उधर फ़ैलती हुई चंचल तरंगों का समुदाय है, कषायरूप फेन जिसमें नष्ट हो गया है, जो राग-द्वेषादि दोषरूप शैवाल (कांजी) से रहित है, जिसमें मोहरूप कीचड़ का अभाव है, मरणरूप मकरों का समूह नष्ट हो चुका है, ऋषिश्रेष्ठ गणधरदेवादिकों कर बोली गई स्तुतियों के मनमोहक उत्कट शब्द ही नाना प्रकार के पक्षियों के कलरव हैं, नाना भांति के तपोनिधि-मुनि ही किनारा है, जो आते हुए कर्मरूप जल के संवरण और आए हुए कर्मरूप जल के नि:स्रवण से मुक्त है, जिसमें गणधर , चक्रधर, इन्द्र आदि भव्य-पुंडरीक पुरुषों ने पापरूप कलुष मल को दूर करने के लिये भक्तिपूर्वक स्नान किया है, जो बड़ा भारी है, परम पवित्र है, जिनके स्वरूप प्रतिवादियों करके न जीते जा सकें ऐसे जीवादि पदार्थों से जो अगाध है ऐसा अर्हंतरूप महानद का उत्तम तीर्थ पापमल का प्रक्षालनरूप स्नान करने के लिये प्रविष्ट हुए मेरे भी दुस्तर समस्त पापों का व्यवहरण-नाश करे ।।२३-३०।। ”श्री गौतमस्वामी भगवान की वीतरागता का बहुत ही सुंदर वर्णन करते हुये वर्धमान स्वामी की वंदना कर रहे हैं—”
अताम्रनयनोत्पलं सकलकोपवह्नेर्जयात् कटाक्षशरमोक्षहीनमविकारतोद्रेकत: । विषादमदहानित: प्रहसितायमानं सदा मुखं कथयतीव ते हृदयशुद्धिमात्यन्तिकीम्।।३१।। निराभरणभासुरं विगतरागवेगोदया- न्निरंबरमनोहरं प्रकृतिरूपनिर्दोषत:। निरायुधसुनिर्भयं विगतहिंस्यहिंसाक्रमात्, निरामिषसुतृप्तिमद्विविधवेदनानां क्षयात्।।३२।। मितस्थितनखांगजं गतरजोमलस्पर्शनं नवांबुरुहचंदनप्रतिमदिव्यगन्धोदयम् । रवीन्दुकुलिशादिदिव्यबहुलक्षणालंकृतं दिवाकरसहस्रभासुरमपीक्षणानां प्रियम्।।३३।। हितार्थपरिपंथिभि: प्रबलरागमोहादिभि: कलंकितमना जनो यदभिवीक्ष्य शोशुध्यते। सदाभिमुखमेव यज्जगति पश्यतां सर्वत: शरद्विमलचन्द्रमंडलमिवोत्थितं दृश्यते।।३४।। तदेतदमरेश्वरप्रचलमौलिमालामणि— स्फुरत्किरणचुंबनीयचरणारविन्दद्वयम्। पुनातु भगवज्जिनेन्द्र ! तव रूपमन्धीकृतं जगत् सकलमन्यतीर्थगुरुरूपदोषोदयै:।।३५।।
क्रोधाग्नि को जीत लिया नहिं, नेत्र कमल लालिमा प्रभो! नहिं विकार उद्रेक अत: प्रभु, दृष्टि कटाक्ष रहित तुम हो।। मद विषाद से रहित अत:, स्मित मुख सदा रहे भगवन् । कहता है यह मंदहास्य तव, अंतःकरण शुद्धि पूरण।।३१।। रागोद्रेक रहित होने से, बिन आभूषण शोभित हो। प्रकृति रूप निर्दोष तुम्हारा, प्रभु निर्वस्त्र मनोहर हो।। हिंसा हिंस्य भावविरहित से, आयुध रहित सुनिर्भय हो। विविध वेदना के क्षय से बिन-भोजन तृप्त सदा प्रभु हो।।३२।। वृद्धि रहित नख केश प्रभो! रजमल स्पर्श न हो तन को। विकसित कमल सुचंदन सम है, दिव्य सुगंधित देह विभो! रवि शशि वज्र दिव्य लक्षण से, शोभित तव शुभरूप महान। कोटि सूर्य से अधिक चमक, फिर भी दर्शक को प्रिय सुखदान।।३३।। मोहराग से दूषित हितपथ-द्वेषीजन के सुन उपदेश। कलुषमना जन हुए जगत में, शुचि होते वे तुमको देख।। अतिशय युत तव मुख दर्शक, जन को अपने सन्मुख दिखता। शरद् विमल शशि मंडल सम, तव आस्य चन्द्र है उदित हुआ।।३४।। अमरेश्वर के नमस्कार से, मुकुट मणिप्रभ किरणों से। चुम्बित चरण सरोरुह भगवन् ! तव शुभरूप मनोहर है।। अन्य देव गुरु तीर्थ उपासक, सकल भुवन यह अन्ध समान। उन सबको तव रूप पवित्र, करे अरु नेत्र करे अमलान।।३५।।
अर्थ- हे भगवन् जिनेन्द्र ! सम्पूर्ण कोपरूप अग्नियों के क्षय हो जाने से जिसमें नयनरूप उत्पलपत्र कुछ-कुछ लाल हैं या लालिमा रहित हैं, वीतरागता की परम प्रकर्षता के होने से जो कटाक्षरूप वाणों के छोड़ने से रहित है, विषाद और मद की हानि होने से सदा प्रपुâल्लित है ऐसा आपके यथाजातरूप में आपका मुख आपके हृदय की आत्यंतिक शुद्धि को कह रहा है। हे भगवन्! आपका रूप राग के आवेग के उदय के नष्ट हो जाने से आभरण रहित होने पर भी भासुररूप है, आपका स्वाभाविक रूप निर्दोष है इसलिये वस्त्र रहित नग्न होेने पर भी मनोहर है, आपका यह रूप न औरों के द्वारा हिंस्य है और न औरों का हिंसक है इसलिये आयुध रहित होने पर भी अत्यन्त निर्भय स्वरूप है, तथा नाना प्रकार की क्षुत्पिपासादि वेदनाओं के विनाश हो जाने से आहार न करते हुए भी तृप्तिमान् है। आपके नख और केश नहीं बढ़ते हैं वे उतने ही हर समय रहते हैं। जितने केवलज्ञान की उत्पत्ति के समय होते हैं। रजोमल का स्पर्श भी आपके नहीं हैं, आपके रूप में विकसित कमल और चन्दन के सदृश दिव्यगंध का उदय है। आपका यह रूप सूर्य, चन्द्रमा, वज्र आदि एक सौ आठ प्रशस्त- चिन्हों से अलंकृत है तथा हजारों सूर्यों के समान भासुर होकर भी नेत्रों को अत्यन्त प्रिय है। आपके रूप को देखकर मोक्ष के परिपंथी शत्रु ऐसे प्रबल राग, मोह आदि दोषों से कलंकित मनवाला जन-समुदाय अतिशय शुद्ध हो जाता है, जो जगत् में देखने वालों को चारों दिशाओं में सदा सन्मुख ही शरत्कालीन उदयापन्न निर्मल चन्द्रमा के समान दीखता है, देवेन्द्रों के नमस्कार प्रवण मुकुटों की पंक्तियों में जटित मणियों की स्पुâरायमान किरणों से आपके दोनों चरण-कमल आलिंगित हैं ऐसा यह आपका रूप, जैनमत से भिन्न अन्य मिथ्या तीर्थों से भी गुरु—रूप राग-द्वेष, मोहादि दोषों के प्रादुर्भाव से अन्धे हुए सारे जगत को पवित्र करे ।।३१-३५।। ”श्री गौतमस्वामी तीनों लोकों के समस्त कृत्रिम—अकृत्रिम जिनप्रतिमाओं की वंदना करते हुये कहते हैं—”
इच्छामि भंते ! चेइयभक्तिकाउस्सग्गो कओ तस्सालोचेउं । अहलोय-तिरियलोय-उड्ढलोयम्मि किट्टिमाकिट्टिमाणि जाणि जिणचेयाणि ताणि सव्वाणि तीसुवि लोएसु भवणवासिय-वाण-विंतर-जोइसिय-कप्पवासियत्ति चउविहा देवा सपरिवारा दिव्वेण गंधेण, दिव्वेण पुफ्फेण, दिव्वेण धूवेण, दिव्वेण चुण्णेण, दिव्वेण वासेण, दिव्वेण ण्हाणेण, णिच्चकालं अंचंति पुज्जंति वंदंति णमंसंति अहमवि इह संतो तत्थ संताइं णिच्चकालं अंचेमि पुज्जेमि वंदामि णमंसामि दुक्खक्खओ कम्मक्खओ बोहिलाहो सुगइगमणं समाहिमरणं जिणगुणसंपत्ति होउ मज्झं ।
भगवन् ! चैत्यभक्ति अरु कायोत्सर्ग किया उसमें जो दोष। उनकी आलोचन करने को, इच्छुक हूँ धर मन सन्तोष।। अधो मध्य अरु ऊध्र्वलोक में, अकृत्रिम कृत्रिम जिनचैत्य। जितने भी हैं त्रिभुवन के, चउविध सुर करें भक्ति से सेव।।१।। भवनवासि व्यंतर ज्योतिष, वैमानिक सुर परिवार सहित। दिव्य गंध सुम धूप चूर्ण से, दिव्य न्हवन करते नितप्रति।। अर्चें पूजें वंदन करते, नमस्कार वे करें सतत। मैं भी उन्हें यहीं पर अर्चूं, पूजूँ वंदूँ नमूँ सतत।।२।। दुःखों का क्षय कर्मों का क्षय, होवे बोधि लाभ होवे। सुगतिगमन हो समाधिमरणं, मम जिनगुण संपति होवे।।३।।
अर्थ- हे भगवन्! चैत्यभक्ति और तत् संबंधी कायोत्सर्ग किया उसकी आलोचना करने की इच्छा करता हूँ। अधोलोक, तिर्यग्लोक और ऊध्र्वलोक में जो कृत्रिम और अकृत्रिम जितनी प्रतिमाएँ हैं उन सबको तीन लोक में भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष्क और कल्पवासी ये चार प्रकार के देव अपने-अपने परिवार सहित दिव्य गंध से, दिव्य पुष्पों से, दिव्य धूप से, दिव्य चूर्ण से, दिव्य सुगंधि से और दिव्य अभिषेक से सदा अर्चते हैं पूजते हैं वन्दते हैं नमस्कार करते हैं, मैं भी यहीं पर बैठा हुआ वहाँ स्थित प्रतिमाओं को सदा अर्चता हूँ पूजता हूँ वन्दता हूँ नमस्कार करता हूँ, मेरे दु:खों का क्षय हो, कर्मों का क्षय हो, बोधि-रत्नत्रय का लाभ हो, सुगति में गमन हो, समाधिमरण हो, जिनगुणसंपत्ति प्राप्त हो।