वत्से धेनुवत्सधर्मणि स्नेह: प्रवचनवत्सलत्वम्।।१६।।
जैसे गाय अपने बछड़े में अकृत्रिम स्नेह करती है वैसे ही धर्मात्माओं को देखकर उनके प्रति स्नेह से आद्र्रचित्त का हो जाना प्रवचनवत्सलत्व है। जो सहधर्मियों में स्नेह है वही प्रवचन स्नेह है। यहाँ प्रवचन शब्द में चतुर्विध संघ आ जाता है-मुनि, आर्यिका, श्रावक और श्राविका। विष्णुकुमार मुनि का धर्मवात्सल्य प्रसिद्ध ही है। वह आज तक रक्षाबंधन पर्व से उनकी स्मृति ताजी करता रहता है ।
श्री रामचंद्र जी सीता और लक्ष्मण के साथ वंशस्थद्युति नगर में पहुँचे। देखते हैं प्रजा के लोग नगर से निकल-निकल कर कहीं जा रहे हैं, पूछने पर मालूम हुआ कि सामने के इस वंशधर पर्वत पर तीन दिन से रात्रि में इतना भयंकर शब्द होता है कि लोगों के कान के पर्दे फट जाते हैं अत: हम लोग सहन करने में असमर्थ हो सायं को यहाँ से अन्यत्र भाग जाते हैं, पुन: प्रात: वापस आ जाते हैं। ऐसा सुनकर श्रीरामचंद्र ने यह निर्णय किया कि रात्रि में वहाँ रहकर अपने को देखना है कि क्या बात है ? और यहाँ की त्रस्त प्रजा को निर्भय करना है। सीता ने कहा स्वामिन्! जहाँ ये लोग जा रहे हैं अपन भी चले, प्रात: आ जायेंगे। रामचन्द्र ने हँसकर कहा ‘तुम्हें यदि भय लग रहा है तो तुम इन लोगों से साथ चली जावो, प्रात: हमें ढूँढते हुये यहीं आकर मिल लेना।’ पुन: सीता के साथ वे दोनों उस पर्वत पर चढ़ गये। देखते हैं कि वहाँ पर दो मुनिराज उत्तम ध्यान में आरूढ़ हैं। उनके ऊपर अनेकों साँप-बिच्छुओं का उपसर्ग हो रहा है। निर्भय होकर श्रीराम ने उन जन्तुओं को दूर किया। अतीव भक्ति से गद्गद होकर उनकी स्तुति करने लगे- ‘भक्ति से भरी सीता ने निर्झर के जल से देर तक उन मुनियों के चरण धोकर मनोहर गन्ध से लिप्त किये। अनंतर लक्ष्मण के द्वारा तोड़ कर दिये गये निकटवर्ती लताओं के सुगंधित पुष्पों से उनके चरणों की खूब पूजा की ।’ अनंतर इन लोगों ने वीणा बजाकर नृत्य करते हुये खूब गुरु भक्ति की । जब रात्रि सघन हुई तब भयंकर विकराल शब्द होना शुरू हो गया, भूतों के झुण्ड के झुण्ड वहाँ नाचने लगे और मुनियों पर घोर उपसर्ग प्रारंभ हो गया तब श्रीराम ने सीता को दोनों मुनियों के निकट बैठाया और लक्ष्मण सहित उन राक्षसों के साथ युद्ध करने को तैयार हो गये। इन दोनों के वङ्का सदृश बाणों से और उनकी भयंकर टंकार से अग्निप्रभ देव घबरा गया ‘ये बलभद्र और नारायण हैं’ ऐसा समझकर वह वहाँ से भाग गया तब तत्क्षण विक्रियाकृत सारी भयंकर चेष्टायें समाप्त हो गयीं।
उसी समय उपसर्ग दूर होते ही उन युगल मुनियों को केवलज्ञान प्रगट हो गया। हर्ष से भरे चतुर्निकाय देवगण वहाँ आ पहुँचे, गंधकुटी की रचना बन गई । कहने का मतलब यही है कि श्रीरामचन्द्र का धर्मात्मा के प्रति वत्सल भाव क्या था? उसका यह एक उदाहरण है और भी उन्होंने वज्रदन्त राजा की सिंहोदर राजा से रक्षा की थी, आदि अनेकों उदाहरण प्रसिद्ध हैं । मिथिला नगरी के बाहर उद्यान में श्री श्रुतसागर मुनि रात्रि के समय ध्यान में स्थित हैं। अर्ध रात्रि के अनंतर वे ध्यान को विसर्जित कर आकाश की ओर दृष्टिपात करते हैं तो देखते हैं ‘‘श्रवण नक्षत्र वंâपायमान हो रहा है’’ नक्षत्र वंपते हुये देखकर अपने निमित्तज्ञान से विचारते हैं और सहसा बोल पड़ते हैं- हाय-हाय ? पास में ही पुष्पदंत नाम के क्षुल्लक जी बैठे हुये थे वे गुरु के मुख से सहसा हाय-हाय शब्द सुनकर घबरा कर पूछते हैं- ‘‘भगवन् क्या हुआ, क्या हुआ ?’’ श्रुतसागर सूरि कहते हैं- ‘‘मुनियों पर बहुत बड़ा उपसर्ग हो रहा है ।’’ क्षुल्लक जी पूछते हैं- ‘‘प्रभु यह उपसर्ग कहाँ हो रहा है ?’’ सूरि कहते हैं- ‘‘हस्तिनापुर में सात सौ मुनियों का संघ ठहरा हुआ है। उस संघ के नायक श्री अवंâपनाचार्य महामुनि हैं। उस सारे संघ पर पापी बलि के द्वारा यह उपसर्ग किया जा रहा है।’’ क्षुल्लक जी पूछते हैं- ‘‘प्रभु ऐसा क्या उपाय है कि जिससे यह उपसर्ग दूर हो ?’’ सूरि कहते हैं- ‘‘हाँ, एक उपाय है। विष्णु कुमार मुनि को विक्रिया ऋद्धि प्राप्त हो गई है। वे अपनी ऋद्धि के बल से इस उपसर्ग का निवारण कर सकते हैं।’’ क्षुल्लक जी पुन: पूछते हैं- ‘‘भगवन्! वे मुनि इस समय कहाँ पर विराजमान हैं ?’’ सूरि कहते हैं- ‘‘वे उज्जयिनी नगरी के बाहर एक गुफा में स्थित हैं।’’ तब पुन: क्षुल्लक जी विनय से प्रार्थना करते हैं- ‘‘प्रभो! मुझे जाने की आज्ञा दीजिये।’’ गुरु की आज्ञा पाकर पुष्पदन्त क्षुल्लक जी तत्क्षण ही अपनी आकाशगामी विद्या के बल से मुनि विष्णु कुमार के चरण सान्निध्य में पहुँचकर नमोस्तु करते हैं और श्री श्रुतसागर सूरि कथित सारा समाचार सुना देते हैं। तब विष्णुकुमार मुनि आश्चर्य से सोचते हैं- ‘‘अहो! क्या मुझे विक्रिया ऋद्धि हो चुकी है ?’’ इतना सोचकर तत्क्षण ही परीक्षा के लिये अपना हाथ पसारते हैं तो हाथ गुफा के बाहर निकल कर अनेक पर्वत आदि को भेदन करता हुआ बहुत दूर तक चला जाता है। विष्णुकुमार मुनि उसी क्षण विक्रिया ऋद्धि के बल से आकाशमार्ग से वहाँ चलकर शीघ्र ही हस्तिनापुर आ जाते हैं और अपने बड़े भाई राजा पद्म के महल में पहुँच जाते हैं। मुनि विष्णुकुमार को आते हुये देखकर सहसा राजा पद्म उठकर सामने साष्टांग नमस्कार करते हैं पुन: उच्चासन पर विराजमान करते हैं। विष्णुकुमार मुनि कहते हैं- ‘हे भाई! तुम किस नींद में सो रहे हो; तुम्हें पता है क्या, कि शहर में कितना भारी अनर्थ हो रहा है ? अरे! अपने राज्य में तुमने ऐसा अनर्थ क्यों होने दिया ? क्या पहले अपने कुल में किसी ने आज तक ऐसा मुनि घातक घोर पाप किया है ? हाय-हाय! धर्म के अवतार परम शांत ऐसे इन मुनियों पर ऐसा अत्याचार! और वह तुम सरीखे धर्मात्माओं के राज्य में! बड़े खेद की बात है भाई! राजाओं का धर्म तो यही है कि सज्जनों, धर्मात्माओं की रक्षा करना और दुष्टों को दण्ड देना। पर तुमने इससे बिल्कुल उल्टा कर रखा है। समझते हो साधुओं को सताना ठीक नहीं, देखो! जल का स्वभाव ठण्डा है फिर भी वह जब अति गरम हो जाता है तब शरीर को जला देता है इसलिये जब तक तुम पर कोई आपत्ति न आ जावे उसके पहले ही इस उपसर्ग को शांत करवा दीजिये।’’ अपने पूज्य भ्राता श्री विष्णुकुमार मुनि का उपदेश सुनकर, राजा पद्म हाथ जोड़कर कहते हैं-भगवन्! मैं क्या करूँ ? मुझे क्या मालूम था कि ये पापी लोग मिलकर मुझे ऐसा धोखा देंगे। अब तो मैं बिल्कुल विवश हू। मैं कुछ भी नहीं कर सकता क्योंकि मैं वचनबद्ध हो चुका हूँ और सात दिन तक के लिये अपना राज्य दे चुका हूँ। हे महामुने! अब तो आप ही इस कार्य में समर्थ हैं।
आप ही किसी उपाय द्वारा मुनियों का उपसर्ग दूर कीजिये। इसमें आपके लिये मेरा कुछ कहना तो सूर्य को दीपक दिखाने के समान है, अब आप शीघ्र ही कुछ उपाय कीजिये। इतना सुनकर विष्णुकुमार मुनि विक्रिया ऋद्धि के प्रभाव से वामन का अवतार ऐसा ब्राह्मण का वेष बनाते हैं। कन्धे पर जनेऊ लटकाकर, बगल में वेद-शास्त्रों को दबाकर बड़ी मधुरता से वेद की ऋचाओं का उच्चारण करते हुए वहाँ यज्ञ मण्डप में पहुँच जाते हैं। यज्ञ के सभामण्डप में वामन ब्राह्मण को आते देख बलि आदि मंत्री आगे बढ़कर उनका सम्मान करते हुए बहुत ही प्रसन्न हो जाते हैं। बलि राजा मंत्री तो उन पर इतना प्रसन्न हो जाता है कि वह आनंद विभोर हो जाता है पुन: गदगद वाणी में कहता है- ‘‘महाराज! आपने यहाँ पधारकर मेरे यज्ञ की अपूर्व शोभा कर दी है, मैं बहुत ही प्रसन्न हूँ अत: आपकी जो इच्छा हो सो माँगिए । इस समय मैं सब कुछ देने में समर्थ हूँ।’’ वामन विष्णु कहते हैं- मैं एक गरीब ब्राह्मण हूँ। मुझे अपनी स्थिति में ही सन्तोष है। मुझे धन-दौलत की कुछ आवश्यकता नहीं है पर आपका जब इतना आग्रह है तो मैं आपको इतना असंतुष्ट करना भी नहीं चाहता। मुझे केवल तीन पग पृथ्वी की आवश्यकता है। यदि आप इतनी भूमि मुझे दे देंगे तो मैं उसी में अपनी झोपड़ी बनाकर रह जाऊँगा और निराकुलता से वेदाध्ययन आदि करता रहूँगा । बस इसके सिवाय मुझे और कुछ नहीं चाहिये।’’ कृपानाथ! आपको थोड़े में संतोष था सो ठीक, फिर भी आपका तो यह कर्तव्य था कि आप बहुत कुछ माँगकर अपने जातीय भाइयों का उपकार कर देते। भला इसमें क्या बिगड़ जाता ? बलि महाराज भी उन्हें खूब समझाते हैं और पुन:-पुन: कहते हैं- हे वामनावतार! हे भूदेव! आप और अधिक माँगिए । अहो! मेरे कोश में इस समय अतुल रत्न राशि भरी हुई है, कम से कम हमारे वैभव के अनुरूप तो आपको माँगना ही चाहिये किन्तु वामन महाराज पूर्ण रूप से अन्य कुछ माँगने की अपनी अनिच्छा ही रखते हैं और कहते हैं- ‘‘राजन्! यदि देना हो तो दो अन्यथा मैं अन्यत्र चला जाऊँगा क्योंकि मुझे तो मात्र तीन पग धरती ही चाहिये ।’’ तब बलि कहता है- ‘‘हे पूज्य! आप मुझे बहुत शर्मिन्दा कर रहे हैं। आपकी इस तुच्छ याचना से मुझे बहुत ही असंतोष है । फिर भी आप यदि आगे कुछ नहीं माँगना चाहते तो ठीक है जैसी आपकी इच्छा। अच्छा तो आप स्वयं अपने ही पैरों से पृथ्वी नाप लीजिए ।’’ इतना कहकर बलि महाराज जल की भरी स्वर्ण झारी उठाकर दान का संकल्प करते हुए वामन विष्णु के हाथ पर जलधारा डाल देते हैं और संकल्प होते ही वामन वेषधारी विष्णुकुमार पृथ्वी को मापने के लिये अपना पहला पाँव उठाकर सुमेरु पर्वत पर रखते हैं और दूसरा पैर उठाकर मानुषोत्तर पर्वत पर रखते हैं । पुन: तीसरा पैर उठाते हैं और उन्हें आगे बढ़ने को कहीं जगह ही नहीं दिखती है कि उसे वे कहाँ रखें, तब वह तीसरा पाँव आकाश में उठा ही रह जाता है ।
उनके इस प्रभाव से सारी पृथ्वी काँप उठती है, सभी पर्वत चलायमान हो जाते हैं, सभी समुद्र मर्यादा तोड़ देते हैं और उनका जल उद्वेलित होकर बाहर बहने लगता है। देवों के विमान एक से एक टकराने लगते हैं और देवगण सहसा आश्चर्य से चकित हो जाते हैं । पुन: तत्क्षण ही देवगण अपने अवधिज्ञान से सारा समाचार ज्ञात कर वहाँ आकर दैत्यकर्मा बलिराज को बाँधकर मुनि विष्णुकुमार से कहते हैं- प्रभो! क्षमा कीजिये, क्षमा कीजिये, क्षमा कीजिये!. चारों तरफ से आकाश में उपस्थित देवगण एक साथ शब्दों का उच्चारण करते हुए आकाश को मुखरित कर रहे हैं- जय हो, जय हो, जय हो!! महामुनि अकम्पनाचार्य की जय हो, सर्व दिगम्बर मुनियों की जय हो, जैनधर्म की जय हो, महासाधु विष्णुकुमार की जय हो, हे धर्मवत्सल! हे धर्मवत्सल! हे दया सिन्धु! हे धर्म अवतार! क्षमा करो, क्षमा करो, क्षमा करो! दया करो, दया करो, दया करो! हे नाथ! हम सबकी रक्षा करो,अब आप अपनी विक्रिया समेटो, हे देव! अब आप अपना पैर संकुचित करो।’’ यह सब दृश्य देखकर अतीव भयभीत हुआ और कांपता हुआ बलि मुनिराज के चरणों में गिर पड़ता है और गिड़गिड़ाता हुआ कहता है- ‘‘हे कृपानाथ! मुझे क्षमा कर दीजिये, मैं महापापी हूँ, मैं महापापी हूँ, फिर भी अब आपकी शरणागत हूँ, अब आप मेरी रक्षा कीजिये, मेरे ऊपर दया कीजिये, क्षमा कीजिये, क्षमा कीजिये । इस मध्य बलि के साथी बृहस्पति, प्रहलाद और नमुचि ये तीनों मंत्री भी आकर मुनि के चरणों में साष्टांग पड़कर क्षमायाचना करते हैं और पश्चाताप करते हुए अश्रु गिराने लगते हैं । वामन वेषधारी विष्णुकुमार तत्क्षण ही अपनी विक्रिया समेट लेते हैं और मुनि अवस्था में वहाँ खड़े हो जाते हैंं। उसी समय देवगण आकर सभी मुनियों के ऊपर हो रहे सारे उपसर्ग को दूर कर देते हैं। यज्ञमण्डप और अग्नि को हटा देते हैं। जो बेचारे निरपराध पशु हवन की आहुति के लिये वहाँ बाँधे गये थे उन्हें छोड़ देते हैं और सभी को अभयदान की घोषणा कर देते हैं । उसी क्षण राजा पद्म अपने महल से निकलकर वहाँ आ जाते हैं और विष्णुकुमार मुनि के चरणों से लिपट जाते हैं। सात सौ मुनियों के ऊपर हो रहे इस भयंकर अग्निकांड उपद्रव को दूर हुआ देख हर्षाश्रु से मुनि विष्णुकुमार जी के चरणों का मानो प्रक्षालन ही कर रहे हैं । सर्वत्र प्रजा में शांति की लहर दौड़ जाती है । एक साथ सारी प्रजा वहाँ दौड़ आती है और गुरुओं की वंदना और वैयावृत्ति में लग जाती है । उसी क्षण राजा और चारों मंत्री बड़ी भक्ति से संघ के नायक अकम्पनाचार्य की वंदना करने को वहाँ पहुँच जाते हैं और उनके चरणों में साष्टांग पड़कर नमस्कार करते हुए कहते हैं- ‘‘हे भगवन्! हे कृपासिन्धु! नमोस्तु, नमोस्तु, नमोस्तु!’’ पुन: बलि आदि मंत्री नेत्रों से अश्रु झराते हुए लड़खड़ाती हुई वाणी में कहते हैं- ‘‘हे भक्तजनवत्सल! हे करुणा के सागर! हे परम क्षमाशील! हे गुरुदेव! हम पापियों के इस महान् अपराध को क्षमा कीजिये, क्षमा कीजिये ।’ पुन: वे चारों मंत्री गुरुदेव से निवेदन करते हैं- ‘‘हे नाथ! अब हमें आप विश्व हितकारी, परमोपकारी, अहिंसामयी इस जैनधर्म को ग्रहण कराइये ।’’
इतनी प्रार्थना को सुनकर करुणासागर श्री अकम्पनाचार्य गुरुवर्य उन पर दया करके उन्हें सान्त्वना देते हैं, पुन: मिथ्यात्व का त्याग कराकर उन चारों को सम्यक्त्व तथा अणुव्रत देकर उन्हें दुर्जन से सज्जन बना देते हैं । सभी देवगण प्रसन्न होकर बहुत ही भक्तिभाव से अष्टद्रव्य आदि उत्तम सामग्री लेकर श्री विष्णुकुमार मुनि के चरणों की पूजा करते हैं । वे देवगण देवमयी तीन वीणाएँ लाकर उन्हें बजाकर खूब भक्ति पूजा करते हैं पुन: तीनों वीणाओं को यहीं मध्यलोक में दे जाते हैं। जिनके द्वारा भक्त लोग सदा ही उन गुरुओं का गुणानुवाद गाकर पुण्य सम्पादन करते रहें । देवों के द्वारा पूजा विधि सम्पन्न हो जाने के बाद राजा पद्म और हस्तिनापुर शहर के समस्त भक्तगण भक्ति में विभोर होकर नाना प्रकार से श्री विष्णुकुमार के चरणों की, आचार्य अकम्पन गुरू व सात सौ मुनियों की पूजा भक्ति करके, जय-जयकार के नारे से आकाश को गुंजायमान कर देते हैं, पुन: सभी श्रावक-श्राविकाएँ विचार करते हैं । अहो! उपसर्ग विजयी इन मुनियों को अग्नि की आँच व धुएँ से बहुत क्लेश हुआ है। इनके कंठ रुंध गये हैं और शरीर में भी वेदना हो रही है । अब इन्हें ऐसा आहार देना चाहिये कि जिससे जले हुए पीड़ायुक्त से ये सहज में आहार ग्रहण कर सकें ।’’ तभी सब श्रावक सेमई की खीर ही उपयुक्त आहार समझकर घर-घर में वैसा मृदु आहार तैयार कर-करके आहार की बेला में अपने घर के दरवाजे पर मुनियों के पड़गाहन की प्रतीक्षा में खड़े हो जाते हैं। सभी मुनि अपनी-अपनी नियम सल्लेखना को विसर्जित कर आचार्यश्री की आज्ञा से आचार्यश्री के साथ शरीर को संयम का साधन मानकर उसकी रक्षा हेतु चर्या के लिये निकलते हैं। श्रावक आनंद विभोर हो पड़गाहन करना शुरू कर देते हैं- ‘‘हे भगवन्! नमोस्तु नमोस्तु नमोस्तु, अत्र तिष्ठ तिष्ठ-हे गुरुदेव! आपको नमस्कार हो, नमस्कार हो, नमस्कार हो । यहाँ ठहरो, अन्न-जल शुद्ध है।’’ जिन-जिन श्रावकों को एक-दो आदि मुनियों का लाभ मिल जाता है वे अपने को धन्य मान लेते हैं और विधिवत् नवधा भक्ति करके उन्हें मृदु और सरस सेमई की खीर का आहार देकर अतिशय पुण्य संपादन कर लेते हैं। जिन श्रावकों को कोई उत्तम पात्र नहीं मिल पाता है, वे उस दिन पात्रदान की उत्कृष्ट भावना से अन्य व्रती श्रावकों को भोजन कराकर आहारदान की भावना भाते हुए अपने जीवन को सफल करते हैं। जिस दिन इन सात सौ मुनियों की रक्षा हुई थी, वह दिन श्रावण शुक्ला पूर्णिमा का था। तभी से आज तक सभी श्रावकगण इस दिन को रक्षाबंधन के नाम से मनाते चले आ रहे हैं। इतना ही नहीं समस्त भारतवर्ष में सभी सम्प्रदाय के जैनेतर लोग भी किसी न किसी रूप में इस पर्व को मनाते हैं। यह पर्व सामाजिक पर्व के रूप मेंं मनाया जाता है । आज के दिन श्रावकगण तो मुनि, आर्यिका, क्षुल्लक, क्षुल्लिकाओं के चरण सान्निध्य में पहुँचकर उनके मुख से मुनि श्री विष्णुकुमार की कथा सुनकर पुन: मुनि आदि पात्रों को खीर का आहारदान देते हैं ।
जहाँ कहीं मुनि, आर्यिकाओं के चातुर्मास नहीं हैं वहाँ के श्रावक अन्यत्र कहीं गुरुओं के निकट पहुँचकर आहारदान का लाभ लेते हैं और मुनियों को आहारदान देते समय पूर्व मुनियों की स्मृति कर वर्तमान मुनियों में उनकी स्थापना निक्षेप कर उन्हें आहार देकर अपने को पुण्यशाली समझ लेते हैं तथा तदनुरूप विशेष पुण्य का संचय भी कर लेते हैं । यह पर्व वात्सल्य की पवित्रता का द्योतक होने से प्राय: सर्वत्र समाज में बहन-भाई के पवित्र स्नेह के रूप में भी मनाया जाता है। बहन-भाई को मिष्ठान्न आदि का भोजन करा के उनके हाथ में रक्षाबंधन का सूत्र बांधती हैं। उस रक्षा सूत्र को राखी भी कहते हैं। इस प्रकार धर्मात्माओं के प्रति परम धर्म के अवतार श्री विष्णुकुमार ने वात्सल्य भाव को करके जो धर्मात्माओं की रक्षा की है, उसी की स्मृति में इस पर्व को मनाने की पूर्ण सार्थकता है क्योंकि ‘‘न धर्मो धार्मिकैर्विना’’ अर्थात् धर्मात्माओं के बिना धर्म नहीं रहता है । अनंतर विष्णुकुमार मुनि अपने गुरू के पास जाकर विक्रिया से जो वामन वेष बनाया था उसका प्रायश्चित ग्रहण कर घोरातिघोर तपश्चरण कर उसी भव से मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं। वे महामुनि विष्णुकुमार तथा अकम्पनाचार्य आदि सात सौ मुनि हम सबकी रक्षा करें । विशेष- सुमेरु पर्वत जम्बूद्वीप के बीचों-बीच में है। मानुषोत्तर पर्वत पुष्कर द्वीप के मध्य है, चूड़ी के आकार का है। इस मानुषोत्तर पर्वत तक ही मनुष्यलोक की सीमा है । इसके आगे चारणऋद्धिधारी या विक्रियाऋद्धिधारी मुनि तथा विद्याधर मनुष्य नहीं जा सकते हैं इसीलिए श्री विष्णुकुमार मुनि ने विक्रिया से दूसरा पैर मानुषोत्तर पर्वत पर रख कर सारा मनुष्यलोक नाप लिया था । इसी प्रकार जो भी साधु या श्रावक धर्मात्माओं को देखकर स्नेह भाव से ओत-प्रोत हो जाते हैं वे ही समय आने पर इस प्रवचनवत्सल भावना को पाल सकते हैं। यह भावना भी तीर्थंकर प्रकृतिबंध के लिए एक अद्वितीय कारण है । तीर्थंकर प्रकृति के बंध करने वाले कर्मभूमिज मनुष्य ही होते हैं। यदि वे सम्यक्त्व के पूर्व तिर्यंचायु या मनुष्यायु का बंध कर चुके हैं तो इसका बंध नहीं कर सकते । कदाचित् नरकायु के बंध जाने पर भी इसका बंध कर सकते हैं । जैसे कि राजा श्रेणिक ने बंध किया है । केवली या श्रुतकेवली के पादमूल में ही यह प्रकृति बंधती है। यथा-‘प्रथमोपशम सम्यक्त्व में या द्वितीयोपशम सम्यक्त्व में, क्षायिक अथवा क्षायोपशमिक सम्यक्त्व में स्थित हुये जीव असंयत सम्यग्दृष्टि, देशव्रती, महाव्रती अथवा अप्रमत्तमुनि हों, कर्मभूमिज मनुष्य केवली या श्रुतकेवली के पादमूल में ही तीर्थंकर प्रकृति का बंध प्रारंभ करते हैं । इस तीर्थंकर प्रकृति का उदय तेरहवें गुणस्थान में ही होता है। तब वे अपनी दिव्यदेशना से असंख्य जीवों को मोक्षमार्ग का उपदेश देते हैं ।
नोट – इन सोलहकारण भावनाओं के नाम तत्त्वार्थसूत्र के आधार से हैं । षट्खंडागम ग्रंथ में इन भावनाओं के नाम में कुछ अंतर है ।